।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 05.29 ।। Additional II
।। अध्याय 05.29 ।। विशेष II
।। गीता के अध्ययन से अध्यात्म की यात्रा कैसे शुरू होगी यह चिन्तन का विषय है।। विशेष 5.29।।
प्रस्तुत अध्ययन बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी विषय एकाउंट्स की पुस्तक को पढ़ना, देश के कानून एवम एकाउंट्स की पेचीदियो को समझना एवम व्यापार के अनुसार उस को उपयोग में ला कर उपयोगी बनाना। व्यवसायिक या जीविका अध्ययन मे आगे चार पैसे भी कमाई भी होती है।
जन्म से हम अधिकांशत: अतिभौतिकवाद में जीना शुरू कर देते है जिस का अर्थ है कि जो भगवान ने जीवन दिया है उसे कैसे अधिक से अधिक सुख और आनंदमय व्यतीत कर सके। इस के पढाई, शादी, परिवार, पद, प्रतिष्ठा और धन में ही जीवन उलझ जाता है। किंतु बीच बीच में प्रकृति यह भी अहसास दिलाती रहती है कि संसार की घटनाओं में हमारा नियंत्रण सीमित है। उसे को नियंत्रित कर रहा है उस को प्रसन्न रखो तो तुम्हारा उद्धार भी होता रहेगा। इसलिए पूजा पाठ, यज्ञ, दान, व्रत और उपवास इत्यादि में हम सांसारिक सुखों को या मृत्यु के बाद स्वर्ग आदि की अपेक्षा रखते है।
वैसे भी कहते है दो जून की रोटी और पारिवारिक जिम्मेदारियां भी जीव को इसी संसार में उलझा देती है। इस बीच यदि अहंकार बढ़ जाए तो समझो उस जीव का बेड़ा गर्क ही हो गया, फिर वह आसुरी प्रवृति में हिंसा और अनैतिक कामों में भी सुख महसूस करने लगता है।
किंतु संसार के इस गतिमान चक्कर में कभी कभी किसी संत या सनातन पुरुष की संगत मिलने से आध्यात्मिक ज्ञान में भागवत, गीता, राम चरित मानस आदि ग्रंथों को समझने और पढ़ने का अवसर मिल जाता है।
किन्तु गीता के अध्ययन के बाद भी इस का ज्ञान हमारे अंतःकरण को नही छू पाता और बाह्य मष्तिष्क में सम्मलित रहता है और उस के लिए व्यावसायिक बुद्धि से हम अपने सम्मान या धन या पद की अपेक्षा रखते है, यह हमारा ज्ञान का अहंकार ही है। जैसे गीता पढ़ने से हम अन्य पुरुषो से श्रेष्ठ जीव हो गए। क्योंकि जिस बाह्य ज्ञान पर हम अपना अधिकार दिखा रहे है, वह मिथ्या अहम ही अहंकार है। इसी अहंकार से ही प्रकृति अपने सत-रज-तम गुणों के क्रिया करते हुए जीव को भ्रमित करती रहती है। जीव ज्ञान का व्यवसायिक करण करने में लग जाता है।
जन्म लेते ही साथ कुछ नही लाते, यह सम्पूर्ण प्रकृति, धरती, आकाश, जल, सागर, सूर्य, चंद्र एवम तारे आदि सभी अपना अपना कार्य इस सृष्टि के लिये करते है किंतु जीव इन सब मे मैं, मेरा और अपना खोजता है। मेरा घर, मेरा खेत, मेरी दुकान, पत्नी, बच्चे, माँ-बाप, दोस्त आदि आदि। इस अनन्त को सीमित कर लेता है। यह अहम है अर्थात जो अपना है नही, किन्तु उस पर अपने होने का अधिकार दिखाना। भला कौन सी वस्तु उस के पास रह पाती है, जाता तो खाली हाथ ही है। अहम का अर्थ ही मिथ्या, जो नही है, उसे अपना मानना।
