।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। Chapter 18.22 II Additional II
।। अध्याय 18.22 II विशेष II
।। सनातन संस्कृति – सत्य, ज्ञान और हिंदू धर्म ।। विशेष 18.22 ।।
एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना करें जिसके पास केवल चार ज्ञानेन्द्रियाँ हैं; और उसके पास आँख नहीं है; मान लीजिए वह अंधा है; मैं कह रहा हूँ कि दुनिया में रंग और रूप हैं, जिन्हें केवल पाँचवीं ज्ञानेन्द्रिय जिसे आँख कहते हैं, के माध्यम से जाना जा सकता है, यह व्यक्ति कहता है: “नहीं, मैं स्वीकार नहीं करूँगा। यदि मुझे रंग और रूप स्वीकार करने हैं, तो आपको इसे मेरी चार ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से सिद्ध करना चाहिए; मैं कान का उपयोग करूँगा, और आपको रंग दिखाना होगा। मैं जीभ का उपयोग करूँगा, मैं अपनी त्वचा का उपयोग करूँगा, आदि”। वह उपलब्ध ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग करना स्वीकार करता है; वह मुझसे रंग सिद्ध करने के लिए कह रहा है, मैं कह रहा हूँ कि आपकी उपलब्ध चार ज्ञानेन्द्रियाँ रंग को सिद्ध नहीं कर सकती हैं। यदि आपको रंग का प्रमाण चाहिए, तो आपको पाँचवीं ज्ञानेन्द्रिय जिसे आँख कहते हैं, को स्वीकार करना होगा; और आपको उसका संचालन करना होगा। इसी प्रकार परम्परा कहती है, ऐसी चीज़ें हैं जो पाँच ज्ञानेन्द्रियों के लिए उपलब्ध नहीं इसलिए किसी भी तरह के वैज्ञानिक प्रयोग से कोई मदद नहीं मिलेगी, क्योंकि ये इंद्रियाँ वस्तुगत रूप से देखने में असमर्थ हैं। वेद खुद ही इसे बहुत स्पष्ट करते हैं, वेदांत खुद को पेश करता है; मैं यहाँ उन चीज़ों को सिखाने के लिए हूँ जो इंद्रियों के लिए उपलब्ध नहीं हैं।
तो भौतिकवादी का निष्कर्ष यह है कि वह केवल इंद्रियों पर विश्वास करता है। और जो इंद्रियों को उपलब्ध नहीं है, उस पर वह विश्वास नहीं करता। और हम उन लोगों के साथ कुछ नहीं कर सकते; क्योंकि सूक्ष्म शरीर को इंद्रियों को नहीं दिखाया जा सकता। इसलिए कोई व्यक्ति आत्मा का वजन जानना चाहता था, और इसलिए वे मृत्यु से पहले व्यक्ति का वजन और मृत्यु के बाद व्यक्ति का वजन लेना चाहते थे; और वजन में जो भी कमी आए वह आत्मा का वजन होना चाहिए, इस प्रकार के वैज्ञानिक प्रयोग आत्मतत्व को जानने के लिए किए जाते है, जो हास्यस्पद ही है।
आज के भौतिकवादी ज्ञान के लहर में मन के निग्रह की अपेक्षा टोने टोटके बता कर मन की कामना और लालसा की पूर्ति के TV चैनल, प्रवचन, यू ट्यूब एवं सोशल मीडिया के ज्ञान को पूर्णतः तामसी ही कहा जाएगा। अपने लाभ के लिए व्रत, उपवास और वास्तु का ज्ञान कामना और आसक्ति से पूर्ण तो होता ही है, बताने वाले से ले कर सुनने वाले तक में सात्विक व्यवहार और ज्ञान का अभाव भी रहता है। अंधों की बस्ती में अंधा ही यदि ज्ञानी होगा, तो वह अपने अनुभव और ज्ञान का जो भी प्रचार करता है, वह भी अज्ञान ही है। इसलिए हिंदू संस्कृति में जब ब्राह्मण ही शुद्र और वैश्य बन जाता है, तो संस्कृति में परिवर्तन हेतु भगवान को ही अवतार लेने की आवश्यकता होती है।
