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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.66 II

।। अध्याय      18.66 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.66

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

“sarva-dharmān parityajya,

mām ekaḿ śaraṇaḿ vraja..।

ahaḿ tvāḿ sarva- pāpebhyo,

mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ”..।।

भावार्थ: 

संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण (इसी अध्याय के श्लोक 62 की टिप्पणी में शरण का भाव देखना चाहिए।) में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ॥६६॥

Meaning:

Abandoning all duties, take refuge in me alone. I shall liberate you from all sins. Do not grieve.

Explanation:

In the Bhagavadgita, Sri Krishna gives Arjuna progressively higher instructions. Initially, He instructs Arjuna to perform karma, that is, his material dharma as a warrior (sloka 2.31). But material dharma does not lead to God-realization; it leads to heavenly abodes and once the virtuous karma is exhausted, one has to return. So, Sri Krishna further instructs Arjuna to perform karma yoga, that is, his material dharma with the body and spiritual dharma with the mind. He tells Arjuna to fight the battle with the body and remember the Lord with the mind (sloka 8.7). This instruction of karma yoga forms a major part of the Bhagavadgita. Now finally Sri Krishna instructs Arjuna to practice karma sanyaas, that is, to renounce all material dharma and adopt only spiritual dharma, which is love for the Lord. So, he should fight, not because it is his duty as a warrior, but because God wants him to do so.

This verse tells us that those who do not surrender to God have five debts – to the gods in heaven, to sages, to ancestors, to other human beings, and to other living entities. The Varnashrama system involves various processes to free oneself from these five types of debts. However, when we surrender to God, we are automatically freed from all these debts,

God clarifies that Apara Bhakti, and all the deeds related to it are connected to the material and the natural world, in which a person performs his deeds with the desire for worldly and heavenly pleasures. Therefore, all these are called material religions. The religion that leads to the path of liberation or salvation, the devotion in it is called Para Bhakti. In Para Bhakti, worldly deeds are performed by dedicating oneself to God and renouncing all desires, this is the religion of spirituality. But renouncing even the desire for liberation and salvation and performing deeds by being devoted to God is to be eligible for Brahma’s creation. This should be the reality.

The first part instructs the seeker to abandon all of their duties. This means that Shri Krishna wants the seeker to stop analyzing which actions they should stop performing, which actions should they continue pursuing and which new actions should they take up. They should simply stop worrying about all these questions.

The second part of the shloka gives the answer – take refuge in Ishvara alone. All our thoughts, words, actions, feelings, everything should be dedicated towards Ishvara. By doing so, we will automatically arrive at the answers to our questions regarding what to do and what not to do.

The third part of the shloka assures the seeker that they will be liberated from all of their paapa, their sins. Sins in this context refers to the bondage of actions caused by our ego. 

The fourth part of the shloka, complete freedom from sorrow.

।। हिंदी समीक्षा ।।

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को क्रमिक रूप से उच्चतर निर्देश दिए। प्रारंभ में उन्होंने अर्जुन को कर्म करने का निर्देश दिया , अर्थात् योद्धा के रूप में उसका भौतिक धर्म (श्लोक 2.31)। लेकिन भौतिक धर्म से ईश्वर-साक्षात्कार नहीं होता; यह स्वर्गिक धाम की ओर ले जाता है और एक बार पुण्य कर्म क्षीण हो जाने पर व्यक्ति को वापस आना पड़ता है। इसलिए श्रीकृष्ण ने आगे अर्जुन को कर्म योग करने का निर्देश दिया, अर्थात् शरीर से उसका भौतिक धर्म और मन से आध्यात्मिक धर्म । उन्होंने अर्जुन को शरीर से युद्ध लड़ने और मन से भगवान का स्मरण करने के लिए कहा (श्लोक 8.7)। कर्म योग का यह निर्देश भगवद्गीता का प्रमुख भाग है। अब अंत में श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म संन्यास का अभ्यास करने का निर्देश देते हैं, अर्थात् सभी भौतिक धर्मों का त्याग करो और केवल आध्यात्मिक धर्म अपनाओ , जो कि भगवान के प्रति प्रेम है। इसलिए उसे लड़ना चाहिए, इसलिए नहीं कि एक योद्धा के रूप में यह उसका कर्तव्य है, बल्कि इसलिए कि ईश्वर चाहता है कि वह ऐसा करे।

