।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.62 II Additional II
।। अध्याय 18.62 II विशेष II
।। पराभक्ति, अहंकार और शरणागत ।। विशेष 18.62 ।।
प्रकृति के संग संयोग से जीव में जो अज्ञान जनित भ्रम पैदा होता है, वह कर्ता भाव अर्थात अहंकार और भोक्ता भाव अर्थात कामना और आसक्ति है। इसी से जीव में कर्मफलों का बंधन तैयार होता है और जीव उन्ही कर्मफलों के अनुसार उन को भोगने के लिए विभिन्न योनियों में जन्म लेता है और यदि कर्मफल अच्छे हो तो मनुष्य जन्म मिलता है, जिस से वह इन कर्मफलों से मुक्त हो सके। जन्म – मरण के इस कुचक्र में जीव के हाथो में कुछ भी नही है, सिवाय बुद्धि और विवेक के। यही एक मात्र गुण है, जिस से मनुष्य किसी प्राणी से श्रेष्ठ योनि में माना जाता है। किंतु राग – द्वेष एवम अहम में जीव इस योनि को व्यर्थ में भोग – विलास और कामना एवम आसक्ति में गुजार देता है।
गीता वेदांत के स्मृति ग्रंथ का आधार स्तंभ एवं समस्त वेदों और उपनिषदों का सार है। इसलिए भक्ति योग में समर्पण के साथ इस पूरे अर्जुन और कृष्ण के संवाद के साथ गीता पूरी होती है। किंतु यह समर्पण, श्रद्धा, विश्वास और प्रेम अंध श्रद्धा या आलस्य नहीं है। जीव और प्रकृति के संयोग का कुछ उद्देश्य यदि है तो इस सृष्टि की संरचना का कुछ न कुछ कारण भी होना चाहिए। अतः गीता मानव योनि के उद्देश्य को कर्म और ज्ञान योग के साथ पराभक्ति निर्लिप्त और निस्वार्थ प्रकृति की क्रियाशीलता का प्रतीक है। जो जीव के उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है।
हम यदि अपने जीवन में देखे तो बचपन में माता – पिता जब स्कूल विद्या अर्चन करने भेजते है तो कुछ छात्र माता – पिता की आज्ञा और शिक्षक के प्रति आदर भाव रखते हुए, निष्ठा के साथ पढ़ाई करते है और कुछ मौज मस्ती में पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते। समय के साथ सभी बडे़ हो जाते है, तो जिन्होंने अच्छी पढ़ाई की है, वह अपना जीवन सुव्यवस्थित तरीके से व्यतीत करते है, शेष अन्य संघर्ष करते हुए। यह बात भी है की पूर्व जन्म में अच्छे कर्म तो उन्हे धन की प्राप्ति हो जाए, किंतु यह बहुत कम मात्रा में होता है। इस में सांसारिक ज्ञान में दोनो अपने अपने अहंकार के अनुसार ज्ञानी रहते ही है। इसलिए यह अहंकार दोनो स्थिति में समान ही होता है। अहंकार और सामर्थ्य दोनो पृथक पृथक है, अहंकारी पुरुष का अहंकार धन, पद, बल और महत्वांक्षा के साथ बढ़ता है, वही पराभक्ति करने वाले का अहंकार इन सब के बढ़ने से भी नही बढ़ता। यही ज्ञान की वास्तविक शिक्षा है।
अतः भोक्ता भाव का अज्ञान मिटाने के लिए भगवान ने गीता में निष्काम कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग का विस्तार से वर्णन किया। वर्णन के साथ परमात्मा ने यह रहस्य भी बताया कि सम्पूर्ण सृष्टि की रचना उन्होंने ही की है, अत: प्रकृति भी उन्ही की रचना का हिस्सा है। जब जीव को प्रकृति और अपने संबंधों का ज्ञान बुद्धि द्वारा हो जाता है, तो वह यह भी जान लेता है कि प्रकृति की क्रिया में उस का अधिकार मात्र आसक्ति और कामना के त्याग तक ही सीमित है, जिस से वह कर्मफलों का संचय न करे। किंतु इस से अहम भाव नही छूटता।
