।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 01 ।।
।। अध्याय 01 ।।
।। अस्वीकरण – Disclaimer ।।
गीता की व्याख्या विभिन्न पुस्तको से संकलित की गई है, अतः प्रस्तुत कर्ता किसी भी प्रकार के ज्ञान का कोई अधिकृत या अनुभव होने का दावा नही करता, न ही वह स्वयं को निष्काम या तत्वदर्शी मानता है, न ही यह उस के अनुभव के आधार पर लिखी हुई मौलिक व्याख्या है। इस के लेखन को प्रस्तुत करने की प्रेरणा मुझे मेरे मित्र CA अश्विन नागर जी मिली, जिन्होंने गीता का english explanation बिना कोई रुकावट के नित्य प्रतिदिन भेजा। गीता को गंभीरता से पढ़ने की प्रेरणा भी उन्ही से मुझे हुई। गीता श्लोक में वर्णित english explanation हिंदी में वर्णित समीक्षा से भिन्न हो सकता है, क्योंकि हिंदी समीक्षा english explanation का अनुवाद नही है। किन्तु एक दूसरे के पूरक अवश्य है। इस को internet में प्रस्तुत करने के श्री प्रशांत पांडे जी एवं श्री राम भदंग जी का सहयोग है। इस मे व्याख्या निम्न माध्यम से तैयार की है।
इस मे सर्वप्रथम iit kanpur की गीता site की मदद बहुत रही।
इस के अतिरिक्त गूगल सर्च, विकिपीडिया में लेखन आदि की कभी मदद है। उन के लेखकों का आभार है।
जिन पुस्तको का हिंदी की समीक्षा में सहारा लिया गया उन के नाम इस प्रकार है।
1. गीता दर्पण – श्री स्वामी आत्मानंद जी मुनि
2. श्रीमद्भागवत गीता -यथारूप – श्री श्रीमद ए सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद
3. यथार्थ गीता – स्वामी अड़गड़ानंद जी
4. गीता रहस्य – बाल गंगाधर तिलक
5. श्रीमद्भागवत गीता -तत्वविवेचनी हिंदी टीका – जयदयाल गोयनका
6. ज्ञानेश्वरी गीता – संत ज्ञानेश्वर
7. श्रीमद्भागवत गीता – व्याख्यामृतसरिता – श्री त्रिदंडी स्वामी महाराज, श्री लक्ष्मीप्रपन्न जीयरस्वामी, संपादन डॉ सुदामा सिंह
8. ‘शांकर भाष्य’ – गीता आद्य स्वामी शंकराचार्य जी
9. श्रीमद्भागवत गीता साधक संजीवनी हिंदी टीका – स्वामी रामसुखदास जी
10. श्रीमद्भागवत गीता – स्वामी चिन्मयानंद जी
11. Bhagavad Gita – The Song of God -Swami Mukundananda
12. Srimad Bhagavad Gita – Talks of Swami Paramarthananda – Transcription by Sri P S Ramchandran, Nana-Nani Homes, Coimbatore.
