।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.41 II Additional II
।। अध्याय 18.41 II विशेष II
।। सनातन संस्कृति और वर्ण व्यवस्था ।। गीता विशेष 18.41 ।।
गीता के आरम्भ में जीव के उद्देश्य मोक्ष के लिए दो मार्ग प्रवृति और निवृति को बताया गया था। प्रवृति अर्थात कर्म करते हुए, आत्मशुद्धि को प्राप्त करना। निवृति का अर्थ है कर्म को त्याग कर आत्मशुद्धि को प्राप्त करना। प्रवृति कर्मयोग का शास्त्र है जो निवृति अर्थात सन्यास योग की अपेक्षा सरल और सभी के लिए अपनाने योग्य है।
ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना करने के बाद यही कहा कि इस सृष्टि में जितना तुम प्रकृति को प्रदान करोगे, देवता उतना ही तुम्हे जीवन व्यापम के लिए सुख और समृद्धि के साथ वापस लौटाएंगे। हम सभी सृष्टि के ऋणी है, इसलिए हम सभी को सृष्टि में कुछ न कुछ योगदान देना ही पड़ता है। यह पर्याप्त नहीं है कि हम अपनी सफलता को इस आधार पर मापें कि हमने क्या पाया है। भौतिक विकास इस आधार पर मापा जाता है कि हमने क्या पाया है; बाहरी विकास इस आधार पर मापा जाता है कि हमने क्या पाया है, लेकिन आध्यात्मिक विकास या आंतरिक विकास इस आधार पर मापा जाता है कि हमने क्या दिया है। बाहरी विकास आपके अधिकार पर निर्भर करता है; आंतरिक विकास आपके अधिकार त्याग पर निर्भर करता है। बाहरी विकास आपके भोग पर निर्भर करता है और आंतरिक विकास आपके त्याग पर निर्भर करता है।
कृष्ण कहते हैं कि आप हर क्षेत्र में योगदान नहीं कर सकते, क्योंकि आपके पास क्षमता नहीं है और अगर आप हर क्षेत्र में योगदान करने की कोशिश करेंगे, तो केवल भ्रम ही होगा। इसलिए एक क्षेत्र चुनें और अपनी क्षमता के अनुसार उस में योगदान दें और क्षेत्र को अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार चुनें। अपने गुण के आधार पर, चाहे सत्व गुण प्रमुख हो, रजो गुण प्रमुख हो या तमो गुण प्रमुख हो, अपने गुण या चरित्र या रुचि या योग्यता के आधार पर, कार्य का कोई भी क्षेत्र चुनें और कुछ करें।
वहाँ पुरुष सूक्तम् कहता है: एक व्यक्ति के पास स्वयं चार अंग होते हैं जिन्हें चार समूहों के बराबर माना जा सकता है। इसलिए सिर ब्राह्मण की तरह है, जो ज्ञान की गतिविधियों, सात्विक गतिविधियों का ध्यान रखता है, और हाथ क्षत्रिय की तरह हैं, जो रक्षा गतिविधि और अन्य प्रकार की गतिविधियों का ध्यान रखते हैं, और जांघें वैश्य की तरह हैं, जो व्यक्ति को खड़े रहने के लिए सहारा देती हैं। देश के जीवित रहने के लिए अर्थव्यवस्था का अच्छी तरह से विकास होना चाहिए और फिर पैर शूद्र के बराबर हैं। पैर व्यक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं और इस तुलना से, वेद कहता है यह सभी चार गतिविधियाँ समान रूप से पवित्र हैं। सिर की गतिविधि, हाथों की गतिविधि, जांघ की गतिविधि और पैर की गतिविधि, सभी चार व्यवसाय समान रूप से पवित्र हैं; कभी भी किसी एक व्यवसाय को श्रेष्ठ न कहें।
अगर सभी पेशे समान हैं तो मैं किस आधार पर अपना पेशा चुनूं, यही मूल मुद्दा है, मुझे कोई न कोई पेशा चुनना ही होगा, पेशा वह क्षेत्र है जिसके माध्यम से मैं समाज में योगदान देता हूं। मुझे कौन सा पेशा चुनना चाहिए, यही सबसे बड़ी समस्या है।
पेशा चुनने में तीन संभावनाएँ या मानदंड हैं।
1. एक मानदंड वह पेशा हो सकता है जिसे आप पसंद करते हैं; जिसमें आपका झुकाव है; योग्यता है; इसे कर्म या पेशे का गुण आधारित चुनाव कहते हैं।
2. और दूसरा मानदंड है जन्म आधारित पेशे का चुनाव, वंशानुगत पेशा, अगर पिता व्यवसायी है, कई व्यवसायों में ऐसा होता है; बच्चा भी, उन्हें बस थोड़ी शिक्षा मिलती है और वे पिता के साथ जाने लगते हैं और धीरे-धीरे वह भी व्यापार के गुर सीख जाता है, वंशानुगत पेशा चुनता है।
3. और तीसरा विकल्प है पैसे और सुविधा के हिसाब से जाना? कौन सा पेशा मुझे अच्छा वेतन देता है, जिसमें ज्यादा कमाई हो सकती है। यह तीसरा विकल्प है।
