।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.57 II Additional II
।। अध्याय 18.57 II विशेष II
।। स्वामी रामसुख दास जी द्वारा मत्पर और समर्पण पर विशेष टिप्पणी ।। गीता विशेष 18.57 ।।
भगवान् ही मेरे परम आश्रय हैं, उन के सिवाय मेरा कुछ नहीं है, मेरे को करना भी कुछ नहीं है, पाना भी कुछ नहीं है, किसी से लेना भी कुछ नहीं है अर्थात् देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि से मेरा किञ्चिन्मात्र कोई प्रयोजन नहीं है – ऐसा अनन्यभाव हो जाना ही भगवान् के परायण होना है। एक बात खास ध्यान देने की है – रुपये पैसे, कुटुम्ब, शरीर आदि को मनुष्य अपना मानते हैं और मन में यह समझते हैं कि हम इन के मालिक बन गये, हमारा इन पर आधिपत्य है परन्तु वास्तव में यह बात बिलकुल झूठी है, कोरा वहम है और बड़ा भारी धोखा है। जो किसी चीज को अपनी मान लेता है, वह उस चीज का गुलाम बन जाता है और वह चीज उस का मालिक बन जाती है। फिर उस चीज के बिना वह रह नहीं सकता। अतः जिन चीजों को मनुष्य अपनी मान लेता है, वे सब उस पर चढ़ जाती हैं और वह तुच्छ हो जाता है। वह चीज चाहे रुपया हो, चाहे कुटुम्बी हो, चाहे शरीर हो, चाहे विद्याबुद्धि आदि हो। ये सब चीजें प्राकृत हैं और अपने से भिन्न हैं, पर हैं। इनके अधीन होना ही पराधीन होना है।भगवान् स्वकीय हैं, अपने हैं। उन को मनुष्य अपना मानेगा, तो वे मनुष्य के वश में हो जायँगे। भगवान् के हृदय में भक्त का जितना आदर है, उतना आदर करने वाला संसार में दूसरा कोई नहीं है। भगवान् भक्त के दास हो जाते हैं और उसे अपना मुकुटमणि बना लेते हैं – मैं तो हूँ भगतन का दास भगत मेरे मुकुटमणि, परन्तु संसार मनुष्य का दास बन कर उसे अपना मुकुटमणि नहीं बनायेगा। वह तो उसे अपना दास बनाकर पद दलित ही करेगा। इसलिये केवल भगवान् के शरण होकर सर्वथा उन्हीं के परायण हो जाना चाहिये।
गीता भर में देखा जाय तो समता की बड़ी भारी महिमा है। मनुष्य में एक समता आ गयी तो वह ज्ञानी, ध्यानी, योगी, भक्त आदि सब कुछ बन गया। परन्तु यदि उस में समता नहीं आयी तो अच्छेअच्छे लक्षण आने पर भी भगवान् उस को पूर्णता नहीं मानते। वह समता मनुष्य में स्वाभाविक रहती है। केवल आने जाने वाली परिस्थितियों के साथ मिल कर वह सुखीदुःखी हो जाता है। इसलिये उन में मनुष्य सावधान रहे कि आने जाने वाली परिस्थिति के साथ मैं नहीं हूँ। सुख आया, अनुकूल परिस्थिति आयी तो भी मैं हूँ और सुख चला गया, अनुकूल परिस्थिति चली गयी तो भी मैं हूँ। ऐसे ही दुःख आया, प्रतिकूल परिस्थिति आयी तो भी मैं हूँ और दुःख चला गया, प्रतिकूल परिस्थिति चली गयी तो भी मैं हूँ। अतः सुखदुःख में, अनुकूलता प्रतिकूलता में, हानि लाभ में मैं सदैव ज्यों का त्यों रहता हूँ। परिस्थितियों के बदलने पर भी मैं नहीं बदलता, सदा वही रहता हूँ। इस तरह अपने आप में स्थित रहे। अपने आप में स्थित रहने से सुखदुःख आदि में समता हो जायगी। यह समता ही भगवान् की आराधना है। इसीलिये यहाँ भगवान् बुद्धियोग अर्थात् समता का आश्रय लेने के लिये कहते हैं। जो अपने को सर्वथा भगवान् के समर्पित कर देता है, उस का चित्त भी सर्वथा भगवान् के चरणों में समर्पित हो जाता है। फिर उस पर भगवान् का जो स्वतःस्वाभाविक अधिकार है, वह प्रकट हो जाता है और उस के चित्त में स्वयं भगवान् आकर विराजमान हो जाते हैं। यही मच्चित्तः होना है।