।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.11 II Additional II
।। अध्याय 10.11 II विशेष II
।। प्रेम और भक्ति ।। विशेष – गीता 10.11 ।।
इन दो श्लोक 10.10 और 10.11 में ह्रदय में भरे प्रेम की पराकाष्ठा है। जिस श्रद्धा एवम विश्वास के साथ भक्त परमात्मा की समर्पित भाव से भजते है उसे ही प्रेम कहते है। जहां कुछ पाना नही है, कुछ चाहना या कामना नहीं। बस स्मरण एवम समर्पण।
अगर भक्ति संसारिक वस्तुओं की इच्छा के लिए की जा रही हो तो वो भक्ति ही नहीं है| वो तो एक व्यापार है। लेकिन अगर भक्ति प्रभु प्रेम के लिए की जा रही हो तो वो सर्वोत्तम है। जब भक्ति में प्रेमरस सम्मिलित होता है तभी वो परिपूर्ण होती है। अगर मन में प्रभु के लिये प्रेम है तो हमारे कदम अपने आप ही भक्ति मार्ग की ओर बढ़ जाते हैं । इसलिए सच्ची भक्ति और प्रेम का सीधा सम्बन्ध है।
भक्ति अगर प्रेम रहित हो तो वो भक्ति नहीं समय व्यतीत करने का एकमात्र जरिया बन जाता है। ध्रुव ने भक्ति की तो प्रभु को सामने देखकर कुछ मांगने की आवश्यकता ही नहीं रह गयी। प्रभु को देखकर वो जिस उद्देश्य से भक्ति करने चला था वो ही भूल गया । केवल प्रभु प्रेम की लालसा मन मैं रह गयी थी। भक्ति और प्रेम मिलकर ज्ञान उत्पन्न करती है और जन्म मरण रुपी सांसारिक चक्र से मुक्ति दिलाती है।
कबीर जी ने भी कहा है – प्रेम प्रेम सब कोई कहे ,प्रेम न चिन्हे कोई, जा मार्ग हरी जी मिले,प्रेम कहाये सोइ।
भक्ति प्रेम की चरम सीमा है। ‘सा त्वस्मिन परम प्रेम रूपा’ -अवतार के लिए परम प्रेम ही भक्ति है। आप भगवान पे अधिकार नहीं कर सकते। साधारण प्रेम सम्बन्धों में आप किसी से प्यार करते हो और बदले में वैसा ही चाहते हो। आप भगवान पर अधिकार का दावा नहीं कर सकते। उस अनंत चेतना के लिए प्रेम भक्ति है।
संत नारद कहते है,”योग चित्त वृत्ति निरोध” अर्थात योग का मतलब है जो आपके मन की प्रवृतियों को शांत करे। ‘तथा द्र्श्तु स्वरूपे अवस्तनम ‘अर्थात योग व्यक्ति का वह कौशल है जिस से वह दृश्य की बजाय द्रष्टा में स्थिर रहता है’ – भीतर गहरे जा कर द्रष्टा में स्थिर रहना। ऐसे विचार से ध्यान लगने लगता है। तब समाधि आरम्भ होती है। आप का मन पूरी तरह से शांत हो जाता है। एक क्षण के लिए आप पूरी तरह अस्तित्वहीन और शून्यता का अनुभव करते हो।
आत्मा वैसे तो निराकार और स्वतंत्र बंधन मुक्त ही है, किंतु मन के कारण वह आबद्ध हो जाती है। भगवान तो मृत्यु के पूर्व ही मुक्ति देते हैं, प्रभु प्रेम में ह्रदय का द्रवित होना ही तो मुक्ति है। प्रभु प्रेम में संसार को भूलना ही तो मुक्ति है, मन मरा की मुक्ति मिल गई। मृत्यु के बाद ही नहीं मृत्यु के पूर्व भी मुक्ति मिल सकती है, जो मृत्यु के पहले ही मुक्ति नहीं पा सकता है, उसे मृत्यु के बाद मुक्ति मिलना बड़ा कठिन है।
जब भगवान् के नाम, रूप, लीला का स्मरण होते ही आँखों से अश्रुपात तथा शरीर में रोमांच होने लगे, वाणी गदगद हो जाये, कंठ अवरुद्ध हो जाये तो उसे प्रेम की दशा समझनी चाहिए ।।