हमारी परंपरा के अनुसार, वे कहते हैं कि सबसे अच्छा मानदंड गुण मानदंड है। स्वभाव के हिसाब से जाना सबसे अच्छा है क्योंकि फायदा यह है कि जब मुझे जो करना पसंद है, मैं उसे करने में आनंद लेता हूँ। मैं अपना दिल और आत्मा लगाता हूँ। मुझे वेतन की भी बहुत ज्यादा चिंता नहीं होगी। मैं दूसरे लोगों की स्वीकृति की भी परवाह नहीं करता। इसलिए जब आप अपने पेशे से प्यार करते हैं तो यह पूर्णता है; एक कर्ता के रूप में, आपको फल मिलता है। आप भविष्य के परिणाम की प्रतीक्षा नहीं करते हैं, आप आनंद लेने के लिए भोक्ता नहीं बनना चाहते हैं। गुण के अनुसार चलते हैं लेकिन समस्या यह है कि बहुत से लोग नहीं जानते कि अपने गुण का निर्धारण कैसे करें; वे भ्रमित हैं।
यदि अपना कर्म क्षेत्र स्वभाव के आधार पर चुनना है, तो सवाल यह उठेगा कि मुझे किस तरह का पेशा अपनाना चाहिए? भगवान कृष्ण कहते हैं कि सभी पेशे समान रूप से महान हैं। कोई भी पेशा श्रेष्ठ या निम्न नहीं है, क्योंकि सभी पेशे शरीर के विभिन्न अंगों के विभिन्न कार्यों की तरह हैं। एक जीव में, जिस तरह अलग-अलग अंग होते हैं, जो अलग-अलग कार्य करते हैं, पूरा समाज एक विशाल जीव की तरह है, और लोगों का कोई भी समूह, किसी भी प्रकार का पेशा अपनाता है, वह समाज का एक अंग है, विशाल जीव है और चूंकि सभी पेशे समान रूप से पवित्र हैं, इसलिए सवाल यह उठेगा कि मुझे कौन सा पेशा अपनाना चाहिए। कृष्ण कहते हैं कि प्राथमिक मानदंड आपका स्वभाव होना चाहिए। अपने स्वभाव, या गुण या झुकाव के अनुसार, पेशा चुनें, क्योंकि यदि आपका पेशा और स्वभाव एक ही पंक्ति में हैं, तो आप उस पेशे से प्यार करेंगे।
यह आपके व्यक्तित्व में तनाव नहीं लाएगा; आप अपने पेशे से नफरत नहीं करेंगे; आप सप्ताहांत का इंतजार नहीं करेंगे, आप सप्ताह के दिनों का इंतजार करेंगे और इसलिए स्वभाव आधारित पेशे का चुनाव, सब से अच्छा है और अगर आप ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं, अगर आप भ्रमित हैं और आप नहीं जानते कि आपका स्वभाव क्या है, वो मेरा स्वभाव है अगर उसके पास है, वो क्या है? संदेह करना, संदेह करना मेरा स्वभाव है और संदेह क्या है? मेरा स्वभाव क्या है, संदेह क्या है? क्या करें? और मुझे लगता है कि आज मैं सात्विक हूं, कल मैं राजसिक हूं, आज व्यापार करना अच्छा है; कल किसी के अधीन काम करना अच्छा है; सभी भ्रम और फिर हम कहते हैं कि अगर आप चुनने में सक्षम नहीं हैं, तो वंशानुगत जाओ, और जो भी पारंपरिक पेशा रहा है, आप उसे अपनाते हैं, क्योंकि आपके पास आपके माता-पिता और दादा-दादी द्वारा बनाया गया वातावरण है। तो या तो स्वभाव आधारित या जाति आधारित वंशानुगत। एक समय था जब ब्राह्मण जन्म से पुरोहिताई करते थे; क्षत्रिय जन्म से प्रशासन करते थे; वैश्य जन्म से व्यापार करते थे, लेकिन अब फिर से वही व्यवस्था चल रही है, लेकिन विचार यह है कि स्वभाव मानदंड सबसे अच्छा है; इसलिए कृष्ण ने कहा कि गुणों के आधार पर, प्रकृति के आधार पर व्यवसायों को वर्गीकृत किया जाता है। और इन सभी व्यवसायों को मोटे तौर पर चार प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है, ब्राह्मण कर्म, क्षत्रिय कर्म, वैश्य कर्म और शूद्र कर्म।
जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था, जो आजकल प्रचलित है, वह जातिगत व्यवस्था है। जातिगत व्यवस्था जन्म पर आधारित होने से वर्ण व्यवस्था नहीं हो सकती। जाति या जन्म से स्वभाव तय नहीं होता, इसलिए प्राचीन काल में प्रत्येक जीव को अपना वर्ण चुनने का अधिकार भी था। वर्ण व्यवस्था में भेदभाव और ऊंच नीच भी नहीं हो सकती। इसलिए रैदास और बाल्मिकी जैसे ऋषि बने और रावण और कंस उच्च कुल में नीच गुणों से युक्त हुए।
सनातन संस्कृति दार्शनिक विचारधाराओं में मनन और चिंतन की संस्कृति है जिस में प्रकृति, पुरुष, ब्रह्म और परमात्मा के स्वरूप में संपूर्ण सृष्टि के सत्य को जानने की चेष्टा की। जो संस्कृति सत्य पर आधारित हो, उस में जाति वाद या असत्य की बात कैसे होगी। संपूर्ण सनातन सस्कृति जीव कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करती है, अतः इस में ऊंच – नीच, भेद – भाव की बाते हो ही नही सकती।
सनातन संस्कृति में वेदांत के अनुसार परमात्मा के संकल्प से यह सृष्टि की रचना हुई, जिसे परमात्मा के अंतर्गत प्रकृति अपने त्रियामी गुण सात्विक, राजसी और तामसी से माया द्वारा संचालित करती है। एक ही परमात्मा प्रत्येक जीव के हृदय में निवास करते हुए, अपने 24 तत्व से प्रकृति के अंतर्गत क्रिया करता है। फिर सभी कुछ एक ही है तो हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था में भेद भाव का भाव कैसे और क्यों आया, इसे समझना जरुरी है।
वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘वृ’ वरणे धातु से हुई है, जिसका अर्थ है ‘चुनना’ या ‘वरण करना’। सम्भवतः ‘वर्ण’ से तात्पर्य ‘वृति’ या किसी विशेष व्यवसाय के चुनने से है। समाज शास्त्रीय भाषा में ‘वर्ण’ का अर्थ ‘वर्ग’ से है, जो अपने चुने हुए विशिष्ट व्यवसाय से आबद्ध है। वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत समाज का चार भागों में कार्यात्मक विभाजन किया जा सकता है, यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। साधारणतया लोग वर्ण एवं जाति को एक ही मान लेते हैं और एक ही अर्थ में इन दोनों का प्रयोग भी करते हैं, यह पूरी तरह से अनुपयुक्त है। दोनों अवधारणायें एक दूसरे से अलग हैं।
दैवी सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति:
वर्ण-व्यवस्था के उत्पत्ति से सम्बन्धित दैवी सिद्धान्त के अनुसार चारो वर्णो की उत्पत्ति हुई है। मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। वर्ण का अर्थ रंग भी होता है। आर्य श्वेत वर्ण के और आर्येतर कृष्ण वर्ण के थे। रंग के आधार पर आर्य एवं अनार्य अथवा शूद्र दो ही वर्ण थे। पुनः आर्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य तीन वर्ण हो गये इसके पीछे क्या सिद्धान्त था यह स्पष्ट नहीं है।
गुणों के आधार पर वर्ण-व्यवस्था
गुणों के अनुसार वर्ण व्यवस्था में सत्वगुण की प्रधानता वाले वर्ण ब्राह्मण हैं, जिन में रजोगुण की प्रधानता है वे क्षत्रिय हैं और जिन में रजस् और तमस् की प्रधानता होती है वो वैश्य हैं। केवल तमस् गुण की प्रधानता वाले शूद्रवर्ण हैं। वर्ण विभाजन पहले व्यक्तिगत एवं मुक्त था। वर्ण-परिवर्तन सरल और सम्भव था, जो बाद में धीर-धीरे जटिल होता गया। पुराणों में भी कर्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है तथा यह माना गया है कि पूर्व जन्म के कर्मों के परिणामस्वरूप ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उत्पन्न हुए।
वर्ण-व्यवस्था चिरकाल से हमारे सनातन धर्म में है। ये अति प्राचीन है किन्तु आधुनिक काल में कुछ अल्पबुद्धि व्यक्तियों ने वर्ण का अपभ्रंश कर उसे जाति के रूप में परिभाषित कर लिया जिससे ऊंच-नीच की समस्या उत्पन्न हुई, अन्यथा हिन्दू धर्म में ऊँचा-नीचा, इस प्रकार का कोई स्तर है ही नहीं। जो चार वर्ण हमारे समाज में सदा से हैं वे है – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। और ये सदैव स्मरण रखें कि ये चारो वर्ण बिलकुल समान हैं। इसमें किसी प्रकार का अंतर नहीं है। इस के अतिरिक्त जाति में यदि हम विभेद भी करते है तो वह देव जाति, राक्षस जाति, दैत्य जाति, यक्ष जाति, गन्धर्व जाति, नाग जाति इत्यादि होगा। उसी प्रकार “मनुष्य जाति” भी एक पृथक समूह है जिस में हम सभी समाहित होते हैं। किन्तु मनुष्य जाति के अंतर्गत किसी अन्य जाति का वर्णन हमारे किसी भी धर्मग्रन्थ में नहीं किया गया है।
समस्त सृष्टि की उत्पत्ति परमपिता ब्रह्मा से हुई है। उनके १६ मानस पुत्रों में से एक महाराज मनु से ही हमारा जन्म हुआ है इसी कारण हम मानव अथवा मनुष्य कहलाते हैं। हमारा यही विशाल समूह ४ भागों में बटा है जिन्हे वर्ण कहा जाता है। यह वैदिक सामाजिक व्यवस्था मानव समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव और प्राकृतिक गुण धर्म के अनुसार की गई, जिस से वह अपनी उन्नति सही स्वरूप में खोज सके। अतः इस व्यवस्था में मानव – मानव में कोई अंतर नही है।
अब यहाँ एक प्रश्न आता है कि यदि इन चारो वर्णों में कोई अंतर नहीं है तो फिर समाज को इन वर्णों में बाँटने की आवश्यकता ही क्यों थी, तो ये जान लें कि वर्ण व्यवस्था उचित सामाजिक संतुलन के लिए अति आवश्यक है। एक छोटे से उदाहरण के साथ इसे समझते हैं। हम सभी चाहे किसी भी स्थान पर कार्य करते हों वहाँ अलग-अलग विभाग होते हैं। उदाहरण के लिए एक कंपनी में चार विभाग हैं – आई.टी, सेल्स, एच.आर एवं सिक्योरिटी। चारो विभाग को चलाने हेतु अलग-अलग प्रबंधक नियुक्त किये गए हैं। अब चारो पद बिलकुल समान हैं, बस उनके दायित्व अलग-अलग हैं और ये इस कारण से है ताकि वो संगठन सुचारु रूप से चल सके। सोचिये कि यदि आई.टी मैनेजर सेल्स के काम में अथवा सिक्योरिटी मैनेजर एच.आर के काम में हस्तक्षेप करने लगे तो क्या वो कंपनी एक दिन भी चल पायेगी?
