।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 05.16 ।।
।। अध्याय 05.16 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 5.16॥
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥
“jñānena tu tad ajñānaḿ,
yeṣāḿ nāśitam ātmanaḥ..।
teṣām āditya-vaj jñānaḿ,
prakāśayati tat param”..।।
भावार्थ :
किन्तु जब मनुष्य का अज्ञान तत्वज्ञान (परमात्मा का ज्ञान) द्वारा नष्ट हो जाता है, तब उस के ज्ञान के दिव्य प्रकाश से उसी प्रकार परमतत्व-परमात्मा प्रकट हो जाता है जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से संसार की सभी वस्तुएँ प्रकट हो जाती है। (१६)
Meaning:
For those who have destroyed ignorance through knowledge, such knowledge illumines the eternal essence, just like the sun.
Explanation:
In this shloka, Shri Krishna compares the dispelling of ignorance to the dispelling of darkness by the sun. The light of the sun does not create anything new. It just shows us what was already there, but was hidden by darkness. Similarly, the knowledge of the eternal essence does not create anything new in us. It just reveals our true nature.
Why does Shri Krishna emphasize knowledge so much? The central theme of the Gita is the removal of delusion. The root cause of delusion is ignorance, which is nothing but our identification to the body, mind and intellect. All our efforts should be towards uprooting this ignorance through the correct knowledge. However, our lives are spent in trying to solve problems at the worldly level.
There is always one aspect of our lives that is incomplete or imperfect. For some of us, it could be our job. For others, it could be our family and friends. For some others, it could be our health. Given these various imperfections, we try to better our situation by changing our job, friends and so on. This results in a roller coaster ride of joys and sorrows.
So karma yoga leads to liberation, bhakthi yoga leads to liberation, raja yoga leads to liberation, all these things are not acceptable to Krishna, not acceptable to veda also. This many path philosophy is not vedic. There are many paths to purify the mind, that is the confusion. There are many paths to purify the mind, but there is only one path to liberation.
There are not many margas to mokṣa, tamevaṁ vidvan, vidvsn means jnani; jnanam alone liberates. And therefore Krishna says here knowledge alone destroys that ignorance.
Darkness is responsible for creating illusions. In the darkness of the cinema hall, the light falling on the screen creates the illusion of reality and people get absorbed in watching it. However, when the main lights in the cinema hall are switched on, the illusion is dispelled and people wake up from their reverie to realize that they were only watching a movie. Similarly, in the darkness of ignorance, we identify ourselves with the body, and consider ourselves to be the doers and enjoyers of our actions. When the light of God’s knowledge begins shining brightly, the illusion beats a hasty retreat, and the soul wakes up to its true spiritual identity, even while it lives in the city of nine gates. The soul had fallen into illusion because God’s material energy (avidyā śhakti) had covered it in darkness. The illusion is dispelled when God’s spiritual energy (vidyā śhakti) illumines it with the light of knowledge.
Now the question is which knowledge; that is also important; any knowledge cannot destroy any ignorance; a particular- knowledge can destroy only a particular- ignorance; but it cannot destroy Self- ignorance. Vedanta calls him an educated- ignorant person; other people are illiterate- ignorant people; these people are educated ignorant people. And therefore, Krishna very carefully uses the word atmanaḥ jnanena atmanaḥajnanam naśitam; through self- knowledge alone self- ignorance is destroyed.
Systematic consistent study of the vedantic scriptures for a length of time, under the guidance of a competent acarya, it is called gyaan yog and with this wonderful Self you are; that higher Self, the self-knowledge will reveal like SUN who mitigates entire darkness.
But if we take a truly objective look at this situation, it turns out that we are looking for perfection in the material world, which will always be imperfect. Shri Krishna says here that the only way to get to the root of this problem is to remove our ignorance of the eternal essence.
