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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.43 II

।। अध्याय      18.43 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.43

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥

“śauryaḿ tejo dhṛtir dākṣyaḿ,

yuddhe cāpy apalāyanam..।

dānam īśvara- bhāvaś ca,

kṣātraḿ karma svabhāva- jam”..।।

भावार्थ: 

शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ॥४३॥

Meaning:

Valour, fearlessness, fortitude, resourcefulness, and also, not fleeing in war, charity, and the ability to rule, are the natural duties of a kshatriya.

Explanation:

The Kshatriyas were those whose natures were predominantly rājasic, with a mixture of sattva guṇa. This made them royal, heroic, daring, commanding, and charitable. Their qualities were suitable for martial and leadership works, and they formed the administrative class that governed the country. Yet, they realized that they were not as learned and pure as the Brahmins. Hence, they respected the Brahmins and took advice from them on ideological, spiritual, and policy matters.

Any society requires law and order, a system to levy and deploy taxation, protection against external invaders and other such administrative functions. Even a small village comprising a handful of people needs such systems. Therefore, in any society, we need capable people who have the mental makeup and skill set to perform these administrative and leadership functions. One who has the mental makeup to lead, administer and defend, is called a kshatriya.

Shri Krishna lists the qualities of a kshatriya in this shloka. Shauryam or valour is the courage needed to fight a war. Tejaha refers to fearlessness or boldness in the face of an enemy. Dhritihi or fortitude is the ability to hold on to one’s mission in spite of physical and mental obstacles. Daakshyam is skilfulness or resourcefulness that enables one to think on one’s feet and get the job done. Apalaayanam literally means not turning the back on one’s enemy. All these qualities are needed in a capable soldier or commander.

Kshatriya also refers to administrators, bureaucrats and politicians. Daanam or charity is the ability to remove any sense of personal attachment to wealth, such that it can be deployed for the welfare of the community. Ishvara bhaava refers to the ability to rule or to exert one’s authority upon a set of people in the same benevolent way that God does. It appears that such qualities are quite lacking in today’s kshatriyas. In any case, kshatriyas have a predominance of rajas, followed by a moderate degree of sattva.

।। हिंदी समीक्षा ।।

प्रकृति के तीन गुणों के आधार पर वर्ण व्यवस्था में सत्व प्रधान गुणों से युक्त ब्राह्मण वर्ण की विशेषताओं को हम ने पढ़ा। ब्राह्मण होना स्वयं में अत्यंत कठिन है क्योंकि इस में त्याग है। यदि आपका मन उस ओर नहीं है और यह सब से बड़ा नरक है क्योंकि संन्यास से वापसी नहीं होती। यह एकतरफा यातायात है। इसलिए मैं जो कहना चाहता हूँ वह यह है कि ब्राह्मण धर्म को प्रेम से चुना जाना चाहिए और यह सबसे बड़ा आनंद होगा, एक अलग तरह का आनंद, यदि इस की बिना किसी दवाब के चुना जाए और आप का मन प्रकृति के ऐशो आराम में लालायित न हो। सत्व प्रधान व्यक्ति किसी पर निर्भर नहीं होता, इसलिए वह समाज का मार्ग दर्शक होता है। वह समाज के लिए उन नीतियों को तय करता है जिस से समाज एक दूसरे के साथ सद्भाव में रह सके।

ब्राह्मण के गुण, धर्म एवम प्रवृति के बाद क्षत्रिय के विषय मे भगवान श्री कृष्ण कहते है कि क्षत्रिय पुरुष में रजोगुण की प्रधानता होती है। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण, किसी क्षत्रिय कुल में जन्मे व्यक्ति को ही क्षत्रिय नहीं कहते हैं। एक सच्चे क्षत्रिय पुरुष में जो गुण होते हैं, उन की ही यहाँ गणना की गयी है। गीता में वर्णों का विभाजन मनुष्य के आन्तरिक स्वभाव एवं बाह्य आचरण के आधार पर किया गया है।