इस के अतिरिक्त अष्टवक्र गीता, स्वामी अखंडानंद जी की विवेक कीजिये और विवेक चूड़ामणि – शंकराचार्य जी की पुस्तकों का भी सहयोग है।
गीता चार वेदों एवम 1200 उपनिषदों का सार है, अतः जितनी बार उसे पढ़ा जाए, उतना ही उस का अर्थ स्पष्ट भी होता है और मन की दुविधाओं का भी नाश होता है। एक बार उपजा ज्ञान समय समय पर खाद-पानी देते रहने से फलीफूत होता रहता है। इसलिये यह अमृतम की ओर प्रशस्त मार्ग की ओर एक कदम तो है ही। द्वैत में ज्ञाता एवम ज्ञान दो अलग अलग होते है और अद्वैत में सिर्फ ज्ञान। गीता ज्ञान है और हम ज्ञाता, अतः जब तक हम गीता के साथ अद्वैत नही होते, यह ज्ञान अधूरा ही है।
मेरे विचार से गीता किसी धर्म विशेष का ग्रन्थ न हो कर मनुष्य के कर्तव्य धर्म का ज्ञान है। जिसे वेदव्यास महृषि ने वर्षो पूर्व महाभारत में लिपिबद्ध किया था। गीता का ज्ञान हर वर्ग , हर धर्म और हर विचारधारा के लिये प्रासंगिक है, इसलिये इसे सभी अध्ययन कर्त्ता को समर्पित भी करता हूँ।
अपनी त्रुटियो के क्षमा मांगते हुए, आप सब का आभार मान कर नमन करता हूँ।
रविन्द्र कुमार गनेड़ीवाला CA
+91 94223 10075
नागपुर
हरि ॐ तत सत
।। गीता – भूमिका ।।
कुरु क्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। गीता में १८ अध्याय और 700 श्लोक हैं। जैसा गीता के शंकर भाष्य में कहा है- तं धर्मं भगवता यथोपदिष्ट वेदव्यास: सर्वज्ञोभगवान् गीताख्यै: सप्तभि: श्लोकशतैरु पनिबंध। ज्ञात होता है कि लगभग 20वीं सदी के शुरू में गीता प्रेस गोरखपुर (1925) के सामने गीता का वही पाठ था जो आज हमें उपलब्ध है। 20वीं सदी के लगभग भीष्मपर्व का जावा की भाषा में एक अनुवाद हुआ था। उसमें अनेक मूलश्लोक भी सुरक्षित हैं।
श्रीपाद कृष्ण बेल्वेलकर के अनुसार जावा के इस प्राचीन संस्करण में गीता के केवल साढ़े इक्यासी श्लोक मूल संस्कृत के हैं। उनसे भी वर्तमान पाठ का समर्थन होता है। गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी संमिलित हैं। अतएव भारतीय परंपरा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है।
गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं। जैसे, संसार के स्वरूप के संबंध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट है। उसे ही पुष्पिका के शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा गया है।
गीता में ‘ब्रह्मविद्या’ का आशय निवृत्तिपरक ज्ञानमार्ग से है। इसे सांख्यमत कहा जाता है जिसके साथ निवृत्तिमार्गी जीवनपद्धति जुड़ी हुई है। लेकिन गीता उपनिषदों के मोड़ से आगे बढ़कर उस युग की देन है, जब एक नया दर्शन जन्म ले रहा था जो गृहस्थों के प्रवृत्ति धर्म को निवृत्ति मार्ग के समकक्ष और उतना ही फलदायक मानता था। इसी का संकेत देनेवाला गीता की पुष्पिका में ‘योगशास्त्रे’ शब्द है। यहाँ ‘योगशास्त्रे’ का अभिप्राय नि:संदेह कर्मयोग से ही है।
गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है।
गीता के दूसरे अध्याय में जो ‘तस्य प्रज्ञाप्रतिष्ठिता’ की धुन पाई जाती है, उसका अभिप्राय निर्लेप कर्म की क्षमतावली बुद्धि से ही है। यह कर्म के संन्यास द्वारा वैराग्य प्राप्त करने की स्थिति न थी बल्कि कर्म करते हुए पदे पदे मन को वैराग्यवाली स्थिति में ढालने की युक्ति थी। यही गीता का कर्मयोग है। जैसे महाभारत के अनेक स्थलों में, वैसे ही गीता में भी सांख्य के निवृत्ति मार्ग और कर्म के प्रवृत्तिमार्ग की व्याख्या और प्रशंसा पाई जाती है। एक की निंदा और दूसरे की प्रशंसा गीता का अभिमत नहीं, दोनों मार्ग दो प्रकार की रु चि रखनेवाले मनुष्यों के लिए हितकर हो सकते हैं और हैं। संभवत: संसार का दूसरा कोई भी ग्रंथ कर्म के शास्त्र का प्रतिपादन इस सुंदरता, इस सूक्ष्मता और निष्पक्षता से नहीं करता। इस दृष्टि से गीता अद्भुत मानवीय शास्त्र है। इसकी दृष्टि एकांगी नहीं, सर्वांगपूर्ण है। गीता में दर्शन का प्रतिपादन करते हुए भी जो साहित्य का आनंद है वह इसकी अतिरिक्त विशेषता है। तत्वज्ञान का सुसंस्कृत काव्यशैली के द्वारा वर्णन गीता का निजी सौरभ है जो किसी भी सहृदय को मुग्ध किए बिना नहीं रहता।
