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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.50 II

।। अध्याय      18.50 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.50

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥

“siddhiḿ prāpto yathā brahma,

tathāpnoti nibodha me..।

samāsenaiva kaunteya,

niṣṭhā jñānasya yā parā”..।।

भावार्थ: 

जो कि ज्ञान योग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र! तू संक्षेप में ही मुझ से समझ ॥५०॥

Meaning:

How one who has attained perfection also undoubtedly achieves the eternal essence, learn from me in brief, O Kaunteya, that supreme devotion to knowledge.

Explanation:

It is one matter to read theoretical knowledge, but it is a different matter to realize it practically. It is said that good ideas are a dime a dozen, but they are not worth a plug nickel if you don’t act on them. The theoretical Pundits may have knowledge of all the scriptures in their head, but still be bereft of realization. On the other hand, the karm yogis get opportunities day and night to practice the truths of the scriptures. Thus, the consistent performance of karm yog results in the realization of spiritual knowledge. And when one attains the perfection of naiṣhkarmya-siddhi, or actionlessness while performing work, transcendental knowledge becomes available through experience. Fixed in that knowledge, the karm yogi attains the highest perfection of God- realization.

Shri Krishna now starts to recap the content from chapters five and six. Chapter three and four covered the topic of karma yoga, and how karma yoga gradually evolves into jnyaana yoga. Once the seeker has reduced his stock of desires, has purified his mind, and has gained knowledge about the aatmaa, the self, from a competent teacher, he then enters into the stage of sanyaasa, complete renunciation of action. Chapters five and six explain the process of entering into, and maturing of, the state of renunciation.

Siddhi here refers to the purification of mind obtained as a result of karma yoga. Jnyaana nishthaa, devotion to knowledge, also known as nidhidhyaasana or meditation, is the culmination of sanyaasa. If we ever wonder how monks spend most of their time, this is it. Besides doing the bare minimum needed to maintain the body, the monk is engaged in one and only one thing – constant contemplation, constant abidance upon the self.

jñāna yōga consists of three stages: śr̥avanam, mananam, and nidhidhyāsanam. The term śr̥avanam means Consistent and systematic study of the vēdāntic scriptures for a length of time under the guidance of a competent teacher,  mananam is not confining to śr̥avanam alone, doing at least some homework; going back and trying to recollect what is the definition of ātma, what is the definition of anātma, this is called mananam and  finally Nidhidhyāsanam is dwelling upon the teaching so that it becomes my own second nature. It is not enough that I know that consciousness is different from the body; I have to regularly practice, I am not the body; body is only a temporary medium for me; I am the consciousness- principle who am transacting through the body. This is basic of study of any knowledge. One must be internal Sanyansi instead of External Sanyansi. So, he needs to attain purity of mind by Siddhi prapti and also must attained jñāna niṣṭā means spontaneity in knowledge. We try to understand the same by example of cup of tea in which you put two spoons of sugar, whether tea will be sweeten? No, it needs mixing of sugar by spoon after adding. So, the knowledge of spiritual needs mixing for jñāna niṣṭā means spontaneity in knowledge.

For most of us, just contemplating on the self may seem a bit odd. How can such a seemingly mundane engagement result in liberation? So, we need to remember that the self is already attained, there is no work that is needed to attain it. The only work that we have to do is to get rid of what is the no-self, in other words, purify our mind through karma and bhakti. Shri Krishna emphasizes this point by using the word nibodha, which means to know. There is nothing else that needs to be done in sanyaasa since it is the last stage of yoga.

।। हिंदी समीक्षा ।।

सैद्धांतिक ज्ञान को समझना एक विषय है लेकिन उसे व्यवहार में लाना अलग विषय है। यह कहा जाता है कि अच्छे विचार कौड़ियों के भाव मिलते हैं लेकिन यदि हम इन्हें व्यवहार में नहीं लाते तब इनका महत्व धातु की चिंगारी के बराबर भी नहीं होता। सैद्धांतिक ज्ञान से युक्त पंडितों को शास्त्रों का ज्ञान कंठस्थ हो सकता है किन्तु फिर भी वे उसकी वास्तविक अनुभूति से वंचित रहते हैं। दूसरी ओर एक कर्मयोगी को दिन और रात शास्त्रों के सत्य का अभ्यास करने का अवसर प्राप्त होता है। इस प्रकार से कर्मयोग के निरन्तर निष्पादन के परिणामस्वरूप आध्यात्मिक ज्ञान की अनुभूति होती है और जब कोई कार्य करते हुए नैष्कर्म्यसिद्धिं या अकर्मण्यता प्राप्त करता है तब उसे अभ्यास द्वारा दिव्य ज्ञान की प्राप्ति सुलभ होती है। इस ज्ञान में स्थित होकर कर्मयोगी भगवद्प्राप्ति की सर्वोच्च पूर्णता प्राप्त करता है।