सत्य अविचल और एकनिष्ठ है, इस सत्य को जानने के लिए हमारे ऋषि, मुनियों एवम विचारको ने अनेक वर्षों तक चिंतन, मनन, वार्तालाप एवम अन्वेषण किया, जिस के परिणाम स्वरूप अनेक विचारधाराओं को एक ही सत्य की ओर बढ़ते हुए पाया। यही सनातन विचार धारा भारतीय संस्कृति की उपलब्धि है। उस समय क्योंकि बाहरी विचाराधारा अखंड भारत वर्ष में ऐसी नही थी जो सनातन संस्कृति की विचारधारा में सम्मिलित नहीं हो, फिर वह नास्तिक हो, द्वैत हो या अद्वैत हो, भक्ति हो, ज्ञान हो, विज्ञान हो या कर्मयोग। सनातन संस्कृति में सभी विचारधाराओं को उचित स्थान देते हुए सम्मान दिया गया। विचारधारा की यह उन्नत व्यवस्था सनातन संस्कृति ही है, जिस में अनेक ज्ञानियों में अपने अपने विचार रखे, मनुष्य और जीव के मोक्ष और जीवन चक्र को परिभाषित किया, देश,राजा, प्रजा, समाज, परिवार, और जीवन की विभिन्न अवस्था को परिभाषित भी किया और समय समय पर पुरानी विचार धाराओं और मान्यताओं को बदला भी। सनातन संस्कृति की मूल विचारधारा होते हुए भी, इस के नियमो में विरोधाभास भी दिखता है, किंतु जो ज्ञानी है, वह जानता है, नियम काल, स्थान, व्यक्ति और परिस्थिति के अनुसार तय होते है किंतु सत्य अटल है।
सनातन संस्कृति किसी आस्तिक या नास्तिक वाद का स्वरूप नही है। सत्य की खोज लाखो वर्षो से हो रही है, इसलिए मीमांसा से दर्शन शास्त्र शुरू हो कर वेदांत तक पहुंचा। मुख्य न्याय शास्त्र जिसे परमाणु शास्त्र भी कह सकते है, सांख्य शास्त्र जिसे प्रकृति – पुरुष द्वारा समझ सकते है, और अब पूर्ण सत्य एकमेव पूर्णब्रह्म स्वरूप परमात्मा के रूप में वेदांत शास्त्र है। वेदांत अर्थात वेदों के पश्चात सत्य की मीमांसा हम उपनिषद आदि ग्रंथों में पढ़ते है। गीता स्मृति ग्रंथ है, अर्थात जिसे वेदों और उपनिषदों से ले कर याद किया हुआ। अतः सनातन संस्कृति लाखो वर्षो के गहन अध्ययन से बनी है।
धर्म किसी एक विचारधारा को पकड़ कर मोक्ष के मार्ग पर चलने का नाम है, इसलिए धर्म अर्थात मार्ग में विभिन्नता हो सकती है किंतु लक्ष्य एक ही सत्य की ओर बढ़ना है। इसलिए धर्म सत्य की ओर बढ़ने का मार्ग है, सत्य नही। मनुष्य के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तय किए गए।
