।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.71 II
।। अध्याय 18.71 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.71॥
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥
“śraddhāvān anasūyaś ca,
śṛṇuyād api yo naraḥ..।
so ‘pi muktaḥ śubhāl lokān,
prāpnuyāt puṇya- karmaṇām”..।।
भावार्थ:
जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा ॥७१॥
Meaning:
That person who, with faith and without fault finding, might even hear this, will also be liberated, and attain auspicious worlds of those who perform meritorious actions.
Explanation:
In today materialism world, people are running after name, fame and money. There are many people who have not understood or looked into the full significance of mōkṣa and therefore they are not interested in the ultimate spiritual goal; but they come to Gītā for some practical worldly benefits or at least to some efficiency in their profession; because Gītā promises that also; yōgaḥ karmasu kauśalam; they will all quote that; there are many people who prescribe Gītā for lowering the blood pleasure and its provides calm where anxiety comes during their life in business, social and family.
Why do we undertake yajnyas or sacrifices? It is to repay our debt to the elements, to our ancestors, to plants and animals, to our teachers and to our fellow beings. We offer them our prayers and also other material offerings such as clarified butter. But when we conduct a sacrifice of knowledge, we sacrifice our individuality, our finitude, so that we can merge into the infinite Ishvara. Such a sacrifice is beyond all notions of material offerings and is conducted in solitude. So then, Shri Krishna asserts that the student of the Gita occupies the position equal to one who conducts the most supreme sacrifice. Furthermore, even one who may not sincerely study, one who may not have understood the deeper meaning, but would just have listened to the Gita, will benefit in some way or another.
To understand the real meaning of listing Geeta with faith, we just go through the story of a disciple of Jagadguru Shankaracharya, called Sananda, illustrates this point. He was illiterate and could not comprehend his Guru’s teaching as the other disciples could. But when Shankaracharya delivered the discourse, he would listen with rapt attention and great faith. One day, he was washing his Guru’s clothes on the other side of the river. It became time for the class, and the other disciples requested, “Guruji, please begin the class.” Shankaracharya replied, “Let us wait; Sananda is not here.” “But Guruji, he cannot understand anything,” the disciples urged. “That is true; still, he listens with great faith and so I do not wish to disappoint him,” said Shankaracharya.
Then, to show the power of faith, Shankaracharya called out, “Sananda! Please come here.” On hearing his Guru’s words, Sananda did not hesitate. He ran on water. The story goes that wherever he placed his feet, lotus flowers sprang up to support him. He crossed over to the other bank and offered obeisance to his Guru. At that time, a stuti (verses in praise) of the Guru emanated from his mouth in sophisticated Sanskrit. The other disciples were amazed to hear this. Since, lotus flowers had bloomed under his feet, his name became “Padmapada,” meaning “the one with lotus flowers under the feet.” He became one of the four main disciples of Shankaracharya, along with Sureshwaracharya, Hastamalak, and Trotakacharya. In the above verse, Shree Krishna assures Arjun that even those who merely hear the sacred dialogue with great faith will gradually become purified.
