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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.56 II

।। अध्याय      18.56 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.56

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥

“sarva- karmāṇy api sadā,

kurvāṇo mad- vyapāśrayaḥ..।।

mat- prasādād avāpnoti,

śāśvataḿ padam avyayam”..।।

भावार्थ: 

मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है ॥५६॥

Meaning:

Always engaging even in all actions, one who considers me as his refuge, through my grace attains that eternal, imperishable state.

Explanation:

In the previous verse, Shree Krishna explained that through bhakti the devotees enter into full awareness of him. Equipped with it, they see everything in its connection with God. They see their body, mind, and intellect as the energies of God; they see their material possessions as the property of God; they see all living beings as parts and parcels of God; and they see themselves as his tiny servants. In that divine consciousness, they do not give up work, rather they renounce the pride of being the doers and enjoyers of work. They see all work as devotional service to the Supreme, and they depend upon him for its performance.

Arjuna, after having heard the final message of the Gita discourse, would probably have had felt quite dejected and sad, like many of us. Unless one gave up all actions, took up a life of a monk, lived in a secluded place and contemplated constantly upon the eternal essence, liberation is not possible. How many of us, who are currently quite entrenched in the world, can see ourselves taking up a path of monkhood? It is next to impossible. We may begin to think that the Gita is not for us.

Anticipating this frustration, Shri Krishna brought the discourse back to Arjuna’s level, as it were. Arjuna, like us, was not in a state to renounce his actions and retire to a state of monkhood. Shri Krishna reassured Arjuna that liberation is absolutely possible for such people. It is because of one key point. Whether one continues to act in this world, or takes up renunciation, liberation is entirely up to the grace of Ishvara. We can make all the preparations we want to fall asleep, but ultimately, whether or not we fall asleep is not in our hands.

Then, upon leaving their body, they go to the divine abode of God. Just as the material realm is made from the material energy, the divine realm is made from the spiritual energy. Hence, it is free from the defects of material nature and is perfect in every way. It is sat-chit-ānand i.e., full of eternality, knowledge, and bliss. Regarding his divine realm, Shree Krishna had said in verse 15.6: “Neither the sun nor the moon, nor fire can illumine that Supreme Abode of Mine. Having gone There, one does not return to this material world again.”

In the Bhagavad Gita, while performing work according to one’s caste, it is said to offer its fruits to God. Arjuna has been asked to perform his duty i.e. war with a detached attitude, rather than to renounce it out of fear in the battlefield. This very feeling of work is also Gyan Yoga, that how can we contribute to the welfare of the world. How can we increase our quality. It is true that in the illusion of nature, whatever a living being considers his own, ends with the body. Therefore, the knowledge by which a living being is able to recognize his existence and the knowledge by listening, thinking and meditating on which a living being gets the knowledge of his ego, is called Gyan Yoga. Due to the separation of the living being from Brahma, first the ego of Mahant i.e. “I” is created, then through the intellect it gets connected to the feeling of doer and enjoyer. While performing work, he gets to know the same by self-purification and by supreme devotion through Gyan Yoga. Therefore, he again abandons the ego and while performing work by being devoted to God, attains salvation.

 So then, having known this, Arjuna, who had temporarily given up hope of attaining the shaashvata avyaya padam, the eternal and imperishable state of liberation, regained his interest in the discourse. Shri Krishna now began winding up the entire Gita, by summarizing its key aspects from a very practical standpoint. The simple practical advice given here is to continue performing our duty, not to worry too much if we inadvertently perform a prohibited action, and to consider Ishvara as the one and only one aashraya, the ultimate refuge.

।। हिंदी समीक्षा ।।

गीता में ध्यानयोग, कर्मयोग, बुद्धियोग एवम भक्तियोग को विस्तृत रूप में वर्णन करने के बाद ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि एवम धृति के गुणों को विस्तार से बताया गया। त्याग एवम सन्यास में यही सिद्ध किया गया कि वास्तविक त्याग कर्म का न हो कर कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव का है, जिस में कर्म के प्रति आसक्ति, अहम, मोह को ही त्यागना श्रेष्ठ है। विभिन्न गुणों के विभेद में सात्विक गुण की प्रधानता बताई गई। सन्यास के संक्षिप्त विवरण में उस परमतत्व को ब्रह्मभूत हो कर जानना एवम उस को प्राप्त करना भी बताया गया।

पिछले श्लोक में श्रीकृष्ण ने समझाया कि भक्ति के माध्यम से भक्तगण भगवान के प्रति पूर्ण जागरूकता में प्रवेश करते हैं। इससे सुसज्जित होकर वे हर चीज़ को भगवान से जोड़कर देखते हैं। वे अपने शरीर, मन और बुद्धि को भगवान की शक्तियों के रूप में देखते हैं; वे अपनी भौतिक संपत्ति को भगवान की संपत्ति के रूप में देखते हैं; वे सभी जीवित प्राणियों को भगवान के अंश के रूप में देखते हैं; और वे स्वयं को उनके छोटे सेवकों के रूप में देखते हैं। उस दिव्य चेतना में वे कर्म नहीं छोड़ते, बल्कि वे कर्म के कर्ता और भोक्ता होने के अभिमान को त्याग देते हैं। वे सभी कर्मों को भगवान की भक्ति के रूप में देखते हैं, और उसके निष्पादन के लिए उन पर निर्भर रहते हैं।

गीता इस समस्त ज्ञान को इस श्लोक में पिरो कर भगवान श्री कृष्ण कहते है कि चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के अनुसार अपने नियत एवम स्वभावज कर्म को जो भी जीव भक्तिभाव से मुझे अर्पित करता हुआ, निष्काम, आसक्ति एवम कर्तृत्त्व भाव को त्याग कर बुद्धियोग से करता है, उसे भी वही परमगति की प्राप्ति होती है, जिसे सन्यासी ब्रह्मभूत को परमतत्व को जानने के बाद प्राप्त करता है। मोक्ष के लिये कुछ भी अन्य अनुष्ठान की आवश्यकता नही है।

अपने कर्मों द्वारा भगवान् की पूजा करना रूप भक्तियोग की सिद्धि अर्थात् फल, ज्ञाननिष्ठा की योग्यता है। जिस भक्तियोग  से होनेवाली ज्ञाननिष्ठा अन्त में मोक्षरूप फल देने वाली होती है, उस भगवद्भक्तियोग की अब, सदा सब कर्मों को करनेवाला अर्थात् निषिद्ध कर्मों को भी करनेवाला जो मद्व्यपाश्रय भक्त है  जिसका मैं वासुदेव ही पूर्ण आश्रय हूँ, ऐसा मुझे ही अपना सब कुछ अर्पण कर देनेवाला जो भक्त है, वह भी मुझ ईश्वर के अनुग्रह से अविनाशी पद को प्राप्त कर लेता है।

गीता के अनुसार, केवल निष्क्रिय समर्पण अथवा कर्मकाण्ड का अनुष्ठान ही भक्ति नहीं है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व के अभिमान का परित्याग कर परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करना भक्ति है। भगवान् श्रीकृष्ण इस बात पर भी विशेष बल देते हैं कि साधक को अपने ज्ञान एवं अनुभव को व्यावहारिक जीवन में भी जीने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण के मतानुसार धर्म की पूर्णता विषयों से केवल विरति और निजानुभूति में ही नहीं हैं। उनका यह निश्चित मत है कि ज्ञानी पुरुष को आत्मानुभव के पश्चात् पुन व्यावहारिक जगत् में आकर कर्म करने चाहिए। परन्तु ये कर्म निजानुभव की शान्ति और आनन्द से सुरभित हों, जिस से कि यह मन्द और म्लान जगत् तेजोमय और कान्तिमय बन जाये। इसलिए, परम भक्त बनने के लिए एक और आवश्यक गुण का वर्णन इस श्लोक में किया गया है। निस्वार्थ समाज सेवा के अधिकार पत्र के बिना, गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण न तो किसी भक्त का स्वागत करना चाहते हैं और न किसी को अपना दर्शन देना चाहते हैं। उनकी यह स्पष्ट घोषणा है, जो पुरुष मदाश्रित होकर समस्त कर्म करता है, वह मेरे प्रसाद से अव्यय पद को प्राप्त कर लेता है।ईश्वरार्पण की भावना से ही कर्तृत्वाभिमान को त्यागा जा सकता है। इस भावना से कर्तव्य पालन करने वाले साधक को ईश्वर का प्रसाद अर्थात् अनुग्रह (कृपा) प्राप्त होता है। अपनी कृपा से भिन्न ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है, ईश्वर ही स्वयं अपनी कृपा है और उसकी कृपा ही वह स्वयं है। अत कृपाप्राप्ति का अभिप्राय यह है कि जिस मात्रा में साधक का अन्तकरण शान्त, शुद्ध, स्थिर और सुगठित होगा, उसी मात्रा में उसे परमात्मनुभूति स्पष्ट होगी। 

अपने कर्मों द्वारा भगवान् की पूजा करना रूप भक्ति योग की सिद्धि अर्थात् फल ज्ञाननिष्ठा की योग्यता है। जिस ( भक्तियोग ) से होनेवाली ज्ञाननिष्ठा, अन्त में मोक्षरूप फल देनेवाली होती है, उस भगवद्भक्तियोग की अब शास्त्राभिप्राय के उपसंहार प्रकरण में, शास्त्र अभिप्राय के निश्चय को दृढ़ करने के लिये स्तुति की जाती है, सदा सब कर्मों को करनेवाला अर्थात् निषिद्ध कर्मों को भी करनेवाला जो मद्व्यपाश्रय भक्त है – जिस का मैं वासुदेव ही पूर्ण आश्रय हूँ, ऐसा मुझे ही अपना सब कुछ अर्पण कर देनेवाला जो भक्त है, वह भी मुझ ईश्वर के अनुग्रह से, विष्णु के शाश्वत, नित्य, अविनाशी पद को प्राप्त कर लेता है।

