।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.42 II
।। अध्याय 18.42 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.42॥
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥
“śamo damas tapaḥ śaucaḿ,
kṣāntir ārjavam eva ca..।
jñānaḿ vijñānam āstikyaḿ,
brahma- karma svabhāva- jam”..।।
भावार्थ:
अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में देखना चाहिए) रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं ॥४२॥
Meaning:
Restraint of mind and sense organs, penance, purity, forgiveness, and also, knowledge, wisdom and faith, these are the natural duties of a braahman.
Explanation:
Those who possessed predominantly sāttvic natures were the Brahmins. Their primary duties were to undertake austerities, practice purity of mind, do devotion, and inspire others by their examples. Thus, they were expected to be tolerant, humble, and spiritually minded. They were expected to perform Vedic rituals for themselves and for the other classes. Their nature inclined them toward a love for knowledge. So, the profession of teaching—cultivating knowledge and sharing it with others—was also suitable for them. Although they did not participate in the government administration themselves, they guided the executives. And because they possessed wisdom of the scriptures, their views on social and political matters were greatly valued.
Sant Raidas was a cobbler. Sant Tukaram was a farmer. Mirabai was a princess. Sant Namdev came from a family of tailors. Swami Vivekananda was born into an aristocratic family. Sant Chokhamela came from a family that was treated as untouchable. Although all these saints came from different occupations and externally imposed castes, their mental makeup, was that of a braahman. Shri Krishna says that one who is born with, or comes to imbibe, a certain set of qualities and a certain kind of mental makeup, acts according to that mental makeup, and therefore is a braahman.
Restraint of mind and senses is seen in actions of braahmans. They never get agitated or perturbed even in the worst of situations. They have an immense capacity to bear and withstand these situations, which comes from leading a life of austerity and penance. Their mind is pure since it does not entertain thoughts of selfishness or hatred. Any mental or physical harm caused by someone else is instantly forgiven. They are extremely straight forward in their dealings with the world, since their mind, speech and actions are in line with each other.
Every action performed by a braahmana comes out of knowledge and discrimination. They never perform actions thoughtlessly or carelessly. This knowledge is not purely academic, it becomes wisdom due to the braahman’s ability to apply it to practical situations. Braahmanas also have faith in the teachings of the scriptures, regardless of whether they have learned formally, or have firsthand experience of those teachings. Broadly, all these characteristics are the product of a high degree of sattva in the mind, and only a tinge of rajas and tamas.
।। हिंदी समीक्षा ।।
जातियां जन्म पर आधारित है, इसलिए लोग जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र के रूप में अनेक किस्म के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र हो गए। किंतु वर्ण व्यवस्था गुणों पर आधारित है, इसलिए वर्ण व्यवस्था में चार ही वर्ण आज भी वैसे ही कायम है। किंतु वर्ण व्यवस्था के गुणों को न तो लोग धारण कर सके और जातियों और धर्म के आधार पर बटते भी चले गए। आज वर्ण व्यवस्था से यदि आकलन करे तो कदाचित अपने को जाति और जन्म के हिसाब से ब्राह्मण या क्षत्रिय माननेवाले अधिकांशत: वैश्य या शुद्र ही नजर आएंगे। यह वर्गीकरण कर्म, स्वभाव और आचरण पर आधारित है, इसलिए सभी मतों और धर्म के अनुयायियों पर लागू होता है।
