।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.35 II
।। अध्याय 18.35 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.35॥
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥
“yayā svapnaḿ bhayaḿ śokaḿ,
viṣādaḿ madam eva ca..।
na vimuñcati durmedhā,
dhṛtiḥ sā pārtha tāmasī”..।।
भावार्थ:
हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है- वह धारण शक्ति तामसी है ॥३५॥
Meaning:
That by which one with an inferior intellect does not give up sleep, fear, sorrow, dismay and intoxication, that fortitude is considered taamasic.
Explanation:
Fortitude is the quality of the intellect by which it holds on to certain thoughts and rejects others. From the start of a task to its end, our intellect is confronted with a barrage of thoughts. If it drops the thought of completing the task and starts holding on to other tasks, it will never be able to take the task to its conclusion. Sattvic fortitude is active for all tasks, raajasic fortitude is active only for tasks motivated by selfishness and sense enjoyment. The third kind of dhriti or fortitude, one which holds on to everything but the task at hand, is taamasic.
Determination is seen in the unintelligent and ignorant too. But it is the obstinacy that arises from fear, despair, and pride. For instance, some people are victims of a fear-complex, and it is interesting to see how they hold on to it with great tenacity, as if it is an inseparable part of their personality. There are others who make their life a living hell because they cling to some past disappointment and refuse to let go of it, despite observing its ruinous impact upon them. Some insist upon quarreling with all who hurt their ego and its imagined conception of themselves. Shree Krishna states that determination based upon such stubborn clinging to unproductive thoughts is in the mode of ignorance.
So, the tāmasic will power is that by which a person fanatically avoids karma. He requires a will power, not to act in the world, but to know how to dream, means building castles in the air. Therefore, either he is sleeping, or he is sleepy. He is afraid of failure, and he does not want to fail in life, he wants only success therefore his kartā is not active, only his bhōktā is very very active. Therefore, in lack of motivation, all the time, he is in low moods: anytime you ask, no mood; no mood to do that. So, this person is moody people. Mood has no logic, all the time there is no motive at all; sense organs are not active and if at all he takes to some activity; that is only sensory addiction; all these action-less people.
Swami Chinmayānandā always said; Human beings should have at least some goal or the other to work for; even if mōkṣa goal is not there, at least have some relatively worldly goal. For the tāmasic person, no dharma, no arta, no kāma, no mōkṣa, No goal is there. This perverted intellect you can never convince them and not only that, if you talk them for some time, they will begin to convince you.
While performing any task, it is natural to expect obstacles, and some fear as well. There are moments when our body and mind is tired, and we need to take some rest. If some things do not go as planned, we feel sorrow. If things do not go as planned repeatedly, we may also feel depressed or dejected. Conversely, if we experience some temporary successes, we may get intoxicated with the mental high, with the pride generated by those successes. Shri Krishna says that the fortitude that drops the thought of completing the task and holds on to any of these temporary thoughts is taamasic.
What causes someone to develop such a negative kind of fortitude? It is the degree of discrimination inherent in the intellect. One with a moderate level of discrimination has raajasic fortitude. But one in which there is little to no discrimination has no clue that he is choosing to hold on to thoughts that will ultimately lead him to ruin. Or to put it another way, one who has perversely high level of attachment to a certain object, person or situation will lose whatever level of discrimination he has left, due to the pursuit of that object of desire.