गीता में उन महान आत्माओं के मोक्ष की स्वीकृति दी गई है जिन्होंने दार्शनिक, समाजसेवा, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, औद्योगिक, व्यापारिक एवं व्यापारिक उचाईयो को बिना कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव के जन जन सेवा के लिये समर्पित किया। सन्यास का यही वास्तविक अर्थ भी है, कर्म काण्ड, यज्ञ, दान आदि सभी कर्मों को नित्य, नैमित्तीक एवम काम्य कर्मो के समान रूप से फल आशा का त्याग करते हुए उत्साह और समता से करते रहना ही सन्यास है और   यह संसार ईश्वर की श्रेष्ठ रचना है, इस मे अपने कर्मो को किस प्रकार करना, जो परमात्मा की भक्ति हो, यही गीता का मूल उद्देश्य है। इस के लिए संसार के कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति संपूर्ण विषयो के गुण भेद में अनेकता दिखाने के बाद सात्विक गुण को सभी में श्रेष्ठ बताया गया। इसी क्रम में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के द्वारा स्वधर्म अनुसार प्राप्त होने वाले समस्त कर्मों को आसक्ति छोड़ कर करते जाना ही परमेश्वर का यजन – पूजन करना है एवम इसी से अंत में परब्रह्म अथवा मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष के लिए किसी विशिष्ट अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है, केवल कर्म त्याग सन्यास रूपी लेने से मोक्ष नहीं मिलता, परमात्मा के प्रति श्रद्धा, समर्पण और स्मरण के साथ केवल कर्म योग से ही मोक्ष सहित समस्त सिद्धियां प्राप्त हो जाती है। अर्जुन के मोह के बाद परमात्मा द्वारा उस को हृदय से उन को स्मरण करते हुए युद्ध करने का आदेश देने का वास्तविक ज्ञान यही है।

भगवद्गीता में अपने वर्ण के अनुसार कर्म करते हुए, उस के फल को परमात्मा को अर्पित करने को कहा है। अर्जुन को युद्ध भूमि में भय से सन्यास की अपेक्षा, निर्लिप्त भाव से अपना कर्तव्य कर्म अर्थात युद्ध करने को कहा गया है। कर्म का यही भाव ज्ञान योग भी है कि हम संसार में लोक संग्रह हेतु कैसे अपना सहयोग करे। किसी प्रकार अपनी गुणवत्ता को बढ़ाए। यह सत्य है कि प्रकृति के मायाजाल में जीव जिसे अपना समझता है, वह शरीर के साथ ही समाप्त हो जाता है। अतः जिस ज्ञान द्वारा जीव अपने अस्तित्व को पहचान पाता है और जिस ज्ञान के श्रवण, मनन और निदिध्यासन से जीव को अपने अहम का ज्ञान होता है, उसे ज्ञान योग कहा गया है। ब्रह्म से जीव के पृथक होने से प्रथम महंत अर्थात “मै” का अहंकार होता है, फिर बुद्धि से वह कर्ता और भोक्ता भाव के जुड़ता है। उसी को वह कर्म करता हुआ आत्मशुद्धि को प्राप्त कर के ज्ञान योग से परा भक्ति द्वारा जान पाता है। इसलिए वह पुनः अहम को त्याग कर ईश्वर पारायण हो कर कर्म करते हुए मुक्ति को प्राप्त करता है।

जीवन में हम जो कर रहे है उस का मार्ग प्रकृति प्रशस्त करती है, किंतु उस कर्म को हम बुद्धि, धृति,  के साथ बिना फल की आशा के करे तो यह हमारा परमात्मा के प्रति सब से बड़ा समर्पण होगा। फिर चाहे व्यापार, नौकरी, सेवा, सैनिक, राजनीति या उद्योग, विज्ञान, शिक्षण या खेलकूद आदि कुछ भी हो।

गीता का यही उपदेश गीता को व्यवहारिक बनाता है जिस में सिर्फ और सिर्फ कर्म करते हुए, इस सुंदर सृष्टि में रचनात्मक कार्य करते रहना ही भक्ति है, उसे परमात्मा को समर्पित करते रहना ही उस की पूजा है, बुद्धियोग से सात्विक भाव को ग्रहण करना ही मुक्ति की ओर बढ़ना है।

पूर्वश्लोक में अपना सामान्य विधान (नियम) बताकर अब भगवान् आगे के श्लोक में अर्जुन के लिये विशेषरूप से आज्ञा देते हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.56 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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