मच्चित्तः पदके साथ सततम् पद देने का अर्थ है कि निरन्तर मेरे में (भगवान् में) चित्तवाला हो जा। भगवान् का निरन्तर चिन्तन तभी होगा, जब मैं भगवान् का हूँ इस प्रकार अहंता भगवान् में लग जायगी। अहंता भगवान् में लग जाने पर चित्त स्वतःस्वाभाविक भगवान् में लग जाता है। जैसे, शिष्य बनने पर मैं गुरु का हूँ इस प्रकार अहंता गुरु में लग जाने पर गुरु की याद निरन्तर बनी रहती है। गुरु का सम्बन्ध अहंता में बैठ जाने के कारण इस सम्बन्ध की याद आये तो भी याद है और याद न आये तो भी याद है क्योंकि स्वयं निरन्तर रहता है। इस में भी देखा जाय तो गुरु के साथ उस ने खुद सम्बन्ध जोड़ा है परन्तु भगवान् के साथ इस जीव का स्वतःसिद्ध नित्य सम्बन्ध है। केवल संसार के साथ सम्बन्ध जोड़ने से ही नित्य सम्बन्ध की विस्मृति हुई है। उस विस्मृति को मिटाने के लिये भगवान् कहते हैं कि निरन्तर मेरे में चित्तवाला हो जा, साधक कोई भी सांसारिक कामधंधा करे, तो उसमें यह एक सावधानी रखे कि अपने चित्तको उस कामधंधेमें द्रवित न होने दे, चित्त को संसार के साथ घुलने मिलने न दे अर्थात् तदाकार न होने दे, प्रत्युत उस में अपने चित्त को कठोर रखे। परन्तु भगवन्नाम का जप, कीर्तन, भगवत्कथा, भगवच्चिन्तन आदि भगवत्सम्बन्धी कार्यों में चित्त को द्रवित करता रहे, तल्लीन करता रहे, उस रस में चित्त को तरान्तर करता रहे । इस प्रकार करते रहने से साधक बहुत जल्दी भगवान् में चित्तवाला हो जायगा।
चित्त से सब कर्म भगवान् के अर्पण करने से संसार से नित्यवियोग हो जाता है और भगवान् के परायण होने से नित्ययोग (प्रेम) हो जाता है। नित्ययोग में योग, नित्ययोग में वियोग, वियोग में नित्ययोग और वियोग में वियोग, ये चार अवस्थाएँ चित्त की वृत्तियों को लेकर होती हैं। इन चारों अवस्थाओं को इस प्रकार समझना चाहिये – जैसे, श्रीराधा और श्रीकृष्ण का परस्पर मिलन होता है, तो यह नित्ययोग में योग है। मिलन होने पर भी श्रीजी में ऐसा भाव आ जाता है कि प्रियतम कहीं चले गये हैं और वे एकदम कह उठती हैं कि प्यारे तुम कहाँ चले गये तो यह नित्ययोग में वियोग है। श्यामसुन्दर सामने नहीं हैं, पर मन से उन्हीं का गाढ़ चिन्तन हो रहा है और वे मन से प्रत्यक्ष मिलते हुए दीख रहे हैं, तो यह वियोग में नित्ययोग है। श्यामसुन्दर थोड़े समय के लिये सामने नहीं आये, पर मन में ऐसा भाव है कि बहुत समय बीत गया, श्यामसुन्दर मिले नहीं, क्या करूँ कहाँ जाऊँ श्यामसुन्दर कैसे मिलें तो यह वियोग में वियोग है। वास्तव में इन चारों अवस्थाओं में भगवान् के साथ नित्ययोग ज्यों का त्यों बना रहता है, वियोग कभी होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं और होने की संभावना भी नहीं। इसी नित्ययोग को प्रेम कहते हैं क्योंकि प्रेम में प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों अभिन्न रहते हैं। वहाँ भिन्नता कभी हो ही नहीं सकती। प्रेम का आदानप्रदान,करने के लिये ही भक्त और भगवान् में संयोग वियोग की लीला हुआ करती है।
यह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान किस प्रकार है जब प्रेमी और प्रेमास्पद परस्पर मिलते हैं, तब प्रियतम पहले चले गये थे, उन से वियोग हो गया था अब कहीं ये फिर न चले जाय, इस भाव के कारण प्रेमास्पद के मिलने में तृप्ति नहीं होती, सन्तोष नहीं होता। वे चले जायँगे – इस बात को लेकर मन ज्यादा खिंचता है। इसलिये इस प्रेम को प्रतिक्षण वर्धमान बताया है।प्रेम(भक्ति) में चार प्रकार का रस अथवा रति होती है — दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। इन रसों में दास्य से सख्य, सख्य से वात्सल्य और वात्सल्य से माधुर्यरस श्रेष्ठ है क्योंकि इन में क्रमशः भगवान् के ऐश्वर्य की विस्मृति ज्यादा होती चली जाती है। परन्तु जब इन चारों में से कोई एक भी रस पूर्णता में पहुँच जाता है, तब उस में दूसरे रसों की कमी नहीं रहती अर्थात् उस में सभी रस आ जाते हैं। जैसे, दास्यरस पूर्णता में पहुँच जाता है तो उस में सख्य, वात्सल्य और माधुर्य – तीनों रस आ जाते हैं। यही बात अन्य रसों के विषय में भी समझनी चाहिये। कारण यह है कि भगवान् पूर्ण हैं, उन का प्रेम भी पूर्ण है और परमात्मा का अंश होने से जीव स्वयं भी पूर्ण है। अपूर्णता तो केवल संसार के सम्बन्ध से ही आती है। इसलिये भगवान् के साथ किसी भी रीति से रति हो जायगी तो वह पूर्ण हो जायगी, उस में कोई कमी नहीं रहेगी।दास्य रति में भक्त का भगवान् के प्रति यह भाव रहता है कि भगवान् मेरे स्वामी हैं और मैं उन का सेवक हूँ। मेरे पर उन का पूरा अधिकार है। वे चाहे जो करें, चाहे जैसी परिस्थिति में रखें और मेरे से चाहे जैसा काम लें। मेरे पर अत्यधिक अपनापन होने से ही वे बिना मेरी सम्मति लिये ही मेरे लिये सब विधान करते हैं।सख्य रति में भक्त का भगवान् के प्रति यह भाव रहता है कि भगवान् मेरे सखा हैं और मैं उन का सखा हूँ। वे मेरे प्यारे हैं और मैं उन का प्यारा हूँ। उन का मेरे पर पूरा अधिकार है और मेरा उन पर पूरा अधिकार है। इसलिये मैं उन की बात मानता हूँ, तो मेरी भी बात उन को माननी पड़ेगी। वात्सल्य रति में भक्त का अपने में स्वामिभाव रहता है कि मैं भगवान् की माता हूँ या उन का पिता हूँ अथवा उनका गुरु हूँ और वह तो हमारा बच्चा है अथवा शिष्य है इसलिये उस का पालनपोषण करना है। उस की निगरानी भी रखनी है कि कहीं वह अपना नुकसान न कर ले जैसे – नन्दबाबा और यशोदा मैया कन्हैया का खयाल रखते हैं और कन्हैया वन में जाता है तो उस की निगरानी रखने के लिये दाऊजी को साथ में भेजते हैं
