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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.60 II

।। अध्याय      18.60 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.60

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।

कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥

“svabhāva-jena kaunteya,

nibaddhaḥ svena karmaṇā..।

kartuḿ necchasi yan mohāt,

kariṣyasy avaśo ‘pi tat”..।।

भावार्थ: 

हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उस को भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा ॥६०॥

Meaning:

Being bound by your own duty arising out of your nature, O Kaunteya, you will helplessly do that which you do not want to do now, due to delusion.

Explanation:

As Sant Jnyaneshwar says in his commentary, it is impossible for the westward current in a river to flow eastward, and a seed planted in fertile land to not germinate. There are other such examples in the world which illustrate the impossibility of suppressing one’s own natural tendencies. Bookies that are sentenced to prison start operating gambling dens inside the prison itself. Unethical businessmen who get elected to political office sell election seats to the highest bidder.

Shree Krishna says, “Due to your sanskārs of past lives, you have a Kshatriya nature. Your inborn qualities of heroism, chivalry, and patriotism will compel you to fight. You have been trained in past lifetimes and in this one, to honor your duty as a warrior. Is it possible for you to be inactive when you see injustice being meted out to others in front of your eyes? Your nature and inclinations are such that you vehemently oppose evil wherever you see it. Therefore, it is beneficial for you to fight according to prevailing circumstance rather than be compelled by your nature to do the same.”

Therefore, he says everyone is bound by his own type of karma; a particular type of karma or activity, everyone is bound; and this karma is determined by svabhāvajēna or svabhāva. it is because of your delusion; you are trying to avoid, what cannot be avoided.

Shri Krishna continues to convince Arjuna that the decision to quit the war will not work. Arjuna is the perfect embodiment of a kshatriya, a warrior, possessing all the qualities listed earlier in the chapter. Quitting the war would temporarily have suppressed his fighter instinct, but only temporarily. In due course of time, the force of his vasanas, the force of his mental impressions would have impelled him to fight the war he had fled. Worse still, shutting off his fighter instincts through coercion would have driven him to insanity.

Arjuna would probably have been convinced about the need to fight the war, since it was clear that he could not walk away from fulfilling his duty, and that he could not forcefully choke his inherent warrior instincts. If we were to take this argument to its conclusion, it means that we are helpless under the influence of our natural tendencies. But there has to be way out of this, otherwise there is no scope for liberation. Shri Krishna answers this doubt through an illustration in the next shloka.

Why do parents want to foist its career path onto their children? It is purely due to ego. Parents have a strong sense of mine-ness with regards to their children. They prefer not to think of their children as independent entities. The egos of parents derive strength from this sense of mine-ness and insist that they have the power to reshape the destiny of their children. Similarly, Arjuna also assumed that he could override his nature as a warrior and become a monk. Shri Krishna reminded him that his inherent nature as a warrior would compel him to fight, and that he should reconsider his decision.

।। हिंदी समीक्षा ।।

भगवान श्री कृष्ण पहले निर्देश, फिर चेतावनी, अब कर्म पराधीनता के गूढ़ तत्व को प्रकट करते हुए कहते है, हे कौन्तेय, तू उपर्युक्त शूरवीरता आदि अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा निबद्ध हुआ – दृढ़ता से बँधा हुआ है, इसलिये जो कर्म तू मोह से,  अविवेक के कारण नहीं करना चाहता है, तो वही कर्म तू विवश होकर करेगा।

श्री कृष्ण कहते हैं, “पिछले जन्मों के संस्कारों के कारण तुममें क्षत्रिय स्वभाव है। वीरता, वीरता और देशभक्ति के तुम्हारे जन्मजात गुण तुम्हें युद्ध करने के लिए बाध्य करेंगे। तुम्हें पिछले जन्मों में और इस जन्म में भी योद्धा के रूप में अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। क्या यह संभव है कि जब तुम अपनी आँखों के सामने दूसरों पर अन्याय होते देखो तो तुम निष्क्रिय हो जाओ? तुम्हारा स्वभाव और प्रवृत्ति ऐसी है कि तुम जहाँ कहीं भी बुराई देखते हो, उसका पुरजोर विरोध करते हो। इसलिए, तुम्हारे लिए यह लाभदायक है कि तुम परिस्थितियों के अनुसार युद्ध करो, न कि अपने स्वभाव से विवश होकर वैसा ही करना पड़े।”

