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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.46 II

।। अध्याय      18.46 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.46

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्‌।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥

“yataḥ pravṛttir bhūtānāḿ,

yena sarvam idaḿ tatam..।

sva- karmaṇā tam abhyarcya,

siddhiḿ vindati mānavaḥ”..।।

भावार्थ: 

जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌ व्याप्त है (जैसे बर्फ जल से व्याप्त है, वैसे ही संपूर्ण संसार सच्चिदानंदघन परमात्मा से व्याप्त है), उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके (जैसे पतिव्रता स्त्री पति को सर्वस्व समझकर पति का चिंतन करती हुई पति के आज्ञानुसार पति के ही लिए मन, वाणी, शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमेश्वर को ही सर्वस्व समझकर परमेश्वर का चिंतन करते हुए परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार मन, वाणी और शरीर से परमेश्वर के ही लिए स्वाभाविक कर्तव्य कर्म का आचरण करना ‘कर्म द्वारा परमेश्वर को पूजना’ है) मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है ॥४६॥

Meaning:

From whom arises the origin of all beings, by which this entire creation is pervaded, having worshipped that through his duty, the person attains perfection.

Explanation:

Shri Krishna says that we should submit the performance of our duty as an offering to Ishvara. Only then does it result in the samsiddhi, the foremost accomplishment, the perfection that was spoken of earlier. Otherwise, mere performance of our duty will result in merits and demerits, paapa and punya, which will further trap us in the cycle of samsaara. We have to inject bhakti or devotion to Ishvara into all our actions. In other words, karma yoga and bhakti yoga need to go together. Performance of duty with devotion to Ishvara reduces the ego, the gigantic bundle of likes, dislikes and fears which is an obstacle to liberation.

No soul is superfluous in God’s creation. His divine plan is for the gradual perfection of all living beings. We all fit into his scheme like tiny cogs in the giant wheel. And he does not expect more from us than the competence he has given to us. Therefore, if we can simply perform our swa-dharma in accordance with our nature and position in life, we will participate in his divine plan for our purification. When done in devotional consciousness our work itself becomes a form of worship.

Whatever word I speak, learn to offer it to God, then you will be careful in maintaining the quality of the word. If it is an offering, you will not speak meaningless words, you will have quality control. God is the causal intelligence pervading the universe; see God as omnipresent, worship that omnipresent God. Who is also in your office; whatever be the office that God is present in your office also, and however you worship, do not look for flowers and naivedayam. The enjoyer does not seek pleasure from the fruit of action, he gets pleasure from the action itself.

If karma, by which I mean your profession. Whatever your profession, if it has to be converted into worship, then you have to change your attitude towards three factors. It involves three important factors and towards all three, you have to find and develop a very healthy attitude. Those three factors are:

Number 1 karma; your attitude towards your actions and the next behaviour change is that since it is going to be offered to God, I should try to improve the quality of karma

Number 2, karma phala; everything that you do will have a result. It can bring success and it can also bring failure. People around can praise you, people around can also criticise you. People around can accept your contribution people around may not accept. All these are the results of your actions. That is what we call karma phala. People around can be completely ungrateful towards you. Ungratefulness towards others is also a karma phala. Number 2 is karma phala.  You work and somebody gets a promotion. You work, and others get promotions. Second karma phala; this is the second factor.

No. 3: The third and most important factor involved in this is God; Karma Phal Dhata. The result of every karma is determined by God, the cosmic judge, who knows all the laws of karma, and who produces the results according to the laws of karma and gives me what I deserve, not what I want or expect. Sometimes, what I want and what I get coincides but that coincidence is very rare. Most of the time, there is a very, very big difference between my expectation and the actual result; and the creator of karma phala is called Karma Phal Dhata, God.