पूर्व श्लोक में नैर्ष्कम्य सिद्धि के लक्ष्य को इंगित किया गया है। अब उस साधना के विवेचन का प्रकरण प्रारम्भ होता है, जिसके अभ्यास से परमात्मस्वरूप में दृढ़निष्ठा प्राप्त हो सकती है। इस श्लोक में आगे के कथनीय विषय की प्रस्तावना की गयी है। सिद्धि को प्राप्त पुरुष से तात्पर्य उस साधक से है, जिसने स्वधर्माचरण से अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त कर ली है। ऐसा ही साधक ब्रह्मप्राप्ति का अधिकारी होता है।

जो ज्ञानयोग की अंतिम स्थिति है, जिस को पराभक्ति और तत्वज्ञान भी कहते है, जो समस्त साधनों की अवधि है उस का वाचक यहां परा विश्लेषण के सहित निष्ठा पद है। ज्ञानयोग के साधन समुदाय को ज्ञाननिष्ठा कहते है और उन के साधनों के फलस्वरूप तत्वज्ञान को ज्ञान की परानिष्ठा कहते है।

भगवान श्री कृष्ण कहते है किस तरह कोई मनुष्य केवल अपने वृतिपरक कार्य मे लग कर परम सिद्धावस्था को प्राप्त कर सकता है, यदि यह कार्य भगवान का कार्य समझ कर किया हो तो वह उस कर्म फल को त्याग देता है। उसे ब्रह्म की चरम अवस्था प्राप्त हो जाती है। ज्ञानयोग के साधन समुदाय को ज्ञाननिष्ठा एवम उन साधनों के फल स्वरूप तत्वज्ञान की ज्ञान की परानिष्ठा कहते है।

शंकराचार्य जी कहते है कि आवरण शक्तिका पूरी तरह से विनाश हुए बिना विक्षेप शक्ति पर विजय प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। दूध तथा जल के पृथक्करण के समान, आत्मा औरत और अनात्मा के बीच का भेद समाप्त स्पष्ट हो जाने पर, स्वाभाविक रूप से ही आत्मा पर से उस का आवरण नष्ट हो जाता है। यदि मिथ्या वस्तुओं में चित्त का विक्षेप न हो, तो असन्दिग्ध भाव से ज्ञान अबाध हो जायेगा।।

चूँकि वासनाएं अनन्त जन्मों से चली आ रही हैं, अतः उन से उत्पन्न प्रबल शक्तिवाले अहंकार का सहसा विनाश कर पाना, निश्चलभाव से निर्विकल्प समाधि में स्थित लोगों के अतिरिक्त- विद्वानों के लिए भी सम्भव नहीं है। समाधि का अर्थ योगमुद्रा में बैठना नही है, चित्त की शांत अवस्था है।

जिस का अन्तःकरण इतना शुद्ध हो गया है कि उस में किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकार की कामना, ममता और आसक्ति नहीं रही, उस के लिये कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि की जरूरत नहीं पड़ती अर्थात् उस के लिये कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता। इसलिये इस को सिद्धि कहा है। लोक में तो ऐसा कहा जाता है कि मनचाही चीज मिल गयी तो सिद्धि हो गयी, अणिमादि सिद्धियाँ मिल गयीं तो सिद्धि हो गयी। पर वास्तव में यह सिद्धि नहीं है क्योंकि इसमें पराधीनता होती है, किसी बात की कमी रहती है, और किसी वस्तु, परिस्थिति आदि की जरूरत पड़ती है। अतः जिस सिद्धि में किञ्चिन्मात्र भी कामना पैदा न हो, वही वास्तव में सिद्धि है। जिस सिद्धि के मिलनेपर कामना बढ़ती रहे, वह सिद्धि वास्तव में सिद्धि नहीं है, प्रत्युत एक बन्धन ही है। अन्तःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ साधक ही ब्रह्मको प्राप्त होता है।

