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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.38 II

।। अध्याय      18.38 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.38

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥

“viṣayendriya-saḿyogād,

yat tad agre ‘mṛtopamam..।

pariṇāme viṣam iva,

tat sukhaḿ rājasaḿ smṛtam”..।।

भावार्थ: 

जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले- भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य (बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को ‘परिणाम में विष के तुल्य’ कहा है) है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है ॥३८॥

Meaning:

That which comes from the contact of senses with their objects, which is like nectar initially, but like poison in its result, that joy is called raajasic.

Explanation:

Rājasic happiness is experienced as a thrill that arises from the contact between the senses and their objects, but the joy is as short-lived as the contact itself, and leaves in its wake greed, anxiety, guilt, and a thickening of the material illusion. Even in the material realm, for meaningful accomplishment, it is necessary to reject rājasic happiness.

When we see a movie, we have the option of watching it in 3D or 3D IMAX. Everyone has a cellphone with a built-in music player. Perfumes are available for any budget. Innumerable options make buying clothes a nightmare. International cuisine is available in most major cities. We are truly living in the age of sensory overload. It is hard to imagine a situation, except deep sleep, where we are not exposed to some sensory indulgence.

What is behind all of this? Sensory excitement is mistaken for joy in our world. Shri Krishna says that such sensory indulgence generates some temporary excitement in the beginning, but results in fatigue, or worse still, ill health, in the end. In his commentary, Shri Shankaraachaarya describes the effects of sensory indulgence. It leads to decline in strength, vitality, colour, wisdom, intellect, memory, wealth and most importantly, energy. Whenever there is sense contact beyond what is needed to sustain the body, our energy reserves are depleted.

So, Lord Sri Krishna says, “Vishayaendriyasamyogyat” Vishaya means sound, touch, form, taste, smell and indriya here means sense organs, samyoga means contact. But contact here is not natural, we have to work for that contact and create an environment in which there is no disturbance around. I should enjoy that contact without disturbance. If you have that then you will have bliss which will be as good as amrit. You get a job which is like amritam, the best food you eat is definitely amritam; when you order and eat. But Krishna adds a section, agre, that means, just in the beginning. Suppose you like ice cream, you ate the first one and I say eat the second one and then I order him to eat the third one and compel him. So first it is request and compel him to eat the fourth one, similarly five or six; suppose twenty; There comes a time when he eats his fill and the sight of it makes him nauseous; he will run away. This is the law of diminishing returns of royal pleasures. Royal pleasures are not permanent either and the more you get, the more it is like nectar in the beginning and then it becomes extremely painful and worth getting rid of. Or sometimes the attachment to this pleasure grows so much that when it is left, it causes extreme pain. Arjuna was feeling such pain and anguish at the thought of his death in the battle with Bhishma Pitamah and Dronacharya.

Therefore, we need to stop giving such a lot of importance to sense objects and sense indulgence. The body will have a biological urge such as thirst, which can easily be quenched by water. But our mind craves for a soft drink instead of water, because it has associated the idea of joy with that soft drink. Such superimposition of joy on inert objects is called shobhana adhyaasa. Whenever such thoughts arise, we should counter them with sattvic thoughts of good health, fitness and wellness.

।। हिंदी समीक्षा ।।

सुख एक अनुभूति हैं। इसमे आनन्द, अनुकूलता, प्रसन्नता, शांति इत्यादि की अनुभूति होती हैं उसे सुख कहा जाता हैं। सुख की अनुभूति मन से जूड़ी हुई हैं और बाह्य साधनो सेभी सुख की अनुभूति हो सकती हैं और अन्दर क आत्मानुभव से बिना किसी बाह्य साधन एवम अनुकूल वातावरण के बिना भी सुख की अनुभूति हो सकती हैं। नारद ने युधिष्ठिर को सुख की परिभाषा बताते हुए सबसे पहले ‘अर्थ’ की बात कहा था। उनके मत में यदि मनुष्य के पास निम्नलिखित ६ वस्तुएँ हों तो वह सुखी है-

अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।

वश्यस्य पुत्रो अर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥

हे राजन छः चीजे अपने पास होना जीवलोक में ‘सुख’ हैं – अर्थागम (पैसा आवे), निरोग काया, प्रिय पत्नी, प्रियवादिनी पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र, अर्थकरी विद्या।

दूसरों को दुःख न देकर केवल अपने लिए सुख की प्राप्ति करना । ज्ञानेंद्रिय एवं कर्मेंद्रिय द्वारा मिलनेवाले सुख को राजसी सुख कहते हैं। यह सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है, वह पहले, प्रथम क्षण में अमृत के सदृश होता है, परंतु परिणाम में विष के समान है। अभिप्राय यह है कि बल, वीर्य, रूप, बुद्धि, मेधा, धन और उत्साह की हानि का कारण होने से तथा अधर्म और उस से उत्पन्न नरकादि का हेतु होने से, वह परिणाम में, अपने उपभोग का अन्त होने के पश्चात्, विष के सदृश होता है।

इसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते है; “विषयेन्द्रियसंयोगात्” विषय का अर्थ है, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध और इन्द्रिय का यहां अर्थ है ज्ञानेन्द्रियाँ, संयोग का अर्थ है संपर्क। किंतु यहां  संपर्क स्वाभाविक नहीं है, हमें उस संपर्क के लिए काम करना होगा; और एक ऐसा वातावरण बनाना होगा, जिसमें चारों ओर कोई गड़बड़ी न हो। मुझे बिना गड़बड़ी के उस संपर्क का आनंद लेना चाहिए। यदि आपके पास वह है तो आपके पास आनंद होगा जो अमृत के समान उत्तम होगा। आपको ऐसी नौकरी मिलती है जो अमृतम के समान है, जो सबसे अच्छा भोजन आप खाते हैं वह निश्चित रूप से अमृतम है; जब आप ऑर्डर करते हैं और खाते हैं। लेकिन कृष्ण एक वर्ग जोड़ते हैं, अग्रे, इस का मतलब है कि, सिर्फ शुरुआत में।  मान लीजिए आप को आइसक्रीम पसंद है, आप ने पहली खा ली और मैं कहता हूं कि दूसरी खाओ और फिर मैं उसे तीसरी खाने का आदेश देता हूं और उसे मजबूर करता हूं। तो पहले यह अनुरोध है और उसे चौथी खाने के लिए मजबूर करें इसी प्रकार पांच या छह;  मान लीजिए बीस; एक समय ऐसा आता है जब वह भरपेट खा लेता है और इसे देखते ही उसे मतली आने लगती है; वह भाग जाएगा। यही राजसी सुख का घटते प्रतिफल का नियम है। राजसी सुख स्थायी भी नहीं होता और जितना अधिक प्राप्त होता है वह प्रारंभ में अमृत के समान होता है और फिर अत्यंत दुखदायी और पीछा छुड़ाने लायक हो जाता है। अथवा कभी इस सुख का मोह इतना अधिक बढ़ जाता है कि जब यह छूटता है तो उस समय अत्यंत दुख देता है। अर्जुन को भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य से युद्ध में उन के मारे जाने  की सोच ऐसा ही दुख और संताप उत्पन्न कर रहा था।

इस श्लोक में दी गई परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है कि राजस सुख सात्त्विक सुख के ठीक विपरीत लक्षण वाला है। इन्द्रियों के विषयो के साथ प्रत्यक्ष संयोग होने पर ही राजस सुख की प्राप्ति हो सकती है। दुर्भाग्य से इन दोनों का यह संयोग नित्य वहीं बना रह सकता क्योंकि विषय अनित्य और परिवर्तनशील होते हैं। इसी प्रकार विषयों से सम्पर्क करने वाली इन्द्रियाँ मन और बुद्धि अनित्य ही हैं। अत भोग्य विषय और भोक्ता इन्द्रियादि दोनों के ही अनित्य होने पर उनके मध्य नित्य संयोग रहना असंभव है। उस स्थिति में राजस सुख नित्य कैसे हो सकता है कोई भी मनुष्य इस क्षणिक वैषयिक सुख का भी पूर्णत और यथेष्ट भोग नहीं कर सकता क्योंकि भोगकाल में भी उसे भय और चिन्ता लगी रहती है कि कहीं यह सुख शीघ्र ही समाप्त न हो जाय। केवल राजसी स्वभाव के लोग ही इस प्रकार के सुखों में रम सकते हैं, जो कि वास्तव में दुख के कारण ही होते हैं। विवेकी पुरुष इस में नहीं रमते।

व्यवहार में पढ़ने वाले छात्र द्वारा सिनेमा, मनोरंजन, मित्रो के हंसी मजाक में समय व्यतीत करना आरंभ में अत्यंत अमृत तुल्य लगता है, किंतु बाद में परीक्षा में फेल होने से वह सब आनंद विष के समान हो जाता है। ज्यादा परस्त्री गमन, टीवी, व्हाट्सएप्प या अन्य कोई सोशल मीडिया से शुरू में बहुत अच्छा लगता है, किंतु बाद में इन से कई रोग भी होते है और काम में भी नुकसान होता है। स्वादिष्ट भोजन स्वाद स्वाद में अधिक खाना इस का अन्य उदाहरण है।

इंद्रियां, शरीर, विषय आदि प्रकृति की वस्तु है, प्रकृति परिवर्तनशील है, जो आज है, वह कल नही रहेगा। अपने क्षय और नाशवान स्वरूप होने से इंद्रियां या विषय अनित्य है, जो आज सुख है, वह कल नही रहने से दुख का कारण होगा। इसलिए जो सुख कामना, आसक्ति, अहम से प्राप्त हो,वह राजसी सुख हो। सात्विक सुख सद्चिदानंद आनंद देने वाला होता है, वहां सांसारिक सुख अस्थाई होता है।

जीव का अंतिम लक्ष्य प्रकृति के संयोग से मुक्त हो कर परब्रह को प्राप्त होना। किन्तु जब प्रकृति अपना कार्यक्रम में विभिन्न क्रियाओ से जीव को ललचाती है तो जीव कर्तृत्त्व भाव से प्रकृति के सुखों का आनन्द लेने लगता है। उसे पद, धन, ममता, स्त्री, बच्चे एवम सुख भोग में आनंद आने लगता है। किन्तु जैसे भूख मिट जाने से खाने का स्वाद बदल जाता है वैसे ही गतिमान शरीर के धर्म के अनुसार भोगने की क्षमता समाप्त होने से भोग- विलास भी कष्ट देने लगता है। राजसी भोग- विलास सुख नित्य नही क्योंकि यह बुद्धि गाह्य न हो कर इंद्रियाओ एवम मन से गाह्य है। बुद्धि का संबंध आत्मा से है, मन एवं इंद्रियाओ का संबंध प्रकृति से। पूरा जीवन जिन सुखों के लिये भागते रहे वो अंत के मुक्ति को नही दिला सकते और कर्म फल भोगने पुनः जन्म-मरण में झोंक देते है। इसलिये राजस सुख शुरू में चाहे कितना भी आनन्द दायक हो, उस का अंत विष के समान बुरा ही होता है।

हम ने पूर्व में अश्वस्थ वृक्ष के बारे में पढ़ा था, जहां संसार मे मृत्युलोक से ब्रह्मलोक तक पुण्य के फलों का भोग और जन्म-मरण ही है। मोक्ष उस से अलग होने से ही है। अतः राजस सुख में मोक्ष नहीं, इस लिये किंतना भी सुख मिले, अतः में पुनः जन्मरूप में विष ही है।

यद्यपि राजसिक सुख एक रोमांच की भांति है जो इन्द्रियों और उसके विषयों के संपर्क से उत्पन्न होता है और ऐसा आनंद संपर्क के रूप में चाहे अल्प काल तक रहता है और परिणामस्वरूप अपने पीछे लोभ, चिंता और दोष छोड़ जाता है और भौतिक भ्रम से और अधिक गाढ़ा हो जाता है। तो भी संसारिक क्षेत्र में भी सार्थक उपलब्धि के लिए राजसिक सुखों को अस्वीकार कर पाना संभव नहीं है। इस पर नियंत्रण और इस सुख के प्रति कोई लालसा या आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। निर्लिप्त भाव से इस सुख को भोगना, सांसारिक जीव के लिए कर्म के मार्ग को प्रशस्त करता है। इस के लिए रॉबर्ट होस्ट की यह कविता हमेशा याद रखनी चाहिए।

मुझे लगता है कि मैं जानता हूँ कि ये जंगल किस के हैं।

हालाँकि उस का घर गाँव में है;

वह मुझे यहाँ रुकते हुए नहीं देखेगा,

उस के जंगल को बर्फ से भरते हुए देखने के लिए।

मेरे छोटे घोड़े को यह अजीब लग रहा होगा कि जंगल और जमी हुई झील के बीच साल की सब से अंधेरी शाम में,

बिना किसी फार्महाउस के रुकना । वह अपने हार्नेस की घंटियों को हिलाता है, यह पूछने के लिए कि क्या कोई गलती है।

एकमात्र अन्य ध्वनि हल्की हवा और कोमल परत की आवाज़ है ।

जंगल सुंदर, अंधेरे और गहरे हैं, लेकिन मुझे कुछ वादे निभाने हैं, और सोने से पहले मुझे मीलों चलना है,

और सोने से पहले मुझे मीलों चलना है।

आगे तामसी सुख पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.38।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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