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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.10 II

।। अध्याय      10.10 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 10.10

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌ ।

ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥

“teṣāḿ satata- yuktānāḿ,

bhajatāḿ prīti- pūrvakam..।

dadāmi buddhi-yogaḿ taḿ,

yena mām upayānti te”..।।

भावार्थ: 

जो सदैव अपने मन को मुझ में स्थित रखते हैं और प्रेम-पूर्वक निरन्तर मेरा स्मरण करते हैं, उन भक्तों को मैं वह बुद्धि प्रदान करता हूँ, जिस से वह मुझ को ही प्राप्त होते हैं। (१०)

Meaning:

Those who are constantly engaged (in me) and worship with devotion, I endow them with the yoga of intellect by which they attain me.

Explanation:

Divine knowledge of God is not attained by the flight of our intellect. No matter how powerful a mental machine we may possess, we have to admit the fact that our intellect is made from the material energy. Hence, our thoughts, understanding, and wisdom are confined to the material realm; God and his divine realm remain entirely beyond the scope of our corporeal intellect.

Earlier we saw that dedicated, serious devotees of Ishvara find joy only in conversing and immersing themselves in Ishvara. Such a high degree of “preetipurvaka bhajan” or worship with joy and devotion can only yield a wonderful result. Those who display such ardent devotion as termed “sataya yuktaanam” by Shri Krishna because they are constantly connected to Ishvara. He says that Ishvara rewards such devotees with “buddhi yoga”, a superior form of intellect and understanding.

The Yajur Veda states: “Without bathing oneself in the nectar emanating from the lotus feet of God, no one can know him.” Thus, true knowledge of God is not a result of intellectual gymnastics but a consequence of divine grace. Shree Krishna also mentions in this verse that he does not choose the recipient of his grace in a whimsical manner. Rather, he bestows it upon those who unite their minds with him in devotion.

Typically, we would have expected Ishvara to reward his ardent devotees with material prosperity. This is a given, since we have already heard Shri Krishna say that Ishvara will carry the material burden of his devotees in the previous chapter. But that is a lower form of blessing or reward. The highest type of blessing that can be given to a devotee is not material, it is intellectual. No object, wealth, social status or possession can stand in front of the knowledge of the true nature of things.

What is the result of this intellectual understanding? It is the ability to see Ishvara in everything, and everything in Ishvara. If someone tells us that the necklace we actually had lost is around our neck, we do not have to do anything or go anywhere in order to find it. We know where to look for it. Similarly, this vision given to us by Ishvara enables us to see him everywhere and in everything. It is the vision of equanimity mentioned in the sixth chapter.

So then, what is the main obstacle that Ishvara removes with this knowledge? Shri Krishna explains in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

हमारी बुद्धि की उड़ान भगवान के दिव्य ज्ञान को नहीं पा सकती। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हमारा मानसिक तंत्र कितना शक्तिशाली है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारी बुद्धि प्राकृत शक्ति से निर्मित है। इसलिए हमारे विचार, ज्ञान और विवेक भौतिक जगत तक ही सीमित है भगवान और उनका दिव्य संसार हमारी लौकिक बुद्धि की परिधि से पूर्णरूप से परे है। वेदों में इसे प्रभावशाली ढंग से घोषित किया गया है। “यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः। अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।।” (केनोपनिषद्-2.3) “वे जो यह सोचते हैं कि वे भगवान को अपनी बुद्धि से समझ सकते हैं उन्हें भगवान का ज्ञान नहीं हो सकता। वे जो यह सोचते हैं कि वह उनकी समझ से परे है, केवल वही वास्तव में भगवान को जान पाते हैं।”

बृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णन है। “स एष नेति नेत्यात्मागृह्योः।” (बृहदारण्यकोपनिषद –3.9.26)  “कोई भगवान को अपनी बुद्धि के अनुसार अपने स्वयं के प्रयत्नों द्वारा कभी नहीं समझ सकता।”

रामचरितमानस में भी ऐसा वर्णन किया गया है। ” राम अतय बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी ।।” भगवान राम हमारी बुद्धि, मन और वाणी की परिधि से परे हैं।”