सुबह चाय की चुस्की के साथ टीवी या अखबार में हम दुर्घटना या मृत्यु के समाचार को पढ़ते है और अफसोस भी व्यक्त करते है। किंतु किसी जान पहचान वाले की मृत्यु का समाचार हो तो संवेदना का स्तर उस के साथ की जान पहचान के अनुसार बढ़ जाती है किंतु चाय नही छूटती और यदि यह मृत्यु घर, परिवार में हो तो शायद चाय पीने की भी सुध नहीं रहे। ऐसे ही अच्छी गाड़ी को गर्व से कहते है कि मेरी है किंतु गाड़ी तो गणिका जैसी है, वह कभी आप को मेरा नही कहती। जो चलाए, वह उस की हो जाती है। तो संसार की चीज से हम ही बंधते है, वस्तुएं कभी नहीं बंधती।
अहम का अज्ञान कितना शक्तिशाली है कि हम अपने ज्ञान का भय भी मृत्यु के समान दिखता है। पता नही, ज्ञान होने से मेरा ‘मैं’ नही रहेगा तो फिर इस नाम, शरीर, परिवार, मित्र, संपति और जग में कमाई ख्याति का क्या होगा। अपने को अंधेरे और झूठ के साथ रखने का कारण अहम ही है। यही अहम वहम से जुड़ गया। क्योंकि अहम को अपने शास्वत न होने का पता है, इसलिये वह वेद, शास्त्र, गीता का अध्ययन करता है, अपने सांसारिक ज्ञान में वृद्धि करता है और जगत को बतलाता है, देखो मुझे भी यह सब पता है, मैने भी ब्रह्म को पढ़ा है। ठीक दुर्योधन की भांति, उसे भी अहम था कि वह योद्धा है जिसे जीतना दुर्गंम है, जो ज्ञान को जानता है, लोगो को सुनाता है , किन्तु मुक्त होने के लिये मनन नही करता। वह अपनी प्रवृति से मजबूर है, उस ने अपने को संसार के खूंटे से झूठ-मुठ का बांध लिया है, किन्तु मानता नही क्योंकि अहम का अहंकार उसे मानने से मना कर देता है।
कान वही सुनते है जो शब्द या वाक्य उस में प्रवेश करते है, और उस के सुने शब्दो को मन ग्रहण करता है और बुद्धि को भेज देता है। मन और बुद्धि यदि व्यवसायिक है तो वह उस का अपनी कामना और आसक्ति के अनुसार उपयोग करती है। किंतु यदि जीव विवेक का उपयोग करे तो सुने, देखे और अनुभव किए शब्दो पर मनन से निर्णायक कार्य कर सकती है। इस लिए ज्ञान में श्रवण के बाद मनन करना आवश्यक है। किंतु मनन से निश्चयात्मक स्थिति तक नही पहुंच पाते तो निदिध्यासन द्वारा पहुंचा जा सकता है।
मनन और निदिध्यासन ज्ञान के संशय का निवारण भी करता है और व्यक्ति को अतिभौतिकवाद में फसा पड़ा होता है, उस से उसे सही मार्ग में लाता है। इस के ध्यान द्वारा चिंतन आवश्यक है और इसलिए युद्ध भूमि में अर्जुन के संशय के निवारण के लिए संपूर्ण ज्ञान को भगवान अध्याय 6 से शुरू करते है जो ज्ञान के अध्याय 7 से 12 की पृष्ठ भूमि है।
अध्याय 5 में भगवान श्री कृष्ण उस मनुष्य के गुणों का वर्णन श्लोक 17 से शुरू करते है जिस ने ब्रह्म को जीते जी प्राप्त कर लिया हो। इस ब्रह्मसन्ध पुरुष का समभाव, स्थितप्रज्ञ, आत्मा में ही चिरआनन्द लेना एवम बाह्य इन्द्रीयजनित सुखों में कोई कामना या आसक्ति न रखना, यतात्मान, संदेह या संशय रहित, शरीर-मन-इन्द्रिय-बुद्धि पर नियंत्रण जिस से राग-द्वेष और काम-क्रोध के वेग को संभाला जा सके और मनुष्य सर्वभूत हिते रहना शुरू करे जिस से अहम भी न उत्पन्न हो।
अहंकार मनुष्य को ब्रह्म से पृथक रखता है क्योंकि यह प्रकृति प्रदत्त कर्ता भाव है, जो ‘मैं’ के स्वरूप में प्रकट होता है।
अहंकार की नींव मिथ्या धारणा पर है अर्थात अज्ञान पर है। मैं का क्या अर्थ ले सकते है, शरीर – यह परिवर्तन शील एवम क्षय को प्राप्त है। बौद्धिक ज्ञान – जब तक अन्तकरण से नही उपजा, यह भी किसी से प्राप्त ज्ञान है और अंतःकरण से यदि प्राकृतिक ज्ञान है, तो पहले से ही था। संपत्ति कभी भी स्थायी या मनुष्य के साथ नही जाती। अतः जिसे मनुष्य अपनी मान कर अहंकार करता है, वह उस का मिथ्या ज्ञान का ही अहंकार है।