धर्म का अर्थ सत्य की किसी भी निर्धारित मार्ग पर चलते हुए, जीवन व्यतीत करना, अर्थ का धन से अर्थात जीवनोपयोगी साधनों को उत्पादित करना। क्योंकि जीवन प्रकृति की देन है, इस के निर्वाह के अन्न, जल, वायु और प्राकृतिक संस्थान होना अनिवार्य है, इसलिए पूर्व काल में खेती, व्यापार आदि अर्थ के संस्थान थे और आज इन का स्वरूप कुछ बदल गया है, किंतु मूल रूप वही है। काम प्राकृतिक संस्थानों को उपभोग धर्म के नियमो से करना, इस में प्रजनन द्वारा प्रकृति को गति शील रखना है। इसलिए अर्थ और काम के लिए सामाजिक संस्थाओं, परिवार, राज्य, देश बने। जीव का अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करना है, इसलिए जीव को अपने होने और मोक्ष प्राप्ति का वास्तविक ज्ञान होना अनिवार्य है। जब तक सात्विक ज्ञान न हो, जीव जन्म – मरण के चक्कर से मुक्त नहीं होता।
सनातन संस्कृति में धन के संग्रह को कभी भी नही कहा गया, क्योंकि जीव सृष्टि के यज्ञ चक्र का भाग है, उस समस्त कार्य लोकसंग्रह के होते है।
सत्य कोई वस्तु या विवाद या सिद्ध करने योग्य तत्व नहीं है। सत्य को एकमात्र ब्रह्म माना गया, जिस से यह सृष्टि बनी और जिस में यह सृष्टि विलीन होनी है। प्रत्येक जीव की जीवन यात्रा धर्म से शुरू हो कर मोक्ष तक जाती है, किंतु जीव को इस यात्रा में अर्थ और काम के दो पड़ाव से गुजरना पड़ता है। इसलिए धर्म जब सात्विक ज्ञान का हो तो जीव धर्म के साथ अर्थ और काम के पड़ाव को पार करता हुआ मोक्ष तक पहुंचता है, किंतु यही धर्म जब राजसी ज्ञान युक्त हो जाता है तो जीव धर्म का उपयोग अर्थ और काम के लिए करता हुआ, मोक्ष को प्राप्त नहीं पाता और बार बार मनुष्य जन्म ले कर अपने कर्मो के फल को भोगता है। किंतु जब यही धर्म तामसी वृति के ज्ञान से ओत प्रोत हो तो जीव अर्थ और काम के मोह, माया, में लोभ, कामना और आसक्ति के वशीभूत हो कर हिंसक भी हो जाता है और मोक्ष की बजाय अन्य निम्न योनियों में जन्म ले कर अपने निकृष्ट कर्मो को भोगता है। तामसी वृति में ज्ञान उन योनियों में ले जाता है, जहां सिर्फ कर्मो को भोगना है, कर्म का अधिकार या उस का फल नहीं होता।
सनातन की यह विचारधारा अविरत चल रही थी, महान ऋषि – मुनियों ने सामाजिक व्यवस्था और मनुष्य को कैसे जीवन व्यतीत करना चाहिए, इस के नियम भी बना दिए थे। फिर भारत वर्ष पर बाहरी आक्रमण शुरू हुए। यह बाहरी आक्रमण उन कट्टर विचारधाराओं के लोगो के थे, जिन्होने सनातन सत्य को नही समझा और सिंधु नदी की सभ्यता के नाम पर सनातन सत्य को हिंदू नाम दे दिया। इसलिए जो भी धर्म सनातन सत्य पर आधारित थे, वह सभी सिख, जैन, बौद्ध आदि हिंदू धर्म ही कहलाए। हिंदू धर्म सनातन का पर्याय बन गया। कालांतर में राजसी और तामसी अज्ञान ने इसे विघटित किया, जिस से हिंदू धर्म क्या है, यह तो किसी को नहीं मालूम परंतु वह भी आक्रमणकारियो की भांति अपनी विचार धारा को हिंदू धर्म से अलग कहने लगा। कट्टरता और मतांधानता के कारण राजसी और तामसी ज्ञान का विकास हुआ और आज धर्म का उपयोग अर्थ और काम के लिए अधिक और मोक्ष के लिए नगण्य रह गया। ज्ञान अर्थ उपार्जन का माध्यम हो गया। किंतु सनातन सत्य को जानने वाले महापुरुष ज्ञानी तब भी थे, और अब भी है। यह लोग समय समय पर सामाजिक चेतना को जाग्रत करते हुए धर्म के ह्रास को रोक कर उसे पुनः स्थापित भी करते है।