इस व्यवस्था को हम सभी ने अपने जीवन में देखा है। क्या हम ये कल्पना भी कर सकते हैं कि एक बड़े संगठन को बिना इस प्रकार विभागों में व्यवस्थित किये उसे सही ढंग से चलाया जा सकता है और उस से भी बड़ा प्रश्न ये कि क्या हम इन सभी विभागों में से किसी को ऊँचा या नीचा कह सकते हैं, ये सभी अलग हैं किन्तु समान रूप से महत्वपूर्ण हैं और अलग इसी कारण हैं ताकि उस संगठन को सुचारु रूप से चलाया जा सके। ये कोई पद नहीं है, केवल व्यवस्था है।
ठीक इसी प्रकार वर्ण कोई पद नहीं है, केवल व्यवस्था है और ये व्यवस्था इस कारण से बनाई गयी ताकि समाज सुचारु ढंग से चल सके।
वर्ण व्यवस्था के प्रकार
वर्ण से आशय समान व्यवस्था करने वाले व्यक्तियों के एक सामाजिक समूह से है। व्यवसाय व्यक्ति के गुण और कर्म पर निर्भर करता है। एक व्यक्ति में अनेक गुण हो सकते हैं, किन्तु व्यक्ति के व्यक्तित्व में उन गुणों के एक विशेष संगठन के रूप में प्रधानरूप से कौन सी शक्तियाँ कार्यरत हैं, वर्ण निर्धारण में मुख्यत: इस बात पर ध्यान दिया जाता है। प्रमुख गुण तीन हैं-सत् ,रज और तम। जिस व्यक्ति में रज और तम गुणों की तुलना में सत् प्रधान है वह ब्राह्मण है, रजो गुण प्रधानता का व्यक्ति क्षत्रिय, रजो और तमो मिश्रित गुण सम्पन्न व्यक्ति वैश्य और तमो गुण प्रधान शूद्र है। समाज को कार्यात्मक रूप से चार बड़े भागों में विभाजित किया गया है।ये चारो वर्ण ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं। कहा गया है –
ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तत्-अस्य यत्-वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायतः।। अर्थात:ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैरों से शुद्र उत्पन्न हुए।
इसके अतिरिक्त श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने कहा है –
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
अर्थात:गुण (सत, रज एवं तम) और कर्मों के विभागपूर्वक चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मैंने रचे हैं । इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी तू मुझे अकर्ता-अविकारी ही जान।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं –
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप। कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।
अर्थात:हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभावसे उत्पन्न हुए तीनों गुणों (सत, रज एवं तम) के द्वारा विभक्त किये गये हैं। इसका भाव ये भी है कि राजा का पुत्र राजा तभी बनेगा जब उसमें राजा बनने के गुण एवं लक्षण होंगे। श्रीराम केवल इस कारण राजा नहीं बनें कि वे दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र थे। वे इस कारण राजा बनें क्यूंकि उनमें राजा बनने के समस्त गुण एवं लक्षण थे।
आइये अब चारो वर्णों को संक्षेप में जान लेते हैं:
1.ब्राह्मण
मनु के अनुसार समाज में ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च है। मुख्य रूप से उसके छः कर्म थे – वेद पढ़ना, वेद पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना। दान लेने में उसका प्रयास यही होना चाहिए, कि वह दान न ले क्योंकि दान लेने से उसका ब्रह्म तेज कम हो जाता है। अन्त:करण की शुद्धि, इन्द्रियों का दमन, पवित्रता, धर्म के लिए कष्ट सहना, क्षमावान होना, ज्ञान का संचय करना तथा परमतत्व अर्थात सत्य का अनुभव करना ही ब्राह्मणों के परम धर्म हैं।
ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए (ब्रह्म + मन)। इन्हें परमपिता ने ज्ञान एवं शिक्षा का दायित्व दिया। इनका कार्य था कि समाज मे सभी व्यक्तियों को शिक्षित करना और ब्रह्मा से उत्पन्न मूल ज्ञान को समस्त जन (अन्य वर्णों) तक पहुंचना ताकि वे सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म में भेद कर सकें। चूँकि उन्हें ज्ञान बांटना था इसीलिए उन्होंने सर्वप्रथम ज्ञान अर्जित किया। भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण कहते हैं – शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिराजर्वमेव च। ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वाभावजम।। अर्थात, शम (मन को वश में करना), दम (इन्द्रियों का दमन), तप (तपस्या), शौच (शुद्धि), क्षान्ति (क्षमा), आर्जव (निष्कपट), ज्ञान (वेद), विज्ञान (आत्मज्ञान) एवं आस्तिक्य (ईश्वर में श्रद्धा) ये सब (९) ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण हैं।
2. क्षत्रिय
देश और समाज की रक्षा क्षत्रिय ही करते थे। उनका कार्य प्रायः युद्ध-पराक्रम और शौर्य प्रदर्शित करना था, इसलिए ऐसे वीर और पराक्रमी वर्ग को ‘क्षत्रिय’ कहा गया। क्षत्रियों का मुख्य गुण शौर्य, शासन और सैन्य संचालन था। ब्राह्मणों के समान ही क्षत्रियों को अध्ययन-अध्यापन का अधिकार था, किन्तु यज्ञ करने का अधिकार नहीं था।
क्षत्रिय ब्रह्मा के बाहु से उत्पन्न हुए जिन्हें ब्रह्मा ने समाज की रक्षा का दायित्व दिया। जिस प्रकार श्रीहरि विष्णु ब्रह्मा द्वारा रचित इस सृष्टि की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार क्षत्रियों का दायित्व है कि वे समाज के प्रत्येक व्यक्ति की रक्षा करे। चूँकि इन्हें सबकी रक्षा करनी थी इसी कारण इन्होंने शास्त्र के साथ शस्त्र शिक्षा लेनी भी आरम्भ की ताकि ये दुष्टों का प्रतिकार कर सकें। भगवद्गीता में कहा है – शौर्यं तेजो घृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनं। दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजं।।अर्थात, शौर्य (शूरवीरता), तेज (तेजस्वी), धृति (धैर्य), दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन ना करना, दान एवं ईश्वर भाव (करुणा) ये सब (७) क्षत्रिय के स्वाभाविक गुण हैं।
3. वैश्य
अर्थ-सम्बन्धी नीतियों का सारा संचालन वैश्य वर्ग करता है। अध्ययन, यजन और दान उसका परम कर्तव्य है।पाणिनि ने वैश्य के लिए ‘अर्थ’ शब्द का प्रयोग किया है। मनु ने मनुस्मृति में वैश्यों के भी सात धर्मों का उल्लेख किया है-पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्यापार करना, ब्याज पर धन देना तथा कृषि करना, वैश्यों के प्रमुख धर्म हैं।
कौटिल्य के अनुसार उसका प्रधान कर्म अध्ययन करना, यज्ञ करना और दान देना है। कालान्तर में वैश्य ने अध्ययन त्यागकर अपने को पूर्णरूप से व्यापार और वाणिज्य में लगाया। गौतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि अध्ययन, यजन, दानादि के कर्मों को त्यागकर वैश्य कृषि, वाणिज्य, पशुपालन और कुसीद जैसे धनार्जन के कार्यों में तल्लीन हो गये। महाभारत में भी कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य वैश्यों के स्वाभाविक कर्म माने गये हैं। कौटिल्य ने भी अध्ययन, यजन, दान, कृषि, पशुपालन और वाणिज्य वैश्यों का कर्म बताया है।
महाभारत के अनुसार वैश्यों का प्रमुख ध्येय धनार्जन करना है। मनु के अनुसार पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना और कृषि करना वैश्यों के कर्म थे। ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों की तरह वैश्यों को भी आपत्तिकाल में दूसरे वर्ण का कर्म करने की छूट प्राप्त थी।
