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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.78 II

।। अध्याय      18.78 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.78

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥

‘yatra yogeśvaraḥ kṛṣṇo,

yatra pārtho dhanur-dharaḥ..,।

tatra śrīr vijayo bhūtir,

dhruvā nītir matir mama”..।।

भावार्थ: 

हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है ॥७८॥

Meaning:

Where there is Krishna, the lord of yogas, and where there is Paartha, wielder of the bow, there is fortune, victory, prosperity and infallible morality, in my opinion.

Explanation:

Sanjaya’s final statement in the Gita can be viewed from three standpoints. Taken literally, we can see that Sanjaya wanted to very subtly inform Dhritraashtra that the Paandava army would be victorious, and that his sons, the Kauravas, would be annihilated. This was bound to happen because the world’s foremost warrior, Arjuna, and Shri Krishna, the lord of all yogas, were on the opposing side of the Kauravas. There was not even a tiny chance that the Kauravas would win the war. This was the conclusive answer to the first line of the Gita, where Dhritraashtra wanted to know what did the Kauravas and Paandavas do on the battlefield.

Sanjay informs him that material calculations of the relative strengths and numbers of the two armies are irrelevant. There can be only one verdict in this war—victory will always be on the side of God and his pure devotee, and so will goodness, supremacy, and abundance.

God is the independent, self-sustaining sovereign of the world, and the worthiest object of adoration, and worship. na tatsamaśh chābhyadhikaśhcha dṛiśhyate (Śhwetaśhvatar Upaniṣhad 6.8) [v44] “There is no one equal to him; there is no one greater than him.” He merely needs a proper medium to manifest his incomparable glory. The soul who surrenders to him provides such a vehicle for the glory of God to shine forth. Thus, wherever the Supreme Lord and his pure devotee are present, the light of the Absolute Truth will always vanquish the darkness of falsehood. There can be no other outcome.

From the standpoint of our duty, we can interpret this shloka as follows. Regardless of how much time and effort we put into any action, we cannot be assured of success. We saw earlier that the success of any action depends on a multitude of factors, but it boils down to two things: self-effort and Ishvara’s grace. If either aspect is missing, our actions will not be successful. Self-effort or purushaartha alone cannot guarantee a result, neither can waiting for Ishvara’s grace or prasaada without any effort from the part of the individual.

From the absolute standpoint, liberation from bondage, realization of our true self is not possible purely through self-effort. We need to perform our duty selflessly, in a spirit of service to Ishvara, without any other person or object as our goal. Selfless devoted service to Ishvara, combined with Ishvara’s grace, will result in progress and success in the spiritual journey. Without Ishvara’s grace, it is not possible.

In practice, the study of the Gita will not end with just reading the Gita once. A living being can know the reason for his salvation and his existence in this world only when he knows the balance between knowledge and masculinity. This balance means wherever there is Yogeshwar Krishna and archer Arjun, there is also Shri i.e. prosperity, Vijay i.e. success, Niti i.e. justifiable deeds and work and Karma Yoga Sanyas i.e. liberation with a detached and selfless attitude. Hence, the Gita is the style and basis of life, it is not just a book to be read.

।। हिंदी समीक्षा ।।

सात सौ एक श्लोकों वाली श्रीमद्भगवद्गीता का यह अन्तिम श्लोक है। अधिकांश व्याख्याकारों ने इस श्लोक पर पर्याप्त विचार नहीं किया है और इसकी उपयुक्त व्याख्या भी नहीं की है। प्रथम दृष्टि में इसका शाब्दिक अर्थ किसी भी बुद्धिमान पुरुष को प्राय निष्प्राण और शुष्क प्रतीत होगा। आखिर इस श्लोक में संजय केवल अपने विश्वास और व्यक्तिगत मत को ही तो प्रदर्शित कर रहा है, जिसे गीता के पाठक स्वीकार करे ही, ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है।

संजय का कथन यह है कि जहाँ योगेश्वर श्री कृष्ण है और जहाँ गांडीव धनुष धारी अर्जुन है, वहाँ ही श्री अर्थात विजय है।

प्रस्तुत कथन धृतराष्ट्र को अंतिम चेतावनी के तौर पर कथन है कि जहाँ सूर्य है, वही प्रकाश है। जहाँ श्री कृष्ण है वहाँ ही सम्पूर्ण शोभा, सारा ऐश्वर्य एवम न्याय, धर्म और सत्य होगा।अतः पांडव की विजय निश्चित है। यह अंतिम श्लोक धृतराष्ट्र के प्रथम श्लोक में जिज्ञासा एवम धर्म क्षेत्र में कौरव और पांडव के युद्ध के निर्णय का अग्रिम परिणाम की घोषणा भी है।