Even in our daily lives, actions performed with devotion to someone, or something have a different kind of feeling. They allow us to channel energy that we never thought we had. A mother will work tirelessly, day and night, for the benefit of her children. Freedom fighters gave their lives for the service of the nation. Offering actions to Ishvara, however, has the effect of reducing the sense of enjoyer ship, the bhokta bhaava, the pursuit of actions driven by likes and dislikes. Selfless service reduces the sense of kartaa bhaava, the notion that the I has to perform an action to remove some incompleteness. We become instruments of Ishvara’s will, so there is no room for personal will.

Now, who is this, Ishvara? He is the source, the origin of all beings, the intelligence cause, like the potter of a clay pot. He is also the material cause, the stuff by which everything is created, like the clay in a clay pot. When we offer our actions to the creator and sustainer of the universe, we lose all fear of the future, since we accept whatever comes our way as a prasaada, a gift from Ishvara. So there is no personal will, there is no personal preference, there is no fear. Doer ship, likes, dislikes and fears are nothing but the ego. It then, slowly withers away through karma yoga.

।। हिंदी समीक्षा ।।

न्यायिक शास्त्र के अनुसार समस्त सृष्टि की रचना का आधार परमाणु है, जो विभिन्न मात्राओं में संयोग द्वारा किसी भी जड़ पदार्थ की रचना करते है और इसी संयोग से कुछ जड़ पदार्थ में चेतना भी जागृत हो जाती है। क्योंकि कोई स्वयं अपने कंधे पर सवार नहीं हो सकता, इसलिए संयोग की क्रिया करने वाला कोई एक होना चाहिए और उस को जानने वाला कोई अन्य। अतः सांख्य के मूल पदार्थ को प्रकृति कहा गया और जानने वाले को पुरुष। प्रकृति सूक्ष्म और अव्यक्त है और क्रियाशील होने से यह अपने को स्थूल और व्यक्त स्वरूप में अपने तीनों गुणों से व्यक्त और स्थूल स्वरूप में आती है। पुरुष अर्थात जाता अकर्ता और दृष्टा है, इसे ही क्षर – अक्षर का ज्ञान भी कहते है और सम्पूर्ण सृष्टि की रचना का आधार प्रकृति और पुरुष माने गए। प्रकृति ही साम्य अवस्था में शांत अपने तीन गुणों के साथ रहती है और सृष्टि की रचना के समय यही तीन गुण विभिन्न मात्राओं में संयुक्त होने से विभिन्न व्यक्त, अव्यक्त, सूक्ष्म और स्थूल पदार्थों की रचना करती है। इसी में पुरुष चैतन्य के स्वरूप में प्रविष्ट करता है। आधुनिक विज्ञान और सनातन संस्कृति के विभिन्न दर्शन शास्त्र इस विषय में एक मत है कि कुछ भी शून्य से प्रकट नहीं होता। अतः वेदांत ने उस एक तत्व जिसे से समस्त सृष्टि चलती है, उसे परब्रह्म कहा। इसलिए प्रकृति को जड़ मानते हुए, उस से उत्पन्न समस्त सूक्ष्म, स्थूल, व्यक्त और अव्यक्त पदार्थ को क्षेत्र की संज्ञा देते हुए, परब्रह्म को क्षेत्रज्ञ माना। अतः समस्त सृष्टि उस परब्रह्म तत्व से चलाए मान है जिस में ब्रह्म के अंश के स्वरूप जीव और प्रकृति पदार्थ के स्वरूप में है और समस्त क्रियाएं माया अर्थात प्रकृति के तीन गुणों से संयोग से उत्पन्न होती है। जीव जिसे मूलतः कर्ता और भोक्ता कहा गया, उस का उद्देश्य या लक्ष्य प्रकृति के माया जाल से बाहर निकल कर पुनः परब्रह्म में विलीन होना है। परन्तु प्रकृति का माया जाल इतना सशक्त है कि वह अहम में कर्ता और भोक्ता बन कर जन्म और मृत्यु के चक्कर में ही फसा रह जाता है क्योंकि उस के साथ कर्म और कर्मफलों का बंधन चक्कर लगा रहता है। मुक्ति और मोक्ष के लिए, उसे क्या करना चाहिए, इस के गीता का यह श्लोकों अत्यंत महत्व पूर्ण है।

