।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.73 II Additional II
।। अध्याय 18.73 II विशेष II
।। अर्जुन द्वारा स्वीकारोती को स्वामी रामसुखदास के शब्दो में।। गीता विशेष 18.73 ।।
अर्जुन ने यहाँ भगवान् के लिये अच्युत सम्बोधन का प्रयोग किया है। इस का तात्पर्य है कि जीव तो च्युत हो जाता है अर्थात् अपने स्वरूप से विमुख हो जाता है तथा पतन की तरफ चला जाता है परन्तु भगवान् कभी भी च्युत नहीं होते। वे सदा एकरस रहते हैं। इस सम्बोधन से अर्जुन संदेहरहित हो कर कहते हैं कि अब मैं आप की आज्ञाका पालन करूँगा, तो भगवान् में कोई फरक नहीं पड़ा। तात्पर्य यह हुआ कि अर्जुन की तो आदि, मध्य और अन्त में तीन प्रकार की अवस्थाएँ हुईँ, पर भगवान् की आदि, मध्य और अन्त में एक ही अवस्था रही अर्थात् वे एकरस ही बने रहे।
दूसरे अध्याय में अर्जुन ने शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् कह कर भगवान् की शरणागति स्वीकार की थी। इस श्लोक में उस शरणागति की पूर्णता होती है।
दसवें अध्याय के अन्त में भगवान् ने अर्जुन से यह कहा कि तेरे को बहुत जानने की क्या जरूरत है, मैं सम्पूर्ण संसार को एक अंश में व्याप्त कर के स्थित हूँ इस बात को सुनते ही अर्जुन के मन में एक विशेष भाव पैदा हुआ कि भगवान् कितने विलक्षण हैं भगवान् की विलक्षणता की ओर लक्ष्य जाने से अर्जुन को एक प्रकाश मिला। उस प्रकाश की प्रसन्नता में अर्जुन के मुख से यह बात निकल पड़ी कि मेरा मोह चला गया। परन्तु भगवान् के विराट्रूप को देख कर जब अर्जुन के हृदय में भय के कारण हलचल पैदा हो गयी, तब भगवान् ने कहा कि यह तुम्हारा मूढ़भाव है, तुम व्यथित और मोहित मत होओ । इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन का मोह तब नष्ट नहीं हुआ था। अब यहाँ सर्वज्ञ भगवान् के पूछने पर अर्जुन कह रहे हैं कि मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे तत्त्व की अनादि स्मृति प्राप्त हो गयी।
अन्तःकरण की स्मृति और तत्त्व की स्मृति में बड़ा अन्तर है। प्रमाण से प्रमेय का ज्ञान होता है परन्तु परमात्मतत्त्व अप्रमेय है। अतः परमात्मा प्रमाण से व्याप्य नहीं हो सकता अर्थात् परमात्मा प्रमाण के अन्तर्गत आनेवाला तत्त्व नहीं है। परन्तु संसार सब का सब प्रमाण के अन्तर्गत आनेवाला है और प्रमाण प्रमाता के अन्तर्गत आनेवाला है।प्रमाता एक होता है और प्रमाण अनेक होते हैं। प्रमाणों के बारे में कई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम — ये तीन मुख्य प्रमाण मानते हैं कई प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द – ये चार प्रमाण मानते हैं और कई इन चारों के सिवाय अर्थापत्ति, अनुपलब्धि और ऐतिह्य – ये तीन प्रमाण और भी मानते हैं। इस प्रकार प्रमाणों के मानने में अनेक मतभेद हैं परन्तु प्रमाता के विषय में किसी का कोई मतभेद नहीं है। ये प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाण वृत्तिरूप होते हैं परन्तु प्रमाता वृत्तिरूप नहीं होता, वह तो स्वयं अनुभवरूप होता है। अब इस स्मृति शब्द की जहाँ व्याख्या की गयी है, वहाँ उस के ये लक्षण बताये हैं –