भगवान भाव का भूखा है इसलिये जो मनुष्य एक निष्ठ हो कर भगवान को अविचल विश्वास, श्रद्धा एवम प्रेम के समर्पित हो कर स्मरण करता है, उस का समस्त भार भी परमात्मा ही उठाता है। इसलिए जो भक्त सतत युक्त हो कर प्रीति पूर्वक भगवान को स्मरण करता उस का योगक्षेम वहन भगवान स्वयं करते है।

जिस प्रकार कर्मयोग में एक बार निष्काम भाव से कर्म की जिज्ञासा उत्पन्न होने से परमात्मा उसे पूर्ण सिद्धि की ओर खींच लेता है वैसे ही भक्तिमार्ग में लगे मनुष्य की समत्व बुद्धि को उन्नत करने का काम भी परमात्मा ही करता है। ज्ञान की दृष्टि से अर्थात कर्म विपाक प्रक्रिया के अनुसार कहा जाता है कि यह कर्तृत्व आत्मा की स्वतंत्रता से मिलता है। पर आत्मा भी तो परमात्मा का ही अंश है, भक्ति मार्ग में भी इस फल या बुद्धि को परमेश्वर ही प्रत्येक मनुष्य को उस के पूर्व कर्मो के अनुसार देता है।

जब तक सबसे श्रेष्ठ आनन्ददायक वस्तु या लक्ष्य को नहीं पाया गया है जिसमें हमारा मन पूर्णतया रम सके, तब तक बाह्य विषयों, भावनाओं तथा विचारों के जगत् के साथ हुए तादात्म्य से हमारी सफलतापूर्वक निवृत्ति नहीं हो सकती। आनन्दस्वरूप आत्मा में ध्यानाकर्षण करने की ऐसी सार्मथ्य है और इसलिए, जिस मात्रा या सीमा तक इस आत्मस्वरूप में मन स्थित होता है, उसी मात्रा में वह दुखदायी मिथ्या बंधनों की पकड़ से मुक्त हो जाता है। इस वेदान्तिक सत्य का भगवान् श्रीकृष्ण इस वाक्य में वर्णन करते हैं। प्रीतिपूर्वक भजनेवालोंको यानी प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवालों को, मैं वह बुद्धियोग देता हूँ। मेरे तत्त्व के यथार्थ ज्ञान का नाम बुद्धि है, उस से युक्त होना ही बुद्धियोग है। वह ऐसा बुद्धियोग मैं ( उनको ) देता हूँ कि जिस पूर्णज्ञानरूप बुद्धियोग से वे मुझ आत्मरूप परमेश्वर को आत्मरूप  से समझ लेते हैं। वे कौन हैं जो मच्चित्ताः आदि ऊपर कहे हुए प्रकारों से मेरा भजन करते हैं।

तुलसीदास जी ने लोमेश मुनि के आशीर्वाद द्वारा यह वर्णन किया है ” सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान। कामरूप इच्छा मरन ग्यान विराग निधान ।।” 

भक्ति अर्थात उपासना का अर्थ है जो साधक को साध्य के पास बैठा दे। जो परमात्मा के पास आते है उनके अंदर समता आती है जिस से जन्म मरण के चक्र में वे नहीं पड़ते। अतः निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम अविचल भगवत, भागवत एवम आचार्य पर एक समान रहनी चाहिए।

