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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.55 II Additional II

।। अध्याय      18.55 II विशेष II

।। ब्रह्मस्वरूप के लिए – विद्या और कला का ज्ञान ।। गीता विशेष 18.55 ।।

अभी तक गीता में हम ने सन्यास और त्याग में कर्मयोग और ज्ञान योग को पढ़ा। सृष्टि की रचना में प्रकृति और पुरुष के अंतर्गत क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ और क्षर – अक्षर ज्ञान को समझा। न्यायिक शास्त्र के परमाणुवाद में जीव की उत्पत्ति विभिन्न परमाणु के संयोग से हुई और इसी परमाणुवाद में सांख्य में प्रकृति के स्वरूप में परिभाषित किया। किसी रोबोट की क्रियाशीलता उस में ऊर्जा और प्रोग्राम से की जा सकती है किंतु रोबोट कभी भी अपने को नहीं जान पाता है। इसलिए जो इस सब को देखता है और जानता है किंतु अकर्ता और दृष्टा मात्र है उसे सांख्य ने पुरुष कहा। यही पुरुष सांख्य में अनगिनत है, इसलिए वेदांत में समस्त पुरुष और प्रकृति का एकमात्र सूत्रधार एक मात्र ब्रह्म ही है। अतः ब्रह्म को जानने तक के ज्ञान ही कर्मयोग या ज्ञानयोग है। किंतु जो यह सब जानता है, वह ब्रह्मविद, ब्रह्मसंध, तत्वदर्शी आदि के रूप में ज्ञानी तो हो सकता है किंतु पूर्ण ब्रह्म नहीं। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि ज्ञान की अंतिम स्थिति परा भक्ति है। वेदान्तिक भाषा में पराभक्ति का अर्थ FIR अर्थात frequency, intensity and recovery period हैं।  अतः वेदान्तिक FIR होना आवश्यक है। इसलिए जीवन स्थितियों में गड़बड़ी के संबंध में आवृत्ति, तीव्रता, पुनर्प्राप्ति अवधि कम होनी चाहिए; इसे जीवन मुक्ति कहा जाता है। और यह एक क्रमिक प्रक्रिया है; ऐसा नहीं है कि अचानक 100 एफआईआर की गिनती से यह 0 पर आ जाएगी।यद्यपि ज्ञानियों को वर्गीकृत नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि सभी ज्ञानी अहम् ब्रह्मास्मि को जानते हैं, फिर भी वर्गीकरण एफआईआर स्तर के आधार पर किया जाता है; इसलिए ब्रह्मवित; और ब्रह्मवित वराह; और ब्रह्मवित वरियान; और ब्रह्म वित वरिष्ठ; 20% कम, 40% वराह, 60 वरियान, 80% वरिष्ठ; बिल्कुल ऐसे नहीं लिखा गया है; मैं एक उदाहरण दे रहा हूँ। यह एक क्रमिक प्रक्रिया है।

मैंने गीता के १२वें अध्याय में बताया था, भक्ति शब्द का प्रयोग किसी भी आध्यात्मिक साधना के अर्थ में किया जा सकता है। भक्ति एक ऐसा शब्द है जिसका प्रयोग किसी भी आध्यात्मिक साधना के लिए किया जा सकता है; कर्मयोग को भी भक्ति का एक रूप कहा जाता है; उपासना भी भक्ति का एक रूप है; वेदान्तिक श्रवण भी भक्ति का एक रूप है, इसे ज्ञान यज्ञ कहते हैं, इसे पूजा का एक रूप माना जाता है।और इस वेदान्तिक ध्यान रूपी भक्ति से व्यक्ति ईश्वर ज्ञान निष्ठा प्राप्त करता है। जानाति का अर्थ है कि उसे ज्ञान प्राप्त होता है। अभि का अर्थ है कि ज्ञान निष्ठा में परिवर्तित हो जाएगा। अभिजानाति का अर्थ है अंततः इस शिक्षा को आत्मसात करना। जिसके बारे में, माम, माम का अर्थ है भगवान, ईश्वर ज्ञान के बारे में, वह शिक्षा आत्मसात करता है, और जब एक ज्ञानी ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करता है, तो कृष्ण भगवान के उच्चतर रूप के साथ-साथ भगवान के निम्नतर रूप दोनों के बारे में कहते हैं।