(1)अनुभूत विषय का न छिपाना अर्थात् प्रकट हो जाना स्मृति है।
(2) (तर्कसंग्रह) संस्कार मात्र से जन्य हो और ज्ञान हो, उस को स्मृति कहते हैं। यह स्मृति अन्तःकरण की एक वृति है। यह वृत्ति प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति – पाँच प्रकार की होती है तथा हर प्रकार की वृत्ति के दो भेद होते हैं – क्लिष्ट और अक्लिष्ट। संसार की वृत्तिरूप स्मृति क्लिष्ट होती है अर्थात् बाँधनेवाली होती है और भगवत्सम्बन्धी वृत्तिरूप स्मृति अक्लिष्ट होती है अर्थात् क्लेश को दूर करनेवाली होती है। इन सब वृत्तियों का कारणअविद्या है। परन्तु परमात्मा अविद्या से रहित है। इसलिये परमात्मा की स्मृति स्वयं से ही होती है, वृत्ति या करण से नहीं। जब परमात्मा की स्मृति जाग्रत् होती है तो फिर उस की कभी विस्मृति नहीं होती, जबकि अन्तःकरण की वृत्ति में स्मृति और विस्मृति – दोनों होती हैं।
परमात्मतत्त्व की विस्मृति या भूल तो असत् संसार को सत्ता और महत्ता देने से ही हुई है। यह विस्मृति अनादिकाल से है। अनादिकाल से होने पर भी इस का अन्त हो जाता है। जब इस का अन्त हो जाता है और अपने स्वरूप की स्मृति जाग्रत् होती है, तब इस को स्मृतिर्लब्धा कहते हैं अर्थात् असत् के सम्बन्ध के कारण जो स्मृति सुषुप्तिरूप से थी, वह जाग्रत् हो गयी। जैसे एक आदमी सोया हुआ है और एक मुर्दा पड़ा हुआ है – इन दोनों में महान् अन्तर है, ऐसे ही अन्तःकरण की स्मृति विस्मृति दोनों ही मुर्दे की तरह जड हैं, पर स्वरूप की स्मृति सुप्त है, जड नहीं। केवल जड का आदर करने से सोये हुए की तरह ऊपर से वह स्मृति लुप्त रहती है अर्थात् आवृत रहती है। उस आवरण के न रहने पर उस स्मृति का प्राकट्य हो जाता है तो उसे स्मृतिर्लब्धा कहते हैं अर्थात् पहले से जो तत्त्व मौजूद है, उसका प्रकट होना स्मृति है और आवरण हटने का नाम लब्धा है।
साधकों की रुचिके अनुसार उसी स्मृति के तीन भेद हो जाते हैं — (1) कर्मयोग अर्थात् निष्कामभावकी स्मृति (2) ज्ञानयोग अर्थात् अपने स्वरूपकी स्मृति और (3) भक्तियोग अर्थात् भगवान् के सम्बन्ध की स्मृति। इस प्रकार इन तीनों योगों की स्मृति जाग्रत् हो जाती है क्योंकि ये तीनों योग स्वतःसिद्ध और नित्य हैं। ये तीनों योग जब वृत्ति के विषय होते हैं, तब ये साधन कहलाते हैं परन्तु स्वरूप से ये तीनों नित्य हैं। इसलिये नित्य की प्राप्ति को स्मृति कहते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि इन साधनों की विस्मृति हुई है, अभाव नहीं हुआ है।असत् संसार के पदार्थों को आदर देने से अर्थात् उन को सत्ता और महत्ता देने से राग पैदा हुआ – यह कर्मयोग की विस्मृति (आवरण) है। असत् पदार्थों के सम्बन्ध से अपने स्वरूप की विमुखता हुई अर्थात् अज्ञान हुआ – यह ज्ञानयोग की विस्मृति है। अपना स्वरूप साक्षात् परमात्मा का अंश है। इस परमात्मा से विमुख होकर,संसार के सम्मुख होने से संसार में आसक्ति हो गयी। उस आसक्ति से प्रेम ढक गया — यह भक्तियोग की विस्मृति है।