।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.40 II Additional II
।। अध्याय 18.40 II विशेष II
।। विशेष परिचर्चा – संक्षिप्त पुनः अवलोकन ।। विशेष 18. 40 ।।
अठाहरवा अध्याय के पूर्वार्द्ध की बात हम पुनः अवलोकन करते है तो हमे ज्ञात होगा कि इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने संन्यास और त्याग का तत्त्व जानना चाहा तो भगवान् ने पहले त्याग – कर्मयोग का वर्णन किया। उस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् ने कहा कि जो त्यागी नहीं हैं, उन को अनिष्ट, इष्ट और मिश्र – यह तीन प्रकार का कर्मों का फल मिलता है और जो संन्यासी हैं, उनको कभी नहीं मिलता। ऐसा कहकर तेरहवें श्लोक से संन्यास – सांख्ययोग का प्रकरण आरम्भ कर के पहले कर्मों के होने में अधिष्ठानादि पाँच हेतु बताये। सोलहवें-सत्रहवें श्लोकों में कर्तृत्व मानने वालों की निन्दा और कर्तृत्व का त्याग करने वालों की प्रशंसा की। अठारहवें श्लोक में कर्मप्रेरणा और कर्मसंग्रह का वर्णन किया। परन्तु जो वास्तविक तत्त्व है, वह न कर्मप्रेरक है और न कर्मसंग्राहक। कर्मप्रेरणा और कर्मसंग्रह तो प्रकृति के गुणों के साथ सम्बन्ध रखनेसे ही होते हैं। फिर गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के तीन तीन भेदों का वर्णन किया।
कर्म प्रेरणा एवम कर्म संग्रह से ले कर ज्ञान, कर्म एवम कर्ता सभी त्रयी गुणों के कारण बुद्धि एवम धृति से आच्छादित रहते है जिस से मनुष्य अपने कर्म से संतुष्ट एवम ज्ञानी बना रहता है। मनुष्य में विभिन्नता का कारण भी यही तीनो गुणों का विभिन्न परिमाणों में मिलना है। जब प्रकृति उस के गुण के विपरीत उस के नियत कर्म को निर्धारित करती है तभी उसे अपनी वस्तु स्थिति का भान होता है। गीता को पढ़े बिना ही गीता पर बहस या गीता के सिंद्धान्तों के खंडन करने वाले लोग अनेक हैं। हम उन्हें तामसी वृति के मनुष्य भी कह सकते है। ज्ञान पठन, श्रवण, चिंतन एवम मनन से उत्पन्न होता है। जिस भी गुण से प्रभावित ज्ञान को ग्रहण किया जाता है, वही मनुष्य का चरित्र, वर्ण, गुण एवम धर्म होता है। राजसी या तामसी इसी संसार मे जन्म-मरण के दुख को भोगते है। सात्विक होने के लिए अभ्यास, श्रेष्ठ गुरु एवम तत्वज्ञान की आवश्यकता होती है। जब हम प्रकृति के गुणों को जान लेते है तो हमारा ज्ञान इतना तो विस्तृत हो ही जाना चाहिये कि सात्विक, राजसी एवम तामसी प्रकृति को समझ कर, उत्तम सात्विक गुण को प्राप्त करते हुए अपने कर्म करे।
सुख का वर्णन करते हुए यह बताया कि प्रकृति के साथ यत्किञ्चित् सम्बन्ध रखते हुए ऊँचा से ऊँचा जो सुख होता है, वह सात्त्विक होता है। परंतु जो स्वरूप का वास्तविक सुख है, वह गुणातीत है, विलक्षण है, अलौकिक है। सात्त्विक सुख को आत्मबुद्धिप्रसादजम् कहकर भगवान् ने उस को जन्य (उत्पन्न होनेवाला) बताया। जन्य वस्तु नित्य नहीं होती। इसलिये उस को जन्य बताने का तात्पर्य है कि उस जन्य सुख से भी ऊपर उठना है अर्थात् प्रकृति और प्रकृति के तीनों गुणों से रहित होकर उस परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना है, जो कि सब का अपना स्वाभाविक स्वरूप है।
हम ने पहले भी पढ़ा था कि प्रकृति ले यह तीनों गुण स्वयं प्रकृति ही है, उस का इतना सूक्ष्म वर्णन पढ़ने से हम समझ सकते है कि मनुष्य वर्ण, धर्म, कर्म एवम लक्ष्य का इन तीनो गुणों का ही प्रभाव होता है, जो उस का नियत कर्म तय करता है, उस को कर्तव्य धर्म समझ कर वैराग्य पूर्वक करना या न करना, इतना ही मनुष्य के अधिकार में है किंतु नियत कर्म से भाग पाना उस के असंभव है।
