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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.61 II

।। अध्याय      18.61 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.61

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥

“īśvaraḥ sarva- bhūtānāḿ,

hṛd- deśe ‘rjuna tiṣṭhati..।

bhrāmayan sarva- bhūtāni,

yantrārūḍhāni māyayā”..।।

भावार्थ: 

हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है ॥६१॥

Meaning:

Ishvara is seated in the hearts of all beings, O Arjuna, spinning all beings mounted on a machine by maaya.

Explanation:

Quake was one of the first wildly successful multiplayer video games. Any person could participate in the video game as long as they were connected to the Internet. Players were placed in a virtual world where they could form teams with other players from across the world. Players would win points for shooting a member of the opposing team and lose points if they would get shot. The creator of the Quake game had no influence on the outcome of the game, other than setting the rules of the game when it was created.

Shri Krishna says that the universe is like a gigantic video game set in motion by Ishvara. This video game is maayaa, also known as Prakriti, which is comprised of the three gunaas. By itself, maaya is insentient, it cannot do anything on its own. The eternal essence reflected in maaya adds sentience to maaya, it injects life into maaya by becoming the individual soul, the jeeva. In this way, each jeeva loses its connection with the eternal essence, and is stuck in this massive machine, this massive video game known as maaya.

Emphasizing the dependence of the soul upon God, Shree Krishna says, “Arjun, whether you choose to obey me or not, your position will always remain under my dominion. The body in which you reside is a machine made from my material energy. Based upon your past karmas, I have given you the kind of body you deserved. I too am seated in it, and am noting all your thoughts, words, and deeds. So, I will also judge whatever you do in the present, to decide your future. Do not think you are independent of me in any condition. Hence Arjun, it is in your self-interest to surrender to me.”

So then, how can the jeeva liberate itself from this never-ending video game of maaya? Does the jeeva have a chance? Is there any such thing as free will, or are we just slaves of maaya? The clue lies in the fact that maaya is subservient to Ishvara. If we only rely on maaya, if we only spend our lives attached to the material world, we will never have a chance at liberation. But if we direct our efforts towards knowing the true nature of Ishvara, towards contacting Ishvara, there may be a shot at liberation. Fortunately, he is not in some remote heaven, he is seated within us. How should we approach him? This is taken up next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अर्जुन के अहंकार की मैं युद्ध नही करूंगा, में पहले निर्देश, फिर चेतावनी, फिर पराधीनता एवम विवशता के बाद भगवान श्री कृष्ण इस बात का रहस्य भी बता रहे है।

यह समस्त सृष्टि परब्रह के संकल्प से उत्पन्न है। समस्त परा-अपरा प्रकृति का उत्पन्न परब्रह से हुआ है, इसलिये जीव परब्रह का अंश है तो प्रकृति भी उसी का स्वरूप है। वह अपने संकल्प से उत्पन्न सृष्टि का सूत्रधार, कर्ता, रचयिता है। इसलिये इस सृष्टि में जो भी कुछ होता है, उस के संकल्प से ही होता है। प्रकृति उस के बंधे बंधाये नियम पर कार्य करती है। जीव उस कठपुतली के समान है, जिस की डोर उस के हाथों में है। अतः कठपुतली का यह मानना की वह जो प्रदर्शन कर रही है, वह उस की इच्छा से है, कठपुतली का अहंकार युक्त मिथ्या भ्रम मात्र ही है। ईश्वर सर्व का शासन करने वाला अंतर्यामी देव सर्व भूतों के हृदय देश में विराजमान है और प्रकृति रूपी यंत्र पर आरूढ़ हुए सर्वभूतो को उनके अपने अपने कर्म रूपी सूत्र से बांध कर भ्रमा रहा है। यंत्र बंधे बंधाए नियमो में कार्य करता है, नियमो के बाहर वह कार्य नही कर सकता।

भगवान ने तीसरे अध्याय में कहा है कि सभी मनुष्य अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते है, इसलिए कोई कैसे इस का निग्रह करेगा। अतः मोक्ष शास्त्र, नीति शास्त्र या अन्य कोई भी शास्त्र इस से अधिक नही कर सकता कि मनुष्य को संसार की सरंचना, जीव को उस की वास्तविकता का ज्ञान करवा कर, कर्म के प्रति आसक्ति और कर्ता भाव का त्याग कर दे। क्योंकि जो कुछ भी कार्य या क्रियाएं होती है, वह परमात्मा जनित प्रकृति करती है।

आत्मा की ईश्वर पर निर्भरता पर बल देते हुए, श्री कृष्ण कहते हैं, “अर्जुन, चाहे तुम मेरी आज्ञा का पालन करना चाहो या नहीं, तुम्हारी स्थिति हमेशा मेरे अधीन रहेगी। जिस शरीर में तुम रहते हो, वह मेरी भौतिक ऊर्जा से बनी एक मशीन है। तुम्हारे पिछले कर्मों के आधार पर, मैंने तुम्हें वह शरीर दिया है जिस के तुम हकदार थे। मैं भी इस में बैठा हूँ, और तुम्हारे सभी विचारों, शब्दों और कार्यों को देख रहा हूँ। इसलिए, मैं तुम्हारे वर्तमान में जो कुछ भी करूँगा, उसका न्याय करूँगा, ताकि तुम्हारा भविष्य तय कर सकूँ। यह मत सोचो कि तुम किसी भी स्थिति में मुझसे स्वतंत्र हो। इसलिए अर्जुन, मेरी शरण में आना ही तुम्हारे हित में है।”