भगवान श्री कृष्ण कहते है कि सम्पूर्ण सृष्टि का रचयिता एक मात्र परब्रह ही है इसलिये जड़-चेतन, परा-अपरा प्रकृति, मृत्यु लोक से ब्रह्मलोक तक यह सम्पूर्ण भूतों की उत्पति का एक मात्र कारण यह परब्रह ही है।

जिस प्रकार मनुष्य शरीर के नाना अंग एवम उपांग यदि प्रत्येक अंग एवम उपांग अपने अपने धर्म व कर्म में ठीक ठीक वर्ताव करता रहे तो शरीर स्वस्थ रहता है वैसे सृष्टि स्वरूप परब्रह में चारो वर्ण, चारो आश्रम एवम प्रत्येक मनुष्य अपने अपने कर्तव्य धर्म के अनुसार नियत कर्म ईश्वर की ओर से अपने ऊपर कर्तव्य जान कर और ईश्वर प्राप्ति का उद्देश्य रखकर निष्काम भाव से अपने अपने कर्मो का आचरण करे तो यह कर्म ही भगवान की पूजा होगी एवम इन कर्मो के करते रहने से उस की वासनाओं का क्षय होगा। यह सम्पूर्ण सृष्टि स्वस्थ रहेगी। कर्म की पूजा है अपने नियत कर्म भगवान की आज्ञा मानते हुए, उन्हे समर्पित भाव से करना भगवान की पूजा करना ही है।

भगवान की रचना में कोई भी आत्मा अनावश्यक नहीं है। उनकी दिव्य योजना सभी जीवों की क्रमिक पूर्णता के लिए है। हम सभी उनकी योजना में विशालकाय पहिये के छोटे-छोटे दाँतों की तरह फिट बैठते हैं। और वह हमसे उससे अधिक की अपेक्षा नहीं करता जो उसने हमें दी है। इसलिए, यदि हम अपने स्वभाव और जीवन में स्थिति के अनुसार अपना स्व-धर्म निभा सकें, तो हम अपनी शुद्धि के लिए उनकी दिव्य योजना में भाग लेंगे। जब भक्ति चेतना में किया जाता है तो हमारा कार्य स्वयं पूजा का एक रूप बन जाता है।

इसलिये वर्ण धर्म में जिस को जो भी कार्य मिला है वह किसी भी प्रकार से छोटा-बड़ा या खोटा-खरा नही हो सकता, यह तो इस सृष्टि को चलाते रहने के लिये उस को परमात्मा द्वारा कर्तव्य कर्म का आबंटन किया हुआ है और इसलिये अपने नियत कर्म को परमात्मा की सेवा ही समझ कर उस को अर्पित करते हुए करते रहना चाहिए।

मैं जो भी शब्द बोलूं, उसे भगवान को अर्पित करना सीखूं, तब तुम शब्द की गुणवत्ता बनाए रखने में सावधान रहोगे। यदि यह एक अर्पण है, तो तुम अर्थहीन शब्द नहीं बोलोगे, तुम्हारे पास गुणवत्ता नियंत्रण होगा।  भगवान ब्रह्मांड में व्याप्त कारण बुद्धि हैं; भगवान को सर्वव्यापी के रूप में देखो, उस सर्वव्यापी भगवान की पूजा करो। जो तुम्हारे कार्यालय में भी है; चाहे कोई भी कार्यालय हो वह भगवान तुम्हारे कार्यालय में भी मौजूद हैं, और तुम कैसे भी पूजा करो, फूलों और नैवेद्यम की तलाश मत करो। भोक्ता कर्म फल से आनंद की तलाश नहीं करता,  वह कर्म से ही आनंद प्राप्त करता है।

