।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.72 II
।। अध्याय 18.72 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.72॥
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय॥
“kaccid etac chrutaḿ pārtha,
tvayaikāgreṇa cetasā..।
kaccid ajñāna-sammohaḥ,
praṇaṣṭas te dhanañjaya”..।।
भावार्थ:
हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया? ॥७२॥
Meaning:
Has this been heard by you, O Paartha, with a focused mind? Has your delusion of ignorance been destroyed, O Dhananjaya?
Explanation:
The goal of the Upanishads, the portions of the Vedas that deal with the eternal essence, is to reveal the true nature of the self. All of us are living in ignorance of our true nature. This ignorance affects everyone, it is natural to all humans. Like someone who has multiple personality disorder needs treatment to understand who they really are, all of us need a qualified teacher who can impart the knowledge of the Upanishads to us so that we can regain the knowledge of our self.
Shri Krishna taught the Gita, which is also another Upanishad, so that Arjuna and other seekers in the future could annihilate their ignorance about their true nature as the self. He employed logic, reasoning, scriptural authority, emotion, psychology, every trick in the book to ensure that Arjuna could grasp the message of the Gita. Having done all that, Shree Krishna has taken the position of being Arjun’s teacher. It is natural for the teacher to inquire whether the student has grasped the subject or not. Shree Krishna’s intention of asking the question is that if Arjun has not understood, he is ready to re-explain or go into further details. He still wanted to give Arjuna the chance to ask any other doubts or questions with regards the teaching. He also asked to Arjun, ‘Did you listen to my teaching ekāgreṇa cētasā? with one pointed mind; with total attention; wholeheartedly did you listen to my teaching. Did you destroy your self-ignorance? Did your ignorance and ignorance caused conflicts all of them ended?
Now, all depends on Arjun. What happened if he says that he is still confused, Geeta will not be ended here but either repeated or more elaborated. But Arjun is sincere student and what he says, we read in next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
गीता के उपदेश का प्रारम्भ युद्ध भूमि में स्वजनों से अर्जुन द्वारा मोह, भय एवम अज्ञान से निर्णय न ले सकने की स्थिति मे हुआ था। उस समय वह अपने अज्ञान से वशीभूत हो कर जो कुछ उस ने बड़ो लोगो एवम शास्त्रो से पढ़ा था, उस की युक्ति दे कर युद्ध नही करने के अपने फैसले को तर्क संगत बना कर उचित ठहरा रहा था, किन्तु उस के पश्चात भी उसे अपने निर्णय पर शंका थी, इसलिये उस ने भगवान श्री कृष्ण से मार्गदर्शन की प्रार्थना की। श्री कृष्ण ने अर्जुन के गुरु का पद ग्रहण किया है। शिक्षक के लिए यह पूछना स्वाभाविक है कि शिष्य ने विषय को समझा है या नहीं। श्री कृष्ण का प्रश्न पूछने का आशय यह है कि यदि अर्जुन को समझ में नहीं आया है, तो वे उसे पुनः समझाने या और अधिक विस्तार से बताने के लिए तैयार हैं।
व्यवहारिक जगत में यह हम सब के साथ नित्य प्रतिदिन होता है और हमे अच्छे गुरु की कमी महसूस होती है। यदि कोई अच्छा गुरु मिल भी जाये तो उस के आदेश को हम स्वीकार तब तक नही कर सकते जब तक हमारी समस्त शंकाओ का समाधान न हो जाये। भगवान श्री कृष्ण ने उसे कर्तव्य धर्म के पालन हेतु युद्ध करने को कहा किन्तु अर्जुन का शंकित मन उस को स्वीकार नही कर पा रहा था। अतः भगवान श्री कृष्ण को धैर्य पूर्वक विस्तार से अपने आदेश का सम्पूर्ण ज्ञान अर्जुन के समस्त शंकाओ का निराकरण करते हुए करना पड़ा।
एक अच्छे आचार्य की भांति जब पूरा ज्ञान दे दिया जाए तो आचार्य अपना ही कर्तव्य समझ कर शिष्य से पूछता ही है कि उस की समस्त शंकाओ का समाधान हो कर उस का अज्ञान समाप्त हुआ कि, नही। यह ठीक वैसा ही है, जैसे कोई शल्य चिकित्सक ऑपरेशन के बाद अपने मरीज से आ कर उस की तकलीफ से आराम मिला या नही, पूछता है। जबकि उस को ज्ञात है कि उस ने रोग का इलाज कर दिया है।
अतः इस के द्वारा आचार्य का या कर्तव्य प्रदर्शित किया जाता है, कि दूसरे उपाय को स्वीकार कर के किसी भी प्रकार से, शिष्य को कृतार्थ करना चाहिये , हे पार्थ क्या तूने मुझ से कहे हुए इस शास्त्र को एकाग्रचित्त से सुना सुन कर बुद्धि में स्थिर किया अथवा सुना अनसुना कर दिया। हे धनंजय ! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह स्वाभाविक अविवेकता चित्त का मूढ़भाव सर्वथा नष्ट हो गया, जिस के लिये कि तेरा यह शास्त्र श्रवण विषयक परिश्रम और मेरा वक्तृत्व विषयक परिश्रम हुआ है।
यह एकदम पक्का नियम है कि जो दोषदृष्टि से रहित होकर श्रद्धापूर्वक गीता के उपदेश को जो एकाग्रचित्त सुनता है, उसका मोह नष्ट हो ही जाता है। ज्ञान की कोई परिधि नही होती, इसलिये वेदान्त का अध्ययन हमारी दृष्टि को व्यापक और विशाल बनाता है। इस ज्ञान के प्रकाश में हम पूर्व परिचित जगत् को ही नवीन दृष्टिकोण से पहचानने लगते हैं। इस नवीन दृष्टि में जगत् की पूर्वपरिचित समस्त कुरूपताएं लुप्त हो जाती हैं।
अज्ञानी पुरुष अपने को एक परिधि में बांध लेता है, जिस से उसे कोई कितना भी समझा ले, वो अपनी जिद्द नही छोड़ता। यह अज्ञान ज्ञान सम्मत भी हो सकता है और अविवेक पूर्ण भी। कौरव सेना में मित्रधर्म, भीष्म प्रतिज्ञा, राजभक्ति में कर्ण, भीष्म एवम द्रोणाचार्य का ज्ञान ही उन की परिधि था, जब कि दुर्योधन का लोभ, अविवेक एवम गर्व का अज्ञान उस की परिधि था।
हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि राग – द्वेष में वशीभूत हो कर धृतराष्ट्र ने भी गीता को सुना, किंतु उस पर उस ज्ञान का कोई असर नहीं हुआ और संजय ने जो सुन कर सुनाया, वह इस ज्ञान से अपने को धन्य महसूस कर रहा है।
अर्जुन ने एकाग्रचित्त हो कर समस्त समस्त ज्ञान को सुन कर अपने अज्ञान को नष्ट किया है कि नही, एक आचार्य के जानना आवश्यक है। अब, सब कुछ अर्जुन पर निर्भर करता है। अगर वह कहता है कि वह अभी भी भ्रमित है, तो क्या होगा, गीता यहीं समाप्त नहीं होगी, बल्कि या तो दोहराई जाएगी या अधिक विस्तार से बताई जाएगी। लेकिन अर्जुन समर्पित छात्र है और वह क्या कहता है, हम आगे पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.72 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)