भक्त न ज्ञान चाहते हैं, न वैराग्य। जब वे पारमार्थिक ज्ञान, वैराग्य आदि भी नहीं चाहते, तो फिर सांसारिक भोग तथा अष्टसिद्धि और नवनिधि चाह ही कैसे सकते हैं उनकी दृष्टि इन वस्तुओं की तरफ जाती ही नहीं। उन के हृदय में सिद्धि आदि का कोई आदर नहीं होता, कोई मूल्य नहीं होता। वे तो केवल भगवान को अपना मानते हुए प्रेमपूर्वक स्वाभाविक ही भगवान के भजन में लगे रहते हैं। उन का, किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदि से किसी तरह का कोई सम्बन्ध नहीं रहता। उन का भजन, भक्ति यही है कि हरदम भगवान् में लगे रहना है। भगवान् की प्रीति में वे इतने मस्त रहते हैं कि उन के भीतर स्वप्न में भी भगवान के सिवाय अन्य किसी की इच्छा जाग्रत् नहीं होती। किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि के संयोगवियोग से अन्तःकरण में कोई हलचल न हो अर्थात् संसारके पदार्थ मिलें या न मिलें, नफा हो या नुकसान हो, आदर हो या निरादर हो, स्तुति हो या निन्दा हो, स्वास्थ्य ठीक रहे या न रहे आदि तरहतरह की और एक दूसरे से विरुद्ध विभिन्न परिस्थितियाँ आनेपर भी उन में एकरूप (सम) रह सकें  ऐसा बुद्धियोग अर्थात् समता मैं उन भक्तोंको देता हूँ।

व्यवहार में जो अपने कर्म को कर्तव्य भाव से करता है उस की सफलता का दायित्व परमात्मा लेता है। मनुष्य जितना अधिक अपने कर्तव्य कर्म से ऊंचा उठता है उतनी ही विन्रमता भी उस मे आती है, सम भाव भी आता है और ज्ञान भी बढ़ता है।

प्रवृति और  निवृति मोक्ष के दो ही मार्ग है, प्रवृति में कर्म को निष्काम  भाव से करते हुए विरक्ति अर्थात भोक्तत्व एवम कर्तृत्त्व भाव से मुक्त होना है और निवृति में भी भी कर्म को कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव से मुक्त हो कर करना है। इस के ध्यान, धारणा और सयंम की आवश्यकता होती है और जीव योग और अनुशासन से बुद्धि द्वारा इन्द्रिय-मन-बुद्धि को नियंत्रित कर के इसे प्राप्त करता है। भक्ति योग में श्रद्धा-प्रेम और विश्वास से जब कोई व्यक्ति परमात्मा के स्मरण करता है, तो उस के समर्पित भाव के कारण उस का कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव समाप्त होने लगता है, यह ब्रह्ममैक्य की स्थिति परमात्मा द्वारा ही ज्ञान के प्रदान करने से प्राप्त होती है। यही ज्ञान कर्मयोगी एवम सांख्य योगी भी बुद्धि के योग से प्राप्त करता ह, यही ज्ञान भक्ति योगी श्रद्धा प्रेम और विश्वास के साथ स्मरण और समर्पण से प्राप्त करता है। इस से यह स्पष्ट हो जाता है की सांख्य योग अर्थात सन्यास मार्ग, कर्मयोग अर्थात निष्काम कर्मयोग, ध्यान मार्ग अर्थात बुद्धियोग एवम श्रद्धा और प्रेम से परमात्मा के स्मरण का भक्ति मार्ग सभी एक ही परमात्मा को प्राप्त होने के विभिन्न मार्ग है। अतः सभी मार्ग अलग अलग होते हुए भी एक ही लक्ष्य को प्राप्त होते है,  यह समन्वयता का ज्ञान भी गीता द्वारा हमे प्राप्त होता है।

व्यवहार में जीव अपने सांसारिक जिम्मेदारियों में उलझा है तो उस के लिए सन्यासी होना कठिन है। प्रकृति की योग माया से वह पूर्णतः निष्काम और निर्लिप्त नहीं हो पाता किंतु परमात्मा को निरंतर स्मरण करते रहने से उस के अंदर वैराग्य का भाव बनना शुरू हो ही जाता है। यदि यह भाव सतत और प्रीति पूर्वक हो, भाव के भूखे भगवान से कृपा कभी भी किसी भी स्वरूप में बरस सकती है, इसलिए जुड़े रहना ही आवश्यक तत्व है।

ज्ञान द्वारा परमात्मा अपने भक्त पर किस प्रकार अनुग्रह करते है, यह अगले श्लोक में पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।।10.10।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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