यदि कर्म, जिससे मेरा तात्पर्य आपके पेशे से है। आपका व्यवसाय चाहे जो भी हो, यदि उसे पूजा में बदलना है, तो आपको तीन कारकों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना होगा।  इसमें तीन महत्वपूर्ण कारक शामिल हैं और तीनों के प्रति, आपको एक बहुत ही स्वस्थ दृष्टिकोण खोजना और विकसित करना होगा। वे तीन कारक हैं:

नंबर 1 कर्म; अपने कार्यों के प्रति आपका दृष्टिकोण और अगला व्यवहार परिवर्तन यह है कि चूंकि यह भगवान को अर्पित होने वाला है, इसलिए मुझे कर्म की गुणवत्ता में सुधार करने का प्रयास करना चाहिए

नंबर 2, कर्म फल; आप जो कुछ भी करते हैं उसका एक परिणाम होगा। यह सफलता ला सकता है और यह असफलता भी ला सकता है। आस-पास के लोग आपकी प्रशंसा कर सकते हैं, आस-पास के लोग आपकी आलोचना भी कर सकते हैं। आस-पास के लोग आपके योगदान को स्वीकार कर सकते हैं आस-पास के लोग स्वीकार नहीं कर सकते हैं। ये सभी आपके कार्यों के परिणाम हैं। जिसे हम कर्म फल कहते हैं। आस-पास के लोग आपके प्रति पूरी तरह से कृतघ्न हो सकते हैं। दूसरों के प्रति कृतघ्नता भी एक कर्म फल है। नंबर 2 कर्म फल है। आप काम करते हैं और किसी को पदोन्नति मिलती है। आप काम करते हैं, और दूसरों को पदोन्नति मिलती है। दूसरा कर्म फल; यह दूसरा कारक है। 

नं. 3: इस में शामिल तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारक ईश्वर है; कर्म फल धाता। हर कर्म का परिणाम ईश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है, ब्रह्मांडीय न्यायाधीश, जो कर्म के सभी नियमों को जानता है, और जो कर्म के नियमों के अनुसार परिणाम उत्पन्न करता है और मुझे वह देता है जिसके मैं हकदार हूँ, न कि वह जो मैं चाहता हूँ या उम्मीद करता हूँ। कभी-कभी शायद ही कभी जो मैं चाहता हूँ और जो मुझे मिलता है, वह मेल खाता है लेकिन वह संयोग बहुत ही दुर्लभ है। अधिकांश समय, मेरी अपेक्षा और वास्तविक परिणाम के बीच बहुत बहुत बड़ा अंतर होता है; और कर्म फल के निर्माता को कर्म फल धाता, ईश्वर कहा जाता है।

इसलिए कर्म फल के प्रति दृष्टिकोण प्रसाद भावना हो जायेगी। यह दूसरी महत्वपूर्ण बात है; कर्म के अर्पण कर देने से जो भी प्राप्त हुआ, वह फल में प्रसाद भावना से ग्रहण होगा।

हमे जानना होगा कि पूजा के लिए मुझे भगवान को खोजना होगा, अन्यथा मैं फूल कैसे चढ़ा सकता हूँ; इसलिए पूजा के लिए भगवान स्थित हैं, लेकिन मुझे पता होना चाहिए कि भगवान कोई स्थित व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि भगवान एक सर्वव्यापी सिद्धांत हैं। भगवान स्रोत हैं, प्रवृत्तिः  अर्थात उत्पत्ति या भूतानाम् की उत्पत्ति या स्रोत, सभी चीजों और प्राणियों के, भगवान को जगत कारणम् के रूप में देखना सीखें। भगवान संसार में कोई व्यक्ति नहीं हैं। भगवान संसार के भीतर कोई व्यक्ति नहीं हैं; बल्कि भगवान संसार का मूल कारण हैं; जो संसार के उद्भव से भी पहले से मौजूद थे।