ततनन्तरम् उस निर्गुण ईश्वर ज्ञानम् के परिणामस्वरूप परा भक्ति से वह मुझ में प्रवेश करता है, पुनः “प्रवेश करता है”, क्योंकि एक बार जब मैं समय और स्थान को पार कर जाता हूँ और चैतन्य में आ जाता हूँ, वह चेतना जो एक समय और स्थान से परे है, तो मुझे और भगवान को अलग करने के लिए कुछ भी नहीं है। इसलिए अहमेव सः; सः एव अहम् अस्मि। इसे विलय कहते हैं। भगवान में विलय अज्ञानता से उत्पन्न विभाजन की धारणा को छोड़ देना है। अज्ञान आधारित विभाजन को छोड़ देना। अज्ञान आधारित विभाजन। अर्थात भगवान वहाँ हैं और मैं यहाँ हूँ, वह विभाजन जो अज्ञान आधारित है और उस अज्ञान आधारित विभाजन को छोड़ देना ही लाक्षणिक रूप से विलय कहलाता है। स्वप्न देखने वाला जागने पर जागने वाले में लीन हो जाता है। जो कि एक शुद्ध मौन घटना है; यह भी उसी प्रकार है।

अतः कर्मयोग और ज्ञान योग में हम अनेक कर्म करते और ज्ञान से अनेक जानकारियां सीखते है। किंतु विद्या और कला में अंतर होता है। विद्या दो प्रकार की होती है, अपरा और अपरा विद्या। इसी के अंतर्गत कई प्रकार की विद्याएं होती हैं।

इसी तरह कलाएं भी दो प्रकार की होती है। पहली सांसारिक कलाएं और दूसरी आध्यात्मिक कलाएं।

कला और विद्या का अध्ययन ज्ञान, अध्यात्म, मोक्ष और ब्रह्म स्वरूप के लिए जानना जरूरी है, इसलिए संक्षिप्त में इसे समझते है।

1. विद्याएं : हिन्दू धर्मग्रंथों में 2 तरह की विद्याओं का उल्लेख किया गया है- परा और अपरा। यह परा और अपरा ही लौकिक और पारलौकिक कहलाती है। दुनिया में ऐसे कई संत या जादूगर हैं, जो इन विद्याओं को किसी न किसी रूप में जानते हैं। वे इन विद्याओं के बल पर ही भूत, भविष्य का वर्णन कर देते हैं और इस के बल पर ही वे जादू और टोना करने की शक्ति भी प्राप्त कर लेते हैं।

शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, नक्षत्र, वास्तु, आयुर्वेद, वेद, कर्मकांड, ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र, हस्तरेखा, धनुर्विद्या आदि यह सभी परा विद्याएं हैं लेकिन प्राणविद्या, त्राटक, सम्मोहन, जादू, टोना, स्तंभन, इन्द्रजाल, तंत्र, मंत्र, यंत्र, चौकी बांधना, गार गिराना, सूक्ष्म शरीर से बाहर निकलना, पूर्वजन्म का ज्ञान होना, अंतर्ध्यान होना, त्रिकालदर्शी बनना, मृत संजीवनी विद्या, पानी बताना, अष्टसिद्धियां, नवनिधियां आदि अपरा विद्याएं हैं। लेकिन मुख्यत: 14 विद्याओं की प्रमुख है।

विद्या प्रकृति विज्ञान है, एक विशिष्ट पद्धति से अध्ययन और अभ्यास से इसे प्राप्त किया जा सकता है। विद्यावान व्यक्ति का अंत:करण विशुद्ध हो आवश्यक नहीं।

कलाएं : कलाएं दो प्रकार की होती है सांसारिक और आध्यात्मिक। सांसारिक अर्थात कलारिपट्टू (मार्शल आर्ट), भाषा, लेखन, नाट्य, गीत, संगीत, नौटंकी, तमाशा, वास्तु शास्त्र, स्थापत्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला, पाक कला, साहित्य, बेल-बूटे बनाना, नृत्य, कपड़े और गहने बनाना, सुगंधित वस्तुएं-इत्र, तेल बनाना, नगर निर्माण, सूई का काम, बढ़ई की कारीगरी, पीने और खाने के पदार्थ बनाना, पाक कला, सोने, चांदी, हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा करना, तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना आदि। शास्त्रों में 64 प्रकार की कलाएं बताई गई हैं।

अध्यात्मिक कलाएं : अध्यात्मिक कलाएं मुख्यत: 16 हैं। उपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वरतुल्य होता है या कहें कि स्वयं ईश्वर ही होता है। 16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त आत्मा की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध अर्थात चेतना, आत्मज्ञान या जागरण की अवस्था या होश का स्तर। जैसे…प्राणी के अंतर में जो चेतन शक्ति है या प्रभु का तेजांश है उसी को कला कहते हैं। जिस प्राणी में जितनी चेतना शक्ति अभिव्यक्त हो रही है उतनी ही उसकी कलाएं मानी जाती हैं। इसी से जड़ चेतन का भेद होता है। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।

1. पत्थर और पेड़ आदि  1 से 2 कला के प्राणी हैं। उन में भी आत्मा है। उन्हें सुख और दुख का आभास होता लेकिन उनमें बुद्धि सुप्त है। उन्हें भी अन्न और जल की आवश्यकता होती है।

2. पशु और पक्षी में 2 से 4 कलाएं होती हैं क्योंकि वे बुद्धि का प्रयोग भी कर सकते हैं।

