।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.49 II Additional II
।। अध्याय 18.49 II विशेष II
।। सन्यास और नैष्कर्म्य ।। विशेष 18.49 ।।
सन्यास मार्ग वालो की दृष्टि केवल मोक्ष पर रहती है, इसलिए वे नैष्कर्म्य सिद्धि पाने के लिए कर्म त्याग की बात करते है, किंतु परमात्मा की दृष्टि में मोक्ष और लोक संग्रह दोनो ही समान है। लोकसंग्रह के लिए अर्थात समाज के धारण और पोषण के निमित्त ज्ञान – विज्ञान युक्त पुरुष, अथवा रण में तलवार का जौहर दिखानेवाले शूर क्षत्रिय से ले कर किसान, वैश्य, रोजगारी, लुहार, वैज्ञानिक, राजनेता, बढ़ई या कसाई सभी समाज के आवश्यक अंग है। यदि कर्म ही छोड़ने से मोक्ष मिलता तो सभी को संन्यासी होना चाहिए, फिर यह सृष्टि की आवश्यकता ही भी नहीं होगी या सृष्टि ही नही होगी। गीता अपने अधिकार क्षेत्र के कार्य को छोड़ कर अन्य के अधिकार क्षेत्र में बिना योग्यता के प्रवेश करना भी उचित नहीं मानती। त्रुटियां तो सभी कार्य क्षेत्र में रहती है, इन्हे स्वीकार करते हुए अपना कार्य करते रहना चाहिए। इनसे भयभीत हो कर या उकता कर इन्हे छोड़ देना उचित नहीं।
मनुष्य की लघुता या महता उस के कर्म या व्यवसाय से नही होती, वह जिस बुद्धि से उस कार्य को करता है, उस से मापी जाती है। जिस की बुद्धि के योग्यता अध्यात्म दृष्टि से अवलंबित रहती है, जिस का मन शांत है, जिस ने सभी प्राणियों में समभाव स्थापित कर लिया और जो स्थितप्रज्ञ है। वह निष्काम बुद्धि से कर्म करने वाला गृहस्थ, व्यापारी, क्षत्रिय, स्त्री, सेवादार अथवा वर्ण व्यवस्था में किसी भी वर्ण का कर्म करने वाला ही क्यों न हो, वास्तविक संन्यासी है।
हवा को कोई जाल नही बांध सकता, पुरुष को भी कोई कोई मोह, माया और ममता बांध नही सकती। जब अन्त समय आता है, तो इस का आभास भी होता है कि पूरी जिंदगी जिस मोह, ममता, आसक्ति और कामना में मेरा – तेरा करते रहे, उसे कोई भी जीवन साथी, पुत्र – पुत्री, धन – संपत्ति, संगी – साथी साथ में नही जा सकता। यह विरक्ति आत्मा को अन्त में प्राप्त होने लगती है, जब हाथ से सब छूटने लगता है। किन्तु अज्ञान में पुरुष कर्तृत्व और भोक्त्व्व भाव मे अपनी आसक्ति और कामना में कार्य करता है। उस के लिए अध्यात्म या आत्मिक सुख का अर्थ स्वर्ग या वैकुंठ होता है। इसलिए यज्ञ, दान, तप आदि भी सुख और आसक्ति में करता है। दया और धर्म के पीछे भी धन, प्रसिद्धि, पद की कामनाएं छुपी रहती है। लेकिन डाल में लगा फल हमेशा ताजा नही रहता। प्रकृति के नियम के अनुसार कच्चा फल पकने के बाद नीचे गिरता ही है या सड़ता है। यह असहाय या निर्बल अवस्था हमे ज्ञात करा देती है, कि जिस अज्ञान के भ्रम को ले कर पुरुष अपना जीवन काल व्यतीत करता है, वह उस का वास्तविक स्वरूप नही है। उस का वास्तविक स्वरूप नित्य, साक्षी और अकर्ता का है। इस वास्तविक स्वरूप को जो समझ कर कर्म करता है, वही नैष्कर्म्य या संन्यासी होता है।
शंकराचार्य जी कहते है कि ज्ञाननिष्ठा की योग्यता प्राप्तिरूप जो कर्मजनित सिद्धि कही गयी है, उस की फलभूत ज्ञाननिष्ठारूप नैष्कर्म्यसिद्धि भी कही जानी चाहिये। इसलिये अगला श्लोक आरम्भ किया जाता है, जो सर्वत्र असक्तबुद्धि है पुत्र, स्त्री आदि जो आसक्ति के स्थान हैं, उन सब में जिस का अन्तःकरण आसक्ति से प्रीति से रहित हो चुका है। जो जितात्मा है – जिस का आत्मा यानी अन्तःकरण जीता हुआ है अर्थात् वश में किया हुआ है। जो स्पृहारहित है – शरीर, जीवन और भोगों में भी जिस की स्पृहा – तृष्णा नष्ट हो गयी है। जो ऐसा आत्मज्ञानी है, वह परम नैष्कर्म्य सिद्धि को ( प्राप्त करता है )। निष्क्रिय ब्रह्म ही आत्मा है यह ज्ञान होने के कारण जिस के सर्वकर्म निवृत्त हो गये हैं वह निष्कर्मा है। उस के भाव का नाम नैष्कर्म्य है और निष्कर्मतारूप सिद्धि का नाम नैष्कर्म्यसिद्धि है। अथवा निष्क्रिय आत्मस्वरूप से स्थित होनारूप निष्कर्मता का सिद्ध होना ही नैष्कर्म्यसिद्धि है। ऐसी जो कर्मजनित सिद्धि से विलक्षण और सद्योमुक्ति में स्थित होना रूप उत्तम सिद्धि है, उसको संन्यास के द्वारा यानी यथार्थ ज्ञान से अथवा ज्ञानपूर्वक सर्वकर्म संन्यास के द्वारा, लाभ करता है ऐसा ही कहा भी है कि सब कर्मों को मन से छोड़कर न करता हुआ और न करवाता हुआ रहता है।