क्षत्रिय उन्हें कहते थे जिनमें सत्वगुण सहित रजोगुण प्रधान होता था। इन गुणों ने उन्हें शासक, नायक, निडर, नेतृत्ववान और दानवीर बनाया। उनके गुण सैन्य और नेतृत्व संबंधी कार्यों के अनुकूल थे और उन्होंने शासक वर्ग तैयार किया जिन्होंने देश पर शासन किया। फिर भी वे अनुभव करते थे कि ब्राह्मणों की तुलना में अन्य विद्वान पवित्र नहीं है इसलिए उन्होंने सदैव ब्राह्मणों का मान-सम्मान किया और वैचारिक, आध्यात्मिक और नीतिगत मामलों में उनसे परामर्श प्राप्त किया। क्षत्रिय में जो गुण होने चाहिए, उन का वर्णन पढ़ते है।

शौर्य – तेज से सम्पन्न व्यक्ति ही प्रजा का पालन एवं शासन करने में समर्थ होता है। जिस प्रभाव या शक्ति के सामने पापी दुराचारी मनुष्य भी पाप, दुराचार करने में हिचकते हैं, जिस के सामने लोगों की मर्यादा विरुद्ध चलने की हिम्मत नहीं होती अर्थात् लोग स्वाभाविक ही मर्यादा में चलते हैं उसका नाम तेज है।

धृति अर्थात धारणाशक्ति, जिस शक्ति से उत्साहित हुए मनुष्य का सभी अवस्थाओं में अनवसाद ( नाश या शोक का अभाव ) होता है एवम लक्ष्य को दृढ़ता से धारण करना धृति है। मार्ग में कितने ही विघ्नों के आने पर भी अपने पथ से विचलित न होने के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है, जिसे ही धृति कहते हैं।

दाक्ष्य अर्थात् दक्षता। सैनिक प्रशिक्षण की भाषा में इसे सावधान का आदेश कहा जाता है। दक्षता का अर्थ है सहसा प्राप्त हुए बहुतसे कार्यों में बिना घबड़ाहट के प्रवृत्त होने का स्वभाव । युद्धे चाप्यपलायनम्  युद्ध में न भागना शत्रु को पीठ न दिखाने का भाव। प्राप्त परिस्थिति का तत्काल और यथार्थ मल्यांकन करने की क्षमता। इसमें निर्णय के अनुसार तत्काल उसे कार्यान्वित करने की क्षमता का भी समावेश है। एक सच्चे क्षत्रिय की दक्षता अन्य लोगों के लिए ईर्ष्या का विषय बन जाती है। युद्ध से अपलायन उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न पुरुष जीवन संघर्षों में सहज ही अपनी पराजय स्वीकार नहीं कर लेता। दक्षता तुरंत निर्णय लेने की क्षमता को भी कहते है।

यहाँ युद्ध शब्द का वाच्यार्थ ही नहीं लेना चाहिए। जीवन में जो भी कठिन परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, उन सब का साहस के साथ सामना करना यहाँ अभिप्रेत है।

न्याय लक्ष्य के विरुद्ध खड़ी होने वाली परिस्थितियों से पलायन न करना क्षत्रिय का धर्म है।

दान कोई भी शासन या राजा तभी लोकप्रिय बनता है, जब वह मुक्तहस्त से दान करता है। वर्तमान समय में भी सभी प्रजातान्त्रिक राज्यों की सरकारें अपने बजट में कुछ धन की मात्रा सुरक्षित रखती हैं, जिस पर किसी प्रकार का विवाद या मतदान नहीं होता। क्षत्रिय पुरुष के कृपण होने पर उसे अपने कार्य में सफलता नहीं मिल सकती, क्योंकि उसकी सफलता उसके मित्रों एवं समर्थकों की संख्या पर निर्भर करती है। एक न्यायप्रिय क्षत्रिय को दयापूर्वक असहाय लोगों की मुक्तहस्त से सहायता करनी चाहिए।