कठोपनिषद में कहा गया है कि ” धर्म- अधर्म, कृत- अकृत और भूत- भव्य, सब को छोड़ कर उन के परे रहने वाले परब्रह्म को पहचानो” यह निर्गुण ब्रह्म की शरण मे जाने का संदेश है। गीता में भी भगवान यही कहते है कि ” सब धर्म छोड़ कर मेरे अकेले की शरण में आ जा; मैं तुझे सब पापों से मुक्त करूंगा, तू घबराना नहीं।”

यहां धर्म शब्द का उपयोग व्यापक अर्थ में किया गया है कि सब व्यवहारों को करते हुए भी पाप – पुण्य से अलिप्त रहकर परमेश्वर प्राप्ति रूपी आत्म श्रेय जिस मार्ग के द्वारा सम्पादन किया जा सकता है, वही धर्म है। यह एक जटिल प्रश्न है कि विभिन्न धर्मों, मार्गों और कर्म में श्रेष्ठ क्या है। अहिंसा, सत्य, व्रत, उपवास, ज्ञान, यज्ञ – याग, दान, कर्म, सन्यास, गृहस्थ, वानप्रस्थ, राजधर्म, मित्र धर्म, मातृ – पिता सेवा धर्म, देश की सेवा और रक्षा धर्म, ब्राह्मण का स्वाध्याय धर्म, नारी का पति सेवा धर्म आदि आदि अनेक साधन और उपाय धर्म शास्त्रों और साधु संतो में बताए है, जिन का पालन करने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। किंतु सभी धर्म का मूल साम्य बुद्धि को प्राप्त करना है, इसलिए किसी भी धर्म पर श्रद्धा और विश्वास का आशय साम्य बुद्धि को प्राप्त करना है। किंतु अक्सर जब मनुष्य विभिन्न धर्मों में उलझ जाता है, तो वह शंकालु और अधीर हो जाता है। अर्जुन के प्रथम अध्याय में मोह, भय और अहंकार का कारण उस का क्षत्रिय धर्म, शास्त्र ज्ञान, गुरु और श्रेष्ठ जनों के प्रति श्रद्धा और प्रेम, मित्र और स्वजनों के प्रति स्नेह था। इस से साम्य बुद्धि की प्राप्ति नही हो सकती। इसलिए भगवान भी आश्वासन देते है कि तू सब धर्मों को छोड़ कर उन की शरण में आ जा, मैं तुझे सभी उलझनों से दूर मुक्ति प्रदान करूंगा।

यह श्लोक बताता है कि जो लोग भगवान के प्रति समर्पण नहीं करते, उनके लिए पाँच ऋण होते हैं – स्वर्ग के देवताओं के प्रति, ऋषियों के प्रति, पूर्वजों के प्रति, अन्य मनुष्यों के प्रति, तथा अन्य जीवों के प्रति। वर्णाश्रम प्रणाली में इन पाँच प्रकार के ऋणों से खुद को मुक्त करने के लिए विभिन्न प्रक्रियाएँ शामिल हैं। हालाँकि, जब हम भगवान के प्रति समर्पण करते हैं, तो हम इन सभी ऋणों से स्वतः ही मुक्त हो जाते हैं,