अंतःकरण की शुद्धता के लिए आवश्यक है ज्ञान योग की साधना। ज्ञान योग में तीन चरण होते हैं; श्रवणम, मननम, और निधिध्यासनम। श्रवणम शब्द का अर्थ है एक सक्षम शिक्षक के मार्गदर्शन में लंबे समय तक वेदान्तिक शास्त्रों का लगातार और व्यवस्थित अध्ययन करना, मननम केवल श्रवणम तक ही सीमित नहीं है, कम से कम कुछ गृह कार्य करना; पीछे जाना और याद करने की कोशिश करना कि आत्मा की परिभाषा क्या है, अनात्मा की परिभाषा क्या है, इसे मननम कहा जाता है और अंत में निधिध्यासनम शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करना है ताकि यह मेरा अपना दूसरा स्वभाव बन जाए। यह पर्याप्त नहीं है कि मैं जानता हूं कि चेतना शरीर से अलग है; मुझे नियमित रूप से अभ्यास करना होगा, मैं शरीर नहीं हूं; शरीर मेरे लिए केवल एक अस्थायी माध्यम है; मैं चेतना-तत्व हूं जो शरीर के माध्यम से लेन-देन कर रहा हूं। यह किसी भी ज्ञान के अध्ययन का मूल है। बाहरी संन्यासी के बजाय व्यक्ति को आंतरिक संन्यासी होना चाहिए।  इसलिए, उसे सिद्धि प्राप्ति द्वारा मन की शुद्धता प्राप्त करने की आवश्यकता है और साथ ही ज्ञान निष्ठा अर्थात ज्ञान में सहजता प्राप्त करनी चाहिए। हम इसे चाय के कप के उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं जिसमें आप दो चम्मच चीनी डालते हैं, क्या चाय मीठी हो जाएगी? नहीं, इसमें चीनी डालने के बाद चम्मच से मिश्रण की आवश्यकता होती है। इसलिए आध्यात्मिक ज्ञान के लिए ज्ञान निष्ठा अर्थात ज्ञान में सहजता के लिए मिश्रण की आवश्यकता होती है।

आगे प्रस्तुत कुछ श्लोक सांख्य योग में सन्यास द्वारा पूर्णब्रह्म की स्थिति का वर्णन किया है, जिस से अर्जुन जो सन्यास लेने तो तत्पर था, उसे सन्यास में पूर्ण ब्रह्म में स्थित पुरुष एवम कर्मयोग सन्यास में स्थित पुरुष जिस का वर्णन हो चुका है, स्पष्ट किया जा सके।

अष्टवक्र गीता में ज्ञानी के लिए कुछ शब्द जनक द्वारा कहे गए है।

राजा जनक कहते हैं कि जो ज्ञानी पूर्णता को प्राप्त हो गये हैं – उनके लिए धर्म, अर्थ, काम आदि की उपयोगिता नहीं रहती क्योंकि सिद्धि प्राप्त होनेपर साधन बेकार हो जाते हैं। इसी प्रकार विज्ञान की भी उपयोगिता नहीं  रहती। जब कुछ प्राप्त करना ही शेष नहीं रहता, तो इस का प्रयोजन ही समाप्त हो गया। सब छोड़कर एक आत्मा में स्थित योगी सबकुछ पा लेता है। यही परम धर्म है।।

राजा जनक कहते हैं कि जहाँ द्वन्द्व है, वहाँ मन है। चेतन-आत्मा में द्वन्द्व नहीं है। सदा द्वन्द्वरहित मुझको कहाँ शास्त्र है ? कहाँ आत्म-विज्ञान है ? कहाँ विषय- रहित मन है  ? कहाँ तृप्ति है ? कहाँ तृष्णा का अभाव है ?

शास्त्र कहते हैं कि आत्मज्ञान हो जानेपर संचित कर्म नष्ट हो जाते  हैं तथा क्रियमाण कर्म का फल नहीं भोगना पड़ता, क्योंकि कर्तापन और भोक्तापन नहीं रहता; परन्तु आरम्भ के कर्मफल तो भोगने पड़ते हैं । लेकिन राजा जनक शास्त्रों की मान्यताओं से परे की बात करते हैं कि मैं आत्मा ही हूँ , जो सदा ही निर्विशेष है , क्योंकि वह अध्यात्म है, सभी गुणों से परे है। जनक जीवनमुक्ति और विदेह- कैवल्य सै भी पार हो गये और आत्मा में स्थिर हो गये।।

अज्ञानी व्यक्ति मन और  अभिमान में जीता है । ज्ञानी मन तथा अहंकार के स्वभाव से रहित होकर केवल साक्षी भाव से जीवन यापन करता है । इसलिए राजा जनक कहते हैं कि सदा स्वभावरहित मुझको कहाँ कर्तापन है और कहाँ भोक्तापन है अथवा कहाँ निष्क्रियता है  और  कहाँ स्फुरण है, कहाँ अपरोक्ष अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान है ,अथवा कहाँ फल है,

अन्त में राजा जनक कहते हैं कि अज्ञानी व्यक्ति ही यह कहता है कि सृष्टि है, माया है, ब्रह्म  है, जीव है आदि । जिस व्यक्ति ने जाना नहीं, वह ‘अस्तित्व’ और  ‘नास्ति’ के भ्रम में जीता है। जिसने जान लिया वह आत्मस्वरूप हो जाता है। उसके लिए ये सन्देह नष्ट हो जाते हैं। उसके लिए कहाँ कहाँ द्वैत और कहाँ अद्वैत, इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन, मुझमें कुछ भी नहीं उठ रहा है, मैं पूर्णरूपेण शान्त हो गया हूँ।।

नित्य-निर्विकार, निर्गुण-निराकार, सच्चिदानंदघन, पूर्ण ब्रह्म की स्थिति को जिसे प्राप्त होती है उसे भगवान आगे बताते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.50।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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