।। हिंदी समीक्षा ।।
श्लोक 68 से 71 इन पांच श्लोको में भगवान श्री कृष्ण ने अनाधिकारी एवम अविश्वासी लोगो को गीता नही सुनाने के अतिरिक्त सभी के लिये गीता का अध्ययन मुक्ति का मार्ग ही बताया है। अध्ययन करने वाले, सुनाने वाले के बाद अब सुनने वालों के लिये भगवान श्री कृष्ण कहते है कि जो मनुष्य, इस ग्रन्थ को श्रद्धायुक्त और दोष दृष्टि रहित होकर केवल सुनता ही है, वह भी पापों से मुक्त होकर, पुण्यकारियों के अर्थात् अग्निहोत्रादि श्रेष्ठकर्म करनेवालों के, शुभ लोकों को प्राप्त हो जाता है। “अपि” शब्द से यह पाया जाता है कि अर्थ समझने वाले की तो बात ही क्या है।
मनुष्य की वाणी में प्रायः भ्रम, प्रमाद, लिप्सा और कारणापाटव ये चार दोष होते हैं। अतः मनुष्य की वाणी सर्वथा निर्दोष नहीं हो सकती।गीता भगवान की वाणी में लिखी गई है, इसलिये इस दोषो से मुक्त है। जिसे सुनने वाले को श्रद्धा एवम संशय रहित हो कर सुनना चाहिए।
श्रद्धावान् श्रद्धा का अर्थ अन्धविश्वास नहीं है। बुद्धि की वह क्षमता श्रद्धा है,जिस के द्वारा मनुष्य (1) शास्त्रीय शब्दों के सूक्ष्म आशय को समझ पाता है, (2) समझकर उन को धारण कर सकता है (3) उन्हें पूर्णतया आत्मसात् करने में समर्थ होता है और (4) इस प्रकार, प्राप्त ज्ञान के अनुसार अपने जीवन को निर्मित कर सकता है। स्वाभाविक है कि श्रद्धावान् पुरुष गुरु के उपदेश से सर्वाधिक लाभान्वित होता है। अज्ञात वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उचित प्रमाण की आवश्यकता होती है और उस प्रमाण के सत्यत्व के विषय में विश्वास की भी। उस विश्वास के बिना ज्ञान की ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। प्रमाण में यह विश्वास श्रद्धा कहलाता है। अनसुयु जैसा कि अनेक स्थानों पर कहा जा चुका है, अनसुयु का अर्थ है वह पुरुष जो गुणों में दोष नहीं देखता है। इस का अर्थ यह नहीं हुआ कि हिन्दू धर्म में दर्शनशास्त्र के अध्येताओं को समीक्षा या समालोचना करने की स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की गई है। इस का अभिप्राय केवल इतना ही है कि शास्त्र के श्रवण या अध्ययन के पूर्व ही हमें उसके विषय में पूर्वाग्रह नहीं बना लेने चाहिए। पूर्वाग्रहों से दूषित बुद्धि सत्य का यथार्थ ज्ञान कदापि नहीं प्राप्त कर सकती। अतः गीता श्रवण करते हुए अर्जुन की भांति अपने संदेह का निवारण भी करते रहना चाहिए।
पूर्वाग्रहों से दूषित बुद्धि सत्य का यथार्थ ज्ञान कदापि नहीं प्राप्त कर सकती। इसलिये गीता को बार बार श्रद्धा एवम संशय रहित को बार बार पढ़ा या सुना जाए तो शनैः शनैः यह हमारे अंदर आत्मसात होने लगती है और अनेक अनसुलझी गुत्थियों का निवारण होने लगता है। मन, बुद्धि एवम इन्द्रियों में सात्विक प्रभाव बढ़ने लगता है।
आज भौतिकवादी दुनिया में लोग नाम, शोहरत और पैसे के पीछे भाग रहे हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने मोक्ष के पूरे महत्व को नहीं समझा है या नहीं देखा है और इसलिए वे परम आध्यात्मिक लक्ष्य में रुचि नहीं रखते हैं; लेकिन वे कुछ व्यावहारिक सांसारिक लाभ या कम से कम अपने पेशे में कुछ दक्षता के लिए गीता की ओर आते हैं; क्योंकि गीता इसका भी वादा करती है; योग: कर्मसु कौशलम्; वे सभी इसका हवाला देंगे; ऐसे बहुत से लोग हैं जो blood pressure को कम करने के लिए गीता की सलाह देते हैं और यह उनके व्यवसाय, सामाजिक और पारिवारिक जीवन में आने वाली चिंताओं से शांति प्रदान करती है।