गीता का यह संदेश यद्यपि इस की कड़ी है किंतु गीता का मानना है कि व्यक्तोपासना सुलभ एवम श्रेष्ठ है इसलिये भगवान श्री कृष्ण कहते है कि अहिंसा, सत्य, मातृ-पितृ सेवा, गुरु सेवा, यज्ञ याग, दान, सन्यास आदि जितने भी धर्म है जिन में मोक्ष का मार्ग बताया गया है, वह सब किसी न किसी स्थान पर मोक्ष के लिये अवरुद्ध हो जाते है, इसलिये जहां भी किसी भी धर्म से मोक्ष का मार्ग अवरुद्ध होता हो, उसे त्याग कर परब्रह्म की शरण मे जाना चाहिए। वे कहते है तू अकेले मुझे ही भज, मेरी दृढ़ भक्ति कर, मत्परायण बुद्धि से स्वधर्मानुसार प्राप्त होने वाले कर्म करते जाने से इहलोक एवम परलोक दोनो ही जगह तुम्हारा कल्याण होगा। इस के लिये अपने हो भय से मुक्त करो और कर्म करते रहो। यही गीता का कर्म योग है और गीता का सार है।

धर्म शब्द हिन्दू संस्कृति का हृदय है और यहाँ के धर्म को सनातन धर्म की संज्ञा प्रदान की। हिन्दू धर्म शास्त्रों में प्रयुक्त धर्म शब्द की सरल और संक्षिप्त परिभाषा है अस्तित्व का नियम। किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है अन्यथा नहीं, वह गुण उस वस्तु का धर्म कहलाता है। उष्णता के कारण अग्नि का अग्नित्व सिद्ध होता है, उष्णता के अभाव में नहीं, इसलिए, अग्नि का धर्म उष्णता है। शीतल अग्नि से अभी हमारा परिचय होना शेष है मधुरता चीनी का धर्म है, कटु चीनी मिथ्या है

जगत् की प्रत्येक वस्तु के दो धर्म होते हैं (1) मुख्य धर्म (स्वाभाविक) और (2) गौण धर्म (कृत्रिम या नैमित्तिक) गौण धर्मों के परिवर्तन अथवा अभाव में भी पदार्थ यथावत् बना रह सकता है, परन्तु अपने मुख्य (स्वाभाविक) धर्म का परित्याग करके क्षणमात्र भी वह नहीं रह सकता। अग्नि की ज्वाला का वर्ण या आकार अग्नि का गौण धर्म है, जबकि उष्णता इसका मुख्य धर्म है। किसी पदार्थ का मुख्य धर्म ही उसका धर्म होता है। इस दृष्टि से मनुष्य का निश्चित रूप से क्या धर्म है उसकी त्वचा का वर्ण, असंख्य और विविध प्रकार की भावनाएं और विचार, उसका स्वभाव (संस्कार), उसके शरीर, मन और बुद्धि की अवस्थाएं और क्षमताएं ये सब मनुष्य के गौण धर्म ही है जबकि उसका वास्तविक धर्म चैतन्य स्वरूप आत्मतत्त्व है। यही आत्मा समस्त उपाधियों को सत्ता और चेतनता प्रदान करता है। इस आत्मा के बिना मनुष्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इसलिए, मनुष्य का वास्तविक धर्म सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा है।

यद्यपि नैतिकता, सदाचार, जीवन के समस्त कर्तव्य, श्रद्धा, दान, विश्व कल्याण की इच्छा इन सब को सूचित करने के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है तथापि मुख्य धर्म की उपयुक्त परिभाषा को समझ लेने पर इन दोनों का भेद स्पष्ट हो जाता है। सदाचार आदि को भी धर्म कहने का अभिप्राय यह है कि उनका पालन हमें अपने शुद्ध धर्म का बोध कराने में सहायक होता है। उसी प्रकार, सदाचार के माध्यम से ही मनुष्य का शुद्ध स्वरूप अभिव्यक्त होता है। इसलिए, हमारे धर्मशास्त्रों में ऐसे सभी शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक कर्मों को धर्म की संज्ञा दी गयी है, जो आत्मसाक्षात्कार में सहायक होते हैं। इसमें सन्देह नहीं है कि गीता के कतिपय श्लोकों में, भगवान् श्रीकृष्ण ने साधकों को किसी निश्चित जीवन पद्धति का अवलम्बन करने का आदेश दिया है और यह भी आश्वासन दिया है कि वे स्वयं उनका उद्धार करेंगे। उद्धार का अर्थ भगवत्स्वरूप की प्राप्ति है। परन्तु इस श्लोक के समान कहीं भी उन्होंने इतने सीधे और स्पष्ट रूप में, अपने भक्त के मोक्ष के उत्तरदायित्व को स्वीकार करने की अपनी तत्परता व्यक्त नहीं की हैं।

