।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.49 II
।। अध्याय 18.49 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.49॥
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति॥
“asakta-buddhiḥ sarvatra,
jitātmā vigata-spṛhaḥ..।
naiṣkarmya- siddhiḿ paramāḿ,
sannyāsenādhigacchati”..।।
भावार्थ:
सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है ॥४९॥
Meaning:
One whose mind is unattached from all aspects, who is self-controlled, from whom desires have departed, attains the supreme state of freedom from action by sanyaasa.
Explanation:
In this last chapter, Shree Krishna repeats many of the principles he has already explained. In the beginning of this chapter, he explained to Arjun that merely running away from the responsibilities of life is not sanyāsa, nor is it renunciation. Now he describes the state of action lessness, or naiṣhkarmya-siddhi. This state can be reached even amidst the flow of the world by detaching ourselves from events and outcomes, and simply focusing on doing our duty.
Most government jobs, and even private sector jobs, come with a built-in end date known as the retirement date, which signifies the culmination of career- related actions. Similarly, when we perform our duty observing the tenets of karma yoga, we will eventually reach a point where we are ready to move onto the next stage in the spiritual journey known as sanyaasa. The aashrama system in Indian culture appoints sanyaasa as the last aashrama, the last stage in life, where the individual should renounce all their duties and life a lifestle of a sanyaasi, a monk.
Karm yogis do their duty but keep the mind unaffected by the stream of events. They do not neglect putting in their best efforts in doing their duty, as an act of worship to God, but they leave the final outcome in his hands and are thus contented and undisturbed with whatever happens. “God alone knows what is best. Let him do what he feels is best.”
He defines the karma yōgi. Karma yōgi is one who is sarvatra asaktabuddhiḥ; means one who is not attached to any external factor. The one who gradually grows out of external attachments, by discovering the fact that the world is neither a source of joy, nor a source of sorrow. I who am confronting the world, that I alone must be the cause of sorrow and also the cause of happiness. Therefore, the change required is not outside but in myself.
And not only he has practised karma yōga, parallelly he has practiced upasana also. Because we learn to sit for some time without distraction. So, all these are benefit of what, karma yōga, he becomes asktha buddhi, free from attachment, vigataspṛhaḥ, free from desires, jitātma, master of his own equipments, sarvatra, under all circumstances and this alone is technically called sādhanā catuṣṭāya sampathi. Hereafter alone, the crucial sādhanā has to begin, which is called jñāna yōgaḥ. So, whether a person becomes a sanyāsi or not, external sanyāsa is not relevant, if a person takes external sanyāsa and does everything else other than vēdānta vicāra, it is useless. On the other hand, even if you continue in grihastha āśrama, if you systematically do vēdānta vicāra; you are all sanyāsis only.
Arjuna wanted to know the difference between tyaaga and sanyaasa at the beginning of this chapter. We can glean the primary difference from the teaching so far. The end goal of tyaaga or karma yoga is purity of mind, also known as sattva shuddhi. The end goal of sanyaasa is the attainment of brahman or the eternal essence. It is also known as naishkarmya siddhi, the state, the accomplishment where one becomes actionless, or all actions become totally spontaneous, like a river entering the ocean. There are no more internal cravings or external goals since one has completely transcended the effect of the three gunaas.