गीता ज्ञान और विवेक का ग्रंथ है किंतु इस का समापन पराभक्ति से हुआ है। भक्ति श्रद्धा, प्रेम, विश्वास, समर्पण और स्मरण का विषय है, इसलिए जिसे गीता समझ में भी न आए, वह भी यदि इस का नियमित पाठ पराभक्ति के साथ करता है, तो उस का भी कल्याण ही होगा। भगवान श्री कृष्ण ने स्वीकार किया है, जो भक्त मुझे श्रद्धा, प्रेम और विश्वास से पूजते है, उन योगक्षेम वे ही वहन करते है और उन्हें ज्ञान भी वही देते है। भक्त के विश्वास नरसिंह मेहता की कहानी किसे मालूम नही है। गीता के गुढ़ ज्ञान को अर्जुन भी तभी समझ सका, जब उस की श्रद्धा भगवान श्री कृष्ण पर इतनी अधिक थी कि सम्पूर्ण नारायणी सेना को त्यागकर उस ने निहत्थे भगवान श्री कृष्ण को चुना।
श्रद्धा और विश्वास के साथ गीता को सुनने का परिणाम हम एक कहानी से समझते है। जगद्गुरु शंकराचार्य के शिष्य सानंद की कथा इस बात को स्पष्ट करती है। वह अनपढ़ था और अपने गुरु की शिक्षा को अन्य शिष्यों की तरह समझ नहीं सकता था। लेकिन जब शंकराचार्य प्रवचन देते थे, तो वह ध्यानपूर्वक और बड़ी श्रद्धा से सुनता था। एक दिन वह नदी के दूसरी ओर अपने गुरु के कपड़े धो रहा था। कक्षा का समय हो गया और अन्य शिष्यों ने अनुरोध किया, “गुरुजी, कृपया कक्षा शुरू करें।” शंकराचार्य ने कहा, “हम प्रतीक्षा करते हैं, सानंद यहां नहीं हैं।” “लेकिन गुरुजी, वह कुछ भी नहीं समझ सकता है,” शिष्यों ने आग्रह किया। “यह सच है; फिर भी, वह बड़ी श्रद्धा से सुनता है और इसलिए मैं उसे निराश नहीं करना चाहता,” शंकराचार्य ने कहा।
तब, श्रद्धा की शक्ति दिखाने के लिए, शंकराचार्य ने पुकारा, “सानंद! कृपया यहाँ आइए।” अपने गुरु के वचन सुनकर, सानंद ने संकोच नहीं किया। वह पानी पर दौड़ा। कहानी कहती है कि जहां भी उसने अपने पैर रखे, उसे सहारा देने के लिए कमल के फूल उग आए। वह दूसरे किनारे पर गया और अपने गुरु को प्रणाम किया। उस समय, उनके मुंह से परिष्कृत संस्कृत में गुरु की एक स्तुति (श्लोक) निकली। अन्य शिष्य यह सुनकर चकित हो गए। चूंकि, उनके पैरों के नीचे कमल के फूल खिले थे, इसलिए उनका नाम “पद्मपाद” हो गया, जिसका अर्थ है “पैरों के नीचे कमल के फूल वाला।” वे सुरेश्वराचार्य, हस्तामलक और त्रोटकाचार्य के साथ शंकराचार्य के चार प्रमुख शिष्यों में से एक बन गए। उपरोक्त श्लोक में, श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि जो लोग केवल महान विश्वास के साथ पवित्र संवाद सुनते हैं, वे धीरे-धीरे शुद्ध हो जाएंगे।
मुझ जैसा व्यक्ति गीता के प्रति समर्पित भाव से अर्थ लिखने की चेष्टा कर रहा है तो उस के लिए यह श्लोक ही महत्वपूर्ण है। गीता का पूर्ण अध्ययन और अपनी दैनिक दिनचर्या में निंदाफजली की यह गजल भी याद करने योग्य है।
कभी कभी यूँ भी हम ने अपने जी को बहलाया है,
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है।
हम से पूछो इज़्ज़त वालों की इज़्ज़त का हाल कभी,
हम ने भी इक शहर में रह कर थोड़ा नाम कमाया है ।
उस को भूले बरसों गुज़रे लेकिन आज न जाने क्यूँ ,
आँगन में हँसते बच्चों को बे-कारन धमकाया है ।
उस बस्ती से छुट कर यूँ तो हर चेहरे को याद किया ,
जिस से थोड़ी सी अन-बन थी वो अक्सर याद आया है ।
कोई मिला तो हाथ मिलाया कहीं गए तो बातें कीं,
घर से बाहर जब भी निकले दिन भर बोझ उठाया है ।
पूर्वश्लोक में गीता सुनने का माहात्म्य बताकर अब अर्जुन की क्या स्थिति है, क्या दशा है, आदि सब कुछ जानते हुए भी भगवान् भगवद्गीता श्रवण के माहात्म्य को सब के सामने प्रकट करने के उद्देश्य से आगे के श्लोक में अर्जुन से प्रश्न करते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.71 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)