।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.44 II
।। अध्याय 18.44 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.44॥
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥
“kṛṣi- go- rakṣya- vāṇijyaḿ,
vaiśya- karma svabhāva- jam..।
paricaryātmakaḿ karma,
śūdrasyāpi svabhāva- jam”..।।
भावार्थ:
खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार (वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर दे देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना इत्यादि दोषों से रहित जो सत्यतापूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है उसका नाम ‘सत्य व्यवहार’ है।) ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ॥४३॥
Meaning:
Agriculture, cattle rearing and trade are natural duties of the vaishya. Service oriented actions are the natural duties of the shoodra.
Explanation:
Shri Krishna now describes the duties of the vaishya and shoodra varnas. The mental makeup of vaishyas prods them to raise, invest and trade in capital, goods and services. Although the shloka mentions agriculture, cattle rearing and trade, the broader concern of vaishyas is money. They are guided by the economic motive behind all their actions. Vaishyas play a critical role in any society by starting and maintaining the engine of the economy. They ensure that the needs of society are met by providing what it needs at the right place, time and for the right price.
The Vaishyas were those whose natures were predominantly rājasic with a mixture of tamo guṇa. They were thus inclined toward producing and possessing economic wealth through business and agriculture. They sustained the economy of the nation and created jobs for the other classes. They were also expected to undertake charitable projects to share their wealth with the deprived sections of society.
Then there are people who do not have leadership qualities. They cannot lead, they can only follow. They will do what they are told; not one thing more. They are the unskilled people, and they are called śūdraḥ by character; we are not talking about birth here; that śūdraḥ guṇa whoever has got; since he does not have leadership, let him serve the other three groups of people. Either do service to a brāhmaṇa in his brāhmaṇa profession; when he does a big yaga he requires assistance, be an assistant, or be an assistant to a Kṣatriyā, or be an assistant to a vaiśya; that is śūdraḥ karma. That is paricarya; paricarya means service in which decision making is not involved; decision making is not that easy
The Shudras were those who possessed tāmasic natures. They were not inclined toward scholarship, administration, or commercial enterprise. The best way for their progress was to serve society according to their calling. Artisans, technicians, job-workers, tailors, craftsmen, barbers, etc. were included in this class.
Shoodras comprise the service sector. They pursue occupations where they can serve society in an individual capacity. They have a lower tolerance for risk as compared to kshatriyas and vaishyas, since the proportion of rajas is lower. Therefore, they prefer to work in occupations where they render their services to society and in return, are compensated for their services appropriately. Like any other varna, their natural inclination to do a certain type of work is enhanced by gaining the right skills and training needed to perform their tasks well.