अर्जुन युद्ध भूमि में अपनो को सामने देख कर युद्ध से विरत हो कर सन्यास लेना चाहता है। यह विरत भाव स्वत: उत्पन्न न हो कर कारण वश मोह से उत्पन्न है। वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय धर्म में युद्ध भूमि में मोह, भय या अहम में कुछ कार्य करने से मोक्ष नहीं मिलता। इसलिए कर्मफल से इस वेग का सहज निवारण युद्ध करना ही है, किंतु नैष्कर्म्य हो कर युद्ध करने के भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को उसे हृदय से स्मरण करते हुए निष्काम कर्मयोगी की भांति युद्ध करने को कहते है। व्यवहार में जीवन में अपनो के बीच या कठिन परिस्थितियों में जब हमे कुछ नही सूझता, उस समय सब कुछ छोड़ कर जाने का मन करता या आत्महत्या तक का मन करता है। इस से कर्म फलों का वेग नही मिटता। उस के पुन: जन्म ले कर फिर दुख आते है। ऐसे समय ही ज्ञानी पुरुष निष्काम भाव से अपने कर्तव्य धर्म का पालन भगवान को हृदय में धारण करते हुए करते है। यही सन्यास है। नैष्कर्म्य संन्यासी जानता है कि सुख सांसारिक वस्तुओं में नही है। यदि सुख धन में होता तो सभी धनी सुखी होते। सुख संतान और स्त्री – पुरुष में भी नही है, यदि सुख परिवार में होता तो पारिवारिक झगड़े नही होते, स्त्री – पुरुष के कलह के मामले नही होते। सद्चित्त आनंद अपने अंदर ही है, इसलिए अपने को जानना और प्रकृति के भ्रम से बाहर होने में ही आनंद है।
व्यवहार में अतिभौतिकवाद के युग में हम जन्म से ही सफलता का अर्थ खूब यशकीर्ति, धन, पद, सम्पदा को मानते आ रहे है। धन कमाने की लालसा में हम अपने शरीर को भी ध्यान नहीं देते और स्वास्थ्य खो कर धन के पीछे भागते है। किंतु अंत समय में खाली हाथ जाना पड़ता है या शक्ति और सामर्थ्य खो जाने से बुढ़ापे में कष्ट होने पर गलती का अहसास होने पर भी कुछ कर नहीं सकते अपितु अपने कर्मों के फल का बोझ ही ले कर इस संसार से विदा हो जाते है। भगवान श्री कृष्ण ने जीवन का पूरा आनंद भी लिया किंतु कहीं भी किसी भी प्रकार से वे बन्धन में नहीं बंधे। उन के दुर्योधन, कर्ण, भीष्म और पांडव में भेद नहीं था किंतु अपने कर्तव्य और लक्ष्य के लिए उन्होंने कंस का भी वध किया और वृन्दावन को छोड़ने के बाद मुड़ कर नहीं देखा। गांधारी के श्राप को भी स्वीकार किया। अर्थात एक कर्मयोगी संन्यासी की भांति किस प्रकार जीना चाहिए, इस के बढ़िया कोई और उदाहरण हो ही नहीं सकता। वास्तव में भूख प्यास, शरीर की आवश्यकताओं और दर्द, आराम आदि को हम नकार नहीं सकते किंतु इस के लिए ही जीवन जीना शुरू कर दे तो हम अपनी लालसा और इच्छाओं को पूरा भी नहीं कर सकते, क्योंकि यह कभी भी नहीं मिटने वाली और एक के बाद दूसरी पैदा होने वाली प्रकृति की माया है। अतः जिस ने इस को समझ कर इन को अनुशासित कर लिया, वहीं संन्यासी होने के लिए योग्य है। कामना और आसक्ति के साथ घर, संसार छोड़ कर गेरुवा वस्त्र धारण करने से कोई संन्यासी नहीं होता।
पुरुष अकर्ता और निर्लिप्त है, इसलिए वह कभी भी आसक्त नही होता। प्रकृति क्रियाशील और जड़ है। इसलिए जिसे ही उसे कोई चेतन दिखता है तो वह क्रियाशील हो कर कार्य करने करती है। बिना चेतन के वह साम्य अवस्था में है किंतु चेतन के साथ वह क्रियाशील है और यही प्रकृति की क्रियाशीलता से पुरुष भ्रमित हो जाता है और स्वयं को कर्ता और भोक्ता समझ लेता है।पुरुष में प्रकृति का अज्ञान उसे आसक्त बना कर रखता है। इसी अज्ञान को जो जितना जल्दी पहचान लेता है, वही संन्यासी है। वह आत्म स्वरूप से संसार में समस्त कर्म करते हुए भी विरक्त है। क्योंकि वह कर्म कर्तव्य भाव सृष्टि चक्र में निष्काम हो कर करता है। जैसे हवा के शांत होने पर लहर जल में विलीन हो कर शांत समुंद्र में समा जाती है, इसी को न होना या नैष्कर्म्य होना कहते है। हम अपने मूल को प्राप्त कर ले, जिसे अज्ञान तो मिट ही जाता है, ज्ञातृत्व भी लुप्त हो जाता है, जो शेष रहता है, वह क्रियाहीन चैतन्य है, दृष्टा मात्र है, ब्रह्म स्वरूप है, वही नैष्कर्म्य है।
।। हरि ॐ तत् सत ।। गीता विशेष – 18.49 ।।
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