इसलिए वह कहते हैं कि हर कोई अपने कर्म से बंधा हुआ है। एक विशेष प्रकार के कर्म या गतिविधि से हर कोई बंधा हुआ है; और यह कर्म स्वभाव से निर्धारित होता है। यह आप के मोह जनित भ्रम के कारण है। आप उस चीज़ से बचने की कोशिश कर रहे हैं जिसे टाला नहीं जा सकता।

व्यवसाय अर्थात् निश्चय दो तरह का होता है – वास्तविक और अवास्तविक। परमात्मा के साथ अपना जो नित्य सम्बन्ध है, उस का निश्चय करना तो वास्तविक है और प्रकृति के साथ मिलकर प्राकृत पदार्थों का निश्चय करना अवास्तविक है। जो निश्चय परमात्मा को लेकर होता है, उस में स्वयं की प्रधानता रहती है और जो निश्चय प्रकृति को लेकर होता है, उस में अन्तःकरण की प्रधानता रहती है। इसलिये भगवान् यहाँ अर्जुन से कहते हैं कि अहंकार का अर्थात् प्रकृति का आश्रय लेकर तू जो यह कह रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, ऐसा तेरा (क्षात्रप्रकृति के विरुद्ध) निश्चय अवास्तविक अर्थात् मिथ्या है, झूठा है। आश्रय परमात्मा का ही होना चाहिये, प्रकृति और प्रकृति के कार्य संसार का नहीं। यदि प्राणी यह निश्चय कर लेता है कि मैं परमात्मा का ही हूँ और मुझे केवल परमात्मा की तरफ ही चलना है, तो उस का यह निश्चय वास्तविक अर्थात् सत्य है, नित्य है। 

इस से स्वभाव की प्रबलता ही सिद्ध होती है क्योंकि कोई भी प्राणी जिस किसी योनि में भी जन्म लेता है, उस की प्रकृति अर्थात् स्वभाव उस के साथ में रहता है। अगर उस का स्वभाव परम शुद्ध हो अर्थात् स्वभाव में सर्वथा असङ्गता हो तो उस का जन्म ही क्यों होगा यदि उस का जन्म होगा तो उस में स्वभाव की मुख्यता रहेगी। जब स्वभाव की ही मुख्यता अथवा परवशता रहेगी और प्रत्येक क्रिया स्वभाव के अनुसार ही होगी, तो फिर शास्त्रों का विधि निषेध किस पर लागू होगा गुरुजनों की शिक्षा किस के काम आयेगी और मनुष्य दुर्गुण दुराचारों का त्याग कर के सद्गुण सदाचारों में कैसे प्रवृत्त होगा, उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर यह है कि जैसे मनुष्य गङ्गाजी के  प्रवाह को रोक तो नहीं सकता, पर उस के प्रवाह को मोड़ सकता है, घुमा सकता है। ऐसे ही मनुष्य अपने वर्णोचित स्वभाव को छोड़ तो नहीं सकता, पर भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य रख कर उस को रागद्वेष से रहित परम शुद्ध, निर्मल बना सकता है। तात्पर्य यह हुआ कि स्वभाव को शुद्ध बनाने में मनुष्यमात्र सर्वथा सबल और स्वतन्त्र है, निर्बल और परतन्त्र नहीं है। निर्बलता और परतन्त्रता तो केवल रागद्वेष होने से प्रतीत होती है।

यद्यपि आत्मा को स्वतंत्र माना गया है किंतु प्रकृति के व्यवहार को देखने से यह भी सिद्ध होता है कि कर्म चक्र पर आत्मा का कुछ भी अधिकार नही है। इस जगत में जो अनादि से चल रहा है, उसे कोई नही रोक सकता।