किंतु जो विचारधारा सदियों के आत्मचिंतन से परिशुद्ध हो, सत्य हो, वह सनातन ही है। तथाकथित हिंदू धर्म को अब उस की शाखा कह है, जिस में अतिभौतिकवादियो ने अपनी सुविधा के अनुसार सनातन धर्म के दर्शन के अनुसार विभिन्न नियम बनाए, जो प्रकृति के तीनों गुणों के अनुरूप इस धर्म को मानने वाले अपने अपने ज्ञान के अनुसार व्याख्या करते हुए, पालन करते है। सदियों के इस धर्म पर अन्य विचारधाराओं के प्रहार से इस धर्म में कट्टरता भी आई, परंतु इस का मूल सनातन होने से यह कट्टरता सिर्फ बचाव के लिए प्रयोग में आती है। राजस और तामस के वर्चस्व के कारण हिंदू धर्म में भी जाति, वर्ण और आश्रम की कर्म आधारित व्यवस्था का रूपांतर जन्म पर हो गया। स्वार्थ और लोभ में कुछ लोगो ने सामाजिक कुरीतियां को जन्म दिया, जिस का प्रसार शिक्षा के अभाव में और गुलामी के लंबे समय के कारण अधिक फैल गया। हिंदूधर्म की मूलतः सनातन संस्कृति ही है, किंतु ज्ञान के अभाव में, आक्रमणकारियों की कट्टरता में अपनी रक्षा हेतु और लोभ और स्वार्थ में हिंदू धर्म में विभिन्न विचारधारो ने जन्म लिया, लोग कट्टर भी होते गए, आक्रमणकारियो द्वारा बलात धर्म परिवर्तन, सांस्कृतिक धरोहर को नष्ट करने और हत्या और लुट के रहते सनातन संस्कृति की सतत विचारधारा को क्षति पहुंची। हिंदू धर्म में सात्विक ज्ञान का प्रचार और प्रसार कम होता गया और फिर यह राजसी और तामसी ज्ञान में अधिक परिवर्तित हुआ। फिर भी धन्य है वो महान आत्माए जिन्होंने समय समय पर इस भारत भूमि में जन्म ले कर सनातन सत्य के सात्विक ज्ञान को प्रचारित और प्रसारित किया। सनातन सत्य है, जो सत्य है, वो मिटाया नहीं जा सकता, किंतु काल में राजसी और तामसी ज्ञान जब सात्विक ज्ञान को कम करता है तो भगवान स्वयं प्रकट होते है या फिर किसी महापुरुष के द्वारा इस को पुनः प्रकाश में ले आते है। सनातन संस्कृति में अवतार भी इसी धारणा पर आधारित है।
हम यह तो कह सकते है कि हिंदू धर्म नही सनातन संस्कृति है, इसलिए कालांतर में जो धर्म इसी भारत भूमि में जन्मे अपने को हिन्दू धर्म से अलग मानते है या उन के नेता लोग स्वार्थ, तामसी ज्ञान और आक्रमणकारियों से प्रभावित हो कर स्वयं को अज्ञान से हिंदू नही समझते, उन्हे हिंदू या सनातनी होने का पुनः गौरव प्राप्त कराना होगा। कुछ हिंदू अज्ञान में किसी तथ्य की खोज किए बिना, जो उन के मन को उचित लगता है, वह कर्मकांड या रीतियों को अपना लेते है, जिस से समाज और धर्म में कुरीतियां जन्म ले लेती है। वे तामसी वृति के लोगो के भ्रामक प्रचार के शिकार हो जाते है। जो हिंदू तामसी ज्ञान में स्वार्थ और लोभ में मात्र हिंदू शब्द का प्रतिनिधित्व करते है परंतु आचरण से वे स्वार्थी और लोभी पशुवत जीवन को व्यतीत करते है, उन्हे ज्ञान से शनै: शनै: हिंदू धर्म की संस्कृति से परिचित भी करवाना होगा। इसी प्रकार आक्रमणकारियों को भी अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए सात्विक ज्ञान का पाठ करवाना होगा, यह कार्य हिंदू धर्म में सात्विक ज्ञानी पुरुषो को करना होगा, यही निष्काम कर्मयोग सन्यास होगा। क्योंकि धर्मो रक्षित: धर्म का मूल पाठ हिंदू धर्म की सनातन संस्कृति ही है।