We should refrain from harbouring any notion that one varna is better than the other. The human body itself is said to be made up of four varnas. The mind is a braahmana, the hands are kshatriyas, the thighs are vaishyas and the legs are shoodras. The body cannot function properly if any component is malfunctioning. Similarly, society cannot function when one varna does not perform its natural duties. Societies that encourage each individual to realize their full potential tend to flourish. With this shloka, Shri Krishna concludes the description of the four varnas.
।। हिंदी समीक्षा ।।
वर्ण व्यवस्था के दो वर्णों के वर्णन के बाद भगवान श्री कृष्ण कहते है कि गौरक्षणं, पालन, कृषि एवम वस्तु के क्रय विक्रय जो मनुष्य प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक सामान उपलब्ध करवाता है एवम इस प्रकार झूठ, कपट, चोरी, जमाखोरी, मिलावट एवम अनैतिक लाभ को छोड़ कर समाज सभी वर्णों के साथ सत्य व्यवहार करता है, वह वैश्य है।
वैश्यों में रजोगुण की प्रधानता के साथ तमोगुण मिश्रित थे। इसलिए उनकी रूचि उत्पाद कार्यों व्यापार और कृषि के माध्यम से अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण करने और धनोपार्जन में थी। वे देश की अर्थव्यवस्था को संभालते थे और अन्य वर्गों के लिए रोजगार उत्पन्न करते थे। उनसे समाज के वंचित लोगों के कल्याणार्थ पुण्य और धमार्थ कार्यों में धन सम्पदा दान करने की अपेक्षा की जाती थी।
फिर ऐसे लोग भी हैं जिनमें नेतृत्व के गुण नहीं हैं। वे नेतृत्व नहीं कर सकते, वे केवल अनुसरण कर सकते हैं। उन्हें जो कहा जाएगा, वे वही करेंगे; इससे अधिक कुछ नहीं। वे अकुशल लोग हैं और उन्हें चरित्र के आधार पर शूद्र कहा जाता है; हम यहाँ जन्म की बात नहीं कर रहे हैं; शूद्र: गुण जिसके पास है; चूँकि उसके पास नेतृत्व नहीं है, इसलिए उसे अन्य तीन समूहों के लोगों की सेवा करनी चाहिए। या तो ब्राह्मण की ब्राह्मण पेशे में सेवा करें; जब वह कोई बड़ा यज्ञ करता है तो उसे सहायता की आवश्यकता होती है, सहायक बनें, या क्षत्रिय के सहायक बनें, या वैश्य के सहायक बनें; यह शूद्र: कर्म है। यह परिचर्या है; परिचर्या का अर्थ है ऐसी सेवा जिसमें निर्णय लेना शामिल नहीं है; निर्णय लेना इतना आसान नहीं है।
शुद्र वे थे जिनमें तमोगुण की प्रधानता थी। उनकी रूचि विद्वता प्राप्त करने और प्रशासनिक कार्यों या व्यावसायिक उद्यमों में नहीं थी। उनके लिए उन्नति का मार्ग समाज की अपेक्षाओं के अनुसार उसकी सेवा करना था। कलाकार, तकनीशियन, श्रमिक, दर्जी, कारीगर नाई इत्यादि इस वर्ग में सम्मिलित थे।
इन सभी वर्णों की सेवा का भार जो लेता है, वह शुद्र है। शुद्र का अर्थ नीच, अछूत या निम्न जाति या वर्ण न हो कर एक ऐसा वर्ण बताया गया है जिस ने सेवा का भार उठाया है। इन मे राजसी एवम तामसी प्रवृति में तामसी प्रवृति अधिक होती है, इसलिये इन्हें अल्पज्ञ कहा जाता है। उच्च कोटि के मनुष्यों की सेवा करते करते यह अपनी प्रवृतियों पर नियंत्रण करते हुए, सात्विक गुणों की ओर बढ़ते है। भारत मे अनेक संत, महात्मा आदि रविदास, तुकाराम, नामदेव, चोखामेला, कबीर, बाल्मीकि आदि इस वर्ण के लोग थे। गुण जन्म से नहीं कर्म से होते है, इसलिए जाति जन्म से शुद्र होते हुए भी, ये लोग सत्व गुण को धारण करते हुए, महान हो गए।
समाज की व्यवस्था के लिये अर्थ, काम, मोक्ष एवम धर्म को ध्यान में रखते हुए, चार प्रमुख स्तम्भ माने गए है जिन्हें हम ज्ञान, बल, धन एवम श्रम का नाम दे सकते है। ज्ञान के रूपक में ब्राह्मण, बल के रूपक में क्षत्रिय, धन के रूपक में वैश्य एवम श्रम के रूपक में शुद्र मानें जाते है। कुछ लोगो ने सामाजिक चेतना में यह भी माना है कि एक मनुष्य जब अपने मोक्ष के लिये पूजा-पाठ करता है तो वह ब्राह्मण का कृत्य करता है। अपने परिवार की रक्षा करते हुए क्षत्रिय एवम परिवार के पालन के धन कमाते हुए वैश्य तथा परिवार में ही सेवा करते हुए शुद्र रहता है। यह सामाजिक चेतना सही हो सकती है किंतु गीता का वर्गीकरण इस रूप के लिये नही है।
हमे यह ध्यान रखते हुए गीता में बताई हुई यह वर्ण व्यवस्था प्रकृति के त्रियामी गुणों के आधार पर निष्काम कर्मयोग को समझते हुए पढ़ना चाहिए, क्योंकि वर्गीकरण का आधार रज-तम-रज गुणों के आधार पर है। मनुष्य का लक्ष्य सात्विक गुणों को प्राप्त करते हुए, निष्काम भाव से कर्मयोग से मोक्ष को प्राप्त होना है। अतः जिन में तामसी वृति का अधिक प्रादुर्भाव हो वो ज्ञानी एवम श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा करते हुए, समाज मे अपने कर्तव्य धर्म का पालन करे एवम अपने को उन के साधन्य के साथ उन्नत करे। इसे गीता में पहले बताया हो , ऐसा भी नही है क्योंकि इस प्रकार से वर्ण का वर्गीकरण मनुष्य जाति के प्राकृतिक गुणों के आधार पर पहले भी अनेक ग्रंथो के किया गया है। यह सभी धर्म, मान्यताओं एवम विचारधारों में समान रूप से लागू होता है।
