।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.74 II Additional II
।। अध्याय 18.74 II विशेष II
।। चलते – चलते ।। गीता विशेष 18.74 ।।
यहां अब यह कहना अप्रासंगिक नही होगा कि गीता की कसम न्यायलय में किसी ने क्या सोच कर रखी होगी। गीता एक धार्मिक ग्रंथ के अतिरिक्त व्यक्तित्व के विकास, न्याय एवम सत्य का भी ग्रंथ है। पंच को परमेश्वर कहा गया है। अतः एक गवाह को शपथ द्वारा यह याद करवाया जाता है कि तुम न्याय के मन्दिर में परमेश्वर के समक्ष उपस्थित हो अतः यहां जो कुछ भी तुम्हे कहना है, वह धर्म एवम नीतिशास्त्र के अनुसार ही सुना एवम माना जायेगा, इसलिये निस्पृह हो कर, आसक्ति को त्याग कर, एक जितेंद्रिय की भांति सत्य को कहो। अपने कर्तव्य धर्म का पालन करो। फिर न्याय के इस मंदिर में जिस के लिए तुम्हे सत्य का वर्णन करना है, वह कोई भी हो, मोह, ममता, भय और अहंकार को त्याग कर अपना सत्य उजागर करो।
गीता धर्म, न्याय, नीति एवम सत्य का शास्त्र है जो मनुष्य मात्र के लिये है। इसलिये न्यायधीश को सत्य एवम न्याय का निर्णय लेने से पूर्व अपने व्यक्तित्व में किस प्रकार के नियमों का पालन करना चाहिये, इस प्रकार का समस्त ज्ञान उसे होना चाहिए। न्याय करते समय एक कर्म सन्यासी की भांति निस्पृह, अनासक्त एवम जितात्मा की भांति न्याय करना चाहिये। गीता नीति, न्याय एवम धर्म का सामाजिक ग्रन्थ है। यही कारण के गीता का विश्व मे सब से अधिक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।
गीता कहती है कि जब राजा (धृतराष्ट्र) पुत्र मोह एवम आसक्ति में फस कर अपना धर्म भूल जाता है, जब पुत्र (दुर्योधन)आसक्ति, मोह एवम लोभ में राज्य धर्म की मान मर्यादाओं को भूल जाता है। जब कुल की मर्यादाओ का रक्षक (भीष्म) अपनी ही बनाई हुई प्रतिज्ञाओं की जंजीर में जकड़ा हो, विवश हो। जब ज्ञान (द्रोणाचार्य) धन के कारण बिक गया हो और धर्म (कृपाचार्य) विवश हो। जहां शूरवीरता (कर्ण) अहसानो के बोझ तले दब जाए और अहंकार एवम मद सामाजिक मर्यादाओ (द्रोपती) को छिन्न भिन्न करने लगे, जब सत्य के मार्ग पर चलने वाले (विदुर) तिस्कृत हो एवम कपटी, धूर्त एवम असत्य (शकुनि) का बोलबाला हो, तो गीता के ज्ञान से ऐसे सम्पूर्ण समाज को एवम ऐसे समाज मे विवश व्यक्तियों को, जो अपना उत्तरदायित्व नही निभा सकते, नष्ट कर देना ही उचित है। जिस से नया समाज की रचना धर्म एवम नीतिशास्त्र के अनुसार की जा सके।
देश का नेतृत्व, न्यायपालिका, शिक्षा और प्रशासन सभी यदि कामना और आसक्ति में कार्य करेंगे तो अराजकता, धर्मांधता, भ्रष्टाचार, रिश्वशखोरी और अन्याय का बोल बाला ही होगा। इसलिए गीता मात्र शपथ की विषय वस्तु बन कर नहीं रह जाए, इस का पठन छात्र जीवन से प्रत्येक नागरिक के अनिवार्य होना चाहिए।
सनातन संस्कृति में दर्शन शास्त्र का अत्यंत महत्व है। सनातन संस्कृति की धर्म, मत या संप्रदाय नहीं था, वरन यह हमारे पूर्वजों की चिंतन और अन्वेषण की शैली थी जिस में हर विचार धारा को सम्मान के साथ स्वीकार किया गया। इसलिए सनातन संस्कृति विज्ञान और आध्यात्म दोनों की स्वीकार करते हुए, किसी भी मत या विचारधारा पर रूढ़िवादी नहीं हुई और उन्नत होते होते वेदांत तक पहुंची। अतिभौतिकवाद साक्ष्य पर विश्वास रखता है, वह अपनी हर सिद्धांत को प्रमाणित करता है। किंतु अध्यात्म अनुभव और ज्ञान पर आधारित है। इस का प्रमाण भी उन्हें प्राप्त है जो अध्यात्म के सिंद्धांतो पर अभ्यास करते है। वेदांत आतिभौतिकवाद के पश्चिम दर्शन के कहीं आगे अध्यात्म पर प्रमाण पर आधारित संस्कृति का परिचायक है। किंतु कट्टर और मताधान्त संप्रदाय मुस्लिम और ईसाई के विचार में सनातन विचार धारा को हिंदू नाम दे दिया। और फिर यह हिंदू शब्द को धार्मिक आधार मिलना शुरू तो हो गया किंतु कोई संकुचित परिभाषा नहीं हुई। कालांतर में हिंदू धर्म के लोगों में नैतिक मूल्य का आधार भी अतिभौतिकवाद के साथ अन्य धर्म के समान चलने लगा और आध्यात्म के अनुभव स्वरूप की अपेक्षा स्वार्थ और लोभ में अध्यात्म भी राजसी और तामसी गुणों से युक्त हो कर सामने आने लगा।