और एक बार जब मैं ईश्वर को कारणम के रूप में देखता हूँ, तो अगली बात जो मुझे याद रखनी चाहिए वह यह है कि कारण सभी प्रभावों में व्याप्त है। कारण सभी प्रभावों में व्याप्त है; जैसे सोना सभी आभूषणों में व्याप्त है; लकड़ी सभी फर्नीचर में व्याप्त है; मिट्टी सभी मिट्टी के बर्तनों में व्याप्त है। तो अगर ईश्वर कारणम है; और दुनिया एक उत्पाद है; भगवान कहाँ है? और एक वैज्ञानिक दृष्टि कोण व्यवस्था को ब्रह्मांडीय नियमों के रूप में समझेगा, जो ब्रह्मांड को नियंत्रित करते हैं। इसलिए इसे बुद्धिमत्ता के रूप में सराहें, इसे व्यवस्था के रूप में सराहें, अपने मन को हर जगह भगवान को देखने के लिए संवेदनशील बनाएं। तब पूरा ब्रह्मांड एक मंदिर बन जाता हैऔर उसके बाद पूजा के लिए, आपको किसी विशेष मंदिर की आवश्यकता नहीं होती है, आपको किसी विशेष फूल की आवश्यकता नहीं होती है। आप को किसी विशेष आसन, किसी ऐसे स्थान की आवश्यकता नहीं होती है जहाँ भगवान उपस्थित हों और फूल क्या है? आप जो कुछ भी करते हैं वह एक फूल है और वास्तव में, यही प्रार्थना है हम हर दिन जप करते हैं।

शरीर, मन, बुद्धि एवम धृति के हिसाब से प्रकृति जो भी नियत कर्म देती है, वही उस जीव का कर्तव्य धर्म भी है। युद्ध भूमि में अर्जुन का नियत कर्म युद्ध करना ही है तो यह उस का उस समय का कर्तव्य धर्म ही है।

यह संदेश विशेष रूप से अर्जुन पर लागू होता है क्योंकि वह अपने धर्म से दूर भागना चाहता था, क्योंकि वह इसे दुःखद और दुखद समझता था। इस श्लोक में, श्रीकृष्ण उसे निर्देश देते हैं कि उचित चेतना में अपने निर्धारित कर्तव्य का पालन करके वह परमपिता परमात्मा की पूजा करेगा, और आसानी से पूर्णता प्राप्त करेगा।

जिस अन्तर्यामी ईश्वर से समस्त प्राणियों की प्रवृत्ति यानी उत्पत्ति या चेष्टा होती है और जिस ईश्वर से यह सारा जगत् व्याप्त है, उस ईश्वर को प्रत्येक वर्ण के लिये पहले बतलाये हुए अपने कर्मों द्वारा पूजकर – उस की आराधना कर के मनुष्य केवल ज्ञाननिष्ठा की योग्यतारूप सिद्धि प्राप्त कर लेता है। स्वयं भगवान अर्जुन से कहते है कि तू मुझ में भक्ति रखते हुए युद्ध कर।

जब मनुष्य अपने स्वभाव (वर्ण) तथा स्वधर्म (आश्रम, जैसे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि) के अनुसार कर्म करता है तब उसकी पूर्वार्जित वासनाओं का क्षय होता जाता है। यह वासना निवृत्ति तथा इस के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली चित्त की शुद्धि और शान्ति तभी संभव होती है, जब मनुष्य अपने अहंकार को त्यागकर ईश्वरार्पण की भावना से कर्म करना सीख लेता है। लौकिक कर्तव्यों में यह नियम देखा जाता है कि जिस स्रोत से हमें कार्य करने की शक्ति और फल प्राप्ति होती है, उस के प्रीत्यर्थ कर्म करना हमारा कर्तव्य समझा जाता है। उदाहरणार्थ, सरकारी नौकरी करने वालों का कर्तव्य होता है कि अपने पद का कार्यभार सम्भालते हुए सरकार के लिए कार्य करें, क्योंकि सरकार ही उन्हें कार्य करने का अधिकार और वेतन प्रदान करती है। यदि कोई मनुष्य उस सरकार की शक्ति को विस्मृत कर अपने अधिकार का उपयोग स्वार्थसिद्धि में करता है, तो वह कर्म उसके लिए बन्धन कारक बन जाता है। इस के विपरीत अर्पण की भावना से कार्य करने पर बन्धन तो होते ही नहीं, अपितु उन की पदोन्नति भी होती है।

