।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.25 II Additional II
।। अध्याय 18.25 II विशेष II
।। ज्ञान – कर्म और अध्यात्म ।। विशेष 18.25 ।।
ज्ञान का अर्थ संसार की असीमित जानकारियों की बारीकी से अध्ययन करना और समझना। ज्ञान असीमित है, इसलिए संपूर्ण ज्ञानी होना प्रत्येक मनुष्य के लिए संभव नही। इस लिए हमारे पूर्व के ऋषि – मुनियों ने ज्ञान के मूल आधार की खोज करना शुरू किया, जिस एक को जान लेने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। जो व्यक्ति स्वर्ण को जानता है, उसे उस से बने विभिन्न आभूषणों को जानने की आवश्यकता नहीं होती। जो मिट्टी को जानता है, उसे मिट्टी से बने बर्तन, घड़े या खिलौनों को जानने की आवश्यकता नहीं होती। ज्ञान को सात्विक, राजसी और तामसी आधार पर विभाजन जीव के मोह, कर्तृत्व भाव, कामना और आसक्ति पर किया गया है। इस लिए जो ज्ञान परमात्मा या मोक्ष के मार्ग पर ले जाता है, वह सात्विक और जो कर्म प्रधान हो वह राजसी और जो निकृष्ट एवम मोहयुक्त हो, वह तामसी माना गया।
ज्ञान के आधार पर कर्म का भी विभाजन हुआ और हम ने सात्विक, राजसी और तामसी कर्म पढ़े। वास्तव में ज्ञान और कर्म का विभाजन का आधार जीव का बौद्धिक विकास ही है। जिस बुद्धि से वह ज्ञान से प्रेरित हो कर्म करता है, वह ही तय करता है कि उस कर्म किस प्रकार है, हम कर्म को देख कर निर्णय नहीं ले सकते की, वह सात्विक, राजसी या तामसी है।
सन्यास और कर्मयोगी में हम ने नित्य, नैमित्तिक, काम्य, निषिद्ध और प्रायश्चित कर्मों को पढ़ा, किंतु किसी की कार्य को करने के लिए पांच कारक – ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय अर्थात करता, कारण और क्रिया को हम ने पढ़ा। इन पांच कारक में ज्ञान और कर्म के विवेचन को हम जब पढ़ते है तो उस के उद्देश्य या लक्ष्य को जब निष्काम और निर्लिप्त भाव में विवेकपूर्ण बुद्धि से योजनाबद्ध तरीके के किया जाए, यह सब जीव के अधिकार क्षेत्र में है। अतः शास्त्र हमे ज्ञान और सही और गलत का निर्णय देने की क्षमता देता है तो कोई भी कर्म यदि निष्काम और निर्लिप्त भाव से सात्विक और लोक संग्रह के लिए हो, वह ही उचित कहा जाता है। कर्म फल की आशा से नहीं किया जाता किंतु कर्म से प्राप्त फल के भोगने से कोई परहेज भी नहीं होना चाहिए। याद रहे कि भगवान शब्द भी ऐश्वर्य, यश, धर्म, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्य से बना है। अतः त्याग का अर्थ कामनाओं और आसक्ति का त्याग अर्थात राग और द्वेष का त्याग है, संसार का और कर्म का त्याग नहीं हैं। अतः कर्मयोगी जब निष्काम और निसंग भाव से कर्म करता है तो उस के फल को भोगने के लिए तैयार भी रहता है। भगतसिंह और उधमसिंह या नेता जी सुभाष आदि आजादी की लड़ाई लड़ने वालो से ले कर पन्ना धाय आदि सभी ने अपना कर्म बिना किसी फल की आशा से कर्तव्य समझ कर किया और उस के फल को भी निसंग भाव से स्वीकार भी किया।
