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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.13 II

।। अध्याय      10.13 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 10.13

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।

असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥

“āhus tvām ṛṣayaḥ sarve,

devarṣir nāradas tathā..।

asito devalo vyāsaḥ,

svayaḿ caiva bravīṣi me”..।।

भावार्थ:

हे कृष्ण! जो अब आप स्वयं मुझे बता रहे हैं यह तो सभी ऋषिगण असित, देवल और व्यास तथा देवर्षि नारद भी कहते हैं। (१३)

Meaning:

All the great sages and royal sages such as Naarada, Asita, Devala and Vyaasa speak this, and also you have said it to me.

Explanation:

Further praising Ishvara, Arjuna added that several eminent individuals, over the course of history, have also praised Ishvara.

The great saints are the authorities for spiritual knowledge and Rishi means a gyaani one who has great knowledge of his subject.  Thus, Arjun quotes the saints, such as Narad, Asit, Deval, and Vyas, who have proclaimed Shree Krishna as the Supreme Divine Personality and the cause of all causes. In the Bheeshma Parva of the Mahabharat, there is a poem in which many sages eulogize Shree Krishna. 

Sage Narad says: “Shree Krishna is the creator of all the worlds and the knower of all feelings. He is the Lord of the celestial gods, who administer the universe.” (Verse 68.2)

Sage Markandeya states: “Lord Krishna is the goal of all religious sacrifices and the essence of austerities. He is the present, past, and future of everything.” (Verse 68.3)

Sage Bhrigu says: “He is the God of gods and the first original form of Lord Vishnu.” (Verse 68.4)

Sage Ved Vyas states: “O Lord Krishna, You are the Lord of the Vasus. You have conferred power on Indra and the other celestial gods.” (Verse 68.5)

Sage Angira says: “Lord Krishna is the creator of all beings. All the three worlds exist in his stomach. He is the Supreme Personality of Godhead.” (Verse 68.6)

Elsewhere in the Mahabharat, Sage Asit and Deval declare: “Shree Krishna is the creator of Brahma, who is the creator of the three worlds.” (Mahabharat Vana Parva 12.50)

Arjuna listed the names of the renowned sages Naarada, Asita, Devala and Vyaasa in this regard.

The Srimad Bhagavatam speaks of Naarada as the son of a maid- servant who served several priests. He grew up in an environment of spirituality and decided to seek the absolute truth in a forest after his mother passed away. His meditation bore fruit when he had a vision of Ishvara. After his death, he was reborn as the sage Naarada that many of us are familiar with. Naarada was learned in all the arts and sciences. He could travel anywhere in the universe and talk to any deity that he wished.

Another sage mentioned here is Devalaha who was the son of a great sage named Asita, who was born as a result of Asita’s prayer to Lord Shiva. It is said that Devalaha was cursed by a celestial maiden named Rambha for not agreeing to marry her. He was reborn as Sage Ashtavakra, who is famous for writing the Ashtavakra Gita. And of course, Sage Krishna Dvaipayana Vyaasa is the author of the great Indian epic Mahabhaarata.

Quoting these great authorities, Arjun says that now Shree Krishna is himself reconfirming their statements by declaring that he is the supreme cause of all creation. So therefore, Arjuna accepted the authority of Shri Krishna to convey the true nature of Ishvara. But did he have any doubts or objections?

।। हिंदी समीक्षा ।।

महान संत अध्यात्मिक ज्ञान के प्राधिकारी होते हैं इसलिए अर्जुन ने नारद, असित, देवल और व्यास जैसे महान संतो के नाम का उल्लेख करता है जिन के द्वारा श्रीकृष्ण के परम दिव्य स्वरूप की और सभी कारणों का परम कारण होने की पुष्टि की गयी है।

महाभारत के भीष्म पर्व में उल्लिखित कविता में कई संतों ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की है। संत नारद मुनि कहते हैं-“श्रीकृष्ण समस्त संसारों के सृजनकर्ता हैं और सबके भीतर के विचारों को जानते हैं। वे ब्रह्माण्ड पर शासन करने वाले समस्त स्वर्ग के देवताओं के भगवान हैं।” (श्लोक 68.2)।

ऋषि मार्केन्डेय ने वर्णन किया है-“भगवान श्रीकृष्ण सभी धार्मिक यज्ञों का लक्ष्य और तपस्याओं का सार तत्त्व हैं। वे सभी का वर्तमान, भूतकाल, और भविष्य हैं” (श्लोक 68.3)।

भृगु ऋषि कहते है-“वे सभी ईश्वरों के परमेश्वर और भगवान विष्णु का प्रथम मूल रूप हैं” (श्लोक 68.4)।

