Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.52 II

।। अध्याय      18.52 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.52

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस।

ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥

“vivikta-sevī laghv- āśī,

yata- vāk- kāya- mānasaḥ..।

dhyāna- yoga- paro nityaḿ,

vairāgyaḿ samupāśritaḥ”..।।

भावार्थ: 

जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धि से युक्त, वैराग्य के आश्रित, एकान्त का सेवन करनेवाला और नियमित भोजन करनेवाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियों का नियमन कर के, शरीरवाणी मन को वश में करके, शब्दादि विषयों का त्याग कर के और रागद्वेष को छोड़कर निरन्तर ध्यान योग के परायण हो जाता है। ।।५२॥

Meaning:

One who stays in seclusion, eats very little, regulates speech, body and mind, considers meditation as supreme, fully possessed of dispassion.

Explanation:

Shri Krishna continues describing the lifestyle of a sanyaasi, a monk or a renunciate, which is a recap of ideas covered in the sixth chapter. He says that such a monk like places that are vivikta, meaning isolated, solitary, away from the hustle and bustle of daily life. Such places are conducive for contemplation, since they do not have too many distractions. The senses are restrained, and the impulses of the body and speech are tenaciously disciplined. The activities for bodily maintenance, such as eating and sleeping, are wisely held in balance.  He is also laghvaashee, eating only the quantity of nutritious food necessary to sustain the body. Eating heavy meals causes drowsiness in the short term, and health problems in the long term. Such a yogi is deeply contemplative, and hence prefers solitude.

Now even if the mind is placed in quiet surroundings, it will generate thoughts that will eventually result in actions of the body, or in speech. By regulating physical actions and speech, the monk will be able to regulate his mind as well. The end result of all this regulation is twofold. He will be able to fix his mind on the self, which is dhyaana, and will be able to contemplate upon the nature of the self, which is yoga. The nature of the self was expounded in the second chapter to be infinite, indestructible and so on.

The quality of dispassion or vairagyam comes up again in this shloka. In the last shloka, it was implicitly mentioned as absence of raaha and dvesha, like and dislike. The level of vairagya cultivated by the monk, however, is much greater than that which is harboured by seekers in early stages of spiritual practice. The monk has rid himself of even a tinge of belief that there is any real happiness to be found in the material world. He is samupaashritaha, fully possessed of the conviction that the self alone is worth pursuing, nothing else.

I am quite convinced that he is the great Master, be he a Brahmin or an outcaste, who, dwelling on the pure and infinite thinks of himself as that very Brahman, of whose manifestation the whole Universe is, though apparently the Universe is assumed to consist of different things, due to ignorance and the three Guṇas (Satva, Rajas and Tamas).

Aham means not me; but prabraham. Hand over the charge; everything will be perfectly fine; everything will be perfect without me; Therefore, vairāgyaṃ samupāśritaḥ. Now you have got a free body, free sense organs, free mind and free intellect; use that time for dwelling upon the śāstram. Therefore, Krishna says paraḥ. Paraḥ means be committed to. Be sincerely wholeheartedly diligently committed to the sādanā of vēdāntic meditation. If a person has not studied vēdānta, then also he can practice meditation, but before vēdāntic study, the mediation is called, upasana, which is meditating upon our own īśṭa dēvathā, in the form of Rama, Krishna, etc.

I, the consciousness is the substratum of this body, this world and even God’s body; So dwelling upon this truth is called dhyāna yōga paratvam; and we should very carefully note, vēdāntic meditation is not a thoughtless state. Thoughtless state is the meditation prescribed in the Pathanjali yōga śāstra, we the vēdāntins defer from pathanjali’s yōga, we accept his āsana, prāṇāyāma, pratyāhara, all OK, but our meditation is different from the Pathanjala yōga; we dwell upon aham brahmāsmi.

This world is nothing but names and forms, and forms are comprised of five elements – space, air, fire, water and earth. Shabda adeen in this verse refers to these five elements. The sanyaasi is able to look at any object or person, see through the name and form, and understand that it is nothing, but the five elements combined together. Realizing that any combination of these elements is nothing but Prakriti or matter, he is able to eliminate any sense of raaga or dvesha, like or dislike, towards that object or person.

।। हिंदी समीक्षा ।।

श्लोक 51 से 53 संन्यासी के गुणों का संक्षिप्त वर्णन है, इसलिए यह तीन श्लोक को एक साथ ही पढ़ना चाहिए, इसलिए हम पूर्व श्लोक से आगे का वर्णन पढ़ते है।

विविक्तसेवी पूर्व श्लोक में वर्णित गुणों से युक्त साधक को एकान्त में जाना चाहिए। एकान्तवासी स्वभाव के साधक को विवक्तसेवी कहते हैं। एकान्त के लिए किसी वन उपवन में ही जाने की आवश्यकता नहीं है। इस से तात्पर्य ऐसे स्थान से है, जहाँ बाह्य विक्षेपों की संख्या न्यूनतम हो। कोई व्यक्ति अपने घर में भी ऐसे समय का चयन कर सकता है, जब वहाँ विक्षेपों के कारण नहीं होते हैं।