आप एक व्यापारी है, आप को किसी सफर के दौरान कोई व्यक्ति ह्रदय रोग से पीडित मिल जाये और उस की सहायता करना आवश्यक हो तो आप को डॉक्टर की भांति उसे प्राथमिक उपचार देना आप का नियत कर्म ही है। किंतु डॉक्टर के आ जाने के बाद उसे करते रहना हठ धर्मिता या मूर्खता है।

संसार मे प्रत्येक जीव परमपिता परमेश्वर की संतान है इसलिये नियत कर्म को करना भी परमपिता परमेश्वर का ही कार्य है। जब नियत कर्म परब्रह के प्रति समर्पित भाव से बिना किसी कर्तृत्व भाव, अहंकार एवम कामना-आसक्ति-मोह के सिर्फ कर्तव्य समझ कर किया जाए तो वह कर्म ही परब्रह के लिये पूजा हो जाता है।

स्वधर्म में किया कार्य उत्साह, क्षमता, योग्यता एवम बिना किसी मानसिक दवाब से किया जा सकता है क्योंकि वह जीव की प्रकृति के अनुकूल होगा। यदि कोई डॉक्टर बनना चाहे और दवाब में उसे इंजीनियर बनने को कहा जाए तो वह उस की पढ़ाई मन मार करेगा, जो उस की प्रकृति के अनुकूल नही है।

कर्म ही श्रेष्ठ पूजा है, जो कर्मो द्वारा निष्काम हो कर भगवान की पूजा करता है, उस की वासनाओं का क्षय हो जाने से अन्तःकरण में निर्मलता होती है। यही ज्ञाननिष्ठा की योग्यता रुप सिद्धि है। जिस से उस निर्मल अन्तःकरण में ज्ञाननिष्ठा का उद्बोध होता है।

इस प्रकार केवल ब्राह्मण ही ज्ञाननिष्ठा का अधिकारी होता है, बल्कि चारो ही वर्ण निष्काम भाव से अपने कर्मो द्वारा भगवान की पूजा कर के किसी बाधा के बिना भगवान की प्रसन्नता रूप अन्तःकरण की निर्मलता को प्राप्त हो सकते है, और जिस के वह सब ज्ञाननिष्ठा के अधिकार को प्राप्त हो जाते है।

शास्त्रों में मनुष्य के लिये अपने वर्ण और आश्रमके अनुसार जो जो कर्तव्य कर्म बताये गये हैं, वे सब संसार रूप परमात्मा की पूजा के लिये ही हैं। अगर साधक अपने कर्मों के द्वारा भाव से उस परमात्माका पूजन करता है, तो उस की मात्र क्रियाएँ परमात्मा की पूजा हो जाती है। इसलिये कोई भी कर्म श्रेष्ठ या निकृष्ट नही होता, निकृष्ट होती है उस कर्म को करते समय आसक्ति या कामना। कर्म प्रधान भक्ति ही सहज मार्ग है, जिस मुक्ति और प्रकृति के कर्तव्य का पालन भी हो जाता है।

स्वभावज (सहज) कर्मों को निष्काम भावपूर्वक और पूजा बुद्धि से करते हुए उस में कोई कमी रह भी जाय, तो भी उस में साधक को हताश नहीं होना चाहिये – इस को आगे के दो श्लोकों में पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.46।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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