भगवान कहते है मानो वह ईश्वर  कैसे स्थित है सो कहते हैं, समस्त प्राणियों को,यन्त्र पर आरूढ़ हुई चढ़ी हुई कठपुतलियों की भाँति, भ्रमाता हुआ, भ्रमण कराता हुआ प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित है।भगवान् श्रीकृष्ण अपना स्थानीय पता बता रहे हैं, हृदय शब्द से तात्पर्य शारीरिक अंग रूप हृदय से नहीं है। दर्शनशास्त्र में हृदय का अर्थ लाक्षणिक है शाब्दिक नहीं। प्रेम, करुणा, धृति, उत्साह, स्नेह, कोमलता, क्षमा, उदारता जैसे दैवी गुणों से सम्पन्न मन ही हृदय कहलाता है। परमेश्वर ही चेतनता और शक्ति का स्रोत है, जो अपनी शक्ति प्राणीमात्र को प्रदान करता है। 

इतना होते हुए भी जीव प्रकृति के संयोग से कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव के कारण अहम, कामना एवम मोह से ग्रसित हो कर यही मानता है कि वह यह सब कर रहा है।

गीता के अंतिम क्षोर पर भगवान श्री कृष्ण अपने स्वरूप का जो दर्शन दिया था, उस को स्पष्ट करते हुए, अर्जुन को बता दिया कि वह उस पर ब्रह्म की मात्र डोर से बंधी कठपुतली ही है, उस के हाथ में किसी भी निर्णय को अहंकार के साथ लेने की क्षमता भी नही है।

इतना कुछ होते हुए भी परब्रह ने पिता के स्वरूप जो परा तत्व इस शरीर मे डाल दिया है, उस का औचित्य क्या है। वह ईश्वर सम्पूर्ण भूत-प्राणियों के हृदय देश मे निवास करता है, प्रत्येक प्राणी के इतना समीप होने पर भी भ्रमवश वह प्राणी उसे नही देख पाता और वह अकर्ता की भांति सब देख भी रहा है और कर भी रहा है। जीव प्रकृति की माया से भ्रमित है, इसलिये कर्म बंधन में अहम से फस कर जन्म-मरण के चक्कर लगा रहा है। तो जीव को क्या करना चाहिए।

जीव स्वयं परमात्मा का अंश है और स्वभाव अंश है स्वयं स्वतः सिद्ध है और स्वभाव खुद का बनाया हुआ है स्वयं चेतन है और स्वभाव जड है – ऐसा होने पर भी जीव स्वभाव के परवश है।

ज्ञान अहंकार, कर्ता, आसक्ति और कामना से काम नही करने का मार्ग दर्शन करता है किंतु भक्ति मार्ग समर्पण, श्रद्धा और विश्वास का मार्ग है, जो जीव को परमात्मा के अंश होने के कारण, उसे अपने आप को परमात्मा को ही सौप देने का मार्ग बतलाता है।

व्यवहार में जब एक बार जब आपने कोई पेशा चुन लिया, या कोई भी काम जिस के माध्यम से आपने समाज की सेवा करने का निर्णय लिया, तो हमेशा याद रखे कि चित्त की शुद्धता केवल देने से होती है, लेने से मन कभी शुद्ध नहीं हो सकता, “त्यागेन एव चित्त शुद्धि; त्यागेन एव मोक्ष: भी;” किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक वृद्धि के लिए देने की आवश्यकता होती है। इसलिए किसी भी प्रकार के पेशे के माध्यम से, आप समाज में योगदान करते हैं। और इसे कर्म कहा जाएगा; लेकिन यह पर्याप्त नहीं है कि आप कर्म करते हैं। इसे योग में परिवर्तित करना होगा और आप कर्म को कर्म योग में कैसे बदल सकते हैं? इसका एकमात्र तरीका है समाज की सेवा के तहत अपना कर्तव्य निभाना और मुआवजे की मात्रा या भौतिक प्रतिफल जो एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, को अवतरण फलम या उप-उत्पाद के रूप में देखा जाना चाहिए। प्राथमिक उद्देश्य भगवान की पूजा है। इसलिए ईमानदार और प्रसन्न रहें, चाहे कोई भी पेशा हो, वह समाज की भलाई के लिए हो। यदि वह समाज में अनैतिकता, बुराइयों या गलत परंपरा के लिए हो, चाहे कितना भी प्रतिफल मिले, वह गलत ही होगा। इसलिए अनैतिक या अधर्म के साथ खड़े हो कर कोई भी कार्य करे, वह कर्मयोग चित्त शुद्धि के लिए यज्ञ नहीं हो सकता।

मोक्ष ही एक मात्र जीव का लक्ष्य होता है। अश्वस्थ वृक्ष से बाहर उस परब्रह मे विलीन होना ही जीव का लक्ष्य है, तो क्या करना चाहिए, इसे आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.61 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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