एकान्त सेवन की रुचि होनी तो बढ़िया है, पर उस का आग्रह नहीं होना चाहिये अर्थात् एकान्त न मिलनेपर मन में विक्षेप, हलचल नहीं होनी चाहिये। आग्रह न होने से रुचि होने पर भी एकान्त न मिले, प्रत्युत समुदाय मिले, खूब हल्लागुल्ला हो, तो भी साधक उकतायेगा नहीं अर्थात् सिद्धि – असिद्धि में सम रहेगा।

प्रायः जन सामान्य यही समझता है कि वानप्रस्थ अवस्था या संन्यासी होने पर एकांत के वन में जा कर समाज और जन समुदाय से दूर रहना है। जिस का उद्देश्य यही है कि सांसारिक प्रपंच से परे व्यक्ति एकांत में योग और चिंतन कर सके। इसलिए शांत स्थान, नदी के किनारे या पेड़ के नीचे स्वच्छ स्थान, जो कीड़ों, मच्छरों और विध्न रहित हो, उत्तम होता है। घर में यदि ध्यान के लिए एक स्थान शोरगुल और स्वच्छ हो, वह भी उत्तम है। स्वच्छ होने के वायु एवं प्राकृतिक वातावरण का होना भी जरूरी है। एकांत वासी का मौन रहना भी एकांत होने का प्रतीक है।

लघ्वाशी इस शब्द का अर्थ है मिताहारी। अत्यधिक भोजन करने से शरीर स्थूल और बुद्धि मन्द हो जाती है। समस्त साधकों के लिए परिमितता तो एक नियम ही है। साधकका स्वभाव स्वल्प अर्थात् नियमित और सात्त्विक भोजन करने का हो। भोजन के विषय में हित, मित और मेध्य- ये तीन बातें बतायी गयी हैं। हित का तात्पर्य है – भोजन शरीर के अनुकूल हो। मित का तात्पर्य है – भोजन न तो अधिक करे और न कम करे, प्रत्युत जितने भोजन से शरीर निर्वाह की जाय उतना भोजन करे। भोजन से शरीर पुष्ट हो जायगा – ऐसे भाव से भोजन न करे, प्रत्युत केवल औषध की तरह क्षुधानिवृत्तिके लिये ही भोजन करे, जिस से साधन में विघ्न न पड़े। मेध्य का तात्पर्य है – भोजन पवित्र हो।

सात्विक भोजन स्वस्थ शरीर के लिए संन्यासी ही नही, अपितु जन सामान्य के लिए भी आवश्यक है।

यतवाक्कायमानस वाणी और शरीर से तात्पर्य कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से है। इन दोनों के वश में होने पर मन का संयम भी सरल हो जाता है। विषयग्रहण, तत्पश्चात् होने वाली प्रतिक्रियायें तथा मन को संयत करने का अर्थ इन सब कर्मों में अहंकार भाव का त्याग करना है। शरीर, वाणी और मन को संयत (वशमें) करना भी साधक के लिये बहुत जरूरी है। अतः वह शरीर से वृथा न घूमे, देखने सुनने के शौक से कोई यात्रा न करे। वाणी से वृथा बातचीत न करे, आवश्यक होने पर ही बोले, असत्य न बोले, निन्दाचुगली न करे। मन से रागपूर्वक संसार का चिन्तन न करे, प्रत्युत परमात्माका चिन्तन करे। ज्ञाननिष्ठ यति के काया, मन और वाणी तीनों जीते हुए होते हैं

ध्यानयोग पर मन वृत्तिरूपी है। अत मन कभी निरालम्ब नहीं रह सकता। उस की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति को अवरुद्ध करने का एकमात्र उपाय यह है कि उसे चिन्तन के लिए कोई श्रेष्ठ ध्येय उपलब्ध कराया जाये। जिस मात्रा में वह उस ध्येय में समाहित होता जायेगा, उसी मात्रा में उसकी बहिर्मुखी प्रवृत्ति भी शान्त होती जायेगी। विषयों से निवृत्त करके मन को परमात्मा के स्वरूप में स्थित या समाहित करने का प्रयत्न ही ध्यानयोग कहा जाता है। साधक को इसकी साधना में सदैव तत्पर रहना चाहिए, क्योंकि मन के उपशमन का यही सर्वश्रेष्ठ साधन है।