स्वरूप की विस्मृति अर्थात् विमुखता का नाश होना यहाँ स्मृति है। उस स्मृति का प्राप्त होना अप्राप्त का प्राप्त होना नहीं है, प्रत्युत नित्यप्राप्त का प्राप्त होना है। नित्य स्वरूप की प्राप्ति होने पर फिर उस की विस्मृति होना सम्भव नहीं है क्योंकि स्वरूप में कभी परिवर्तन हुआ नहीं। वह सदा निर्विकार और एकरस रहता है। परन्तु वृत्तिरूप स्मृति की विस्मृति हो सकती है क्योंकि वह प्रकृति का कार्य होने से परिवर्तनशील है। इन सब का तात्पर्य यह हुआ कि संसार तथा शरीर के साथ अपने स्वरूप को मिला हुआ समझना विस्मृति है और संसार तथा शरीर से अलग होकर अपने स्वरूप का अनुभव करना स्मृति है। अपने स्वरूप की स्मृति स्वयं से होती है। इस में करण आदि की अपेक्षा नहीं होती जैसे – मनुष्य को अपने होनेपन का जो ज्ञान,होता है, उस में किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जिस में करण आदि की अपेक्षा होती है, वह स्मृति अन्तःकरण की एक वृत्ति ही है।स्मृति तत्काल प्राप्त होती है। इस की प्राप्ति में देरी अथवा परिश्रम नहीं है। कर्ण कुन्ती के पुत्र थे। परन्तु जन्म के बाद जब कुन्ती ने उन का त्याग कर दिया, तब अधिरथ नामक सूत की पत्नी राधा ने उन का पालनपोषण किया। इस से वे राधा को ही अपनी माँ मानने लगे। जब सूर्यदेव से उन को यह पता लगा कि वास्तव में मेरी माँ कुन्ती है, तब उन को स्मृति प्राप्त हो गयी। अब मैं कुन्ती का पुत्र हूँ – ऐसी स्मृति प्राप्त होनेमें कितना समय लगा कितना परिश्रम या अभ्यास करना पड़ा कितना जोर आया पहले उधर लक्ष्य नहीं था, अब उधर लक्ष्य हो गया — केवल इतनी ही बात है।स्वरूप निष्काम है, शुद्धबुद्धमुक्त है और भगवान् का है। स्वरूप की विस्मृति अर्थात् विमुखता से ही जीव सकाम, बद्ध और सांसारिक होता है। ऐसे स्वरूप की स्मृति वृत्ति की अपेक्षा नहीं रखती अर्थात् अन्तःकरण की वृत्ति से स्वरूप की स्मृति जाग्रत् होना सम्भव नहीं है। स्मृति तभी जाग्रत् होगी, जब अन्तःकरण से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होगा। स्मृति अपने ही द्वारा अपने आप में जाग्रत् होती है। अतः स्मृति की प्राप्ति के लिये किसी के सहयोगकी या अभ्यास की जरूरत नहीं है। कारण कि जडता की सहायता के बिना अभ्यास नहीं होता, जबकि स्वरूपके साथ जडताका लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है। स्मृति अनुभवसिद्ध है, अभ्यास साध्य नहीं है। इसलिये एक बार स्मृति जाग्रत् होने पर फिर उस की पुनरावृत्ति नहीं करनी पड़ती।स्मृति भगवान् की कृपा से जाग्रत् होती है। कृपा होती है भगवान् के सम्मुख होने पर और भगवान् की सम्मुखता होती है संसारमात्र से विमुख होने पर। जैसे अर्जुन ने कहा कि मैं केवल आप की आज्ञा का ही पालन करूँगा – ऐसे ही संसार का आश्रय छोड़कर केवल भगवान् के शरण होकर कह दे कि हे नाथ अब मैं केवल आप की आज्ञा का ही पालन करूँगा।तात्पर्य है कि इस स्मृति की लब्धिमें साधक की सम्मुखता और भगवान् की कृपा ही कारण है। इसलिये अर्जुन ने स्मृति के प्राप्त होने में केवल भगवान् की कृपा को ही माना है। भगवान् की कृपा तो मात्र प्राणियों पर अपार अटूट अखण्डरूप से है। जब मनुष्य भगवान् के सम्मुख हो जाता है, तब उस को उस कृपा का अनुभव हो जाता है।