।। हिंदी समीक्षा ।।
जिस धृतिके द्वारा मनुष्य स्वप्न निद्रा, भय, त्रास, शोक, दुःख और मद को नहीं छोड़ता अर्थात् विषय सेवन को ही अपने लिये बहुत बड़ा पुरुषार्थ मानकर उन्मत्त की भाँति मद को ही मन में सदा कर्तव्यरूप से समझता हुआ जो कुत्सित बुद्धिवाला मनुष्य इन सब को नहीं छोड़ता यानी धारण ही किये रहता है। उस की जो धृति है, वह तामसी मानी गयी है।
जिस की बुद्धि मंद हो, जिस में दूसरो के अनिष्ट के विचार ज्यादा आते हो, ऐसी बुद्धि को दुर्मेधा कहते है। इष्ट के नाश और अनिष्ट की प्राप्ति की आशंका, आत्मविश्वास की कमी से अंत:करण में घबराहट, व्याकुलता एवम विषाद कायम हो जाता है। जिस से अति विषय जनक आसक्ति से उत्पन्न उन्मत्तवृति के स्वरूप में मद आ जाता है। कार्य शक्ति के अभाव में स्वभाव भी कर्कश और झगड़ालू हो जाता है। शरीर आलस्य और निंद्राप्रधान होता है।
अज्ञानी और अहंकारी लोगों में भी दृढ़ता पायी जाती है लेकिन यह एक हठ है जो भय, निराशा और अहंकार के कारण उत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ कुछ लोग भय की मनोग्रंथि से ग्रस्त होते हैं और यह भी रोचक विषय है कि वे इसके साथ किस प्रकार अति दृढ़तापूर्वक जकड़े रहते हैं, जैसे कि यह उनके व्यक्तित्त्व का अविभाज्य अंग है। कुछ लोग अपने जीवन को नारकीय बना देते हैं क्योंकि वे अपनी अतीत की निराशाओं के साथ चिपके रहते हैं, जबकि वे जानते हैं कि इससे उनके जीवन पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा किन्तु फिर भी वे उन्हें भुलाना नहीं चाहते। कुछ लोग ऐसे लोगों से झगड़ा करने में लगे रहते हैं जो उनके अहंकार को ठेस पहुँचाते हैं और उनके विचारों के विरूद्ध चलते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि अनुत्पादक विषयों की ऐसी हठीली निष्ठा पर आधारित धृति अर्थात संकल्प तमोगुणी होता है।
इस श्लोक में वर्णित तामसी धृति को समझना कठिन नहीं है, क्योंकि हममें से अधिकांश लोगों की धृति इसी श्रेणी के किसी न किसी गुण की है निद्रा भयादि को धारण करने वाली धृति तामसी कही गयी है।
स्वप्न यह शब्द उस मन की प्रक्षेपित कल्पनाओं को इंगित करता है, जो प्राय निद्रावस्था में डूबा रहता है। अनुभव की वह अवस्था स्वप्न है, जहाँ वास्तव में वस्तुओं का अभाव होते हुए भी मनकल्पित मिथ्या विषयों का भोग होता है। तमोगुणी लोग बाह्य वस्तुओं पर अपने मन के द्वारा सुन्दरता एवं सुख का आरोप करके फिर उनकी प्राप्ति के लिए परिश्रम और संघर्षरत रहते हैं।भय ऐसे अविवेकी लोग व्यर्थ में ही अन्धकारमय भविष्य की कल्पना करके उससे भयभीत होते हैं। संभव है कि वह भयप्रद घटना कभी घटित ही न हो, किन्तु उसका काल्पनिक भय ही मनुष्य के सन्तुलन, संयम एवं सन्तोष को नष्ट करने के लिए पर्याप्त होता है। हममें से कितने ही लोगों ने इस प्रकार के भय का अनुभव अपने जीवन में किया होगा। कुछ लोगों को भय होता है कि कल वे मरने वाले हैं और प्रतिदिन वे पूर्व के समान ही स्वस्थ व्यक्ति के रूप में ही जागते हैं मानसिक दृष्टि से, ऐसे लोग भयोन्माद के रोगी होते हैं। और जिस दृढ़ता से वे इस भय ग्रन्थि को ग्रहण किये रहते हैं, वह वास्तव में अपूर्व होती है।शोक, विषाद और मद मनुष्य की सार्मथ्य को क्षीण करने वाले ये तीन कारण हैं। तामसी पुरुष इन्हें धारण करके एक प्रकार की आन्तरिक रिक्तता और थकान का अनुभव करता है। अतीत में हुई अनिष्ट घटना का मनुष्य को शोक होता है भविष्य को अन्धकारमय देखकर उसका मन विषाद से भर जाता है और वर्तमान काल मे कामुकतापूर्ण अनैतिक जीवन का गर्व करने में ही मूढ़ पुरुष को मद का अनुभव होता है। उपर्युक्त स्वप्नादि पाँच जीवन मूल्यों को धारण करने वाले पुरुष दुर्मेधा हैं और ऐसे पुरुषों की धृति तामसी कही जाती है।