ऐसे प्रेमी भक्तों को (उन के न चाहने पर भी और उन के लिये कुछ भी बाकी न रहने पर भी) भगवान् समता और तत्त्वबोध देते हैं। यह सब देने पर भी भगवान् उन भक्तों के ऋणी ही बने रहते हैं। भागवत में भगवान् ने गोपियों के लिये कहा है कि मेरे साथ सर्वथा निर्दोष (अनिन्द्य) सम्बन्ध जोड़नेवाली गोपियों का मेरे पर जो एहसान है, ऋण है, उसको मैं देवताओं के समान लम्बी आयु पाकर भी नहीं चुका सकता। कारण कि बड़े बड़े ऋषिमुनि, त्यागी आदि भी घर की जिस अपनापन रूप की बेड़ियों को सुगमता से नहीं तोड़ पाते, उन को उन्होंने तोड़ डाला है । भक्त भगवान् के भजन में इतने तल्लीन रहते हैं कि उन को यह पता ही नहीं रहता कि हमारे में समता आयी है, हमें स्वरूप का बोध हुआ है। अगर कभी पता लग भी जाता है तो वे आश्चर्य करते हैं कि ये समता और बोध कहाँ से आये वे अपन में कोई विशेषता न दीखे इस के लिये भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि हे नाथ आप समता, बोध ही नहीं, दुनियाके उद्धार का अधिकार भी दे दें, तो भी मेरे को कुछ मालूम नहीं होना चाहिये कि मेरे में यह विशेषता है मैं केवल आप के भजन चिन्तन में ही लगा रहूँ।
राधा इस प्रेम का प्रतीक है, परमात्मा उस के ऋणी है, इसलिये परमात्मा के नाम से ज्यादा राधा का स्मरण किया जाता।
प्रेम, श्रद्धा, विश्वास, स्मरण और समर्पण ऐसे दैवीय गुण जब प्राकृतिक व्यक्ति से जुड़ जाते है तो मानवीय कमजोरियों काम, वासना, लोभ, स्वार्थ, राग के कारण मलीन हो जाते है। माँ की ममता चाहे अत्यंत उच्च कोटि की हो, किन्तु वह उस के जन्मे शिशु के प्रति ही होती है, पति-पत्नी का प्रेम कितना भी समर्पित भाव का हो, वह शारीरिक आवश्यकताओं से जुड़ा होता है। मित्र का प्रेम, देश का प्रेम, समाज और धर्म के प्रति प्रेम किसी न किसी सामाजिक दायित्व या कारण से जुड़ा होता है, जिस के कारण जैसे ही वह कारण समाप्त होता है, प्रेम भी समाप्त हो जाता है।
आज के युग में जब प्रेम को मनुष्य के प्रेम से देखा जाता है तो कृष्ण और राधा के ऐसे अनेक चित्रण सामने आते है, जो परमात्मा के प्रति प्रेम, श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक नही हो सकते। मानवीय प्रेम से ओत-प्रोत हो कर जब भजन या कीर्तन होता है, वह शुद्ध, सात्विक एवम आत्मीय न हो कर कुछ न कुछ मात्रा में प्राकृतिक ही होता है।
पति के रूप में मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम, राधा एवम गोपियों के रूप में कृष्ण के प्रति प्रेम, कीर्तन-भजन में नाम स्मरण के रूप में चैतन्य महाप्रभु और सूरदास का प्रेम, स्वामी के रूप में हनुमान जी का प्रेम, सखा के रूप में अर्जुन का प्रेम आदि ऐसे अनेक उदाहरण है, जिस में प्रत्युत्तर में किसी को किसी भी प्रकार की कोई कामना या इच्छा नही थी। यह प्रेम अहम से ऊपर, सुध-बुध खो देने की सीमा तक था। कोई अपना आस्तित्व ही नही। यही समर्पण की वह सीमा है, जहां परमात्मा को विवश हो कर अपने जीव का योगक्षेम वहन भी करना पड़ता है और उस को बुद्धि एवम ज्ञान से प्रकाशित भी करना पड़ता है। वह भक्त परमात्मा में लीन होने का अधिकारी एवम ज्ञान योग में कठिन योगाभ्यास, धारणा, ध्यान और समाधि से प्राप्त ब्रह्मसन्ध के बराबर का ज्ञानी हो जाता है।