अर्जुन कह रहे हैं कि आप ने विशेषता से जो सर्वगुह्यतम तत्त्व बताया, उस की मुझे विशेषता से स्मृति आ गयी कि मैं आपका ही था, आप का ही हूँ और आप का ही रहूँगा। यह जो स्मृति आ गयी है, यह मेरी एकाग्रता से सुनने की प्रवृत्ति से नहीं आयी है अर्थात् यह मेरे एकाग्रता से सुननेका फल नहीं है, प्रत्युत यह स्मृति तो आप की कृपा से ही आयी है। पहले मैंने शरण होकर शिक्षा देने की प्रार्थना की थी और फिर यह कहा था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा परन्तु मेरे को जब तक वास्तविकता का बोध नहीं हुआ, तब तक आप मेरे पीछे पड़े ही रहे। इस में तो आप की कृपा ही कारण है। मेरे को जैसा सम्मुख होना चाहिये, वैसा मैं सम्मुख नहीं हुआ हूँ परन्तु आप ने बिना कारण मेरे पर कृपा की अर्थात् मेरे पर कृपा करने के लिये आप अपनी कृपा के परवश हो गये, वशीभूत हो गये और बिना पूछे ही आपने शरणागतिकी सर्वगुह्यतम बात कह दी। उसी अहैतुकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हुआ है।
अर्जुन कहते हैं कि मूल में मेरा जो यह सन्देह था कि युद्ध करूँ या न करूँ। वह मेरा सन्देह सर्वथा नष्ट हो गया है और मैं अपनी वास्तविकता में स्थित हो गया हूँ। वह संदेह ऐसा नष्ट हो गया है कि न तो युद्ध करने की मन में रही और न युद्ध न करने की ही मन में रही। अब तो यही एक मन में रही है कि आप जैसा कहें, वैसा मैं करूँ अर्थात् अब,तो बस, आपकी आज्ञा का ही पालन करूँगा। अब मेरे को युद्ध करने अथवा न करने से किसी तरह का किञ्चिन्मात्र भी प्रयोजन नहीं है। अब तो आप की आज्ञा के अनुसार लोकसंग्रहार्थ युद्ध आदि जो कर्तव्यकर्म होगा, वह करूँगा।
अब एक ध्यान देनेकी बात है कि पहले कुटुम्ब का स्मरण होने से अर्जुन को मोह हुआ था। उस मोह के वर्णन में भगवान् ने यह प्रक्रिया बतायी थी कि विषयों के चिन्तन से आसक्ति, आसक्ति से कामना, कामना से क्रोध, क्रोध से मोह, मोह से स्मृतिभ्रंश, स्मृतिभ्रंश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से पतन होता है। अर्जुन भी यहाँ उसी प्रक्रिया को याद दिलाते हुए कहते हैं कि मेरा मोह नष्ट हो गया है और मोह से जो स्मृति भ्रष्ट होती है, वह स्मृति मिल गयी है। स्मृति नष्ट होने से बुद्धिनाश हो जाता है, इस के उत्तर में अर्जुन कहते हैं कि मेरा सन्देह चला गया है। बुद्धिनाश से पतन होता है, उसके उत्तर में कहते हैं कि मैं अपनी स्वाभाविक स्थिति में स्थित हूँ। इस प्रकार उस प्रक्रिया को बताने में अर्जुनका तात्पर्य है कि मैंने आप के मुख से ध्यानपूर्वक गीता सुनी है, तभी तो आपने सम्मोह का कहाँ प्रयोग किया है और सम्मोह की परम्परा कहाँ कही है, वह भी मेरे को याद है। परन्तु