वेदव्यास ने उल्लेख किया है-“हे भगवान श्रीकृष्ण! आप सभी वसुओं के भगवान हैं। आप ने ही इन्द्र और अन्य स्वर्ग के देवताओं को शक्तियों से सम्पन्न किया है” (श्लोक 68.5)।

अंगीरा ऋषि कहते हैं, “भगवान श्रीकृष्ण सभी जीवों के सृजक हैं। सभी तीनों लोक उनके उदर में रहते हैं। वे सभी देवों का परमस्वरूप हैं” (श्लोक 68.6)।

इसके अतिरिक्त महाभारत में असित और देवल ऋषि यह वर्णन करते हैं, “श्रीकृष्ण तीन लोकों की रचना करने वाले ब्रह्मा के जन्मदाता हैं” (महाभारत का वन पर्व 12.50)।

पूर्व श्लोक में  परम् शब्द के साथ परमात्मा को ब्रह्म, धाम एवम पवित्र कहा। अर्जुन भी ज्ञानी था इसलिये उस ने परमात्मा के बारे में अनेक ज्ञान की बाते ऋषिगण से सुनी थी कि परमात्मा सनातन, दिव्य पुरुष, देवो के देव आदिदेव, अजन्मा एवम सर्वव्यापी है। उस ने यह सब बातें देवऋषि नारद, आसित देवल एवम महर्षि व्यास से परमात्मा के बारे में सुना था किंतु आज स्वयं को परमात्मा स्वरूप बताते हुए कृष्ण भगवान से सुन रहा था, इसलिये उस ने वही बांते पुनः कहते हुए कहा कि उन के द्वारा किया हुआ वर्णन उस समय मेरी समझ मे सही नही आ रहा था किंतु आज आप की कृपा से मै समझ पा रहा हूँ। इसलिए इन महान प्राधिकारी सिद्ध महापुरुषों का उल्लेख करते हुए अर्जुन यह कहता है कि भगवान स्वयं अब यह घोषित करते हुए कहते है कि वे संपूर्ण सृष्टि के परम कारण हैं। इस प्रकार वे अपने कथनों की पुनः पुष्टि कर रहे हैं। ऋषि शब्द से अभिप्राय वन में आश्रम बना कर और दाढ़ी बढ़ा कर रहने वाले सन्यासी से होता है किंतु सत्य यही है कि ऋषि अपने अपने विषय में विशिष्ठ ज्ञान रखने वाले लोग ऋषि कहलाते है।

अंधे व्यक्ति को दिन में सूर्य के प्रकाश में उस की रश्मि एवम ताप का आनंद तो मिल सकता है किंतु सूर्य का ज्ञान नहीं। वैसे ही यदि हम अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर भजन, कीर्तन या गुरु वाणी सुनते है तो उस के आनंद को तो अनुभव कर सकते है किंतु उस को गहराई तक जा कर समझ नही सकते। जब तक ह्रदय निर्मलता से, श्रद्धा एवम विश्वास से, प्रेम से एवम समर्पण भाव से परमात्मा में न हो तो अच्छी बातें सिर्फ मन को छू पाती है किंतु समझ या हाथ मे नही लगती। जब तक हम उन को पढ़ते या सुनते है, तभी तक उस का आनंद लेते है, फिर वैसे के वैसे। यही कारण है भागवत कथा में जो ज्ञान शुकदेव जी द्वारा परीक्षित हो हुआ, वो आज के युग मे कहने, सुनने वालों में बहुत कम लोगो को होता है किंतु उन को पूरी कथा याद रहती है एवम कथा का आनंद भी कथा के समय प्राप्त भी होता है।

व्यक्त्वि विकास में यह श्लोक इसलिये महत्वपूर्ण है कि अर्जुन उन सब बातों का ज्ञाता था जो परमात्मा ने उस से कही, यह वह महर्षि व्यास आदि से सुन एवम पढ़ भी चुका था किंतु उस ने कभी इन को मनन या अपनाया नहीं। इसलिये युद्ध भूमि में वो भय एवम मोह से ग्रस्त हुआ और कर्तव्य भूल कर अपना साहस भी भूल गया। ज्ञान जब तक श्रद्धा, विश्वास, प्रेम एवम समर्पण से नही प्राप्त किया जाता, वो व्यक्ति के पूर्वाग्रह में ही सिर्फ बाते बन कर रह जाता है। यही कारण है कि परमात्मा को समझ पाना उन की अनुकंपा के बिना संभव नही और ज्ञान को समझ पाना उस के अध्ययन, मनन एवम धारण के बिना संभव नही। बिना पूर्वाग्रह को छोड़े यह सब कर्म कांड बन कर रह जाता है।