3. साधारण मानव में 5 कला की और सभ्य तथा संस्कृति युक्त समाज वाले मानव में 6 कला की अभिव्यक्ति होती है।

4. जो मानव विशेष प्रतिभावाले विशिष्ठ पुरुष होते हैं उन में भगवान के तेजांश की 7 कलाएं अभिव्यक्त होती। तत्पश्चात 8 कलाओं से युक्त वह महामानव ऋषि, मुनि, संत और महापुरुष होते हैं जो इस धरती पर कभी-कभार दिखाई देते हैं।

5. मनुष्य की देह 8 कलाओं से अधिक का तेज सहन नहीं कर सकती। 9 कला धारण करने के लिए दिव्य देह की आवश्यकता होती है। जैसे सप्तर्षिगण, मनु, देवता, प्रजापति, लोकपाल आदि।

6. इस के बाद 10 और 10 से अधिक कलाओं की अभिव्यक्ति केवल भगवान के अवतारों में ही अभिव्यक्त होती है। जैसे वराह, नृसिंह, कूर्म, मत्स्य और वामन अवतार। उन को आवेशावतार भी कहते हैं। उन में प्राय: 10 से 11 कलाओं का आविर्भाव होता है। परशुराम को भी भगवान का आवेशावतार कहा गया है।

7. भगवान राम 12 कलाओं से तो भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं से युक्त हैं। यह चेतना का सर्वोच्च स्तर होता है।

आखिर ये 16 कलाएं क्या है?

उपनिषदों अनुसार कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि मन की अवस्थाएं हैं। मनुष्य (मन) की तीन अवस्थाएं : प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तीन अवस्थाओं का ही बोध होता है:- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति।

क्या आप इन तीन अवस्थाओं के अलावा कोई चौथी अवस्था जानते हैं, जगत तीन स्तरों वाला है- 1.एक स्थूल जगत, जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। 2.दूसरा सूक्ष्म जगत, जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और 3.तीसरा कारण जगत, जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है।

तीन अवस्थाओं से आगे: सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग- अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं।

वेद और योग में : 1.अन्नमया, 2.प्राणमया, 3.मनोमया, 4.विज्ञानमया, 5.आनंदमया, 6.अतिशयिनी, 7.विपरिनाभिमी, 8.संक्रमिनी, 9.प्रभवि, 10.कुंथिनी, 11.विकासिनी, 12.मर्यदिनी, 13.सन्हालादिनी, 14.आह्लादिनी, 15.परिपूर्ण और 16.स्वरुपवस्थित।

अन्यत्र ग्रंथों में : 1.श्री, 3.भू, 4.कीर्ति, 5.इला, 5.लीला, 7.कांति, 8.विद्या, 9.विमला, 10.उत्कर्शिनी, 11.ज्ञान, 12.क्रिया, 13.योग, 14.प्रहवि, 15.सत्य, 16.इसना और 17.अनुग्रह।…

कहीं पर 1.प्राण, 2.श्रधा, 3.आकाश, 4.वायु, 5.तेज, 6.जल, 7.पृथ्वी, 8.इन्द्रिय, 9.मन, 10.अन्न, 11.वीर्य, 12.तप, 13.मन्त्र, 14.कर्म, 15.लोक और 16.नाम।

19 अवस्थाएं : भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की 3 प्रारंभिक स्थिति हैं और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ की 15 कला शुक्ल पक्ष की 01..हैं। इनमें से आत्मा की 16 कलाएं हैं।

आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है।

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥

अर्थात : जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।- (8-24)

भावार्थ : श्रीकृष्ण कहते हैं जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं। अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना।

1.अग्नि:- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है।

2.ज्योति:- ज्योति के सामान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के सामान गहरा होता जाता है।

3.अहः- दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है।

16 कला – 15कला शुक्ल पक्ष + 01 उत्तरायण कला = 16

1. बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना।

2. अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है।

3. चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है।

4. अहंकार नष्ट हो जाता है।

5. संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है।

6. आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है।

7. वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है।

8. अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है।

9. जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती।

10. पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती।

11. जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने आधीन हो जाती है।

12. समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं।

13. समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है।

14. सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव करता है। लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है।

15. कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है।

16. उत्तरायण कला- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण यहां उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है।

सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इस से निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं। यही दिव्यता है।

पूर्ण ब्रह्म की स्थिति जीव पराभक्ति से परमात्मा के स्वरूप को भजता है, तो उस में अहम और आसक्ति एवम कामनाएं नही होता। तभी वह इन सब कलाओं से युक्त हो जाता है, इसलिए भगवान उसे अपने स्वरूप में समाहित कर लेते है अर्थात जीव स्वरूप में दिखता हुआ भी वह ब्रह्म स्वरूप ही होता है।

।। हरि ॐ तत् सत ।। विशेष गीता – 18.55 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)          

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