ध्यानयोग के साधकों को तीन गुणों को सम्पादित करना चाहिए। वे हैं (1) ज्ञानपूर्वक ध्यान के द्वारा सब धर्मों का त्याग, (2) ईश्वर की ही शरण में आना और (3) चिन्ता व शोक का परित्याग करना। इस साधना का पुरस्कार मोक्ष है मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। यह आश्वासन मानवमात्र के लिये ईश्वर द्वारा दिया गया है। गीता एक सार्वभौमिक धर्मशास्त्र है यह मनुष्य की बाइबिल है, मानवता का कुरान और हिन्दुओं का शक्तिशाली धर्मग्रन्थ है।सर्वधर्मान् परित्यज्य (सब धर्मों का परित्याग करके) हम देख चुके हैं कि अस्तित्व का नियम धर्म है, और कोई भी वस्तु अपने धर्म का त्याग करके बनी नहीं रह सकती। और फिर भी, यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को समस्त धर्मों का परित्याग करने का उपदेश दे रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म की हमारी परिभाषा त्रुटिपूर्ण हैं अथवा क्या इस श्लोक में ही परस्पर विरोधी कथन है इस पर विचार करने की आवश्यकता है। आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण मनुष्य अपने शरीर, मन और बुद्धि से तादात्म्य करके एक परिच्छिन्न, र्मत्य जीव का जीवन जीता है। इन उपाधियों से तादात्म्य के फलस्वरूप उत्पन्न द्रष्टा, मन्ता, ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता रूप जीव ही संसार के दुखों को भोगता है। वह शरीरादि उपाधियों के जन्ममरणादि धर्मों को अपने ही धर्म समझता है। परन्तु, वस्तुत, ये हमारे शुद्ध स्वरूप के धर्म नहीं हैं। वे गौण धर्म होने के कारण उनका परित्याग करने का यहाँ उपदेश दिया गया है। इनके परित्याग का अर्थ अहंकार का नाश ही है।इसलिए समस्त धर्मों का त्याग करने का अर्थ हुआ कि शरीर, मन और बुद्धि की जड़ उपाधियों के साथ हमने जो आत्मभाव से तादात्म्य किया है अर्थात् उन्हें ही अपना स्वरूप समझा है, उस मिथ्या तादात्म्य का त्याग करना। आत्मनिरीक्षण और आत्मशोधन ही भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का गूढ़ अभिप्राय हैं।

समस्त क्रियाएं प्रकृति करती है, किंतु प्रश्न यह भी है, ज्ञानेद्रियां और कर्मेद्रियां को जो मन के आदेश से करती है, वह बुद्धि और मन का निर्देश है। किंतु यह निर्देश किस के लिए। ध्यान से देखे तो यह चेतन की कामना, आसक्ति और कर्ताभाव के लिए कर्म होता है। राजा के आदेश पर सेना लड़ती है, तो आदेश देने वाला निर्लिप्त नही हो सकता। फिर ज्ञान से नित्य कर्म या कर्मयोग से कर्म करने वाला कर्म के फल का अधिकारी न बने, यह कैसे संभव है। इसलिए यह श्लोक द्वारा सभी कर्मो को परमात्मा को समर्पित करते हुए, पराभक्ति से करने का उपसंहार है। यही कर्मसन्यास है, जो कुछ भी करो, वह आसक्ति, कामना और कर्तृत्व भाव छोड़ कर परमात्मा को समर्पित करते हुए करो। समर्पण अर्थात संपूर्ण समर्थन, जिस के कोई धर्म, नियम, आसक्ति, कामना या बंधन आदि सब कुछ त्याग कर परमात्मा की भक्ति मानते हुए कर्म करना।