अतः अर्जुन कहते है कि यद्यपि उन व्यास इत्यादि ऋषियों की वाणी तत्वरूप रत्नों की खान ही थी और मै उस मे चिन्तामाणियो को अंधकार में कंकर समझ रहा था, वो आप के कारण क्योंकि आप ही सूर्य के समान है, जिस के प्रकाश में मुझे यह सब समझ मे आ रहा है।

हम कह सकते है कि हमारे जीवन मे अनेक ज्ञाता, विद्वान और सब से ऊपर मात-पिता हमे अनेक ज्ञान की बाते कहते है। कुछ बाते हमे अच्छी भी लगती है किंतु आत्मसात नही होती, एवम समझ के परे भी होती है। किंतु विशिष्ट परिस्थितियों में वही बाते जब हम किसी और से सुनते है तो वह हमारे सीधे दिल मे उतर जाती है और तब हमें याद भी आता है कि स्कूल के दिनों में शिक्षक और बचपन मे माँ- पिता जी भी यही बाते हमे बताते थे। किन्तु अज्ञान और अहम के कारण हम उस की सुन कर भी अनसुना करते है, यद्यपि वह बाते अच्छी तो लगती है किंतु हमारे चरित्र का हिस्सा नही बनती। भगवान श्री कृष्ण बचपन से अर्जुन के संग है किंतु युद्ध भूमि में आत्मविश्वास खो चुके अर्जुन ने  जब परब्रह्म स्वरूप परमात्मा की बाते भगवान श्री कृष्ण के मुख से सुनी तो उस के मन मे कृष्ण के प्रति सखा का भाव समाप्त हो गया और वह हृदय की गहराइयों में उस व्यक्तित्व के प्रति नतमस्तक हो गया, वह समझ गया कि जिसे वह अपने जैसा  मनुष्य समझ रहा था, वह कोई और नही, देवऋषि नारद, असित, देवल और व्यास जैसे महान ऋषियों द्वारा जिन की स्तुति करते सुना करता था, वह साक्षात परब्रह्म उस के समक्ष आज मानव रूप में उस का सारथी बन कर खड़ा है। उस का अहम समाप्त हो कर पूर्ण रूप से शरणागत का हो गया और उस को परब्रह्म के स्वरूप को और अधिक जानने की अभिलाषा भी अधिक हो गई।

यही स्थिति हमारी भी हो सकती है जब पता चले जिसे संसार के बड़े लोग अपना आदर्श मानते है, वह व्यक्ति हमारे साथ सामान्य व्यवहार के साथ रहता है, किन्तु यह समझ तभी आती है जब हम उसे हम हमारे संकट के समय हमारे लिये कार्य करते देखते है और अपने अहम को त्याग कर के विन्रमता से समझते है। हमारा अहम अर्थात मिथ्या अभिमान हमे हमारे आसपास के सौभाग्य स्वरूप मिले, उच्च कोटि के लोगो के प्राप्त हो सकने वाले अनुग्रह से दूर कर देता है, जिस से हमारा व्यक्तित्व जितना विकसित होना चाहिये, हो नही पाता।

ईश्वर की कृपा के बिना पत्ता भी नही हिलता, फिर सत्संग मिल जाये तो उस को श्रद्धा, विश्वास और प्रेम की बजाए अहम, समाजिक संतुष्टि और व्यवहार की तरह उपभोग करने से जो ज्ञान मिलता है, वह वही होता है जो अर्जुन को देवऋषि नारद, आसित, देवल और महृषि व्यास आदि श्रेष्ठजनो से सुन कर भी नही मिला। किन्तु जब साक्षात ब्रह्म स्वरूप से अंगुलिमार या बाल्मीकि जी को ज्ञान मिलता है, तो वह व्यक्ति विशेष की दिशा ही बदल देता है। कौन जाने परमात्मा कब और किस स्वरूप में हमारे सामने खड़ा हो, जब तक हमारे अंदर उस के प्रति श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के साथ अहम को त्याग कर स्मरण और समर्पण न हो।

आगे श्लोक अर्जुन में स्थित एक जिज्ञासु साधक के भाव को स्पष्ट करते हुए और क्या कहते है, हम पढ़ते है। किन्तु अध्याय नवम के अनुसार जब तक गीता अध्ययन में श्रद्धा, विश्वास और प्रेम का अभाव होगा, यह बातें भी हमे पूर्व में अर्जुन की भांति अच्छी तो लगेगी किन्तु आत्मसात नही होंगी।

।। हरि ॐ तत सत।।10.13।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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