इसलिए गीता के उपसंहार में गत चार – पांच श्लोको में यह समझाया गया है कि मनुष्य, प्रकृति और जीव सहित समस्त सृष्टि की रचना करने वाला एक मात्र परमात्मा ही है। इसलिए ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद पराभक्ति से जीव को अपने अहम को त्याग कर परमात्मा की शरण जाना चाहिए। यह मैं या मेरा पन का छूटना तभी संभव है जब हम अपना अहंकार छोड़ कर परमात्मा की शरण में चले जाए।
यह श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण है कि भोक्तभाव का त्याग करने के पश्चात जीव को यह जान लेना चाहिए कि वह प्रकृति के किसी कार्य में कोई भी नियंत्रण नहीं रखता। जो होता है, जो होगा और जो भी हो रहा है या जो हुआ है, सब परमात्मा ही प्रकृति और उस की माया से होता है। जीव प्रकृति द्वारा कार्य को इच्छा या इच्छा के विरुद्ध जा कर करने को बाध्य है। अतः हम उस की शरण में उन की इच्छा से अपने कर्तव्य कर्म को करते रहे। वही सभी को प्रेरणा देता है। यह सृष्टि उसी की है, उसी से उत्पन्न हुई और उसी में विलीन होगी।
शरणागत होने का अर्थ भी यही है कि अपनी कोई कामना, आसक्ति, अहंकार या भोक्ता भाव नही है। यह ज्ञान भक्ति योग से बाद पराभक्ति के रूप में देने का कारण है कि प्रारंभ में भक्ति श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और समर्पण से की जाती है। किंतु पराभक्ति स्वयं के अस्तित्व को परमात्मा में विलीन होने की होती है क्योंकि परा भक्ति में जीव की कोई कामना या आसक्ति नही होती, वह परमात्मा का ही स्वरूप ब्रह्म ही होता है, उसे परमात्मा में विलीन होना है, इस की भी आसक्ति या कामना नही होती क्योंकि वह तो ब्रह्मस्वरूप ही है, तो किसे किस में विलीन होना है? जब सभी एक मात्र परमात्मा ही है।
प्रश्न यह भी है कि शरणागत होने की बात ही तो यह पहले श्लोक में कह देते तो इतनी गीता को कहने की आवश्यकता नहीं थी। यदि प्रथम अध्याय को हम स्मरण करे तो हमे ज्ञात होगा कि अर्जुन ने स्वयं को सर्वश्रेष्ठ योद्धा मानते हुए, युद्ध भूमि के मध्य में जा कर सभी विरोधियों को देखने की इच्छा की थी, कि उसे किन किन का संहार करना है। फिर उसे मोह और भय उत्पन्न हुआ, इस के बाद वह अपने ज्ञान से उसे सही और न्यायोचित सिद्ध करने लगा और स्वयं त्याग अहम के साथ सन्यास या विरक्ति की बात करने लगा।
हिंदू धर्म में हम चाहे शास्त्र पढ़े या नहीं पढ़े। बचपन से अभी तक उच्च शिक्षा ले या न ले। हमारी आस्था और संस्कार से हम अपने अज्ञान को ही ज्ञान मान लेते है। व्हाट्सएप पर या किसी के कहने पर या किसी से प्रवचन सुनने पर, जो भी बाते, चित्र हमारी आस्था और विश्वास के अनुकूल है, वह हम अपने ज्ञान के अनुसार कभी भी, कही भी बहस भी कर लेते है और जरूरत पड़ने पर ज्ञान भी दे देते है। मुश्किल से कोई एक या दो होगा जिस ने वेद, उपनिषद या गीता का गहन अध्ययन किया हो, किंतु वह या तो बोलता नही है और यदि वह हम जैसे जन सामान्य के समक्ष कुछ बताए भी तो हमारी प्रतिक्रिया उस को स्वीकार करती है तो अहम के साथ और नही स्वीकार करती है तो भी अहम के साथ। वास्तव में हमलोग जो कुछ भी सात्विक होने के नाते भावुकता में प्रभावित होते है, वही हमारी आस्था और विश्वास है। यही गुण यदि विकसित किया जाए तो यह हमारा सात्विक भाव होगा और इस में बुद्धि और विवेक से हमे निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग और ध्यान योग समझ में आएगा।