परमात्मा स्पष्ट करते है कि अपरा भक्ति और उस से संबंधित सभी कर्म का भौतिक और प्रकृति से जुड़े है, जिस में व्यक्ति संसार और स्वर्ग के सुखों की कामना रखते हुए कर्म करता है। इसलिए ये सब भौतिक धर्म कहलाते है। जो धर्म मुक्ति या मोक्ष के मार्ग की ओर ले जाता है, उस में भक्ति परा भक्ति कहलाती है। पराभक्ति में सांसारिक कर्म ईश्वर को समर्पित भाव में कामना को त्याग कर किए जाते है, यह आध्यात्म का धर्म है। किंतु मुक्ति और मोक्ष की कामना को भी त्याग कर, ईश्वर पारायण हो कर कर्म करना ही ब्रह्म की सृष्टि रचना का पात्र होना है। यही वास्तविकता होनी चाहिए। हमे गीता में अध्याय 8 के श्लोक 7 को स्मरण करना चाहिए, जिस में ईश्वर ने कहा कि तू मुझे हृदय में स्मरण करता हुआ युद्ध कर।

गीता में इस श्लोक का इतना विस्तृत वर्णन है कि उसे यहां संपादित कर पाना, नई पुस्तक लिखने के समान होगा। इसलिये संक्षिप्त में हम यही कह सकते है की जीव का संबंध परब्रह्म से है, किन्तु प्रकृति के साथ होने से वह नियत कर्म करने को बाध्य है। उस नियत कर्म की कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव से न करते हुए इसे निष्काम भाव से अपने कर्तव्य धर्म का पालन सात्विक गुणों के साथ करना चाहिए तथा स्वयं हो परब्रह्म की शरण मे स्मरण एवम समर्पित करते हुए, अपने नियत कर्मो का पालन करते रहना चाहिए। परमात्मा को समर्पण हमे हमारे कर्मफल के बंधन से मुक्त करता है और अत्यंत गुप्त एवम  ग्राह्य ज्ञान मोक्ष की प्राप्ति कराता है। गीता का ज्ञान ज्ञानयोग, कर्मयोग, सन्यास योग, बुद्धियोग एवम भक्तियोग का अद्वितीय ज्ञान है, जो इस संसार मे हमे किस प्रकार व्यवहार करते हुए कर्म करना चाहिए, बताता है।

गीता के इस अंतिम क्षोर में हम पराभक्ति के मार्ग को पढ़ रहे है जो यह सिद्ध करता है कि मोक्ष या मुक्ति का अधिकार केवल वेदों के पाठ करने वालो या उच्च वर्ग का नही है। परमात्मा की रचना यह संपूर्ण सृष्टि है, वह सब के हृदय में बसता है, जो भी किसी भी धर्म, ऊंच – नीच, गुण, आश्रम, योनि और रंग – रूप का हो, उस के मनवाला हो कर उसे भजेगा और सभी दुविधा और धर्मो को छोड़ कर उस की शरण जाएगा, उस का उद्धार परमात्मा स्वयं करेंगे। यही गीता का सार भी है।

कुछ लोग इस का अर्थ लगाते हुए कृष्ण को सर्वोपरि भगवान मानते है, यह उन का धर्म ही है, क्योंकि अर्जुन से संवाद मानव अवतार में परमात्मा कृष्ण रूप में कर रहे, परंतु परमात्मा तो सभी देवताओं आदि में कृष्ण के समान ही व्याप्त है, आप के जो भी आराध्य हो, वही श्रेष्ठ परमात्मा का स्वरूप है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.66 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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