अर्जुन के सामने सेना में उस के ज्येष्ठ, बंधु, बांधव आदि खड़े थे, वह मोह से ग्रसित हुआ। उसे उन को मारने का दुख महसूस होने लगा। तब भगवान ने उस से कहा कि तुम जो युद्ध में इन्हे मारने या हत्या की बात सोच रहे हो, गलत है। मरने या मारने या हार जीत या लाभ – हानि का निर्णय प्रकृति की क्रिया है। तुम्हारे सामने युद्ध करना या न करना, यही दो विकल्प है। इसलिए अपने को कर्ता न मानते हुए, निसंग अर्थात समभाव बुद्धि से युद्ध करो, यही तुम्हारा कर्तव्य कर्म है।
बुद्धि का समभाव होना, स्थितप्रज्ञ होना अथवा निसंग होना ही जीव के लिए अत्यंत आवश्यक है, निसंग बुद्धि सात्विक ज्ञान से प्राप्त होती है, सात्विक ज्ञान के संग जब बुद्धि निसंग होगी तो कर्म भी सात्विक होगा। हम कह सकते की मनुष्य चाहे कितना भी बड़ा ज्ञानी, धर्मवेत्ता या कर्मवीर हो, जब तक उस की बुद्धि में स्वार्थ, मोह, कामना या आसक्ति है, उस का कर्म सात्विक नही हो सकता। कौरव सेना में भीष्म, द्रोण या कर्ण इसी बात के ज्वलंत उदाहरण है।
आज के युग में सामाजिक और पारिवारिक संबंधों में राग – द्वेष में कामना, आसक्ति, लोभ और स्वार्थ ने अधिक स्थान घेर लिया है जिस से पारिवारिक संबंधों में बड़ों से ले कर छोटो तक सीमित पति – पत्नी और बच्चों तक सीमित हो रहे है। यदि पारिवारिक न्यायालय के आंकड़े देखे तो तलाक़ के मामले भी बेहद बढ़ रहे है। इस का कारण परिवार के परिवेश का टूटना, नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारियों की अपेक्षा अपने अहम को प्राथमिकता देना। ध्यान से देखे तो महाभारत के समय के सभी बड़ों में धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण, कर्ण से ले कर दुर्योधन के चरित्र जैसा सब का व्यक्तित्व अपने अपने अहम और अपनी व्यक्तिगत मर्यादा जैसा हो रहा है। पांडव में आपसी पारिवारिक मेल, सम्मान, आदर जैसा कोई भाव कौरव में नहीं मिलता। अतः जहां पारिवारिक सम्मान और धर्मयुक्त नैतिकता का अभाव हो, वहां यदि विरोध भी करना पड़े, तो किसी भी ज्ञानी और सात्विक बुद्धि वाले व्यक्ति को विरोध करना ही चाहिए, यही उस का सात्विक कर्म भी होगा।
आज के परिवेश में भी बात राजनीति उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पार्टियों की हो, परिवार या समाज की हो, आश्रम या ट्रस्ट या निजी संस्थानों की हो, तीन पक्ष अवश्य होते है। साथ देने वाले, विरुद्ध और निष्पक्ष। महाभारत युद्ध के समय भी यही स्थिति थी। इन का बटवारा सात्विक, राजसी या तामसी आधार पर नही होता, न ही न्याय और अन्याय के आधार पर होता है। यह बुद्धि के आधारित ज्ञान पर होता है। इस लिए सभी पक्ष में ज्ञानी और कर्मवीर व्यक्ति होते है जो अपने अपने पक्ष में अपनी बुद्धि आधारित मोह, प्रतिज्ञा, उपकार, स्वार्थ, कामना और आसक्ति से जुड़े है। यदि सभी समबुद्धि को प्राप्त हो तो संसार में विषमता भी न रहे। सेना कौरव के पास भी थी और पांडव के पास भी, दोनो ओर ज्ञानी, कर्म योद्धा भी थे, किंतु जो जिस के पक्ष में खड़ा था, वह सात्विक, राजसी या तामसी गुण से नही, बुद्धि की विषमता से खड़ा था। BJP, congress या अन्य दलों के समर्थक न हो, कोई नही कह सकता, कोई किसी भी दल का समर्थन करता है, यह उस की बुद्धि की विषमता पर आधारित है, सभी दलों में ज्ञानी, कुशल प्रशासक है। अतः किसी के दल के कर्म सात्विक, राजसी या तामसी है, यह निर्णय कर्म पर आधारित नही हो कर, इस