।। हिंदी समीक्षा ।।
इस अंतिम अध्याय में, श्रीकृष्ण ने उन अनेक सिद्धांतों को दोहराया है, जिन्हें उन्होंने पहले ही समझाया है। इस अध्याय की शुरुआत में, उन्होंने अर्जुन को समझाया कि जीवन की जिम्मेदारियों से भागना ही संन्यास नहीं है, न ही त्याग है। अब वे निष्कर्म की अवस्था या नैष्कर्म्य- सिद्धि का वर्णन करते हैं। इस अवस्था को संसार के प्रवाह के बीच भी प्राप्त किया जा सकता है, यदि हम स्वयं को घटनाओं और परिणामों से अलग कर लें और केवल अपने कर्तव्य पर ध्यान केन्द्रित करें। कर्मयोगी अपना कर्तव्य करते हैं, लेकिन मन को घटनाओं की धारा से अप्रभावित रखते हैं। वे ईश्वर की पूजा के रूप में अपने कर्तव्य को पूरा करने में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने में लापरवाही नहीं करते, लेकिन वे अंतिम परिणाम को ईश्वर के हाथों में छोड़ देते हैं, और इस प्रकार जो कुछ भी होता है, उससे संतुष्ट और अविचलित रहते हैं। “केवल भगवान ही जानता है कि क्या सबसे अच्छा है। उसे वही करने दो जो उसे सबसे अच्छा लगता है।“
अर्जुन सन्यास एवम त्याग को जानना चाहता था, भगवान श्री कृष्ण कर्मयोग सन्यास को स्पष्ट कर रहे थे, जिस में त्याग किन किन वस्तु का करना चाहिए, हम ने पढ़ा। अतः भगवान श्री कृष्ण सांख्य योग के सन्यासी के मूल तीन गुणों को बताते है।
(1) असक्तबुद्धिः सर्वत्र – जिस की बुद्धि सब जगह आसक्तिरहित है अर्थात् देश, काल, घटना, परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, पदार्थ आदि किसी में भी जिस की बुद्धि लिप्त नहीं होती एवम इन सब मे जो भी आसक्ति के स्थान हैं, उन सब में जिस का अन्तःकरण आसक्ति से, प्रीति से रहित हो चुका है।
(2) जितात्मा – जिस ने शरीर पर अधिकार कर लिया है अर्थात् जो आलस्य, प्रमाद आदि से शरीर के वशीभूत नहीं होता, प्रत्युत इस को अपने वशीभूत रखता है। तात्पर्य है कि वह किसी कार्य को अपने सिद्धान्तपूर्वक करना चाहता है तो उस कार्य में शरीर तत्परता से लग जाता है और किसी क्रिया, घटना, आदि से हटना,चाहता है तो वह वहाँ से हट जाता है। इस प्रकार जिस ने शरीर पर विजय कर ली है, वह जितात्मा कहलाता है अर्थात जिस का आत्मा यानी अन्तःकरण जीता हुआ है अर्थात् वश में किया हुआ है।
(3) विगतस्पृहः – जो स्पृहारहित है, शरीर,जीवन और भोगों में भी जिस की स्पृहा — तृष्णा नष्ट हो गयी है। जीवन धारणमात्र के लिये जिन की विशेष जरूरत होती है, उन चीजों की सूक्ष्म इच्छा का नाम स्पृहा है जैसे – सागपत्ती कुछ मिल जाय, रूखीसूखी रोटी ही मिल जाय, कुछ न कुछ खाये बिना हम कैसे जी सकते हैं, जल पीये बिना हम कैसे रह सकते हैं, ठण्डी के दिनोंमें कपड़े बिलकुल न हों तो हम कैसे जी सकते हैं। सांख्ययोग का साधक इन जीवन निर्वाह सम्बन्धी आवश्यकताओं की भी परवाह नहीं करता। तात्पर्य यह हुआ कि सांख्ययोग में चलने वाले को जडता का त्याग करना पड़ता है। उस जडता का त्याग करने में उपर्युक्त तीन बातें आयी हैं। असक्तबुद्धि होनेसे वह जितात्मा हो जाता है और जितात्मा होने से वह विगतस्पृह हो जाता है, तब वह सांख्ययोग का अधिकारी हो जाता है।
जो ऐसा आत्मज्ञानी है, वह परम नैष्कर्म्यसिद्धि को ( प्राप्त करता है )। निष्क्रिय ब्रह्म ही आत्मा है यह ज्ञान होने के कारण जिस के सर्वकर्म निवृत्त हो गये हैं वह निष्कर्मा है। उसके भाव का नाम नैष्कर्म्य है और निष्कर्मतारूप सिद्धि का नाम नैष्कर्म्यसिद्धि है। अथवा निष्क्रिय आत्मस्वरूपसे स्थित होनारूप निष्कर्मता का सिद्ध होना ही नैष्कर्म्यसिद्धि है। ऐसी जो कर्मजनित सिद्धि से विलक्षण और सद्योमुक्ति में स्थित होना रूप उत्तम सिद्धि है, उस को संन्यास के द्वारा, यानी यथार्थ ज्ञान से अथवा ज्ञानपूर्वक सर्वकर्म संन्यास के द्वारा लाभ करता है