संजय का उद्देश्य अपने व्यक्तिगत मत को हम पर थोपने का होता, और इस श्लोक में किसी विशेष सत्य का प्रतिपादन नहीं किया होता, तो, सार्वभौमिक शास्त्र के रूप में गीता को प्राप्त मान्यता समाप्त हो गयी होती। पूर्ण सिद्ध महर्षि व्यास इस प्रकार की त्रुटि कभी नहीं कर सकते थे, इस श्लोक का गम्भीर आशय है, जिसमें अकाट्य सत्य का प्रतिपादन किया गया है। योगेश्वर श्रीकृष्ण सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण चैतन्य स्वरूप आत्मा के ही प्रतीक हैं। यह आत्मतत्त्व ही वह अधिष्ठान है, जिस पर विश्व की घटनाओं का खेल हो रहा है। गीता में उपदिष्ट विविध प्रकार की योग विधियों में किसी भी विधि से अपने हृदय में उपस्थित उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है।धनुर्धारी पार्थ इस ग्रन्थ में, पृथापुत्र अर्जुन एक भ्रमित, परिच्छिन्न, असंख्य दोषों से युक्त जीव का प्रतीक है। जब वह अपने प्रयत्न और उपलब्धि के साधनों (धनुष बाण) का परित्याग करके शक्तिहीन आलस्य और प्रमाद में बैठ जाता है, तो निसन्देह, वह किसी प्रकार की सफलता या समृद्धि की आशा नहीं कर सकता। परन्तु जब वह धनुष् धारण करके अपने कार्य में तत्पर हो जाता है, तब हम उसमें धनुर्धारी पार्थ के दर्शन करते हैं, जो सभी चुनौतियों का सामना करने के लिए तत्पर है।

संजय ने उन्हें सूचित किया कि सापेक्ष शक्ति और दोनों सितारों की सेनाओं की संख्या का भौतिक निर्धारण करना अनावश्यक है। इस युद्ध का एक निर्णय यह ही हो सकता है कि विजय हमेशा उसी पक्ष की होगी जहां भगवान और उनके अनुयायी हैं और इसलिए अच्छाई, प्रभुता, समृद्धि और समृद्धि भी वहीं होगी।

भगवान स्वतंत्र, स्वयं निर्वाहक एवं संसार के संप्रभु हैं और श्रद्धालु तथा पूजा के परम लक्ष्य हैं। “न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते” (श्वेताश्वतरोपनिषद् 6.8) अर्थात् उनका समान कोई नहीं, कोई भी उनका बड़ा नहीं। परमात्मा की अद्भुत शक्तियों और उनकी अतुलनीय महिमा को प्रकट करने के लिए उन्हें एक माध्यम की आवश्यकता है। जो जीवात्मा उनका शरणागत होता है वे उन्हें अपनी महिमामंडित करने के लिए दिव्य शरीर प्रदान करते हैं। इसलिए भगवान और उनके शिष्य जहां रहते हैं वहां परम सत्य का प्रकाश सदैव असत्य के अंधकार को परास्त कर देता है।

इस प्रकार, योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन के इस चित्र से आदर्श जीवन पद्धति का रूपक पूर्ण हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति से सम्पन्न कोई भी पुरुष जब अपने कार्यक्षेत्र में प्रयत्नशील हो जाता है, तो कोई भी शक्ति उसे सफलता से वंचित नहीं रख सकती।

ऐसा ही विचार हम ने विभिन्न लेखकों द्वारा इस श्लोक के अर्थ के पढा।

ध्यान ही धनुष है, इन्द्रियों की दृढ़ता ही गांडीव है अर्थात स्थिरता के साथ ध्यान धरनेवाला ही महात्मा अर्जुन है, वही पर श्री-ऐश्वर्य, विजय जिस के पीछे हार नही है, ईश्वरीय विभूति और चल संसार मे अचल रहने वाली नेति है।

जहाँ युक्ति और शक्ति दोनो एकत्रित होती है, वहां निश्चय ही ऋद्धि सिद्धि निवास करती है। जरासंध के वध के समय भगवान श्री कृष्ण ने कहा था कि बल अंधा एवम जड़ है, बुद्धिमानो को चाहिये कि उसे मार्ग दिखाना चाहिये। इसलिये मुझे भीम के बल की आवश्यकता है। केवल नीति बतलाने वाला आधा ही चतुर होता है। यहाँ योगेश्वर का अर्थ है युक्ति एवम शक्ति से युक्त योद्धा लेंगे।