मेरे मोह का नाश होने में तो आप की कृपा ही कारण है। यद्यपि वहाँ का और यहाँ का –दोनों का विषय भिन्नभिन्न प्रतीत होता है क्योंकि वहाँ विषयों के चिन्तन करने आदि क्रम से सम्मोह होने की बात है और यहाँ सम्मोह मूल अज्ञान का वाचक है, फिर भी गहरा विचार किया जाय तो भिन्नता नहीं दीखेगी। वहाँ का विषय ही यहाँ आया है। दूसरे अध्याय के इकसठवें से तिरसठवें श्लोक तक भगवान् ने यह बात बतायी कि इन्द्रियों को वश में कर के अर्थात् संसार से सर्वथा विमुख हो कर केवल मेरे परायण होनेसे बुद्धि स्थिर हो जाती है। परन्तु मेरे परायण न होने से मन में स्वाभाविक ही विषयों का चिन्तन होता है। विषयों का चिन्तन होने से पतन ही होता है क्योंकि यह आसुरी सम्पत्ति है। परन्तु यहाँ उत्थान की बात बतायी है कि संसार से विमुख होकर भगवान् के सम्मुख होने से मोह नष्ट हो जाता है क्योंकि यह दैवीसम्पत्ति है। तात्पर्य यह हुआ कि वहाँ भगवान् से विमुख होकर इन्द्रियों और विषयों के परायण होना पतन में हेतु है और यहाँ भगवान् के सम्मुख होने पर भगवान् के साथ वास्तविक सम्बन्ध की स्मृति आने में भगवत्कृपा ही हेतु है।भगवत्कृपा से जो काम होता है, वह श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, समाधि आदि साधनों से नहीं होता। कारण कि अपना पुरुषार्थ मानकर जो भी साधनों से नहीं होता। कारण कि अपना पुरुषार्थ मानकर जो भी साधन किया जाता है, उस साधन में अपना सूक्ष्म व्यक्तित्व अर्थात् अहंभाव रहता है। वह व्यक्तित्व साधन में अपना पुरुषार्थ न मान कर केवल भगवत्कृपा मानने से ही मिटता है।
अर्जुन ने कहा कि मुझे स्मृति मिल गयी । तो विस्मृति किसी कारण से हुई जीव ने असत् के साथ तादात्म्य मान कर असत् की मुख्यता मान ली, इसी से अपने सत्स्वरूप की विस्मृति हो गयी। विस्मृति होने से इस ने असत् की कमी को अपनी कमी मान ली, अपने को शरीर मानने (मैंपन) तथा शरीर को अपना मानने (मेरापन) के कारण इस ने असत् शरीर की उत्पत्ति और विनाश को अपनी उत्पत्ति और विनाश मान लिया एवं जिस से शरीर पैदा हुआ, उसी को अपनी उत्पादक मान लियाअब कोई प्रश्न करे कि भूल पहले हुई कि असत् का सम्बन्ध पहले हुआ अर्थात् भूल से असत् का सम्बन्ध हुआ कि असत् के सम्बन्ध से भूल हुई तो इस का उत्तर है कि अनादिकाल से जन्म मरण के चक्कर में पड़े हुए जीव को जन्म मरण से छुड़ा कर सदा के लिये महान् सुखी करने के लिये अर्थात् केवल अपनी प्राप्ति कराने के लिये भगवान् ने जीव को मनुष्य शरीर दिया। भगवान् का अकेले में मन नहीं लगा – इसलिये उन्होंने अपने साथ खेलने के लिये मनुष्य शरीर की रचना की। खेल तभी होता है, जब दोनों तरफ के खिलाड़ी स्वतन्त्र होते हैं। अतः भगवान् ने मनुष्य शरीर देने के साथसाथ इसे स्वतन्त्रता भी दी और विवेक (सत् असत् का ज्ञान) भी दिया। दूसरी बात, अगर इसे स्वतन्त्रता और विवेक न मिलाता, तो यह पशुकी तरह ही होता, इस में मनुष्यता की किञ्चिन्मात्र भी कोई विशेषता नहीं होती। इस विवेक के कारण असत् को असत् जानकर भी मनुष्य ने मिली हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग किया और असत् में (संसार के भोग और संग्रह के सुख में) आसक्त हो गया। असत् में आसक्त होने से ही भूल हुई है।