इसी में कुछ विभूतियों ने बिना दिखावा किए, समाज, देश और धर्म के लिए अविस्मरणीय कार्य भी किए है, इसलिए समाज उन का अनुकरण भी करता है। फिर भी अधिकांश आस्था राजसी या तामसी होती है, इसलिए धर्म के नाम पर मंत्र – तंत्र, दान, यज्ञ, भजन, स्मरण और बड़े बड़े पंडाल भले ही सजा लिए जाए, वास्तविक ज्ञान सांसारिक या बौद्धिक या दिखावे का नही होना चाहिए, वह आत्मिक होना चाहिए। यह सब तो उस आत्मिक ज्ञान को प्राप्त करने के बचपन में प्रथम कक्षा से डिग्री तक की पढ़ाई के समान है। जीव ज्ञान प्राप्त की आकांक्षा तो रखता है किंतु उस का मैं नही समाप्त होता, इसलिए अर्जुन ने भी भगवान को कहा की मुझे कोई मार्ग नहीं सूझ रहा, आप ही कोई मार्ग बताए, मैं आप की शरण हूं, किन्तु मैं युद्ध नही करूंगा। उस के बुद्धि और विवेक को निष्काम कर्मयोग के ज्ञान को समझने की आवश्यकता थी। ज्ञानी दुर्योधन भी था और धृतराष्ट्र भी। लेकिन उन की कामना और आसक्ति एवम उन के धर्म के काम सात्विक नही थे।
धर्म का अर्थ हम समाज के सामान्य मनुष्य से ले उच्च कोटि के मनुष्य के लिए अनुकरणीय नियम और पद्धति। धर्म परमेश्वर की प्राप्ति के लिए शास्त्रों द्वारा बताए गए विभिन्न मार्ग है, जैसे अहिंसा धर्म, सत्य धर्म, मातृ – पिता सेवा धर्म, गुरु सेवा धर्म, यज्ञ – याग धर्म, दान धर्म, मित्र धर्म, देश सेवा धर्म, स्वामी सेवा धर्म, पति धर्म, सन्यास धर्म आदि आदि। हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि धर्म नही, मोक्ष और परमात्मा की प्राप्ति की एक पद्धति है, इसलिए इन सब में धर्म को अलग अलग नियमो से परिभाषित किया है। किंतु जब धर्म आकांक्षा, आसक्ति और कामनाओं का शिकार हो जाता है, तो नियम भी दूषित हो कर तामसी और निम्न राजसी प्रवृति के हो जाते है। धर्म का कार्य हमे मोक्ष का रास्ता बतलाने का है, किंतु जब समाज के अग्रणी लोग अपने अपने हिसाब से इसे परिभाषित करे तो वह धर्म, भी निंदनीय हो जाता है। इसलिए गीता में ब्रह्मविद होना धर्मयुक्त होना नही कहा गया है। हमे नही भूलना चाहिए, संसार में कितनी विषमता, हत्याएं और झगड़े धर्म के नाम पर हुए है, किसी अन्य कारण से नही। वास्तविक धर्म ज्ञान का सात्विक मार्ग है किंतु जब कोई धर्म की आड़ में कट्टरता, अंधविश्वास, अन्य धर्म से निंदा आदि अपना लेता है, तो उन का धर्म भी तामसी हो जाता है। इसलिए लिए जो धर्म या नियम मोक्ष की ओर ले जा कर मनुष्य को आसक्ति और कामना से मुक्त करे, वही धर्म है। भगवान स्वयं कहते है, जब जब धर्म की हानि होती है, मैं साधु और सज्जन पुरुषो की रक्षा के लिए अवतार लेता हूं।महाभारत का युद्ध एक धर्मयुद्ध था। क्योंकि सभी योद्धाओं ने अपने अपने तरीके से धर्म को परिभाषित कर लिया था, इसलिए प्रत्येक योद्धा अपने अपने तरीके से सत्य के मार्ग पर था। दुर्योधन तक भी अपने को गलत मानने को तैयार नहीं था, उस के पास भी अपने को सही सिद्ध करने के लिए उस का अपना धर्म था।