संजय द्वारा भगवान श्री कृष्ण को योगेश्वर कह कर संबोधित किया गया है, जिस का तात्पर्य उन सभी योगो के ईश्वर से है जो अपने से भिन्न संपूर्ण वस्तु के स्वरूप, स्थिति और प्रवृति का भेद आदि के संकल्प को धारण करता है, इसलिए वही आदि, मध्य और अन्त है। उस ईश्वर के साथ साम्य बुद्धि से युक्त अर्जुन जैसे वीर योद्धा निमित्त स्वरूप में है, तो विजय वही होगी। यह योग अर्थात युक्ति और अर्जुन अर्थात शक्ति का मिलन है। जब तक दोनो की संगति न हो, किसी भी कार्य का सफलता पूर्वक होना संभव नही। बल अंधा होता है, इसलिए बुद्धि द्वारा उस को यदि सही प्रकार से निर्देशित किया जाए तो कार्य सफल होने में कोई संदेह नहीं।

व्यवहार में किसी भी कार्य को करने में कार्य की क्षमता और साहस से सफलता तभी होगी जब कार्य निरंतर योजना बद्ध तरीके से किया जाए। महाभारत में कौरव के पक्ष में अनेक योद्धाओं को विभिन्न योजनाओं और तरीके से उन की कमजोरियों को समझ कर समाप्त किया गया, यदि ऐसा नहीं किया जाता तो संपूर्ण पांडव की सेना को समाप्त करने के अकेले भीष्म, कर्ण या द्रोणाचार्य ही काफी थे। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए बाधाए कितनी भी बड़ी क्यों न आ जाए, उसे युक्ति, बुद्धि और बल से हराया जा सकता है। यही सफलता का मूल सूत्र भी है। इसलिए हम जो कुछ भी सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक या आध्यात्मिक आदि कार्य करते है, वह यदि साम्य बुद्धि से परमात्मा को समर्पित करते हुए, कर्तव्य मान कर, आसक्ति, मोह, कामना,स्वार्थ एवम अहम को त्याग कर करते रहे तो उस कार्य में सफलता भी निश्चित है और वह कार्य ही परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ पूजा भी है। यही जीवन को जीने का मूल मंत्र भी है। जब तक हम निर्लिप्त और निस्वार्थ हो कर अपने कर्म नहीं करते और भोक्तृत्व और कर्तृत्व भाव में रहते है, हम प्रकृति के आनंद को न तो भोग सकते है और न ही मोक्ष को प्राप्त कर सकते है।

व्यवहार में गीता का अध्ययन एक बार गीता पढ़ लेने से समाप्त नहीं होगा। यह संसार में जीव को मुक्ति और संसार में अपने रहने का कारण तभी पता चल सकता है जब उसे ज्ञान और पौरुष के तालमेल का पता हो। यह तालमेल अर्थात योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन जहां भी होगा, वहां श्री अर्थात सम्पन्नता, विजय यानि सफलता, नीति यानि न्यायोचित कर्म और कार्य और निर्लिप्त एवं निष्काम भाव से कर्म योग सन्यास अर्थात मुक्ति भी है। अतः गीता जीवन की शैली और आधार है, यह सिर्फ पढ़ने का ग्रन्थ नहीं है।

किसी भी ग्रंथ के आर्शीवाद मंगल, नमस्कार मंगल या वस्तु निर्देशात्मक मंगल स्वरूप में “श्री” का उपयोग होता है तो वह ग्रंथ मंगल फल दायक हो जाता है। गीता के अंतिम ग्रंथ में वस्तु निर्देशात्मक “श्री” शब्द के प्रयोग से गीता का पाठ करने वाला वीर, प्रसिद्ध, दीर्घ आयु एवम ज्ञानी होता है।

गीता की समाप्ति इस संदेश के साथ देने का उद्देश्य हम व्यवहारिक रूप में यही ले सकते है कि मनुष्य को परब्रह्म पर पूर्ण श्रद्धा एवम विश्वास के साथ समर्पित भाव से अपने कर्म को पूर्ण लगन एवम क्षमता से निष्काम हो कर करते रहना चाहिए। जिस से कभी भी मन मे कभी भी संशय, भय या शिथिलता का अनुभव हो तो वह उसे परमात्मा के ऊपर छोड़ कर अपने कर्तव्य धर्म को अविचलित भाव से करता रहे। इसी में सिद्धि एवम विजय है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.78।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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