सात्विक गुणों की प्रधानता से संपन्न लोग ब्राह्मण कहलाते थे। उनके मुख्य कार्य तपस्या करना, मन की शुद्धि का अभ्यास करना, भक्ति करना और दूसरों को अपने आदर्शों से प्रेरित करना था इसलिए उनमें सहिष्णुता, विनम्रता और आध्यात्मिक मनोवृति की उपेक्षा की जाती थी। उनसे स्वयं अपने और अन्य वर्गों के लिए वैदिक अनुष्ठानों का निष्पादन करने की अपेक्षा की जाती थी। उनकी प्रकृति उन्हें ज्ञान के प्रेम की ओर प्रवृत्त करती थी। इसलिए शिक्षा प्रदान करना और ज्ञान पोषित करना तथा इसे सब के साथ बांटना भी उनकी वृत्ति के अनुकुल था। यद्यपि वे स्वयं राज्य के प्रशासनिक कार्यों में भाग नहीं लेते थे लेकिन वे अधिकारियों को मार्गदर्शन प्रदान करते थे। चूंकि वे शास्त्रों के ज्ञान से संपन्न थे इसलिए सामाजिक और राजनीतिक विषयों के संबंध में उनके विचारों का अति महत्व था।
संत रैदास मोची थे। संत तुकाराम किसान थे। मीराबाई राजकुमारी थीं। संत नामदेव दर्जी परिवार से थे। स्वामी विवेकानंद का जन्म एक कुलीन परिवार में हुआ था। संत चोखामेला एक ऐसे परिवार से थे, जिसे अछूत माना जाता था। हालाँकि ये सभी संत अलग-अलग व्यवसायों और बाहरी रूप से थोपी गई जातियों से थे, लेकिन उनकी मानसिक बनावट ब्राह्मण जैसी थी। श्री कृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति एक निश्चित प्रकार के गुणों और एक निश्चित प्रकार की मानसिक बनावट के साथ पैदा होता है, या उसे ग्रहण करता है, वह उस मानसिक बनावट के अनुसार कार्य करता है, और इसलिए वह ब्राह्मण है।
चातुर्वर्ण में सर्वप्रथम ब्राह्मण का पद आता है, जिस का वास्तविक अर्थ ब्रह्मविद होना ही है। जब मनुष्य अपने आचरण, कर्म, अन्तःकरण, ज्ञान-विज्ञान से तत्वविद हो जाता है तो उस मे यह क्षमता आ जाती है कि वह सामाजिक एवम सांस्कृतिक व्यवस्था में मार्गदर्शन करें। इसलिये भगवान श्री कृष्ण ब्राह्मण के गुण क्या होने चाहिए बताते हुए कहते है।
शम – मन को जहाँ लगाना चाहें, वहाँ लग जाय और जहाँ से हटाना चाहें, वहाँ से हट जाय, इस प्रकार मन के निग्रह को शम कहते हैं। अर्थात अंत:करण को वश में कर के उसे विक्षेप रहित शांत बना लेना तथा सांसारिक विषयो के चिंतन का त्याग करना ही शम है।
दम – जिस इन्द्रिय से जब जो काम करना चाहें, तब वह काम कर लें और जिस इन्द्रिय को जब जहाँ से हटाना चाहें, तब वहाँ से हटा लें — इसी प्रकार इन्द्रियों को वश में करना दम है। इस प्रकार इंद्रियां बाह्य विषयो से हट कर परमात्मा की ओर लग जाती है।
तप – गीता में शरीर, वाणी और मन के तप का वर्णन आता है, उस तप को लेते हुए भी यहाँ वास्तव में तप का अर्थ है, अपने धर्मका पालन करते हुए जो कष्ट हो अथवा कष्ट आ जाय, उसको प्रसन्नतापूर्वक सहना अर्थात् कष्ट के आने पर चित्त में प्रसन्नता का होना। अहिंसा, त्याग, उपवास, सादगी और साधना तप के अंतर्गत आती है।
शौच – अपने मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि को पवित्र रखना तथा अपने खानपान, व्यवहार आदि की पवित्रता रखना – इस प्रकार शौचाचार आंतरिक एवम बाह्य सदाचार का ठीक पालन करने का नाम शौच है। क्षान्ति – कोई कितना ही अपमान करे, निन्दा करे, दुःख दे और अपने में उस को दण्ड देने की योग्यता, बल, अधिकार भी हो, फिर भी उसको दण्ड न देकर उसके क्षमा माँगे बिना ही उसको प्रसन्नतापूर्वक क्षमा कर देनेका नाम क्षान्ति है।
आर्जव – शरीर, वाणी आदि के व्यवहार में सरलता हो और मन में छल, कपट, छिपाव आदि दुर्भाव न हों अर्थात् सीधा सादापन हो, उसका नाम आर्जव है।
ज्ञान – वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि का अच्छी तरह अध्ययन होना और उन के भावों का ठीक तरह से बोध होना तथा कर्तव्य अकर्तव्य का बोध होना ज्ञान है। यह विश्वास और समझ का विषय है।
विज्ञान – यज्ञ में स्रुक्, स्रुवा आदि वस्तुओं का किस अवसर पर किस विधि से प्रयोग करना चाहिये – इस का अर्थात् यज्ञविधि का तथा अनुष्ठान आदि की विधि/का अनुभव कर लेने का नाम विज्ञान है।
आस्तिक्य – परमात्मा, वेदादि शास्त्र, परलोक आदि का हृदय में आदर हो, श्रद्धा हो और उन की सत्यता में कभी सन्देह न हो तथा उन के अनुसार अपना आचरण हो, इस का नाम आस्तिक्य है।