कोई भी जीव प्रकृति के गुणधर्म से मुक्त नहीं है अतः प्रकृति ही उस के नियत कर्म को उस के गुणधर्म के अनुसार तय करती है। गुण धर्म के अनुसार चातुर्वर्ण रूपी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवम शुद्र की व्यवस्था की गई है। उपर्युक्त चारों वर्णों में गुणोंके अनुसार क्रम से शान्ति, ऐश्वर्य, चेष्टा और मूढ़ता – ये अलग अलग स्वभाव देखे जाते हैं। अथवा यों समझो कि प्राणियों के जन्मान्तर में किये हुए कर्मों के संस्कार, जो वर्तमान जन्म में अपने कार्य के अभिमुख होकर व्यक्त हुए हैं, उनका नाम स्वभाव है। ऐसा स्वभाव जिन गुणोंकी उत्पत्तिका कारण है, वे, स्वभाव प्रभव गुण हैं। गुणों का प्रादुर्भाव बिना कारण के नहीं बन सकता। इसलिये स्वभाव उनकी उत्पत्ति का कारण है यह कह कर कारण विशेष का प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार स्वभाव से उत्पन्न हुए अर्थात् प्रकृति से उत्पन्न हुए सत्त्व, रज और तम – इन तीनों गुणों द्वारा अपने अपने कार्य के अनुरूप शमादि कर्म विभक्त किये गये हैं। इसी कारण वर्ण व्यवस्था में जो भी नियत कर्म के वह ही उस का कर्तव्य धर्म है और उस से पलायन करना या अन्य धर्म को स्वीकार करना, नियत कर्म के विरुद्ध जाना होगा। वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक वर्ग में उत्तम, माध्यम एवम कनिष्ठ यह तीन वर्ग किये गए है। वर्ण व्यवस्था मनुष्य के प्राकृतिक गुणों के आधार पर समाज को चलाने की व्यवस्था है किंतु मनुष्य के उद्धार के लिये जीव को सात्विक गुणों को प्राप्त करना एवम उस के पश्चात मोक्ष को प्राप्त होना ही मुख्य लक्ष्य है।
अर्जुन युद्ध भूमि में क्षत्रिय धर्म के अनुसार खड़ा था। यहाँ उस का नियत कर्म युद्ध करना ही है।
वर्ण व्यवस्था गुण धर्म के अनुसार तय व्यवस्था है जो मनुष्य को स्वतः ही उस मार्ग पर ले जाती है। किंतु क्या यह व्यवस्था हिन्दू धर्म या सनातन धर्म के लिये है। गीता के अनुसार धर्म कोई भी हो, गुणधर्म का सिंद्धान्त भिन्न नही हो सकता। अतः जिस भी धर्म मे जिस को जो नियत कर्म है उसे बीच मे छोड़ कर नहीं जाना चाहिये। क्योंकि स्वधर्म में मृत्यु भी श्रेयस्कर है।
न्याय व्यवस्था के अनुसार ही माधवराव पेशवा देश-काल के अनुसार अपने आचार्य रामशास्त्री के उपदेश पर ब्राह्मण धर्म को त्याग के क्षात्र धर्म लोकसंग्रह हेतु स्वीकार किया। अतः नियत कर्म से पूर्व अपना वर्ण तय करना भी एक नियत कर्म ही है जो लोकसंग्रह के समय समय पर महान संतो, विचारकों, योद्धाओं, कर्म वीरों ने समय समय पर देश, काल, जन जन के हितार्थ उठाया।
गीता कहती है, समाज व्यवस्था कैसी भी क्यों न हो, जो भी यथाधिकार कर्म प्रकृति के गुणधर्म किसी के हिस्से में पड़ जाए तो उसे ही कर्तव्य मान कर गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ पुरुष जो कर्म करते है, वैसे ही लोक कल्याण हेतु उत्साहपूर्वक कर के सर्वभूत हित रूपी आत्मश्रेय की सिद्धि करना चाहिये। कर्म के प्रति निराशा भी न रहे एवम किसी विशेष के हित मे भी न हो, वरन साम्य बुद्धि द्वारा निष्काम भाव से संसार के धारण- पोषण के लिये करना चाहिये। महाभारत के बनपर्व में ब्राह्मण- व्याध कथा में, और शांति पर्व में तुलाधार जाजलि संवाद में एवम मनुस्मृति में यति धर्म का निरूपण करने के अनन्तर कर्मयोग के इसी मार्ग को वेदसन्यासियो का कर्मयोग कह कर विहित तथा मोक्षदायक बतलाया है। किसी भी देश का वैभव उस देश के कर्मवीरों से जुड़ा है। वेद महाभारत में स्पष्ट रीति से कहा गया है, कि चातुर्वर्ण के बाहर जिन अनार्य लोगो मे ये धर्म प्रचलित है, उन की भी रक्षा का दायित्व राजा को सामान्य कर्मो की भांति करना चाहिये।
महाभारत में गीता द्वारा यही संदेश बार बार दिया जा रहा है कि किसी भी देश के वैभवपूर्ण होने के लिये वही के कर्ता एवम वीर पुरुष कर्म मार्ग के अगुवा होते है। हमारे कर्मयोग का अर्थ भी यही है कि कर्ता या वीर पुरुष ब्रह्म ज्ञान को न छोड़ते हुए अपने कर्तव्य धर्म का पालन करना चाहिये।
मनु ने बृहस्पति से एवम नारद ने शुक से यही कहा कि जो दुख सार्वजनिक है, उस के लिये शोक करते रहना उचित नही, उस का रोना न रो कर उस के प्रतिकारार्थ ज्ञानी पुरुष को उपाय करते रहना चाहिये।
पश्चिम संस्कृति जहां स्वय अपना या संसार के सब लोगो का सांसारिक सुख साध्य करता है, वहां हजारों साल पहले वेद एवम वेदान्त गीता द्वारा सांसारिक सुखों की अपेक्षा आत्मबुद्धि प्रसाद रूपी सुख का पुरा अनुभव करते हुए केवल कर्तव्य समझ कर अर्थात ऐसी राजसी अभिमान भी बुद्धि या मन मे न रखते हुए की मैं इस संसार का उद्धार करूंगा, निष्काम हो कर कर्म करते रहना चाहिये। पश्चिम संस्कृति जहां सकाम कर्म पर बल देती है, वही भारतीय संस्कृति आत्मशुद्धि एवम ज्ञानयोग युक्त निष्काम कर्मयोग को स्थापित करती है, यही भागवत धर्म है।
पश्चिमी देशों में दुख निवारण हेतु कर्म योगियों में भले ही भौतिकवाद को बढ़ावा दिया हो किन्तु सांसारिक सुखों से जन मानस के दुख दूर करने हेतु उस का योगदान नकारा नही जा सकता। सन्यास धर्म को पीछे करते हुए गीता का कर्म योग सन्यास आज देश मे कुछ ही लोगो को समझ मे आ रहा हो किन्तु पश्चिम देशों में इस का स्थान बढ़ता ही जा रहा है, इसलिये वो उस वैभव को प्राप्त कर रहे है, जिस को हम लोग पहले भोगा करते है। तथापि हमारा कर्मयोग सात्विक है और पश्चिम का राजसी।
शंकराचार्य सम्प्रदाय के मायावादत्मक अद्वेत ज्ञान एवम कर्म सन्यास धर्म मे भी सन्यास मार्ग को अनिवार्य नही बताया गया। इस मध्य बौद्ध, जैन, यति, मुस्लिम एवम ईसाई धर्म के विचार एवम प्रसार हुआ किन्तु गीता का वैराग्ययुक्त भक्ति के रूप में हर धर्म, वर्ण एवम यवन- चांडाल- ब्राह्मण सभी मे समान रूप से प्रचलित रहने से हिन्दू धर्म का पूर्ण हास होने से बचा रहा। गीता कर्मयोग में सन्यास के साथ कर्म का ज्ञान न केवल व्यवहारिक है वरन मोक्ष का भी मार्ग है, जो जीवन के कठिन प्रश्नों का सटीक उत्तर रखता है।
गीता अध्ययन का वास्तविक लक्ष्य स्वयं से परिचित होना है। जब जीव एवम प्रकृति के भेद समझ मे आ जाये तो फिर निष्काम हो कर जो भी नियत कर्म है उस को लोकसंग्रह हेतु उत्साह एवम कर्मठता से साथ किया जा सकता है। अध्यात्म का मूल स्वरूप भी स्वयं से परिचित होने को ही है, बस गीता ने इस को सन्यास मार्ग की ओर जाने से रोकते हुए, इस सृष्टि के लिये निष्काम कर्मयोगी का मार्ग प्रशस्त किया है।
इस संदर्भ में यह भी समझना आवश्यक है कि गीता विशिष्ट परिस्थितियो में मनुष्य के कर्तव्य एवम कर्म का ज्ञान है जो उसे अपने वर्ण के अनुसार नियत कर्म को लोकसंग्रह हेतु निष्काम होकर संसार अथवा सृष्टि की निरंतरता के लिये करते रहना चाहिये। गीता द्वारा सन्यास मार्ग को कर्म सन्यास मार्ग की नवीन विचार धारा दी गई जिस से यह भागवत ज्ञान कहलाया। संसार मे सभी को निष्काम प्रेम अर्थात परब्रह के साथ एकरूपता में रहने की दीक्षा भागवत ज्ञान में दी गई। भागवत ज्ञान संसार मे निष्काम प्रेम के साथ, परिवार, समाज एवम देश मे रहने एवम अपने कर्म करते रहने का भक्तिमार्ग का ज्ञान है। दोनों की एक दूसरे के पूरक है क्योंकि गीता स्वयं कहती है ज्ञान, सन्यास, त्याग, कर्म, ध्यान या भक्ति का कोई भी मार्ग अपनाओ, वह एक ही परब्रह की प्राप्ति का मार्ग है, किन्तु निष्काम कर्मयोग इस सृष्टि की रचना एवम निरंतरता के जन सदाहरण के लिये अधिक सरल एवम उपयोगी है क्योंकि कर्म जीवन का अनिवार्य भाग है।
नियत कर्म प्रकृति से तय होते है, चर्तुथ वर्ण के अनुसार जो भी नियत कर्म तय है, उसे पूरा करना ही कर्तव्य धर्म है। अपने धर्म के पालन में मृत्यु भी हो जाए तो भी श्रेयस्कर है। माधव राव पेशवा जन्म से ब्राह्मण थे, किंतु देश की रक्षा के लिए कालानुरूप उन्होंने क्षात्र धर्म को स्वीकार किया। गीता सामाजिक वर्ण व्यवस्था का प्रतिपादन नही करती, उस के अनुसार लोक कल्याण हेतु जिस भी वर्ण के अनुसार प्रकृति नियत कर्म को तय करती है, मनुष्य को उसे करना ही कर्तव्य धर्म है। इसलिए स्थितप्रज्ञ लोग लोककल्याण के कर्म करते है। केवल कर्तव्य समझ कर परमेश्वर अर्पण बुद्धि से सभी कर्मो को करते मृत्यु तक करते रहना ही परमात्मा की सच्ची उपासना या गीता प्रतिपादित ज्ञानयुक्त प्रवृति मार्ग या निष्काम कर्मयोग है। इसे ही भागवत धर्म भी कहा गया है। अद्वैत सन्यास मार्ग में भी कर्मयोग को किसी भी प्रकार से नकारा नहीं गया है। इसलिए स्वयं शंकराचार्य, बुद्ध, महावीर आदि ने सन्यास मार्ग में कर्मयोग द्वारा लोगो का मार्गदर्शन भी किया है और लोकसंग्रह और लोककल्याण हेतु कर्म भी किए है।
व्यवहारिक जीवन में जन्म माता – पिता देते है, फिर लालन पालन, शिक्षा और व्यवसाय द्वारा धन कमाना शेष जीवन का आधार है। परिवार, वंश वृद्धि और कामनाएं हमे सांसारिक गृहस्थ व्यवस्था को प्रेरित करती है। इसलिए संसार में मान प्रतिष्ठा, उच्च पद और अधिकार ही सफल जीवन के मापदंड होते है। शिक्षा में इन्हीं सफलता के लिए विभिन्न उपाय भी बताए जाते है। किंतु जब अतिदैविक शक्तियां अपना कार्य करती है या अति भौतिकवाद बढ़ जाता है तो जीव शांति और स्थायी आनंद की तलाश में अध्यात्म की ओर बढ़ने के लिए मजबूर होता है। अध्यात्म कोई विकल्प नहीं हो कर, जीव की मजबूरी है। काल, नश्वर शरीर और जन्म – मृत्यु के भय से जीव को जिस असीम आनंद की तलाश है, उस का मार्ग अध्यात्म से निकलता है। किंतु जब तक संसार ही सत्य जान पड़े, वहां तक का अध्यात्म भी सांसारिक और भौतिक सुखों के लिए है। अतः इतनी बड़ी सेना और अनेक योद्धाओं के मध्य भगवान ने गीता के लिए अर्जुन को चुना। यह अवसर धृतराष्ट्र को संयोगवश भी यदि मिला भी तो भी वह उस को अपने स्वार्थ में समझ नहीं सका।
व्यवहार में आप जहां हो वही ठीक हो, आप को अपने कार्य में कुछ भी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। जरूरत ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि और धृति को सात्विकता की ओर बढ़ाते हुए, स्थितप्रज्ञ हो कर लोक कल्याण हेतु कर्म करते जाना है।
गीता के उत्तरार्ध के साथ हम गीता के उपसंहार में गीता के मूल उपदेश को चातुर्वर्ण व्यवस्था के सही अर्थ के साथ पढ़ते हुए समझते है, जिस की भूमिका हम लोगो मे पूर्वार्ध में भगवान श्री कृष्ण से सुना। यह विशेष परिचर्चा उन लोगो के लाभ दायक होगी जो उत्तरार्ध को गहन तरीके से समझना चाहते है।
।। हरि ॐ तत सत।। विशेष गीता – 18.40।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)