श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और उसके पश्चात जीवन के समरांगण से पलायन करने का मन बना लेता है उसी प्रकार अर्जुन जो महाभारत का महानायक है अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और क्षत्रिय धर्म से निराश हो गया है, अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से उद्विग्न होकर कर्तव्य विमुख हो जाते हैं।
गीता को धार्मिक ग्रंथ में गिनती करते हुए भी, यह ग्रंथ प्रबंधन का महानतम ग्रंथ है क्योंकि जीवन के मूल्य, संसार में कार्य करते हुए कैसे रहे, व्यक्ति के अचार – विचार, खान – पान आदि को इसी ग्रंथ में बताया गया है। समस्त अंधविश्वासों से परे सृष्टि के विस्तार से ले कर आधुनिक जीवन में गीता में जो वर्णन है, वह सदियों से अक्षुण्ण सत्य की भांति है। इसलिए लगभग सभी महान पुरुषो ने गीता को अपनाया है।
भारत वर्ष के ऋषियों ने गहन विचार के पश्चात जिस ज्ञान को आत्मसात किया उसे उन्होंने वेदों का नाम दिया। इन्हीं वेदों का अंतिम भाग उपनिषद कहलाता है। मानव जीवन की विशेषता मानव को प्राप्त बौद्धिक शक्ति है और उपनिषदों में निहित ज्ञान मानव की बौद्धिकता की उच्चतम अवस्था तो है ही, अपितु बुद्धि की सीमाओं के परे मनुष्य क्या अनुभव कर सकता है उसकी एक झलक भी दिखा देता है।
कहते है कि महाभारत के युद्ध के उपरांत कृष्ण अर्जुन बैठे हुए संवाद कर रहे थे, तो अर्जुन ने पुनः युद्ध भूमि में सुनाई गीता को सुनने की इच्छा प्रकट की। तब भगवान ने कहा कि उस समय मैने जो कहा था वह योगयुक्त अन्तःकरण से कहा था। जो अब संभव नही। यह बात अनुगीता में बताई हुई है। किसी कथन को अन्तःकरण से कहना एवम अन्तःकरण से ही सुनना या पढ़ना, जब तक नही होगा, गीता का महत्व भी नही समझ आ सकता।
गीता का पूरा नाम श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद है, जिसे किसी भी अध्याय के अंत मे पढ़ा जा सकता है। भगवद उपनिषद भी इसलिये कहा गया है कि इसे भगवान द्वारा स्वयं गाया हुआ है।
गीता शब्द ज्ञान विषयक ग्रन्थ को कहते है। महाभारत के कई फुटकर प्रकरण में पिंगलगीता, शंपाक गीता, मनकीगीता, बोध्य गीता, पराशर गीता आदि गीता का वर्णन है। इस के अतिरिक्त कपिल गीता, ब्रह्म गीता, यम गीता, व्यास गीता जैसी अनेक गीताये भी है।
किन्तु भगवद गीता के यह सब गीता एक हिस्से जैसे ही है। किंतु बिना समुंद्र में डूबे, समुन्द्र की गहराई को कौन जान सकता है? राम रावण युद्ध मे अनेक वानर समुद्र में पत्थर डालते गए और वह सभी पत्थर बिना समुंद्र की गहराई जाने समुंद्र में तैरते रहे। किन्तु समुद्र मंथन के समय मंदराचल पर्वत ही समुन्दर में नीचे पाताल तक घस गया। संसार में हम सब अपना अपना जीवन व्यतीत कर के गुजर जाते है, किंतु गीता वो ही जान सकता है जो इस की गहराई तक धस सके।
गीता के एक श्लोक प्रतिदिन शुरू करते है। इस मे अंग्रेजी का विवरण मुझे मेरे मित्र श्री अश्विन नागर जी ने दिया है, जिसे भी मैने कुछ स्थानों पर संशोधित किया है। हिंदी समीक्षा को भी मैंने दस पुस्तको एवम गूगल से अध्ययन के बाद संक्षिप्त में लिखा है। इस पर सभी संशय के प्रश्न आप पूछ सकते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – भूमिका ।।