कुछ लोगो ने इस प्रेम को नर और नारी के प्रेम से जोड़ने की चेष्ठा की है किंतु यह प्रेम वो है ही नही। जीव परमात्मा का अंश है और परमात्मा का अंश जब पूर्ण परमात्मा स्वरूप हो, निश्छल, बुद्धियुक्त या समभाव तो उस का गुण ही है, यही प्रेम है। जो राधा के प्रेम को नर-नारी के स्वरूप में देखते है वो स्वयं विभेद में है। यही इन दो श्लोक में प्रेम का सार है। प्रेम आत्मिक बिना को रिश्ता बनाये निस्वार्थ और समर्पण का नाम है, यही जब सांसारिक हो तो योगमाया है, जो सांसारिक प्रेम में परमात्मा को खोजते है, वह योगमाया से प्रभावित लोग है।
जब मन मे छल-कपट, लोभ- स्वार्थ, काम- क्रोध आदि भी हो, किन्तु इन के प्रति वितृष्णा उत्पन्न होने मात्र से, कोई यदि भजन- कीर्तन, नाम जप आदि शुरू कर देता है, तो परमात्मा अनुकंपा कर के उस का योगक्षेम वहन करते है और शनैः शनैः उस के हृदय से आसुरी वृतियों को नष्ट भी करते हुए उस को ज्ञान देते है, अंगुलीमार और बाल्मीकि इस के उदाहरण है। किंतु जब कोई कपट को धारण कर के भक्ति करता है तो उस की मुक्ति के लिये परमात्मा ही उसे वह मार्ग दिखाते है, जिस से वह अपनी आसुरी वृतियों में सफल न हो सके।
भक्तियोग के इस मार्ग को गीता में सम्मलित करने का अभिप्राय यही है कि कर्म करते हुए भी हम अपने अहम, कामना और आसक्ति से दूर हो कर परमात्मा द्वारा निर्देशित कर्म को समझकर करे। भक्ति योग कही पर भी कर्म को न करने के लिये प्रेरित नही करता, इसलिये अर्जुन के युद्ध से विमुख हो कर सन्यास लेने की बात को, भक्ति योग से भी सन्यास की भांति समर्पित हो कर कर्म करने के प्रेरित किया गया है और अर्जुन को अपने स्वजनों से प्रेम था, उस का यही प्रेम, यानी मोह, कर्तव्य पालन करने में, उस की कमजोरी बन कर उभरा। प्रेम का सही स्वरुप अर्थात मानवीय और आध्यात्मिक मोह को भक्तियोग द्वारा यही बताया गया है, कि प्रेम कर्तव्य पालन में कमजोरी का नाम नही है, यह कमजोरी तभी है जब स्वार्थ, कामना और आसक्ति के साथ हो, निस्वार्थ प्रेम परमात्मा भी स्वीकार करता है। वह भक्त को ज्ञान से प्रकाशित करता है, जिस से वह अपने कर्मो को सहज रूप से भोग सके और आगे निष्काम कर्म करता हुआ, कर्मफलों से मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त हो। यही भक्तियोग में प्रेम है। जीव और परमात्मा का आपसी संबंध भी यही है। यही जन सामान्य के लिये मुक्ति का मार्ग है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता विशेष 10.11 ।।
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