।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.45 II Additional II
।। अध्याय 18.45 II विशेष II
।। रामसुख दास जी स्वाभाविक कर्म से मोक्ष तक ।। गीता – विशेष 18.45।।
मालिक की सुख सुविधा की सामग्री जुटा देना, मालिक के दैनिक कार्यों में अनुकूलता उपस्थित कर देना आदि कार्य तो वेतन लेनेवाला नौकर भी कर सकता है और करता भी है। परन्तु उस में क्रिया की (कि इतना काम करना है) और समय की (कि इतने घंटे काम करना है) प्रधानता रहती है। इसलिये वह कामधंधा सेवा नहीं बन सकता।
यदि मालिक का वह कामधन्धा आदरपूर्वक सेव्यबुद्धि से, महत्त्वबुद्धि से किया जाय तो वह सेवा हो जाता है। सेव्यबुद्धि, महत्त्वबुद्धि चाहे जन्म के सम्बन्ध से हो, चाहे विद्या के सम्बन्ध से चाहे वर्णआश्रमके सम्बन्धसे हो चाहे योग्यता, अधिकार, सद्गुण सदाचार के सम्बन्ध से। जहाँ महत्त्वबुद्धि हो जाती है, वहाँ सेव्य को सुखआराम कैसे मिले सेव्य की प्रसन्नता किस बात में है सेव्य का क्या रुख है क्या रुचि है – ऐसे भाव होने से जो भी काम किया जाय, वह सेवा हो जाता है।सेव्य का वही काम पूजा बुद्धि, भगवद्बुद्धि, गुरुबुद्धि आदि से किया जाय और पूज्यभाव से चन्दन लगाया जाय, पुष्प चढ़ाये जायँ, माला पहनायी जाय, आरती की जाय तो वह काम पूजन हो जाता है। इस से सेव्य के चरण स्पर्श अथवा दर्शनमात्र से चित्त की प्रसन्नता, हृदय की गद्गदता, शरीर का रोमाञ्चित होना आदि होते हैं और सेव्य के प्रति विशेष भाव प्रकट होते हैं। उस से सेव्य की सेवा में कुछ शिथिलता आ सकती है परन्तु भावों के बढ़ने पर अन्तःकरण शुद्धि,भगवत्प्रेम, भगवद्दर्शन आदि हो जाते हैं। मालिक का समय समय पर कामधंधा करने से नौकर को पैसे मिल जाते हैं और सेव्य की सेवा करने से सेवक को अन्तःकरण शुद्धिपूर्वक भगवत्प्राप्ति हो जाती है परन्तु पूजाभाव के बढ़ने से तो पूजक को तत्काल भगवत्प्राप्ति हो जाती है। तात्पर्य है कि चरणचाँपी तो नौकर भी करता है, पर उस को सेवा का आनन्द नहीं मिलता क्योंकि उस की दृष्टि पैसों पर रहती है। परन्तु जो सेवा बुद्धि से चरणचाँपी करता है, उस को सेवा में विशेष आनन्द मिलता है क्योंकि उस की दृष्टि सेव्य के सुख पर रहती है। पूजा में तो चरण छूनेमात्र से शरीर रोमाञ्चित हो जाता है और अन्तःकरण में एक पारमार्थिक आनन्द होता है। उस की दृष्टि पूज्य की महत्ता पर और अपनी लघुता पर रहती है। ऐसे देखा जाय तो नौकर के कामधंधे से मालिक को आराम मिलता है, सेवा में सेव्य को विशेष आराम तथा सुख मिलता है और पूजा में पूजक के भाव से पूज्य को प्रसन्नता होती है। पूजा में शरीर के सुखआराम की प्रधानता नहीं होती।अपने स्वभावज कर्मों के द्वारा पूजा करने से पूजक का भाव बढ़ जाता है तो उसके स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से होनेवाली (चेष्टा, चिन्तन, समाधि आदि) सभी छोटी बड़ी क्रियाएँ सब प्राणियों में व्यापक परमात्मा की पूजनसामग्री बन जाती है। उस की दैनिकचर्या अर्थात् खानापीना आदि सब क्रियाएँ भी पूजनसामग्री बन जाती हैं।जैसे ज्ञानयोगी का मैं कुछ भी नहीं करता हूँ यह भाव हरदम बना रहता है, ऐसे ही अनेक प्रकार की,क्रियाएँ करने पर भी भक्त के भीतर एक भगवद्भाव हरदम बना रहता है। उस भाव की गाढ़ता में उस का अहंभाव भी छूट जाता है।
संत तुकाराम भी भक्ति के द्वारा परमेश्वर का वर्णन करते हुए कहते है कि ” अब में परोपकार ही के लिए बचा हूं।” प्रवृति प्रधान भागवत धर्म का लक्षण अथवा गीता का सिद्धांत यह है कि उत्कट भक्ति के साथ साथ मृत्यु पर्यन्त ईश्वरार्पण पूर्वक निष्काम कर्म करते रहना चाहिए। श्री समर्थ रामदास स्वामी जी दास बोध ग्रंथ में भी कहा है कि “सब लोगो को सिखाने के लिए अपना कर्म निस्पृहता से अपना काम यथाधिकार जिस प्रकार किया करते है, करते रहे जिसे देख कर सर्व साधारण लोग अपना व्यवहार करना सीखे। बिना कुछ किए कुछ भी नही होता। हलचल में सामर्थ्य है, जो करेगा वही पाएगा, परंतु उस में भगवान का अधिष्ठान होना चाहिए।” रामदास स्वामी शिवाजी महाराज के गुरु थे। युद्ध में जो भगवान अर्जुन को युद्ध करने की दीक्षा देते है, वही रामदास स्वामी शिवाजी को मुगल से युद्ध की शिक्षा देते है। क्योंकि स्वाभाविक कर्म भगवान के निमित्त करने से अधिक एकाग्रता और दक्षता से भी होता है और जनकल्याण के लिए भी होता है।
।। हरि ॐ तत् सत्।। गीता विशेष – 18. 45 ।।
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