।। हिंदी समीक्षा ।।
जिन जीवों के अन्तःकरण का वह अज्ञान जिस अज्ञान से आच्छादित हुए जीव मोहित होते हैं आत्मविषयक विवेकज्ञान द्वारा नष्ट हो जाता है उन का वह ज्ञान सूर्य की भाँति उस परम परमार्थतत्त्व को प्रकाशित कर देता है। अर्थात् जैसे सूर्य समस्त रूपमात्र को प्रकाशित कर देता है वैसे ही उन का ज्ञान समस्त ज्ञेय वस्तु को प्रकाशित कर देता है। यह अज्ञान है जीव का स्वयं को न पहचान कर कि वह एकमात्र परमब्रह्म का अंश है, स्वयं को प्रकृति के साथ जोड़ कर कर्त्ता भाव मे रहना एवम प्रकृति जनित उपलब्धियों में कामना, आसक्ति एवम मोह रखना।
सिनेमा में अंधेरे में जब हम चलचित्र देख रहे होते है तो चलचित्र की कहानी, पात्र और घटना क्रम में इतना खो जाते है कि हम भूल जाते है कि जो हम देख रहे है, वह एक नाटकीय प्रदर्शन है। फिर जब सिनेमा घर की समाप्ति पर लाइट शुरू होने से सब कुछ स्पष्ट होने लगता है। यह अज्ञान से ज्ञान के प्रकाश का छोटा सा उदाहरण है।
सूर्य को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं है आत्मानुभव के लिए भी किसी अन्य अनुभव की अपेक्षा नहीं है वह चित् स्वरूप है। चित् की चेतना के लिए किसी दूसरे चैतन्य की अपेक्षा नहीं है। ज्ञान का अन्तर्निहित तत्त्व चेतना ही है। अत अहंकार आत्मा को पाकर आत्मा ही हो जाता है। स्वप्न से जागने पर स्वप्नद्रष्टा अपनी स्वप्नावस्था से मुक्त होकर जाग्रत् पुरुष बन जाता है। वह जाग्रत् पुरुष को कभी भिन्न विषय के रूप में न देखता है और न अनुभव करता है बल्कि वह स्वयं ही जाग्रत् पुरुष बन जाता है। ठीक इसी प्रकार अहंकार भी अज्ञान से ऊपर उठकर स्वयं आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाता है। अहंकार और आत्मा का सम्बन्ध तथा आत्मानुभूति की प्रक्रिया का बड़ा ही सुन्दर वर्णन सूर्य के दृष्टान्त द्वारा किया गया है जिस के लक्ष्यार्थ पर सभी साधकों को मनन करना चाहिये। आत्मनिष्ठ पुरुष सदा के लिए जन्ममरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
हम सब का सामान्य अनुभव है कि प्रावृट् ऋतु में कई दिनों तक सूर्य नहीं दिखाई देता और हम जल्दी में कह देते हैं कि सूर्य बादलों से ढक गया है।इस वाक्य के अर्थ पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सूर्य बादल के छोटे से टुकड़े से ढक नहीं सकता। इस विश्व के मध्य में जहाँ सूर्य अकेला अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है वहाँ से बादल बहुत दूर है। पृथ्वी तल पर खड़ा छोटा सा मनुष्य अपनी बिन्दु मात्र आँखों से देखता है कि बादल की एक टुकड़ी ने दैदीप्यमान आदित्य को ढक लिया है। यदि हम अपनी छोटी सी उँगली अपने नेत्र के सामने निकट ही लगा लें तो विशाल पर्वत भी ढक सकता है।इसी प्रकार जीव जब आत्मा पर दृष्टि डालता है तो उस अनन्त आत्मा को अविद्या से आवृत पाता है। यह अविद्या सत् स्वरूप आत्मा में नहीं है जैसे बादल सूर्य में कदापि नहीं है। अनन्त सत् की तुलना में सीमित अविद्या बहुत ही तुच्छ है। किन्तु आत्मस्वरूप की विस्मृति हमारे हृदय में उत्पन्न होकर अहंकार में यह मिथ्या धारणा उत्पन्न करती है कि आध्यात्मिक सत् अविद्या से प्रच्छन्न है। इस अज्ञान के नष्ट होने पर आत्मतत्त्व प्रकट हो जाता है जैसे मेघपट हटते ही सूर्य प्रकट हो जाता है।
जैसे प्रकाश के फैलने से अंधकार दूर होता है और प्रकाश के मध्य कोई वस्तु रखने से वस्तु के पीछे प्रकाश नही रहता। अतः प्रकाश को फैलाने के लिए उस मे बाधक समस्त वस्तुओं को हटाना आवश्यक है। ज्ञान का प्रकाश अज्ञान के अंधेरे को मिटाता है जिस से हम वो वस्तु भी देख सकते है जिसे हम अज्ञान के अंधेरे से नही देख पा रहे। अहम एवम कामना अज्ञान का अंधेरा ही है जिसे ज्ञान द्वारा मिटा कर परमतत्व की पहचान एवम देख सकते है।
उत्पत्ति-विनाशशील संसार के किसी अंश में तो हमने अपने को रख लिया अर्थात् मैं-पन (अहंता) कर लिया और किसी अंश को अपने में रख लिया अर्थात् मेरापन (ममता) कर लिया। अपनी सत्ता का तो निरन्तर अनुभव होता है और मैं-मेरापन बदलता हुआ प्रत्यक्ष दीखता है; जैसे–पहले मैं बालक था और खिलौने आदि मेरे थे, अब मैं युवा या वृद्ध हूँ और स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि मेरे हैं। इस प्रकार मैं-मेरेपन के परिवर्तन का ज्ञान हमें है, पर अपनी सत्ता के परिवर्तन का ज्ञान हमें नहीं है–यह ज्ञान अर्थात् विवेक है। विवेकके सर्वथा जाग्रत् होनेपर परिवर्तनशील की निवृत्ति हो जाती है। परिवर्तनशील की निवृत्ति होने पर अपने स्वरूप का स्वच्छ बोध हो जाता है जिस के होते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व प्रकाशित हो जाता है अर्थात् उसके साथ अभिन्नताका अनुभव हो जाता है।
कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और सांख्य योग का प्रथम चरण आत्म शुद्धि है। आत्मशुद्धि का अर्थ अपने विकारों को समझ कर उस से मुक्त होना अर्थात त्रियामी प्रकृति के सत्व गुण को प्राप्त करना। किंतु मुक्ति के लिए वेदांत का मानना है कि हमे ज्ञान योग से ज्ञान को प्राप्त करना है, जिसे योग्य गुरु की देखरेख में पूरा किया जाए।
ज्ञान किसे कह सकते है, आजकल स्कूल में जो ज्ञान प्राप्त कर के जो हम CA, वकील, शिक्षक, डॉक्टर या इंजीनियर या वैज्ञानिक बनते है वह ज्ञान सांसारिक जीविका उपार्जन का ज्ञान है। वेदांत में हम इसे शिक्षित अज्ञानी पुरुष कह सकते है। द्वितीय ज्ञान जो हमे धर्म ग्रंथो, पंडितो, शास्त्रों, वेद और पुराणों से मिलता है, वह आत्म शुद्धि या आत्म संतुष्टि का ज्ञान है, इस से कर्म काण्ड तो पूरे हो सकते है, आत्मशुद्धि भी हो सकती है किंतु मुक्ति या मोक्ष नहीं। ऐसे ज्ञान के लोगो को धार्मिक अज्ञानी लोग कह सकते है। हमे यह भी याद रखना चाहिए कि यदि शिक्षित अज्ञानी लोग या धार्मिक अज्ञानी लोग लोभ, मोह, काम, क्रोध या अहम को नही त्याग पाते तो यह मानव जाति के लिए और सृष्टि के लिए विनाशकारी होता है।
अतः ज्ञान का अर्थ है अपने अज्ञान को खोजना, जैसे ही जीव अपने ज्ञान स्वरूप को पहचान लेता है और अज्ञान से उस का परदा हट जाता है तो वह स्वयं ब्रह्म का अंश होने से प्रकाशवान अर्थात सूर्य के समान तेजस्वी हो जाता है। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए वेद, शास्त्र और गुरु की आवश्यकता होती है किंतु यह केवल मार्ग प्रदर्शित करते है, जिस पर जीव को स्वयं चलना होता है। ज्ञानयोग इसी ज्ञान का एक मार्ग है जिसे अब भगवान द्वारा कहा जाएगा। किंतु ज्ञान के श्रवण, मनन और निधिध्यासन द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
ज्ञानी ब्रह्मविद या ब्रह्मसंध हो जाने के बाद अद्वैत की स्थिति में होता है। उस समय जब अन्य कोई न हो, तो कौन किस को ज्ञान देगा। इसलिए ब्रह्मसंध समझता है, यह शरीर और क्रियाएं प्रकृति कर रही है, वह मात्र साक्षी है तो वह प्रकृति के निमित्त हो कर प्रकृति प्रदत्त क्रियाओं को करता है। यह योग्य गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान भी है।
ज्ञान हमेशा अज्ञान की परिधि से घिरा रहता है, जितना छोटा ज्ञान उतनी ही कम मात्रा में उस के अज्ञान की परिधि। यह ज्यामिति के चक्र की परिधि के नियम के समान है, जितना छोटा च्रक उतनी छोटी उस की परिधि। अतः जब तक ज्ञान का विस्तार नहीं होता हमे भी अपने अज्ञान का ज्ञान नही होता।
मनुष्य का मस्तिक असीमित ब्रह्म की संभावनाएं ले कर जन्म लेता है। हम उस मे जिस भी ज्ञान को प्रकाशित करते है वो ज्ञान प्रकाशमय हो जाता है। जैसे कोई डॉक्टर, कोई इंजिनियर तो कोई सैनिक तो कोई अकाउंटेंट बनता है। यह सब उन के द्वारा मस्तिक के किसी भी सेल का ज्ञान प्रकाशित करने के समान है क्योंकि कोई भी जन्मजात किसी विद्या को ले कर जन्म नही लेता। अतः ज्ञान द्वारा ही अज्ञान को दूर किया जा सकता है और जो ज्ञान द्वारा अज्ञान को दूर करता है वो ही ज्ञानी कहलाता है। हमारा वेद मंत्र ” तमसो मा ज्योतिर्गमय” इसी की पुष्टि करता है।
इसी प्रकार परमात्मतत्त्व स्वतःसिद्ध है पर अज्ञान के कारण उस का अनुभव नहीं हो रहा था। विवेक के द्वारा अज्ञान मिटते ही उस स्वतःसिद्ध परमात्मा तत्त्व का अनुभव होने लग जाता है।
जिस स्थिति में सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा तत्त्व का अनुभव हो जाता है उस स्थिति की प्राप्ति के लिये आगे के श्लोक में पढेंगे। गीता का यह अध्याय यहां से ज्ञान योग की ओर मुड़ जाता है अतः अधिक ध्यान से समझने की आवश्यकता है।
।।हरि ॐ तत सत।। 5.16।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)