वैश्य ब्रह्मा की जंघा से उत्पन्न हुए जिन्हें ब्रह्मा ने व्यापार, वित्त, वाणिज्य और उद्योग के प्रसार का दायित्व प्रदान किया। बिना अर्थ (धन) के कोई समाज उन्नति नही कर सकता इसी कारण इनका दायित्व व्यापार और धन का सृजन कर उसे समाज के कल्याण के लिए खर्च करना था। इसके अतिरिक्त समाज के अन्य वर्णों के व्यक्तियों को रोजगार प्रदान करने का दायित्व भी इनका था। भगवद्गीता में कहा है – कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजं।अर्थात, कृषि, गोपालन एवं वाणिज्य (व्यापार) ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं।
4. शूद्र
शूद्र चतुर्थ व सबसे अन्तिम वर्ण है और इसका एक मात्र धर्म अपने से उच्च तीनों वर्णों की बिना किसी ईर्ष्या-भाव के सेवा करना है। इन के अतिरिक्त सभी वर्णों के लिए, क्रोध न करना, सत्य बोलना, धन को बाँटकर उसका उपयोग करना, पत्नी से सन्तानोत्पत्ति, पवित्रता को बनाये रखना, क्षमाशील होना, सरल भाव रखना, किसी से द्रोह न करना तथा समस्त जीवों का पालन-पोषण करना आदि समस्त वर्णों के नौ सामान्य धर्म हैं, जिनका पालन करना प्रत्येक वर्ण के लिए अनिवार्य माना गया है।
वर्ण व्यवस्था की विशेषताएं
वर्ण व्यवस्था एक सामाजिक अवधारणा है।
शूद्र ब्रह्मा के चरण कमल से उत्पन्न हुए और ब्रह्मा ने इन्हें भूमि, अन्न एवं सेवा करने का दायित्व प्रदान किया। अन्न एवं भोजन के बिना कोई प्राणी जीवित नही रह सकता। सभी मनुष्यों को अन्न मिले इसका दायित्व शूद्रों पर था। बिना भूमि अन्न नहीं उपज सकता और भूमि पर अधिकार भी शूद्रों का ही होता था। भगवद्गीता में कहा है – परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजं।अर्थात, परिचर्या (सेवा एवं व्यवस्था/कार्य) करना शूद्रों का स्वाभाविक कर्म है। इसके अनुसार हम सभी जो नौकरी करते हैं वो शूद्र वर्ण के हैं, अतः इसकी महत्ता समझिये। शूद्र का अर्थ होता है – शुच + द्रअर्थात वो जिनके अंदर शुचि (पवित्रता) द्रवित अर्थात प्रवाहित होती हो। सोचिये इतने सुंदर भावार्थ को अज्ञानियों ने कितना कलुषित बना दिया। इसे थोड़ा ध्यान से पढियेगा क्योंकि आपत्ति इसी पर होती है।
कुछ लोगों को इस बात पर भी आपत्ति होती है कि पहले ब्राह्मण और अंत में शूद्र क्यों जन्में, कुछ इस पर भी आपत्ति करते हैं कि ब्राह्मण मस्तक से और शूद्र पैर से क्यों जन्में, वे जान लें कि ये वरीयता नहीं बल्कि केवल क्रम है। इसे ऐसे समझें: पहले क्रम पर शून्य से सर्वप्रथम ज्ञान की उत्पत्ति हुई। शरीर में भी सर्वप्रथम मन ही है जिससे ब्राह्मण का जन्म हुआ जिन्होंने ज्ञान का दायित्व संभाला। दूसरे क्रम पर उस ज्ञान की रक्षा हेतु शरीर के दूसरे क्रम, अर्थात भुजा से क्षत्रियों का जन्म हुआ। भुजाएं वीरता एवं शक्ति का प्रतीक भी मानी जाती है। किन्तु यदि ज्ञान ही उत्पन्न ना हुआ होता तो रक्षा किस की करते? अतः ज्ञान के बाद ही बल का क्रम आया। तीसरे क्रम पर अर्थ आया। जब ज्ञान का प्रकाश हुआ और उनकी रक्षा का दायित्व उठाया गया तब संसार को सुचारु रूप से चलाने हेतु शरीर के तीसरे क्रम ऊरु (जंघा) से अर्थ की प्राप्ति करने वाला वैश्य उत्पन्न हुआ। यदि रक्षा का प्रबंध ना हो तो अर्थ का लोप हो जाता है। इसी लिए इनका क्रम क्षत्रिय के बाद आया। चौथे और अंतिम क्रम पर अर्थ की उत्पत्ति के बाद शरीर के अंतिम क्रम पैर से भूमि के मापन एवं सञ्चालन के लिए शूद्र की उत्पत्ति हुई। यदि अर्थ ही ना हो तो भूमि और परिचर्या का क्या उपयोग?