ईश्वरभाव अपनी सार्मथ्य पर दृढ़विश्वास के बिना कोई भी पुरुष शासन नहीं कर सकता। प्रजा के नेता में इतना दृढ़ आत्मविश्वास होना चाहिए कि उसके विश्वास से अन्य दुर्बल हृदय के लोगों का भी आत्मविश्वास जागृत हो उठे। इस प्रकार का ईश्वर भाव एक क्षत्रिय के लिए आवश्यक गुण है। उसकी शक्तिशाली उपस्थिति से ही आसपास के वातावरण में विद्युत् शक्ति कासा संचार हो जाना चाहिए।

क्षत्रिय के स्वभाव में न्याय प्रियता,  प्रजा पालन, अपने प्राणों के प्रति जन जन के कार्य के लिये मोह न होना आदि ऐसे गुण होते है जो पूर्व जन्म के स्वाभाविक गुण होते है एवम उसे योग्य मार्गदर्शन में ब्राह्मण की आवश्यकता होती है।क्योंकि सात्विक गुण इन दोनों में ही है, इसलिए यह श्रेष्ठ वर्ण माने गए है किन्तु वंश या जन्मजात नही। क्षत्रिय का शाब्दिक अर्थ हमेशा युद्ध के तैयार मनुष्य को समझना गलत ही होगा। क्षत्रिय प्रजापालक, दुसरो की सहायता करने वाला, दानी एवम शौर्य एवम तेज से बहादुरी एवम साहस भरा, निर्भय जीवन व्यापन करने वाले मनुष्य होते है। आज देश का नेतृत्व करने वाले राजनेताओं में इन्ही गुणों की जरूरत है परंतु समय काल मे यह लोग अपने गुण छोड़ कर वैश्य एवम शुद्र गुण में सम्मलित हो गए। जिन्हें हम आगे पढ़ते है। यहां यह कहना भी अनुचित नही होगा कि कर्म, पद एवम योग्य वर्ण गुण युक्त मनुष्य सामाजिक व्यवस्था के योग्य चुनाव का आधार होना चाहिये, जो देश, धर्म एवम मानव जाति के  उद्धार के लिये आवश्यक है।

उपर्युक्त गुणों को क्षात्र कर्म कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि एक क्षत्रिय पुरुष को इन गुणों को सम्पादित करके इन्हें धारण करना चाहिए। लौकिक सत्ता के धारक नेता अध्यात्म के पथ प्रदर्शक नहीं बन सकते। परन्तु एक सच्चे शासक में यह सूक्ष्म क्षमता होनी चाहिए कि वह आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को अपनी शासन प्रणाली में सम्मिलित कर सके और राष्ट्र के विविध कार्यक्षेत्रों में उन्हें व्यवहारिक रूप प्रदान कर सके।

अर्जुन क्षत्रिय गुणों से युक्त है, युद्ध भूमि में खड़ा है और मोह और भय से सन्यास की बात कर रहा है तो उस का सन्यास सफल नहीं हो सकता। व्यवहार में जो लोग आप का नेतृत्व करने के लिए नेता गिरी कर रहे है, वे वास्तव में व्यवसाय के स्वरूप में नेतागिरी को जनसेवा की बजाय धन बटोरने का मार्ग चुनते है तो निश्चित ही वे जनता को विभिन्न प्रलोभन देते है जिस से लोभ और क्षणिक लाभ से लोग उन्हें चुन ले। किंतु ऐसे चुने हुए लोग क्षत्रिय गुणों के अभाव में शासन करने की योग्यता नहीं रखते और अन्य गुणों के लोगो का सम्मान भी करते, इस से देश, समाज और परिवार की आध्यात्मिक, राजनैतिक, आर्थिक और सुख समृद्धि की उन्नति नहीं हो सकती। देश इन के हाथों सुरक्षित भी नहीं रह सकता।

अब आगे वैश्य और शूद्र के स्वाभाविक कर्म पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.43 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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