ज्ञान से भ्रम का अध्यास होना चाहिये। जिसे हम सोना मानते है, वह परखा जाना चाहिये कि सोना है कि नही। जिस मजहब से या मत से, धर्म से हम मुक्ति मानते है और अन्य मजहब, धर्म या मत से हम नही मानते, वह ज्ञान द्वारा अपने अध्यास से दूर होगा। अध्यास से वस्तु, धर्म, मत, मजहब नही बदलता, वरन ज्ञान उत्पन्न होता है कि वह वास्तव में क्या है। जिस से अहम, कामना या आसक्ति है, इन सब का ज्ञान से अध्यास होना चाहिए। अहम का भी ज्ञान से जब तक अध्यास नही होगा, हम किंतने भी ग्रन्थ पढ़े, गीता पढ़े, उच्च कोटि के वाक्यो का उच्चारण करे, अहम का अज्ञान नष्ट नही होगा।
ज्ञान से अहंकार का अध्यास होने से उस वस्तु, पद, स्थिति में जो मिथ्या अपने होने का भ्रम है, वह समाप्त होता है। बदलता कुछ नही, जो है, वह वही रहता है किंतु उस के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है। भ्रम के मिटने से अन्तकरण का अज्ञान समाप्त होता है, जिस से अहंकार भी अहम के साथ समाप्त हो जाता है। यही अध्यास हमे ब्रह्म बोध करवाता है कि हम जो अपने को सोच रहे है, वो हम नही है। जो हम है, उस का ज्ञान होना ही, तत्वदर्शन है। फिर बदलता कुछ नही, किन्तु कर्म करते समय भाव बदल जाते है।
अतः गीता अध्ययन के अध्यात्म से जीवन में बदलता कुछ नही, परिवर्तन दृष्टिकोण में होता है। जिस कार्य को हम अहम, कर्ता भाव और भोक्ता भाव से करते आए है, वही कर्म हमे निष्काम, निरासक्त और अकर्ता भाव से करने होते है। हमारा उद्देश्य अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है किंतु कर्म का उद्देश्य लोभ, मोह और ममता की अपेक्षा कर्तव्य कर्म और लोकसंग्रह का हो जाता है। जो क्रियाएं ईश्वरीय शक्ति से होता है और जीव के अधिकार क्षेत्र से बाहर है, वह ईश्वर का प्रसाद समझ कर स्वीकार करने की प्रवृति में आ जाता और हम धीरे धीरे शांति और आनंद की ओर बढ़ने लगते है।
अब पुनः उसी प्रश्न पर आ जाये कि गीता का अध्ययन – मात्र अध्ययन है या अध्यात्म। कभी विचार करे, क्या आप सभी कार्य सजग मष्तिष्क से करते है, क्या सभी विचार आप स्वयं उत्पन्न करते है। उत्तर होगा,नही। चेतना में सुप्त एवम अवचेतना भी रहती है, जो प्रारब्ध, संचित कर्म एवम देखने-सुनने-पढ़ने एवम अनुभव के आधार में हमारे मन-मष्तिष्क दिलो दिमाग मे रहती है और कभी भी, कंही भी जाग्रत होती है। सुविचार हमारे मन को क्यों प्रभावित करते है, इस का यही कारण है। इसलिये गीता के अध्ययन से अध्यात्म की नींव तो रखी ही जा रही है। यह नींव पर आत्म ज्ञान की इमारत कब खड़ी हो जाये, इस के थोड़ा प्रयास या प्रेरणा भी परब्रह्म से ही मिलेगी। जीव का मार्ग हमेशा मुक्ति की ओर ही होता है, यह कितनी लम्बी यात्रा है, इस को कैसे और किस प्रकार जल्दी तय करना है, इस का एक मात्र रास्ता मनुष्य जन्म में ही मिलता है, जहां कर्म का अधिकार है। बाकी जन्म तो कर्म के भोग ही होते है।