अतः सदैव स्मरण रखें कि चारो वर्णों की उत्पत्ति का क्रम एवं अंग पूर्ण रूपेण विज्ञान पर आधारित है और हर कोई स्वयं के पिछले क्रम पर आधारित है और अंततः चारों वर्ण आश्चर्यजनक रूप से एक दूसरे के पूरक हैं अर्थात किसी भी एक वर्ण की अनुपस्थिति में अन्य तीन उपयोगहीन हो जाते हैं।
वर्ण व्यवस्था ने भारतीय समाज को चार वर्णो में बाँट दिया।चारो वर्णों के कार्य तथा कर्तव्य अलग-अलग थे। कार्यात्मक भिन्नता के आधार पर वर्णों की सामाजिक स्थिति भी भिन्न थी।
वर्ण का अर्थ चुनाव करने से है।
वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म नहीं, कर्म या व्यवस्था था। पूर्व वैदिक काल में वर्ण परिवर्तनीय था।
अब अंत में ये जान लेना आवश्यक है कि क्या कोई व्यक्ति जिस वर्ण में जन्में, सदैव वही रहता है अर्थात क्या ब्राह्मण सदैव ब्राह्मण और शूद्र सदैव शूद्र ही रहता है? नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है। हिन्दू धर्म में जो वर्ण व्यवस्था है वो जन्म नहीं अपितु स्वभाव जन्य और कर्म प्रधान है।जिस मनुस्मृति की कुछ अज्ञानी बुराई करते नहीं थकते, उसमें वर्ण व्यवस्था के विषय में क्या लिखा है वो भी देख लीजिये:
शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषूर्मृदुवागनहंकृत:। ब्राह्मणद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते।।
अर्थात:शुद्ध-पवित्र, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, सदा ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों की सेवा में संलग्न शूद्र भी उत्तम ब्रह्मजन्म के अतंर्गत दूसरे वर्ण को प्राप्त कर लेता है। यहाँ ब्रह्मजन्म कर अर्थ शिक्षित होने को कहा गया है। शिक्षित होने को दूसरा जन्म ही माना जाता है इसी कारण शिक्षित व्यक्ति को “द्विज”भी कहते हैं।
मनुस्मृति में आगे कहा गया है –
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।।
अर्थात:शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है। अर्थात गुण कर्मों के अनुकूल ब्राह्मण हो तो ब्राह्मण रहता है तथा जो ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के गुण वाला हो तो वह उसी वर्ण (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) हो जाता है। वैसे ही शूद्र भी मूर्ख हो तो वह शूद्र रहता है और उत्तम गुणयुक्त हो तो यथायोग्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य हो जाता है। उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य के विषय में भी समझना चाहिए।
संसार में एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जाने के कई उल्लेखनीय उदाहरण हैं, कुछ पर दृष्टि डालें:
1. रामायण के अनुसार महर्षि वाल्मीकि प्रचेता के पुत्र थे किन्तु रामचरितमानस के अनुसार वे जन्म से रत्नाकर नामक शूद्र थे जो अपने कर्मों से ब्राह्मणत्व को प्राप्त करते हैं।
2. परशुराम एवं द्रोणाचार्य जन्म से ब्राह्मण थे किन्तु कर्म से उन्होंने क्षत्रिय वर्ण को प्राप्त किया।
3. वेदव्यास जन्म से एक शूद्र माता की संतान थे किन्तु कर्म से उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। वे महर्षि केवल पराशर के पुत्र होने कारण नहीं अपितु अपने कर्म के कारण कहलाये।
4. श्रीकृष्ण के स्वसुर सत्राजित जन्म से क्षत्रिय थे किन्तु कर्म से वैश्य बने और कालांतर में शूद्र बनकर असीम भूमि प्राप्त की।
5. विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे किन्तु कर्म से उन्होंने ना केवल ब्राह्मणत्व को बल्कि उससे भी ऊपर ब्रह्मर्षि के पद को प्राप्त किया।
6. कर्ण जन्म से शूद्र थे (अपनी माता का परिचय ना जानने के कारण) किन्तु कर्म से क्षत्रिय बनें। वे जन्म से भी क्षत्रिय थे ये उन्हें अंत समय में ज्ञात हुआ।
7. कीचक जन्म से सूत (शूद्र) था किन्तु कर्म से क्षत्रिय वर्ण को प्राप्त हुआ।
8. राजा जनक जन्म से क्षत्रिय थे किन्तु कर्म से वे ब्राह्मण से भी ऊपर विदेह कहलाये।
9. शबरी जन्म से शूद्र थी किन्तु कर्म से ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।
10. एकलव्य जन्म से शूद्र था किन्तु कर्म से उसने क्षत्रिय वर्ण को प्राप्त किया।
अर्थात अपने कर्मों द्वारा व्यक्ति एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जा सकता था, इसपर कोई रोक टोक नही थी। जो वर्ण व्यवस्था इतनी सुचारु रूप से चलने वाली थी, कालांतर में कुछ लोगों ने अपने निहित स्वार्थ हेतु उसे जाति प्रथा में बदल दिया। ये भी बहुत अधिक पुरानी बात नहीं है। और तो और लोगों ने श्रीराम के चरित्र हनन के लिए शम्बूक वध जैसे प्रसंग जोड़े और गोस्वामी तुलसीदास के ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी दोहे के अर्थ का अनर्थ कर दिया। कुछ तथाकथित विद्वानों और समाज सुधारकों ने भी इस खाई को गहरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस पर अधिक नहीं लिख सकता क्यूंकि फिर ये विषय राजनितिक हो जाएगा।