परिवार और समाज में जब भी गलत या सही का निर्णय लेने की बात होती है तो बुद्धिजीवी दोनो पक्ष में समान रूप से बट जाते है। लोग सिर्फ स्वार्थ या लोभ से किसी का समर्थन नहीं करते, अपितु उसे उन के खुद के धर्म की परिभाषा में भी सही सिद्ध करते है। मैने कई संदेशों में राम के विरुद्ध रावण को भी समर्थन और उच्च कोटि का राजा बताते हुए लोगो को पढ़ा है। देश की राजनीति में सभी पार्टियों के लोग समर्थक होते है, यदि कोई पार्टी का नेता असमाजिक, गुंडागर्दी या अनैतिक कार्य भी करे तो भी लोग अपने अपने परिभाषित धर्म से उस का समर्थन करते है, यही धर्म की हानि भी है।
भारतीय संस्कृति में सृष्टि की रचना प्रकृति के नियम से कर्म करते हुए अपनी जरूरत से अधिक को देने के लिए है, यही ब्रह्मा जी ने सभी को रचना के बाद कहा था यही सत्य है। इसलिए जब कोई आवश्यकता से अधिक पाने और संग्रह करने का प्रयास करता है, वह सृष्टि की रचना के विरुद्ध कार्य करता है। यही ज्ञान अर्जुन को समझाना शरणागत की बात कहने से पहले आवश्यक था।
इसी को ध्यान में रखते हुए, गीता में सभी अध्याय अर्जुन के ज्ञान को पहले ठीक करते हुए, किस प्रकार मोह, आसक्ति और कामना का त्याग करते हुए कर्म करना चाहिए, बताया गया। अर्जुन को यह भी बताया गया की जो ज्ञान उसे प्राप्त हो रहा है, वह देने वाले के मन की उपज नहीं है, वरन शाश्वत ज्ञान है। ज्ञान देने वाले का परिचय भी दिया गया, जिस से उस का मोह, मरने या मारने का भय, कर्तव्य कर्म, न्याय, धर्म, प्रकृति और परमात्मा का ज्ञान सही हो। इस प्रकार जब मनुष्य की बुद्धि में विवेक जाग्रत हो जाता है, वह अपने कर्तव्य को समझने योग्य हो जाता है तो ही उस व्यक्ति को पूर्णता के लिए अहंकार को त्याग कर शरणागत होने को कहा जा सकता है। शुद्ध – बुद्ध न होने पर किसी को शरणागत होने को कहने पर, वह कामना, आसक्ति और अहंकार के साथ ही शरणागत होगा।
गीता अध्ययन हम लोग जो करते है उन में कुछ लोग भक्ति और ज्ञान को भी व्यवसाय का माध्यम बना लेते है। कुछ सन्यास बिना मेहनत के जीविका चलती रहे इस लिए लेते है। कुछ ज्ञान की बाते समाज में अपनी छवि अच्छी बनी रहे इसलिए करते है और कुछ के भक्ति समय गुजारने का माध्यम है। इसलिए पराभक्ति की बात कही गई है, जो भक्ति बुद्धि – विवेक को जाग्रत कर के, कामना, आसक्ति और राग – द्वेष से परे अहम को छोड़ कर श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और समर्पण के साथ हो, वही भक्ति को ले कर जो परमात्मा की शरण जाएगा, वही व्यक्ति अपने कर्तव्य धर्म का पालन कर सकता है। यही गीता का उपसंहार का संदेश है।
समाज में जो लोग निस्वार्थ भाव से गौ और मानव की सेवा में लगे है, वह ही प्रभु भक्ति में लगे है। फिर वे चाहे सैनिक, व्यापारी, व्यवसाय, राजनेता, नौकरी करने वाला, वैज्ञानिक, डॉक्टर या वकील कोई भी हो। परमात्मा की भक्ति अपने कर्म को निस्वार्थ भाव से परमात्मा को अर्पण करने वाला ही भक्त है, जरूरी नहीं की वह यज्ञ, वेद पाठ या मंदिर जाए। किंतु सत्य यह भी है कि निस्वार्थ और भक्ति का ज्ञान भी प्राप्त करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन भी प्रत्येक को करना चाहिए।
इसलिए प्रत्येक मनुष्य को निष्काम कर्मयोग, ज्ञान योग और भक्ति के मार्ग में चलते हुए भी अहंकार को त्यागने के पराभक्ति और परमात्मा के शरणागत होना ही पड़ता है। गीता का उपसंहार में भक्ति का अर्थ ही ज्ञान और निष्काम कर्मयोग से परमात्मा की शरण होना है।
।। हरि ॐ तत् सत।। गीता विशेष – 18.62 ।।
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