संत ज्ञानेश्वर जी कहते है कि धान यदि गैहू की भांति उगने की कोशिश करे तो क्या वह उस के स्वभाव के अनुकूल होगी। नदी की धारा के विरुद्ध तैर कर नदी पार जानेवाला तैराक अन्त में  धारा के साथ बहने को मजबूर हो जाता है। परमात्मा ने प्रकृति के तीन गुणों और महामाया से संसार के संचालन के नियम बनाए है, वह स्वयं भी मानव अवतार में उन का पालन करते है। अतः प्रकृति में जन्म लेने वाला व्यक्ति अपने पूर्व कर्मो के अनुसार स्वभाव अर्थात गुण धर्म में जन्म ले कर कर्म करने को बाध्य है। पूर्व में अश्वत्थ वृक्ष के विषय में हम ने पढ़ा था, उस के अनुसार संपूर्ण संसार प्रकृति का कर्म चक्र है। बिना कर्म किए कोई नही रह सकता चाहे वो देवता ही क्यों न हो। कर्म के इस चक्कर से बचने के सात्विक गुणों के साथ निष्काम कर्म करते हुए, इस अश्वत्थ वृक्ष से बाहर निकलना ही मोक्ष है। अतः युद्ध भूमि में अर्जुन युद्ध करे या न करे, प्रकृति ने जो उसे क्षत्रिय स्वभाव दिया है, उस के कारण वह जो कुछ भी करेगा, वह अन्याय और अधर्म के विरुद्ध कार्य करने का होगा। पूर्व में भी जब वह किन्नर स्वरूप में गुप्तवास कर रहा था तो भी राजकुमार उत्तर के पलायन को रोकते हुए, अकेले ने ही युद्ध किया था। यही उस के स्वभाव के अनुकूल था।

आत्मा स्वतंत्र है, किंतु प्रकृति के व्यवहार को देखते हुए हम कह सकते है कि कर्म के चक्र पर आत्मा का कोई अधिकार नहीं है। जिस की हम इच्छा नही करते, बल्कि हमारी इच्छा के विपरीत भी है, ऐसी सैकड़ो, हजारों बाते संसार मे हुआ करती है तथा उस व्यापार के परिणाम भी हम पर लागू होते है अथवा उक्त व्यापार का कुछ हिस्सा हमे बाध्य हो कर करना भी पड़ता है जिसे हम चाहे या न चाहे करते ही है। सभी प्राणी अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार चलते रहते है, वहां निग्रह क्या करेगा।  इस काल चक्र में जब कर्मो पर भी मनुष्य का अधिकार नही, उस के परिणामो पर कोई अधिकार नही तो इतने सारे ज्ञान की आवश्यकता भी क्यों है? कर्म के करने या न करने पर जीव का अधिकार नहीं है क्योंकि जीव तो अकर्ता है। जीव का अधिकार उस कर्म को आसक्ति भाव से या निष्काम भाव से करने का है। यदि मोक्ष को प्राप्त होना है तो जीव को कर्त्ता भाव का त्याग करना होगा, यही उस का अधिकार है। इसलिए जीव को प्रकृति द्वारा प्रदत्त स्वभाव में सात्विक गुण में रहते हुए निष्काम कर्म करते रहना चाहिए, यही उस का अधिकार क्षेत्र भी है और मोक्ष  का मार्ग भी।

जन्म से ले कर मृत्यु तक, दैनिक कार्य क्रम में, व्यापारिक, सामाजिक और पारिवारिक कार्य में किसी भी विषय में कोई यह नहीं कह सकता कि सब कुछ उस  के नियंत्रण और योजना के अनुसार हो रहा है, वह योजनाएं बनाता अवश्य है, किंतु प्रतिदिन प्रकृति के अनुसार समायोजित करता रहता है। उस लक्ष्य उस के स्वभाव के अनुसार मेहनत और विवेक पर निर्भर है किंतु कौन, कब और कहां मिलेगा, जिन से वह मिलता है, उन्हे कब और कैसे वह जानता है, देश के नियम और प्रकृति का वातावरण साधन आदि कितना उपयोगी सिद्ध होंगे, यह उस के अधिकार से बाहर है। तो अधिकार क्षेत्र में कार्यरत रहना तो है किंतु कार्य का चुनाव परिस्थितियां अर्थात प्रकृति ही करती है। प्रकृति के साथ बंधे जीव की विवशता के बाद हम इस के कारण को भी पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.60 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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