अहंकार वस्तुतः अज्ञान ही है। इस के हम शंकराचार्य जी के कुछ वचन भी पढ़ते है। अथर्व-श्रुति की महती वाणी कहती है– यह विश्व सबकुछ ब्रह्म ही है– इसलिए यह विश्व ब्रह्म-मात्र ही है, क्योंकि अधिष्ठानसे आरोपित वस्तु की प्रथक् सत्ता हुआ ही नहीं करती।।
यदि यह जगत् स्वरूप: सत्य होता, तो उसका कभी नाश नहीं होता और इससे वेद तथा भगवान का(गीता की कही) भी मिथ्यात्व प्रमाणित हो जाता। अत: जगत् को सत्य मानने से उत्पन्न होने वाले ये तीनों दोष सत्पुरुषों के लिये शुभ और हितकर नहीं हैं।।
‘तत्(वह/ब्रह्म) और ‘त्वम्'(तुम/जीव) के बीच जो भेद है, वह वास्तविक नहीं, अपितु उपाधि द्वारा कल्पित मात्र है। ईश्वर की उपाधि महत् आदि तत्वों की कारणभूत ‘माया’ है और जीव की उपाधि ‘पंचकोश’ है।।
आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाने पर भी, ‘मैं कर्ता और भोक्ता हूँ ‘–ऐसी जो दृढ तथा बलवती अनादि वासना रह जाती है, वही संसार-बन्धन का हेतु है। इस बन्धन को अन्तर्मुखी दृष्टि की सहायता से, अपने आत्मस्वरूप में रहते हुए, प्रयत्नपूर्वक दूर करना चाहिए। संसार में वासना की निवृत्ति को ही मुनियों ने मुक्ति कहा है। ।
स्थूल-शरीर में व्याप्त हुई अहंबुद्धि को नित्यानंदस्वरूप चिदात्मा में स्थित करके, सूक्ष्म-शरीर में भी अहंता को त्याग कर, हमें सर्वदा अद्वैत-स्वरूप में रहना है। ।
मनुष्य के संसार-बन्धन की प्राप्ति के कारणरूप अनेक बाधाएं दीख पड़ती हैं, उन सबका मूल कारण अहंकार–मैं, मेरा बोध– ही है; क्योंकि अन्य समस्त अनात्मभावों — लोभ,क्रोध,मोह आदि– का प्रादुर्भाव इसी से होता है। ।
जबतक इस दुष्ट-अहंकार से आत्मा का सम्बन्ध तबतक उससे विपरीत लक्षणवाली मुक्ति की बात को लेशमात्र भी नहीं समझा जा सकता है। ।
अत्यंत भ्रान्तिपूर्ण तमोगुणी बुद्धि के द्वारा उत्पन्न यह भाव कि ‘ यह शरीर मैं हूँ ‘ , इसका पूर्णतया विनाश हो जाने पर ब्रह्म में सभी बाधाओं से मुक्त आत्मभाव की अनुभूति होती है। ।
ब्रह्मानंदरूपी परमधनन को अहंकाररूप महाभयंकर सर्प ने अपने सत्ता, रज,तमरूप तीन प्रचण्ड फनों से ढककर छिपा रखा है। धीर-विवेकी साधक श्रुतियों के उपदेशानुसार प्राप्त ज्ञानरूप चमचमाता हुई तलवार से इस सर्प के तीनों मस्तकों को काटकर उसका नाश करके ही, वह साधक उस परम आनंददायिनी सम्पदा ( ब्रह्मानंद) का भोग करने में समर्थ हो सकता है। ।
जो अहंता-बुद्धि परिवर्तनशील है, अपनी सहज चिदानंदरूप- स्थिति को चुरानेवाली है, आत्मा के प्रतिबिम्ब को छिपानेवाली है, कर्त्तव्य में अहंकार रखनेवाली है, हमें उसे त्याग देना है। क्योंकि इसके अध्यास से ही हमें चैतन्यमूर्ति-आनंदस्वरूप-अन्तरात्मा को जन्म -मृत्यु-जरा आदि अनेक दुःखो से परिपूर्ण यह संसार-बन्धन प्राप्त हुआ है। ।
हम सदा एकरूप चैतन्यमय , सर्वव्यापी, आनन्दस्वरूप, पवित्र कीर्तिवाले, अविनाशी आत्मा हैं । हमें अहंकार के अध्यास हुए बिना किसी भी प्रकार से संसार-बन्धन की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए हम अहंकार रूपी शत्रु को विज्ञानरूपी महाखड्ग से छेदनकर , स्पष्ट रूप से प्रकट होने वाले आत्म-साम्राज्य -सुख का भोग करें। ।