आधुनिक युग में हिंदू में आंतरिक आत्मविश्वास जिसे दंभ भी कह सकते है, इतना अधिक है कि वह सुनी सुनाई बातों के आधार पर ज्ञानी बन कर अपना की राग अलाप रहा है। वह अपने अधूरे ज्ञान और संवेदनाओं को ही धर्म के आधार समझ रहा है। इसलिए दया, दान, पूजा पाठ आदि सभी अज्ञानता और सुविधा के अनुसार करने लगा है। अतिभौतिकवादिता में हिंदू ने अध्यात्म को मुक्ति या मोक्ष का मार्ग न समझ कर, विलासिता और व्यापार का माध्यम बना दिया। संवेदनशीलता जिस में कभी अर्जुन मोहित को कर युद्ध नहीं लड़ने की बात कर रहा था, आज राजनीति, व्यवसाय और ढोंग का हिस्सा बन कर रह गई। गीता में कहा भी गया है कि जब शास्त्र को छोड़ कर स्वयं की सुविधा से धर्म और यज्ञ किए जाते है, तो वे तामसी होते है। इसी कारण हिंदू धर्म के प्रति निष्ठा स्वार्थ में लिप्त होती जा रही है और स्वार्थ में हिंदू ही धर्म को नष्ट करने लग गए है।
वैदिक संस्कृति के ओतप्रोत हिंदू संस्कृति में दासता का अंधेरा छाया और इस में कुरीतियों ने जन्म लिया। जिस ब्राह्मण वर्ण को समाज का मार्गदर्शन करना था, जिस क्षत्रिय वर्ण को समाज की रक्षा करनी थी, जिस वैश्य धर्म को समाज का पालन करना था और जिस शुद्र वर्ण को समाज की सेवा करनी थी, वह कर्म आधारित नहीं हो कर, जन्म आधारित जाति में परिवर्तित हो गया और सभी वर्ण के लोग अतिभौतिकवाद में प्रकृति के सौंदर्य में आकर्षित हो कर, धन और विलासिता को महत्व ज्ञान और त्याग से अधिक देने लगे। सन्यास मठों और आश्रमों में परिवर्तित होने लगा। किंतु समय समय पर अनेक महापुरुषों ने इस संस्कृति को बचाए रखा। आज के युग में सभी हिंदू या सनातन संस्कृति को मानने वालों का दायित्व है कि वह इस संस्कृति के मूल्यों को पढ़े, समझे और अपनी आने वाली पीढ़ी को दे। वर्ण व्यवस्था को कर्म पर आधारित करते हुए सनातन संस्कृति की छुआछूत, स्वार्थ, लोभ और ऊंच नीच की राजनीति और व्यावसायिकता से अपने को मुक्त करे। सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए आज भी अनेक महापुरुष सतत निस्वार्थ भाव से कार्य भी कर रहे है और हिंदू धर्म के लोगों में उन की ह्रास हुई चेतना शक्ति एवं आत्मविश्वास को पुनः लौटने के कार्य भी कर रहे है, उन को हृदय से मै प्रणाम भी करता हूं।
क्या हम इस दायित्व को उठाने के लिए तैयार है? क्या धन कमाना और बच्चों को पालना यही कर्तव्य है? क्या हम अन्य कट्टर पंथियों और अपने ही संस्कृति के गुमराह लोगों से अपनी और अपनी संस्कृति की रक्षा करने को समर्थ है? ऐसे अनेक प्रश्न गीता अध्ययन करने वालों के समझ होना चाहिए। जरूरत अब स्वार्थ और लोभ से ऊपर उठने की है, किंतु संसार की भौतिक सुविधाएं हमें अनैतिक बना रही है, आइए इसे समझे। शास्त्र और शस्त्र धर्म की रक्षा, निस्वार्थ कर्म और ज्ञान के लिए है, ये धन कमाने के साधन नहीं हो सकते।
गीता के अनुसार सभी अपने अपने कर्मफलों के अनुसार प्रकृति के गुणों के अनुसार नियत कर्म को करने के लिये बाध्य है, अतः निष्काम भाव से कर्तव्य धर्म का पालन करते हुए, समाज मे लोकसंग्रह हेतु नियत कर्म को अपने अपने वर्ण आश्रम के अनुसार करते रहना चाहिये। मोक्ष की सब का अंतिम धैय है, जिस के सभी वर्ण समान रूप से अधिकारी है। यही समाज की उत्तम व्यवस्था एवम सृष्टि की सुंदर एवम अद्वितीय रचना है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता विशेष – 18.74 ।।
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