ऐसा ही कहा भी है कि सब कर्मों को मन से छोड़ कर न करता हुआ और न करवाता हुआ रहता है। कारण कि क्रियामात्र प्रकृति में होती है और जब स्वयं का उस क्रिया के साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता, तब कोई भी क्रिया और उस का फल उस पर किञ्चिन्मात्र भी लागू नहीं होता। अतः उस में जो स्वाभाविक, स्वतःसिद्ध निष्कर्मता — निर्लिप्तता है, वह प्रकट हो जाती है।
सन्यास का अर्थ ही है, अपने ब्रह्म स्वरूप को पहचान पाना। यह तभी संभव है जब समस्त वासनाओं का क्षय हो एवम कोई कर्मफल बाकी न रहे। मुक्ति का यही अंतिम सर्वश्रेष्ठ मार्ग गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कर्म योग सन्यास द्वारा सभी वर्ण के लोगो के खोल दिया, जिस पहले कुछ लोगो द्वारा सिर्फ ब्राह्मण को ही अधिकृत किया गया था।
गीता इस बात को बारम्बार दोहराते हुए कभी नहीं थकती कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए आत्मसंयम एवं स्पृहा समाप्ति अपरिहार्य गुण हैं। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि नैर्ष्कम्य सिद्धि कोई अप्राप्त और नवीन स्थिति की प्राप्ति नहीं है, वरन् अज्ञान जनित आसक्तियों के त्याग से अपने स्वरूप की पहचान मात्र है। यह स्वत सिद्ध साध्य की सिद्धि है।
यह कर्म योगी अब व्यवस्था में आसक्त नहीं रहता, क्योंकि वह जानता है कि व्यवस्था का सुख-दुख से कोई सम्बन्ध नहीं है और इसलिए वह विरक्त पुरुष है और विगतस्पृहा: और उसे किसी नई व्यवस्था की इच्छा नहीं रहती, वह वर्तमान व्यवस्था में आसक्त नहीं रहता, उसे किसी नई व्यवस्था की लालसा नहीं रहती, इसलिए विगतस्पृहा:। अब उसे किसी भी वस्तु के प्रति आसक्ति और इच्छा नहीं रहती और न केवल उन्होंने कर्म योग का अभ्यास किया है, बल्कि समानांतर रूप से उन्होंने उपासना का भी अभ्यास किया है। क्योंकि हम बिना विचलित हुए कुछ समय के लिए बैठना सीखते हैं। तो ये सब कर्म योग के लाभ है, वह अष्ट बुद्धि बन जाता है, आसक्ति से मुक्त, विगतस्पृहा:, इच्छाओं से मुक्त, जितात्मा, अपने उपकरणों का स्वामी, सर्वत्र, सभी परिस्थितियों में और इसे ही तकनीकी रूप से साधना चतुष्टय सम्पत्ती कहा जाता है। इसके बाद ही, महत्वपूर्ण साधना शुरू होनी चाहिए, जिसे ज्ञान योग: कहा जाता है। इसलिए चाहे कोई व्यक्ति संन्यासी बने या न बने, बाहरी संन्यास प्रासंगिक नहीं है, अगर कोई व्यक्ति बाहरी संन्यास लेता है; और वेदांत विचार के अलावा बाकी सब कुछ करता है, तो यह बेकार है। दूसरी ओर, यदि आप गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी व्यवस्थित रूप से वेदान्त विचार करते हैं, तो आप सभी संन्यासी ही हैं।
श्रीवसिष्ठजी कहते हैं -‘ रघुनन्दन! मन का इच्छारहित हो जाना ही समाधि है और जिसकी चेष्टा प्रारब्ध कर्मों में इच्छाशून्य तथा व्याकुलतारहित रहती है, वही विश्रान्ति मनवाला, जीवनमुक्त मुनि है।।’
हम को यह स्मरण रखना चाहिए कि सम्पूर्ण गीतोपदेश उस अर्जुन के लिए दिया गया था, जो युद्ध भूमि पर कर्तव्य की विशालता को देख कर संभ्रमित हो गया था। वह युद्ध से पलायन कर, जंगलों में स्वकल्पित धारणा के अनुसार संन्यास का जीवन जीना चाहता था। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है कि सांसारिक जीवन तथा उस के कर्तव्यों से दूर भागना संन्यास नहीं है। इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण नैर्ष्कम्य सिद्धि की परिभाषा देते हैं, जिस का साधन संन्यास है। संन्यास का अर्थ है शरीर, मन और बुद्धि उपाधियों के साथ हुए अपने तादात्म्य का त्याग करना। अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में निष्ठा प्राप्त करना ही नैर्ष्कम्य सिद्धि है।
सन्यास में सामान्य धारणा, घर – परिवार को त्याग कर गैरूवे वस्त्र धारण करना है, किंतु वास्तविक सन्यास संसार से भागना नहीं, अपितु अपनी आसक्ति, कामना और अहम से मुक्त होना है, अब आगे भी उस परम सिद्धि को प्राप्त करने को सरल रूप में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.49 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)