गीता के 18 अध्याय त्रि षष्ठी अर्थात 6 – 6 अध्याय में तीन भाग में बांटा गया है। जिस का आधार है तत् त्वम असि है।त्वं अर्थात जीव को अपने अर्थात मैं, अहम, कामना, आसक्ति आदि का ज्ञान प्रथम छह अध्याय में, फिर तत् अर्थात प्रकृति और ब्रह्म का ज्ञान अगले छह अध्याय में और असि अर्थात जीव और ब्रह्म के संबंधों का ज्ञान अंतिम छह अध्याय में है। इसे पुनः हम आगे भी पढ़ेंगे। किंतु गीता से अध्यात्म की यात्रा बिना मनन के पूर्ण नही होती। इसलिए जो जीव अतिभौतिकवाद में लिप्त होते है, वे शीघ्र की निराश हो गीता अध्ययन छोड़ने लगते है क्योंकि इस के अध्ययन से उन्हें कोई आर्थिक लाभ नहीं दिखता।
यहां मैं वेदव्यास जी महाभारत स्वर्गारोहण के श्लोक को लिखना चाहूंगा।
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च। संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे।।
मनुष्य इस जगत में हजारों माता – पिताओ तथा सैकड़ों स्त्री पुत्रों के संयोग वियोग का अनुभव कर चुके है, करते है और करते रहेंगे।
हर्षस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च। दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्।।
अज्ञानी पुरुष को प्रतिदिन हर्ष के हजारों और भय के सैकड़ों अवसर प्राप्त होते रहते है किंतु विद्वान पुरुष के मन पर उन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे। धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते।।
मैं दोनो हाथ ऊपर उठाकर पुकार पुकार कर कह रहा हूं, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से मोक्ष तो सिद्ध होता ही है कि अर्थ और काम भी सिद्ध होते है तो भी लोग उस का सेवन क्यों नहीं करते ?
न जातु कामान्न भयान्न लोभा-द्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनिथ्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः।।
कामना से, भय से, लोभ से अथवा प्राण बचाने के लिए भी धर्म का त्याग न करे। धर्म नित्य है और सुख दुख अनित्य। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और उस के बंधन हेतु अनित्य।
इमां भारतसावित्रीं प्रातरुत्थायः यः पठेत्। स भारतफलं प्राप्य परं ब्रह्माधिगच्छति।।
यह महाभारत का सारभूत उपदेश ‘ भारत सावित्री ‘ के नाम से प्रसिद्ध है। जो प्रतिदिन सबेरे उठकर इस का पाठ करता है, वह संपूर्ण महाभारत के अध्ययन का फल पाकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
मेरा निजी विश्वास है कि गीता पूर्णतय: व्यवहारिक ज्ञान है जो संसार में जीवन व्यापन्न से ले कर मोक्ष तक मार्ग तय करता है। इसलिए हमे अपनी कामनाओं, आसक्ति, मोह, लोभ, भय और अहम को त्यागने के परमात्मा के सेवक की भांति निष्काम भाव का कर्म योगी होना होगा। इस को होने के लिए सर्वप्रथम सत्य को स्वीकार करे, जीतने भी अनित्य झूठ को पकड़ कर बैठे है, उन्हे त्याग कर एक एक सत्य को पकड़े। झूठ का सहारा ले कर ही मोह, ममता और लोभ में काम करते है किंतु संसार आप के झूठ पर नही चल रहा। यह पहले भी चल रहा था और आप के रहने और नही रहने के बाद भी चलता रहेगा। भगवान श्री कृष्ण, भगवान राम और जनक जैसे कर्मयोगी जिन्होंने राज्य भी किया और मुक्त भी रहे। फिर आगे अपना गीता अध्ययन शुरू रखते है।
।। हरि ॐ तत् सत ।। विशेष 5. 29 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)