पर आधारित होगा कि वह किसी उद्देश्य या लक्ष्य के लिए है। इन की कार्यों की विवेचना कर्म के लक्ष्य के आधार पर वही कर सकता है, जो स्थितप्रज्ञ एवम समबुद्धि से युक्त होगा, कि इन का कार्य सात्विक, राजसी या तामसी है। इन के समर्थको का कार्य भी इसी आधार पर निर्धारित होगा। यही स्थिति कार्यालय, घर या समाज में कार्य करने वाले के कर्म को निर्धारित करता है। इसलिए कर्म के प्रकृति के गुण, कर्म में निहित बुद्धि के अनुसार ही तय होते है, क्रिया देख कर नही। धर्म और वेदांत की रक्षा के लिए, यदि किसी को अपने ही समाज, परिवार और मित्र में कोई भी अनुचित होता दिखे तो उस का विरोध करना ही सात्विक नैतिक गुणों का पालन होगा। यदि यही नैतिक मूल्य की आड़ में हम बिना परिणाम को समझे, गलत का समर्थन करते है तो निश्चय ही हम तामसी कर्म ही करते है। याद रखना नहीं, गंगा जल से यदि शराब भी बना दी जाए तो वह पवित्र नहीं हो सकती। कर्ण, द्रोण या भीष्म कितने भी महान हो, यदि दुर्योधन के साथ है, धृतराष्ट्र चाहे रिश्ते में ताऊ लगता हो किंतु पुत्र मोह में है, दुर्योधन भाई ही क्यों न हो, कुबुद्धि और शकुनि मामा के साथ, मारने को तैयार हो तो इन का समर्थन कैसे हो सकता है। इसी प्रकार यदि कोई राजनैतिक पार्टी देश की अखंडता और एकता को भंग करने का कार्य करती हो, उस को समर्थन देने वाला भी समाज और परिवार में मित्र कैसे हो सकता है।
अर्जुन का मोह यही था कि मैं कैसे भीष्म और द्रोण पर प्रहार कर सकता हूं तो उस उत्तर भी यही दिया गया तू अपने बुद्धियोग का आश्रय ले कर अपना कर्म कर, मरने या मारने की क्रिया पर ध्यान न दे, समबुद्धि की शरण जा। भगवान अर्जुन को अपने लोगो के विरुद्ध युद्ध के लिए नही कहते, वह उसे समबुद्धि से कर्तव्य कर्म करने को कहते है। कर्तव्य कर्म करने वाला अपने कर्म पर ध्यान देता, परिणाम, व्यक्ति, वस्तु या साधन पर नही।
परिवार, समाज, देश में जब भी ऐसी परिस्थिति आती है, तब यह प्रश्न आता ही है कि कैसे मैं अपने मित्र, प्रियजनों या आदरणीय लोगो के विरुद्ध कार्य करू। यहां भी यही समझना जरूरी है कि हम कार्य किसी हमारे निजी स्वार्थ, मोह या कामना के लिए है या सात्विक ज्ञान हेतु समबुद्धि से प्राप्त सात्विक कार्य या कर्म है। जब तक स्थितप्रज्ञ की स्थिति न हो, तो अर्जुन की तरह हमे भी भगवान कृष्ण की आवश्यकता होगी तो हमारे को समझे और मार्ग बताए।
फलाशा छोड़ कर निसंग बुद्धि से किया हुआ कर्म सात्विक एवम उत्तम है। इस से यह प्रगट होता है कि कर्म के बाह्य फल की अपेक्षा कर्ता की निष्काम, सम और निसंग बुद्धि को ही कर्म – अकर्म की विवेचना करने में गीता अधिक महत्व देती है । यही न्याय स्थितप्रज्ञ के व्यवहार को उपयुक्त सिद्ध करने का कारण भी है। स्थितप्रज्ञ का देश, समाज, छोटे – बड़े से व्यवहार अन्य के अनुशरण का कारण बनता है। वह अतिभौतिकवाद सुखों के कार्य भी नही करेगा और उस के कार्य समाज कल्याण एवम लोकसंग्रह के होंगे। इसे से शुद्ध हो वह पूर्ण आध्यात्मिक अवस्था को प्राप्त करता हुआ, मोक्ष के मार्ग पर बढ़ता जाएगा।
।। हरि ॐ तत् सत ।। गीता विशेष 18.25 ।।
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