तो अंत में यही कहना चाहूँगा कि जिन्हें ये मिथ्या धारणा है कि ब्राह्मण ऊँचे और शूद्र नीचे होते थे उन्हें ये जानना चाहिए कि ब्राह्मण वर्ण में जन्में मातंग ऋषि ने एक शूद्र शबरी को अपनी शिष्य बनाया और उनके सत्संग से शबरी ने भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। उन्ही के जूठे बेर स्वयं श्रीराम ने खाये। शूद्र वर्ण में जन्मे निषादराज गुह क्षत्रिय वर्ण में जन्मे श्रीराम के अभिन्न मित्र थे। जब ईश्वर ने प्राणीमात्र में अंतर नहीं माना तो हम अल्पबुद्धि मनुष्य कौन होते हैं उनमें अंतर करने वाले।
सनातन संस्कृति अपने उच्च स्तर में सभी के कल्याण के कार्य कर रही थी। किंतु जब अल्प ज्ञानी एवम मतांध लोगो से धन और अपने सीमित ज्ञान के विस्तार के लिए आक्रमण करना शुरू किया तो उस समय भारत वर्ष में सत से त्रेता, द्वापर और कलयुग का प्रभाव ही समझे या परमात्मा का विकल्प, मतों में विभिन्नता के लिए अर्थ का अनर्थ कुछ स्वार्थी, लोभी और अज्ञानी लोगो ने शुरू कर दिया। आज डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, वकील का बेटा वकील होता है, किंतु इस के लिए उसे पढ़ाई कर के परीक्षा पास करनी पढ़ती है, किंतु वर्ण व्यवस्था में गुण की व्यवस्था को गौण करते हुए, कुछ लोगो ने इसे जन्मांतर भी बना दिया और अपने स्वार्थ के लिए भेद भाव और ऊंच नीच के नियम भी बना दिए। इस के शास्त्रों और पुराणों तक भी अपभ्रंश तक कर दिया।
परिणाम स्वरूप हम लोगो अपने शास्त्र और वेद उपनिषद गलत तरीके के बिना पढ़े, समझने लगे। कर्म काण्ड, लोभ, धन, सांसारिक विलासिता को अधिक महत्व अतिभौतिकवाद की उपलब्धि है, जिस का नतीजा वर्ण व्यवस्था और जाति का प्रदुर्भाव हुआ।
वास्तव में परमात्मा के एक से अनेक हो कर संकल्प – विकल्प का यह अद्भुत खेल जीवात्मा, प्रकृति और माया के मध्य चलता रहता है। जीव अपने अज्ञान में अहम, राग – द्वेष में प्रकृति के हाथो में नाचता है, जिसे ज्ञान या बुद्धि होती है, वह सात्विक हो कर ब्रह्म तत्व में विलीन होता है। इसलिए वर्ण व्यवस्था भी प्रकृति प्रदत्त ही व्यवस्था है, जन्म या मृत्यु से इस का कोई संबंध नहीं है।
सैकड़ों वर्षों की गुलामी और शास्त्रों में फेरफार कर के सनातन संस्कृति पर प्रहार पर प्रहार किए गए। किंतु सत्य पर आधारित संस्कृति में सत्य को मिटाया नहीं जा सकता, इसलिए यह बार बार पुनः जीवित हो कर प्रकट हो जाती है।
आज भी एक प्रबुद्ध वर्ग सनातन संस्कृति के प्रसार में लगा है। किंतु अधिकांश अभी भी राजसी – तामसी गुण में सनातन संस्कृति को समझ कर कार्य कर रहे। प्रकृति का नियम है, कि प्रत्यन करते रहने से ही जीव तामसी गुण से सात्विक गुण की ओर बढ़ता है।
आज कलयुग में मनुष्य राजसी – तामसी गुण प्रधान अधिक है, हम अध्यात्म भी सांसारिक सुखों के लिए पढ़ते और पढ़ाते है। मुझे कई संदेश आते है, जो गीता के अध्याय 14 के पाठ कर के किसी लाभ की प्राप्ति के होते है। ब्राह्मण जिन गुणों से युक्त होना चाहिए, वह जातीय दृष्टि से जन्म से अवश्य ब्राह्मण होता है, किंतु कर्म से शुद्र अर्थात नौकरी में या वैश्य अर्थात व्यापार में होता है। इस में कोई संदेह नहीं है, स्वार्थ और व्यक्तिगत लाभ के लिए देश में नेतृत्व शक्ति में लोभी लोगो का एक समूह भी है, जो सनातन संस्कृति में स्वार्थ और लोभ में कुठाराघात कर रहा है और उस को वैसी ही मानसिकता वाले लोग समर्थन भी करते है, चाहे उन्होंने मनु स्मृति, वेद या गीता का अध्ययन भी नही किया हो। संस्कृति पर आक्रमण कारियो को मलेच्छ या आततायी कहा गया, अर्थात तामसी गुण से परे, असंस्कृत लोग, किंतु मनुष्य का प्रकृति के तीन गुणों के बाहर कोई गुण नही है। यह अतिरिक्त गुण की व्यवस्था भी संस्कृति के हानिकारक रही, क्योंकि जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था को मानने वाले लोगो ने, इन्हे पुनः सनातन सत्य के सात्विक मार्ग पर चलने के मार्गदर्शन भी नही दिया। और यह लोग सदा के सनातन संस्कृति को भूलने लगे। इस में उस का कोई दोष नही क्योंकि वैश्य या क्षत्रिय भी अपना गुण भूल गए, हम यह भी मान सकते है, जन्म पर आधारित व्यवस्था होने से वर्ण व्यवस्था जो सनातन संस्कृति में बनी थी, वह अव्यवस्थित हो गई है, इसे व्यवस्थित कोई महापुरुष ही कर सकता है, हम कलयुग में है, इसलिए हमे आश्चर्य चकित भी नही होना चाहिए और यह भी नही भूलना चाहिए, कि हमारी संस्कृति सनातन सत्य है, जो सत्य है, वह ही अंत में प्रकट होगा।
।। हरि ॐ तत् सत ।। विशेष गीता – 18.41 ।।
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