किसी भी ब्राह्मण में यह जन्मजात गुण हो संभव नही, मात्र उच्च कुल में जन्म होना पूर्वजन्मों के कर्मों का फल हो सकता है और घर परिवार के उचित वातावरण में इन गुणों का अंतकरण में विकास होना भी सरल हो सकता है किंतु जब तक तत्वविद की स्थिति न हो तो उसे जन्म ब्राह्मण कुल में लेने के बाद भी ब्राह्मण नही कह सकते है। रावण सब प्रकार से संपन्न, विद्वान ब्राह्मण होने के बावजूद अपनी आसक्ति एवम कामनाओं पर विजय नहीं प्राप्त कर सका। हम यह भी कह सकते है कि यह सब गुण सात्विक गुण होते है, जो इन्हे धारण करता है, वह ब्राह्मण होगा। तीन गुणों से युक्त प्रकृति में सभी गुण पृथक पृथक नही होते। तथा इन का अभाव अर्थात विपरीत गुण भी विद्यमान होगा। इसलिए ब्राह्मण होने का अर्थ इन गुणों की अधिकता और अन्य गुणों की न्यूनता से लेना चाहिए।
सृष्टि की रचना में जीव ने प्रकृति के संयोग से जन्म लिया, फिर उस मे चातुर्वर्ण का वर्गीकरण सामाजिक व्यवस्था के लिये गुण एवम कर्मो के आधार पर किया गया, कालांतर में यह जन्मजात बना देने से सामाजिक अभिशाप बनता जा रहा है। आज जाति-वर्ण का भेद राजनीतिक लाभ के लिये स्पष्ट नही किया जा रहा, जिस को आध्यात्मिक संस्थाओं ने कर्तव्य धर्म के अनुसार सही करना चाहिये। किन्तु अधिकांश संस्थाएं स्वयं आसक्ति, कामनाओं एवम लोभ से जनित होने से, भौतिक एवम आर्थिक लाभ के लिये धर्म एवम चातुर्वर्ण की सही व्याख्या नही कर पा रही।
सभी गुणों में ज्ञान के साथ विज्ञान भी जोड़ा गया है। ब्राह्मण कोई पूजा पाठी, यज्ञ तप करने वाले मनुष्य को नही कह सकते, वरन जिस ने प्राकृतिक अन्वेषण एवम तकनीकी ज्ञान को भी उन्नत किया हो, वह ही ब्राह्मण है। पुराणों में भी ऋषि मुनि अनेक आर्यवेदिक, शस्त्रीय एवम भौतिक विज्ञान में निपुण लोग थे।
ज्ञान इस शब्द से यहाँ शास्त्रों का ज्ञान इंगित किया गया है। इसमें शास्त्र के सिद्धांत, भौतिक जगत्, जगत् का अनुभव करने वाली उपाधियाँ तथा उनके धर्म और कार्य, जीवन का लक्ष्य इत्यादि का सैद्धांतिक ज्ञान समाविष्ट है।विज्ञान उपनिषत्प्रतिपादित आत्मज्ञान का अनुभव स्वानुभव कहलाता है। ज्ञान का उपदेश दिया जा सकता है, परन्तु विज्ञान का नहीं। स्वसंवेद्य आत्मा का अनुभव अन्य व्यक्ति के द्वारा दिया जाना असंभव है। इसके लिए ब्राह्मण को स्वयं ही प्रयत्न करना होगा। आस्तिक्य वेदान्त प्रमाण में श्रद्धा हुए बिना उसमें उपदिष्ट लक्ष्य में आस्तिक्य भाव उत्पन्न नहीं हो सकता और इस आस्तिकता के बिना उपर्युक्त किसी भी कर्म को करने में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अत इस श्रद्धा का होना अनिवार्य है। श्रद्धा से ज्ञान और तत्पश्चात् ज्ञान से विज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।
सारांश में ब्राह्मण उसे ही मान सकते है जो संसार का मार्गदर्शन दार्शनिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवम भौतिक ज्ञान-विज्ञान से निष्काम भाव से कर्म करता हुआ कर सके। वह निरंतर संपूर्ण सृष्टि का विकास कैसे हो, उस पर अनुसंधान करे और जन जन का मार्ग दर्शन करे। ब्राह्मण व्यापार नही करता, इसलिए उस की रक्षा, पालन और सेवा का भार अन्य गुणों से युक्त जीवो पर दे दिया। समर्पित जीवन व्यतीत करने के कारण उसे चातुर्य वर्ण व्यवस्था में श्रेष्ठ स्थान भी दिया है। जो जीव लोभ, स्वार्थ, काम,आसक्ति आदि दुर्गुणों से युक्त होगा, वह जन्म चाहे ब्राह्मण कुल में रहे, उसे ब्राह्मण नही कह सकते। रावण जन्म ब्राह्मण था, किंतु कर्म से नीच, इसलिए क्षत्रिय कुल में जन्म ले कर भगवान राम ने उसे मारा।
ब्राह्मण जन्म से उत्पन्न नही होता किंतु पूर्व जन्म के संस्कारों से वह ऐसे कुल में अवश्य जन्म लेता है, जहां उसे उच्च कोटि के संस्कार और ज्ञान मिले। किंतु यदि उस की बुद्धि दूषित हो जाए तो उच्च कुल में जन्म ले कर भी वह निम्न कोटि का तामसी या राजसी बन जाता है, जब की श्रद्धा, भक्ति, विश्वास से अज्ञानी तामसी व्यक्ति जैसे रैदास जी, रहीम जी, कबीर, बाल्मिकी, अंगुलीमार आदि भी ब्राह्मण हो जाते है।
आगे क्षत्रिय के गुण धर्म को पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 18.42 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)