माधुर्य रति में भक्त को भगवान् के ऐश्वर्य की विशेष विस्मृति रहती है अतः इस रति में भक्त भगवान् के साथ अपनी अभिन्नता (घनिष्ठ अपनापन) मानता है। अभिन्नता मानने से उन के लिये सुखदायी सामग्री जुटानी है, उन्हें सुख आराम पहुँचाना है, उन को किसी तरह की कोई तकलीफ न हो – ऐसा भाव बना रहता है। प्रेमरस अलौकिक है, चिन्मय है। इस का आस्वादन करने वाले केवल भगवान् ही हैं। प्रेम में प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों ही चिन्मयतत्त्व होते हैं। कभी प्रेमी प्रेमास्पद बन जाता है और कभी प्रेमास्पद प्रेमी हो जाता है। अतः एक चिन्मय तत्त्व ही प्रेम का आस्वादन करने के लिये दो रूपों में हो जाता है। प्रेम के तत्त्व को न समझने के कारण कुछ लोग सांसारिक काम को ही प्रेम कह देते हैं। उन का यह कहना बिलकुल गलत है क्योंकि काम तो चौरासी लाख योनियों के सम्पूर्ण जीवों में रहता है और उन जीवों में भी जो भूत, प्रेत, पिशाच होते हैं, उन में काम (सुखभोगकी इच्छा) अत्यधिक होता है। परन्तु प्रेम के अधिकारी जीवन्मुक्त महापुरुष ही होते हैं।
काम में लेने ही लेने की भावना होती है और प्रेम में देने ही देने की भावना होती है। काम में अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने – उन से सुख भोगने का भाव रहता है और प्रेम में अपने प्रेमास्पद को सुख पहुँचाने तथा सेवापरायण रहने का भाव रहता है। काम केवल शरीर को लेकर ही होता है और प्रेम स्थूलदृष्टि से शरीर में दीखते हुए भी वास्तव में चिन्मयतत्त्व से ही होता है। काम में मोह (मूढ़भाव) रहता है और प्रेम में मोह की गन्ध भी नहीं रहती। काम में संसार तथा संसार का दुःख भरा रहता है और प्रेम में मुक्ति तथा मुक्ति से भी विलक्षण आनन्द रहता है। काम में जडता (शरीर, इन्द्रियाँ आदि) की मुख्यता रहती है और प्रेम में चिन्मयता (चेतन स्वरूप) की मुख्यता रहती है। काम में राग होता है और प्रेम में त्याग होता है। काम में परतन्त्रता होती है और प्रेम में परतन्त्रता का लेश भी नहीं होता अर्थात् सर्वथा स्वतन्त्रता होती है। काम में वह मेरे काम में आ जाय ऐसा भाव रहता है और प्रेम में मैं उस के काम में आ जाऊँ ऐसा भाव रहता है। काम में कामी भोग्य वस्तु का गुलाम बन जाता है और प्रेम में स्वयं भगवान् प्रेमी के गुलाम बन जाते हैं। काम का रस नीरसता में बदलता है और प्रेम का रस आनन्द रूप से प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है। काम खिन्नता से पैदा होता है और प्रेम प्रेमास्पद की प्रसन्ता से प्रकट होता है। काम में अपनी प्रसन्नता का ही उद्देश्य रहता है। और प्रेम में प्रेमास्पद की प्रसन्नता का ही उद्देश्य रहता है। काममार्ग नरकों की तरफ ले जाता है और प्रेम मार्ग भगवान् की तरफ ले जाता है। काम में दो होकर दो ही रहते हैं अर्थात् द्वैधीभाव (भिन्नता या भेद) कभी मिटता नहीं और प्रेम में एक होकर दो होते हैं अर्थात् अभिन्नता कभी मिटती नहीं।
।। हरि ॐ तत् सत ।। गीता विशेष – 18.57 ।।
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