असत् को असत् जानकर भी यह उस में आसक्त क्यों होता है कारण कि असत् के सम्बन्ध से प्रतीत होनेवाले तात्कालिक सुख की तरफ तो यह दृष्टि रखता है, पर उस का परिणाम क्या होगा, उस तरफ अपनी दृष्टि रखता ही नहीं। (जो परिणाम की तरफ दृष्टि रखते हैं, वे संसारी होते हैं।) इसलिये असत् के सम्बन्ध से ही भूल पैदा हुई है। इस का पता कैसे लगता है जब यह अपने अनुभव में आनेवाले असत् की आसक्ति का त्याग कर के परमात्मा के सम्मुख हो जाता है, इस से सिद्ध हुआ कि परमात्मा से विमुख होकर जाने हुए असत् में आसक्ति होने से ही यह भूल हुई है।असत् को महत्त्व देने से होनेवाली भूल स्वाभाविक नहीं है। इस को मनुष्य ने खुद पैद किया है। जो चीज स्वाभाविक होती है, उसमें परिवर्तन भले ही हो, पर उस का अत्यन्त अभाव नहीं होता। परन्तु भूल का अत्यन्त अभाव होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस भूल को मनुष्य ने खुद उत्पन्न किया है क्योंकि जो वस्तु मिटनेवाली होती है, वह उत्पन्न होनेवाली ही होती है। इसलिये इस भूल को मिटाने का दायित्व भी मनुष्य पर ही है, जिस को वह सुगमतापूर्वक मिटा सकता है। तात्पर्य है कि अपने ही द्वारा उत्पन्न की हुई इस भूल को मिटाने में मनुष्यमात्र समर्थ और सबल है। भूल को मिटाने की सामर्थ्य भगवान् ने पूरी दे रखी है। भूल मिटते ही अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति अपने आप में ही जाग्रत् हो जाती है और मनुष्य सदा के लिये कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य हो जाता है।
अब तक मनुष्य ने अनेक बार जन्म लिया है और अनेक बार कई वस्तुओं, व्यक्तियों, परिस्थितियों, अवस्थाओं, घटनाओं आदि का मनुष्य को संयोग हुआ है परन्तु उन सभी का उस से वियोग हो गया और वह स्वयं वही रहा। कारण कि वियोग का संयोग अवश्यम्भावी नहीं है, पर संयोग का वियोग अवश्यम्भावी है। इस से सिद्ध हुआ कि संसार से वियोग ही वियोग है, संयोग है ही नहीं। अनादिकाल से वस्तुओं आदि का निरन्तर वियोग ही होता चला आ रहा है, इसलिये वियोग ही सच्चा है। इस प्रकार संसार से सर्वथा वियोग का अनुभव हो जाना ही योग है। यह योग नित्यसिद्ध है। स्वरूप अथवा परमात्मा के साथ हमारा नित्ययोग है और शरीर संसार के साथ नित्यवियोग है। संसार के संयोग की सद्भावना होने से ही वास्तव में नित्ययोग अनुभव में नहीं आता। सद्भावना मिटते ही नित्ययोग का अनुभव हो जाता है, जिस का कभी वियोग हुआ ही नहीं।संसार से संयोग मानना ही विस्मृति है और संसार से नित्य वियोग का अनुभव होना अर्थात् वास्तव में संसार के साथ मेरा संयोग था नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं – ऐसा अनुभव होना ही स्मृति है।
।। हरि ॐ तत् सत ।। गीता विशेष – 18.73 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)