मानव शरीर विवेकप्रधान है। मनुष्य जो कुछ करता है, उसे वह विचारपूर्वक ही करता है। वह ज्यों ही विचारपूर्वक काम करता है, त्यों ही विवेक ज्यादा स्पष्ट प्रकट होता है।
सात्त्विक मनुष्य की धृति (धारणशक्ति) में यह विवेक साफ साफ प्रकट होता है कि मुझे तो केवल परमात्मा की तरफ ही चलना है।
राजस मनुष्य की धृति में संसार के पदार्थों और भोगों में राग की प्रधानता होनेके कारण विवेक वैसा स्पष्ट नहीं होता फिर भी इस लोक में सुखआराम, मानआदर मिले और परलोकमें अच्छी गति मिले, भोग मिले – इस विषय में विवेक काम करता है और आचरण भी मर्यादाके अनुसार ही होता है।
तामस मनुष्य की धृति में विवेक बिलकुल ही दब जाता है। तामस भावों में उस की इतनी दृढ़ता हो जाती है कि उसे उन भावोंको धारण करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। वह तो निद्रा, भय आदि तामसभावों में ही रचापचा रहता है।
तो तामसिक इच्छा शक्ति वह है जिसके द्वारा व्यक्ति कट्टरता से कर्म से बचता है। उसे इच्छा शक्ति की आवश्यकता होती है, संसार में कार्य करने के लिए नहीं, बल्कि सपने देखना जानने के लिए, यानी हवा में महल बनाने के लिए। इसलिए या तो वह सो रहा होता है या उसे नींद आ रही होती है। उसे असफलता का डर होता है और वह जीवन में असफल नहीं होना चाहता, वह केवल सफलता चाहता है इसलिए उसका कर्ता सक्रिय नहीं होता, केवल उसका भोक्ता बहुत बहुत सक्रिय होता है। इसलिए प्रेरणा के अभाव में, हर समय, वह उदास रहता है; जब भी पूछो, कोई मूड नहीं; ऐसा करने का कोई मूड नहीं। तो यह व्यक्ति मूडी लोग हैं। मूड का कोई तर्क नहीं होता, हर समय कोई मकसद नहीं होता; इंद्रियां सक्रिय नहीं होतीं और अगर वह कोई गतिविधि करता भी है, तो वह केवल इंद्रिय व्यसन होता है; ये सभी क्रियाहीन लोग हैं।
स्वामी चिन्मयानंद हमेशा कहा करते थे; मनुष्य के पास काम करने के लिए कम से कम कोई न कोई लक्ष्य तो होना ही चाहिए; भले ही मोक्ष का लक्ष्य न हो, कम से कम कुछ अपेक्षाकृत सांसारिक लक्ष्य तो होना चाहिए। तामसिक व्यक्ति के लिए न धर्म, न अर्थ, न काम, न मोक्ष, कोई लक्ष्य नहीं है। इस विकृत बुद्धि को आप कभी भी मना नहीं सकते और इतना ही नहीं, अगर आप उनसे कुछ समय तक बात करते हैं, तो वे आपको मनाना शुरू कर देंगे।
मन और बुद्धि के संयुक्त प्रयास से धृति बनती है। बुद्धि जो भी निर्णय लेती है, वह मन द्वारा बिना विचलित हुए पूरा करना और मन, प्राण और बुद्धि को योग द्वारा साधना जीव का प्रथम कर्तव्य है।
पारमार्थिक मार्ग में क्रिया इतना काम नहीं करती जितना अपना उद्देश्य काम करता है। स्थूल क्रिया की प्रधानता स्थूल शरीर में, चिन्तन की प्रधानता सूक्ष्म शरीर में और स्थिरता की प्रधानता कारण शरीर में होती है, यह सब क्रिया ही है। क्रिया तो शरीरों में होती है, पर मेरे को तो केवल पारमार्थिक मार्ग पर ही चलना है, ऐसा उद्देश्य या लक्ष्य स्वयं (चेतनस्वरूप) में ही रहता है। स्वयं में जैसा लक्ष्य होता है, उसके अनुसार स्वतः क्रियाएँ होती हैं। जो चीज स्वयं में रहती है, वह कभी बदलती नहीं। उस लक्ष्य की दृढ़ता के लिये सात्त्विकी बुद्धि की आवश्यकता है और बुद्धि के निश्चय को अटल रखने के लिये सात्त्विकी धृति की आवश्यकता है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.35 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)