वैराग्य से युक्त वैराग्य राग का विरोधी नहीं है। राग का विरोधी तो द्वेष है। राग और द्वेष इन दोनों से ही मुक्त होना वैराग्य है। जब मनुष्य यह समझ लेता है कि विषयों में सुख नहीं है, तब उसका मन स्वत ही विषयों से विरत हो जाता है। वैराग्यशाली पुरुष विषयों से दूर नहीं भागता, वरन् वे विषय ही ऐसे पुरुष से निराश होकर भाग जाते हैं जैसे जैसे मनुष्य का विकास होता जाता है, वैसे वैसे उस की अभिरुचियों में भी परिवर्तन आता है और उन परिवर्तनों के साथ ही अपनी पूर्व रुचियों की वस्तुओं में उसका कोई आकर्षण नहीं रह जाता। उदाहरणार्थ, जब तक कोई मनुष्य भोगी और विलासी प्रवृत्ति का होता है, उसका मित्र परिवार भी समान गुणों वाला रहता है। परन्तु जब वह राजनीतिक और सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगता है, तब उसका घर राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं से भरा रहने लगता है। कुछ समय बाद विचारों में और अधिक पक्वता आने पर वह पुरुष आध्यात्मिक स्वभाव का बन जाता है। उस स्थिति में सत्तावार्ता में रमने वाले राजनीतिज्ञ और ईर्ष्या तथा प्रतिस्प्रधा के भाव से पूर्ण सामाजिक कार्यकर्ता भी वहाँ से निवृत्त हो जाते हैं। अब उनका स्थान तत्त्वचिन्तक और आध्यात्मिक पुरुष ले लेते हैं। इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार मन के विकसित होने पर निम्न स्तर की वस्तुएं स्वत निवृत्त हो जाती हैं। यह वास्तविक वैराग्य है। इस वैराग्य में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता।

सद गुण किसी विशिष्ट व्यक्ति की विरासत नही होते, अपितु महान व्यक्तियों के चरित्र, व्यवहार और कार्य के प्रतीक होते है, जो जन सामान्य को यह बताते है कि जीवन में ऊंचा उठने के लिए व्यक्ति विशेष का आत्मिक चरित्र क्या होता है। यह स्वत: ही उत्पन्न गुण है, जो व्यक्ति अध्यास और अभ्यास से प्राप्त करता जाता है। सिनेमा में भगवान का चरित्र निभाने वाले कलाकार या साधु का चरित्र निभाने वाले कलाकार के प्रति श्रद्धा भाव अधिक उत्पन्न नही होता, क्योंकि हम जानते है कि जिस चरित्र को वह चलचित्र में निभा रहा है, वह उस का वास्तविक स्वरूप नही है। उसी प्रकार प्रवचन देने वाले व्यक्ति के प्रति श्रोता श्रद्धा भाव रखता है किंतु जब वह उसे संन्यासी के गुणों के विपरीत पाता है, तो वही श्रद्धा भाव घृणा में बदल जाता है। इसलिए संन्यासी स्वयंमेव अनुशासित सात्विक होता है।

मैं पूर्णतः आश्वस्त हूँ कि वह महान् गुरु है, चाहे वह ब्राह्मण हो या अछूत, जो शुद्ध और अनन्त में स्थित होकर अपने को वही ब्रह्म समझता है, जिस की अभिव्यक्ति से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बना है, यद्यपि अज्ञान और तीन गुणों (सत्व, रज और तम) के कारण ब्रह्माण्ड को भिन्न-भिन्न वस्तुओं से बना हुआ माना जाता है। अतः प्रकृति में रहते हुए वैचारिक अंतःकरण विशुद्ध बुद्धि के संसार में लिप्त नहीं होने का है अपितु संसार में अपने होने के उपयोग का होना चाहिए।

अहम् का अर्थ है मैं नहीं, बल्कि वहीं परब्रह्म होता है। उसे अपना समस्त कार्य भार सौंप दो, सब कुछ ठीक रहेगा। मेरे होने या मेरे बिना भी सब कुछ ठीक रहेगा, इसलिए वैराग्यं समुपाश्रितः। अब तुम्हें मुक्त शरीर, मुक्त इन्द्रियाँ, मुक्त मन और मुक्त बुद्धि मिली है, उस समय का उपयोग शास्त्र के चिंतन में करो। इसलिए कृष्ण कहते हैं परः। परः का अर्थ है प्रतिबद्ध रहो। पूरी ईमानदारी से, पूरी लगन से वेदान्त साधना की साधना में प्रतिबद्ध रहो। यदि किसी व्यक्ति ने वेदान्त का अध्ययन नहीं किया है, तो भी वह ध्यान का अभ्यास कर सकता है, लेकिन वेदान्त अध्ययन से पहले, ध्यान को उपासना कहा जाता है, जो राम, कृष्ण आदि के रूप में हमारे अपने ईष्ट देवता का ध्यान करना है।

मैं, चेतना ही इस शरीर, इस संसार और यहाँ तक कि ईश्वर के शरीर का आधार है। इसलिए इस सत्य पर ध्यान देना ध्यान योग परत्वम् कहलाता है और हमें बहुत ध्यान से ध्यान रखना चाहिए, वेदान्तिक ध्यान विचारहीन अवस्था नहीं है। विचारहीन अवस्था ही पतंजलि योग शास्त्र में बताई गई ध्यान है, हम वेदान्ती पतंजलि के योग से अलग हटकर सोचते हैं, हम उनके आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, सब ठीक मानते हैं, लेकिन हमारा ध्यान पतंजलि योग से अलग है; हम अहम् ब्रह्मास्मि पर ध्यान देते हैं इसलिए वेदांत में संन्यासी वही है जो उपरोक्त  गुणों से युक्त कर्मयोगी हो। स्वामी राम तीर्थ, नानक, तुलसीदास, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद आदि ऐसे ही संन्यासी थे।

संन्यासी के आत्मिक गुणों को आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.52 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply