।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.40 II
।। अध्याय 18.40 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.40॥
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिःस्यात्त्रिभिर्गुणैः॥
“na tad asti pṛthivyāḿ vā,
divi deveṣu vā punaḥ..।
sattvaḿ prakṛti-jair muktaḿ,
yad ebhiḥ syāt tribhir guṇaiḥ”..।।
भावार्थ:
पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो ॥४०॥
Meaning:
There is no being on earth, or in heaven, or among the gods, or also in heaven, which can be free from the three gunaas born of Prakriti.
Explanation:
We are at the halfway mark of the eighteenth shloka, so let us recap what we have come across so far. The chapter began with Arjuna asking Shri Krishna about the difference between sanyaasa and tyaaga. Shri Krishna did not answer this question directly, but addressed the topic of karma yoga, which is the same as tyaaga. He ended this topic by declaring that the consequence or the fruit of action binds those who are attached to personal reward and does not bind to those who are not attached. Lord Krishna had taken up six topics jñānam, karma, kartā, buddhi and sukham say knowledge, action, agent, intellect, fortitude and happiness. All six topics are divided into three qualities of nature say sātvic, rājasic and tāmasic. Now Lord Krishna winds up the discussion of the sātvic, rājasic, tāmasic, he says I have taken these six topics as sample topics, infact anything in the creation can be divided into three types. Because the whole creation is born out of these three guṇas only.
Shri Krishna summarizes this analysis by proclaiming the dominion of the three gunaas. He says that there is no being, object or entity, living or inert, that is beyond the influence of the gunaas. The gunaas work throughout the universe, and not just in a certain part of it, like the earth. We may be tempted to take this proclamation in a negative sense by accepting that there is no escape from the grip of Prakriti, no liberation. But that is not the case. The proclamation is meant to reinforce one of the central messages of the Gita, which is that Prakriti by itself is not the problem, it is our identification with Prakriti that is the problem we need to tackle.
Earlier in chapter 14, Lord Krishna said the entire material universe is born out of māya or prakr̥ti; which is the material aspect of the Lord; from that prakr̥ti or māya alone the creation has come and maya is made up three guṇas and therefore all the products of māya also will be made up of three guṇas; because the law is whatever be the constituents of the cause, that will be the constituents of the effect also.
Maya’s domain extends from the nether regions to the celestial abode of Brahma. Since the three modes of nature—sattva, rajas, and tamas—are inherent attributes of Maya, they exist in all the material abodes of existence. Hence all living beings in these abodes, be they humans or the celestial gods, are under the sway of these three modes. The difference is only in the relative proportions of the three guṇas.
The nature of this predicament was referenced in the fifteenth chapter through the illustration of the upside-down tree which comprises the three gunaas. Only through the axe of detachment can this tree be destroyed. But, given that everything ultimately is under the influence of Prakriti, how can such a weapon be obtained? How can the identification with Prakriti be ended? Before this fundamental question is taken up, Shri Krishna spends a few shlokas on another preparatory topic next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अब इस प्रकरण का उपसंहार करने वाला श्लोक कहा जाता है, ऐसा कोई सत्त्व, अर्थात् मनुष्यादि प्राणी या अन्य कोई भी प्राण रहित वस्तुमात्र, पृथिवी में, स्वर्ग में अथवा देवताओं में भी नहीं है जो कि इन प्रकृति से उत्पन्न हुए सत्त्वादि तीनों गुणों से मुक्त अर्थात् रहित हो। क्रिया, कारक और फल ही जिस का स्वरूप है, ऐसा यह सारा संसार सत्त्व, रज और तम – इन तीनों गुणों का ही विस्तार है। अविद्या से कल्पित है और अनर्थरूप है, पंद्रहवें अध्याय में वृक्षरूप की कल्पना कर के ऊर्ध्वमूलम् इत्यादि वाक्यों द्वारा मूल सहित इस का वर्णन किया गया है तथा यह भी कहा है कि उस को दृढ़ असङ्गशस्त्र द्वारा छेदन कर के उस के पश्चात् उस परम पद को खोजना चाहिये। यह संपूर्ण सृष्टि इन त्रिगुणो से ही बनी हुई है, इन्ही गुणों ने देवताओं में ब्रह्मा, विष्णु और महेश – सृजन – पालन – संहार ये त्रिवर्ग किए है और इन्ही ने स्वर्ग – मृर्त्य और नर्क – इन त्रिलोक का निर्माण किया है, इन्ही तीन गुणों में चारो वर्णों के अनुसार भिन्न भिन्न कर्म एवम उन के कर्मो और फलों का झमेला खड़ा किया है।
भगवान कृष्ण ने छह विषयों को लिया था – ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि और सुख। सभी छह विषयों को प्रकृति के तीन गुणों में विभाजित किया गया है – सात्विक, राजसिक और तामसिक। अब भगवान कृष्ण सात्विक, राजसिक, तामसिक की चर्चा समाप्त करते हुए कहते हैं कि मैंने इन छह विषयों को नमूना विषयों के रूप में लिया है, वास्तव में सृष्टि में किसी भी चीज़ को तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। क्योंकि पूरी सृष्टि इन तीन गुणों से ही पैदा हुई है।
इससे पहले अध्याय 14 में भगवान कृष्ण ने कहा था कि सम्पूर्ण भौतिक ब्रह्माण्ड माया या प्रकृति से उत्पन्न हुआ है; जो भगवान का भौतिक पहलू है; उस प्रकृति या माया से ही सृष्टि आई है और माया तीन गुणों से बनी है और इसलिए माया के सभी उत्पाद भी तीन गुणों से बने होंगे; क्योंकि नियम यह है कि जो भी कारण के घटक हैं, वही परिणाम के घटक भी होंगे।
माया का क्षेत्र पाताल लोक से लेकर ब्रह्मा के दिव्य निवास तक फैला हुआ है। चूँकि प्रकृति के तीन गुण- सत्व, रजस और तम- माया के अंतर्निहित गुण हैं, इसलिए वे अस्तित्व के सभी भौतिक निवासों में मौजूद हैं। इसलिए इन निवासों में रहने वाले सभी जीव, चाहे वे मनुष्य हों या दिव्य देवता, इन तीनों गुणों के प्रभाव में हैं। अंतर केवल तीनों गुणों के सापेक्ष अनुपात में है।
इस प्रकरण में एक मात्र प्रयोजन हमारा मार्गदर्शन करना है। इसके अध्ययन के द्वारा हम अपनी स्थिति, अपने आन्तरिक तथा बाह्य व्यवहार को भलीभांति जान सकते हैं। यदि हम अपने को राजस या तामस की श्रेणी में पाते हैं तो हम आत्म विकास के साधकों को तत्काल सजग होकर सत्त्वगुण में निष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। स्मरण रहे, और मैं पुन दोहराता हूँ कि हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि पूर्वोक्त समस्त वर्गीकरण पर परीक्षण के लिए न होकर आत्मनिरीक्षण तथा आत्मानुशासन के लिए हैं।
कोई भी व्यक्ति त्रिगुणों की सीमा का उल्लंघन करके जगत् में कार्य नहीं कर सकता। परन्तु, कोई भी दो प्राणी बाह्य जगत् में समान रूप से व्यवहार नहीं करते हैं। इस का कारण है दोनों में इन तीन गुणों के अनुपात की भिन्नता। इस त्रिगुणात्मिका प्रकृति को ही वेदान्त में माया कहते हैं, जो प्रत्येक जीव को विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करती है और जिस के वश में सभी जीव रहते हैं।
चाय के प्रत्येक प्याले में तीन संघटक तत्त्व होते हैं चाय का अर्क, दूध और चीनी, परन्तु प्याले में इन तीनों के मिश्रण का भिन्नभिन्न अनुपात होने पर उन प्यालों के चाय के स्वाद में भी विविधता होगी।
अठाहरवे श्लोक से यहां तक ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि और धृति के त्रिगुणात्मक भेद का वर्णन से प्रकृति के गुण भेद की विचित्रता को समझने के बाद यह बात स्पष्ट है, कि कुछ भी गुण रहित नही है और सभी में सात्विक गुण ही सर्वश्रेष्ठ है। किंतु मनुष्य को मोक्ष के लिए गुणातीत होने को कहा गया है। यह गुणातित अवस्था कोई चतुर्थ अवस्था नही है। सात्विक गुण की उत्तम अवस्था मोक्ष, माध्यम स्वर्ग की और निम्न त्रिगुणात्मक अवस्था है।
सब भेदो में सात्विक भेदो में श्रेष्ठ स्थिति बतलाई गई है। सात्विक स्थिति प्राप्त होने से निष्काम कर्मयोग की स्थिति बनती है और मनुष्य शनै शनै गुणातीत अवस्था को प्राप्त होता हुआ, मोक्ष की तरफ बढ़ता है। गुणातीत कोई अलग गुण न होते हुए सात्विक स्थिति का उत्तम गुण है। प्रकृति के यह तीनों गुण ही उत्तम, मध्यम एवम कनिष्ठ रूप में संसार मे हर प्रकार से व्याप्त है।
जो पुरुष त्रिगुणातीत आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है, अर्थात इन तीनों गुणों से रहित हो जाता है, केवल वही पुरुष सर्वाधिष्ठान एक परमात्मा को पहचान सकता है। वही पुरुष इस नामरूपमय सृष्टि को परमात्मा की लीला के रूप में देख सकता है। इसलिए, प्रतिदिन, प्रतिक्षण हम आत्मनिरीक्षण कर के अपनी स्थिति को जानने का प्रयत्न करें। राजसी व तामसी स्थिति से ऊपर उठ कर सत्त्वगुण में स्थित होने का हमको प्रयत्न करना चाहिए। शुद्ध सत्त्वगुण में निष्ठा प्राप्त होने पर ही हम सत्त्वातीत आत्मा का अनुभव प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं।
इन तीन गुणों के आधार पर ही भगवान् श्रीकृष्ण ने सभी मनुष्यों का सात्त्विक, राजसिक और तामसिक तीन विभागों में वर्गीकरण किया है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में गुण प्राधान्य के आधार पर मनुष्यों का चतुर्विध विभाजन किया गया है जो चातुर्र्वण्य के नाम से प्रसिद्ध है। यह वर्गीकरण मानव मात्र का होने के कारण उसकी प्रयोज्यता सार्वभौमिक है, न कि केवल भारतवर्ष तक ही सीमित है। यह चतुर्विध विभाजन केवल अनुवांशिक गुण अथवा जन्म के संयोग के आधार पर न होकर प्रत्येक व्यक्ति के अपने विशिष्ट गुणों के अनुसार है। निम्न तालिका से यह विभाजन स्पष्ट हो जायेगा उपर्युक्त विभाजन सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है। अर्वाचीन भाषा में इन चार वर्णों का नामकरण इस प्रकार किया जा सकता है (1) रचनात्मक विचार करने वाले चिन्तक, (2) राजनीतिज्ञ, (3) व्यापारी वर्ग, और (4) श्रमिक वर्ग। इसमें एक बात स्पष्ट देखी जा सकती है कि किस प्रकार वेतनभोगी श्रमिक अपने नियोक्ता स्वामी (व्यापारी) से भयभीत होता है, व्यापारी वर्ग राजनीतिज्ञों से आशंकित रहता है और राजनीतिज्ञ लोग, साहसी और स्वतन्त्र विचार करने वाले चिन्तकों से भयकम्पित होते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन की शिखर वार्ता के सन्दर्भ में चातुर्र्वण्य का वर्णन करने का अपना प्रयोजन है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाना चाहते हैं कि वह क्षत्रिय वर्ण का है और इसलिए धर्मयुद्ध से पलायन करना उसे शोभा नहीं देता। उस का कर्तव्य धर्म पालन एवं धर्म रक्षण करना है।
प्रत्येक व्यक्ति का अपने वर्ण के अनुसार कर्तव्य कर्म नियत है, उसे ही ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति के सार – असार का विचार करते हुए सात्विक स्वरूप में पूरा करना ही कर्तव्य कर्म या धर्म है। यदि मनुष्य अपने कर्तव्य कर्म को त्याग कर अन्य कोई भी कर्म करने की चेष्टा करता है, तो वह उसे उत्तम सात्विक गुण की ओर नही ले कर जाएगा। मोक्ष का मार्ग प्रकृति के द्वारा नियत कर्म अपने गुण धर्म को पूर्ण करने से ही पूर्ण होगा।
त्याग के प्रकरण में भगवान् ने यह बताया कि नियत कर्मों का त्याग करना उचित नहीं है। उनका मूढ़तापूर्वक त्याग करने से वह त्याग तामस हो जाता है शारीरिक क्लेश के भय से नियत कर्मों का त्याग करने से वह त्याग राजस हो जाता है और फल एवं आसक्ति का त्याग करके नियत कर्मों को करने से वह त्याग सात्त्विक हो जाता है। सांख्ययोग की दृष्टि से सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि में पाँच हेतु बताते हुए जहाँ सात्त्विक कर्मका वर्णन हुआ है, वहाँ नियत कर्म को कर्तृत्वाभिमान से रहित, रागद्वेष से रहित और फलेच्छा से रहित मनुष्य के द्वारा किये जाने का उल्लेख किया है। उन कर्मों में किस वर्ण के लिये कौन से कर्म नियत कर्म हैं और उन नियत कर्मों को कैसे किया जाय — इस को बताने के लिये और साथ ही भक्तियोग की बात बताने के लिये भगवान् आगे का प्रकरण आरम्भ करते हुए क्या कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.40।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)