एक सामाजिक व्यवस्था सभी मनुष्यों को अपनेअपने स्वभाव के अनुसार विकसित हाेने के लिए तुल्य अवसर प्रदान कर सकती है। इस सिद्धांत या व्यवस्था को सफल बनाने हेतु विभिन्न व्यक्तित्व (वर्णों) के मनुष्यों के लिए भिन्नभिन्न कर्तव्यों का विधान किया गया है। जातिके उद्देश्यसे कहे हुए इन कर्मोंका भलीप्रकार अनुष्ठान किये जानेपर स्वर्गकी प्राप्तिरूप स्वाभाविक फल होता है। क्योंकि अपने कर्मोंमें तत्पर हुए वर्णाश्रमावलम्बी मरकर, परलोक में कर्मों का फल भोग कर, बचे हुए कर्मफल के अनुसार श्रेष्ठ देश, काल, जाति, कुल, धर्म, आयु, विद्या, आचार, धन, सुख और मेधा आदि से युक्त, जन्म ग्रहण करते हैं इत्यादि स्मृतिवचन हैं और पुराण में भी वर्णाश्रमियों के लिये अलगअलग लोकप्राप्ति रूप फलभेद बतलाया गया है।
प्रकृति अपने गुणों के साथ किसी भी मनुष्य में स्थिर नही है, इसलिये प्रकृति के गुण मनुष्य के कर्म आचरण एवम स्वभाव से बदलते रहते है। पूर्व के श्लोक में कर्म प्रेरणा एवम कर्म करण के ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि एवम धृति के विस्तृत विवरण में हम पढ़ चुके है, अतः हम कह सकते है प्रकृति के गुणों के आधार पर यह वर्गीकरण भी जन्मजात न जो कर कर्म करते वक्त मनोवृति पर आधारित है, जो वृति कर्म करते हुए स्थायी एवम निरंतर रहती है, व्यक्ति उसी गुण धर्म के अनुसार वर्गीकृत है। उसे बदला भी जा सकता है।
गीता कर्मयोग सन्यास मार्ग में निष्काम भाव से कर्म करते हुए मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करती है। अतः यह वर्गीकरण में कर्म किसी से भी नही छूटता किंतु प्रत्येक मनुष्य को अपने प्राकृतिक गुणों के आधार पर अपने नियत कर्म को करते रहना चाहिये जिस से वह तामसी गुणों से सात्विक गुणों की ओर बढ़े एवम इसी मार्ग से स्थितप्रज्ञ हो कर मोक्ष को प्राप्त करे।
सामाजिक व्यवस्था में अपनी प्रकृति के विरुद्ध यदि कार्य किया जाए, जैसे शूद्र प्रवृति को सेनापति बना देने से वह युद्ध नहीं कर सकता और वैश्य को मंदिर का पुजारी बना देने से वह मंदिर को व्यापारिक स्थल बना देगा। ब्राह्मण यदि क्षत्रिय या वैश्य का कर्म करे तो सामाजिक व्यवस्था में ज्ञान का लोप हो कर, वह भी व्यापार बन जायेगा। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, सन्यास एवम वानप्रस्थ जैसी व्यवस्था जिस में मनुष्य सृष्टि की रचना में महत्वपूर्ण योगदान देता हुआ, मोक्ष के मार्ग की ओर बढ़ता है, लगभग भंग हो जाएगी।
सतयुग में मनुस्मृति प्रमाणिक ग्रंथ था, इसलिए वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के कर्म निश्चित किए गए थे। किंतु त्रेता में गौतम ऋषि ने वर्ण व्यवस्था पर स्मृति पुनर्गठन किया, द्वापर में शंख लिखित वर्ण व्यवस्था में स्मृति प्रचलित हुई और कलयुग में ऋषि पाराशर की वर्ण व्यवस्था की स्मृति को मान्यता मिली। इस का प्रभाव यह रहा कि स्वभाव जन्य कर्म का वर्गीकरण समय समय पर बदला, ब्राह्मण गौ पालन और सेवा करने लगे, खेती करने और बैल आदि रखने लगे। भगवान राम का क्षत्रिय के यहां जन्म लेना और ब्राह्मण रावण में असुर वृति का होना, भगवान श्री कृष्ण का वैश्य के यहां जन्म लेना और क्षत्रिय में असुर वृति होना। शुद्रों द्वारा विभिन्न ऋषियों की सेवा करना एवम ऋषियों द्वारा उन के गौत्र को प्रदान करना। अतः स्वभाव जन्य कर्मो पर आधारित वर्ण व्यवस्था प्रकृति जन्य गुणों पर अधिक आधारित हो गई, जिस से कोई भी कर्म किसी भी वर्ण के लिया निषिद्ध नही माना गया। किंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कर्म के फल पर आसक्ति और कामना से संचित कर्म से जीव को जन्म जन्मांतर में भोगना पड़ता है। इसलिए उन कर्म के फलों को भोगने के लिए उस का जन्म विशिष्ट कुल और वर्ण में होता है। जिस से वह अपने कर्मो के फल को भोग कर मुक्त हो सके।
स्वभावज कर्मों का वर्णन करने का प्रयोजन क्या है – इस को अब आगे के दो श्लोकों में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.44 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)