आतिभौतिकवाद के युग में यदि कहे कि इंद्रियों से हम समस्त ज्ञान और अनुभव लेते है तो यह गलत होगा। क्योंकि जब तक मन उस से नहीं जुड़ता, आप आंख से देख कर भी नहीं देखते, कान से सुन कर भी नहीं सुनते। किंतु मन भी यदि विषय वासनाओं से भरा हो तो आप जो देखते है वह सब विषय वासनाओं के अनुरूप ही होगा। किसी स्त्री को देख कर मन में सात्विक, राजसी या तामसी भाव मन की कामना और आसक्ति के अनुरूप ही आयेगा। अतः जिस स्रोत से यह भाव उत्पन्न होता है उस को यदि सात्विक किया जाए या निष्काम और निर्लिप्त किया जाए तो ही हम समझ सकते है कि जो हम कार्य भोक्ता या कर्ता समझ कर रहे होते है, वह सब प्रकृति द्वारा ही किए जाते है। हम उस में अपने 24 तत्व वाले शरीर के साथ निमित्त मात्र है।
सात्विक ज्ञान को प्राप्त करने के त्याग की आवश्यकता है, निष्काम हो कर कर्मयोग करना, जब की राजसी ज्ञान में कुछ सरल नियम होते है और तामसी ज्ञान जीव का स्वाभाविक गुण है। इसलिए जब राजसी और तामसी ज्ञान की बहुलता हो, सत्य, मोक्ष, परमात्मा, यज्ञ, दान, तप और धर्म सभी राजसी और तामसी ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है, धर्म मोक्ष के अपेक्षा सांसारिक सुखों का विषय बन जाता है, धर्म की परिभाषा भी स्वार्थ, कट्टरता और संग्रह की होती है। सनातन संस्कृति पर जितने भी आक्रमणकारी अपनी कट्टरता के साथ आए, वे कोई सात्विक संस्कृति को ले कर नही आए, उन की तामसी वृति के कारण हिंदू धर्म भी अपनी रक्षा के लिए कट्टर होता गया। ये आक्रमणकारी मूलत: तामसी वृति के लोग थे, किंतु कालांतर में यही बसने और सनातन संस्कृति के प्रभाव से कुछ लोग राजसी एवम सात्विक भी हुए।
महाभारत काल भी आज के युग के समान काल था, जहां राजसी और तामसी वृत्तियों का बोलबाला हो गया था। विचारक और दार्शनिक लोगो ने राजसी वृति के समक्ष घुटने टेक दिए थे। इसलिए सात्विक वृति के पुन: उत्थान के लिए उस संस्कृति को नष्ट होना अनिवार्य था, यही सनातन सत्य है कि जब भी सात्विक ज्ञान का लोप होगा, राजसी और तामसी ज्ञान स्वत: अपने अज्ञान से नष्ट होगा।
अतः जब गीता में भगवान ज्ञान को व्याख्या या कर्मयोग को समझाते है, तो उसे समझने से पूर्व यह भी विचारणीय बात है, कि अनगिनत सैनिकों, महान योद्धाओं और ज्ञानी पुरुषो के बीच वह मात्र अर्जुन को ही क्यों बताई गई। भगवान ने ज्ञानी और भक्त के गुण भी बताए है और अर्जुन को उस के उपयुक्त भी कहा है। इसलिए भगवान ने अर्जुन को नवम अध्याय के प्रथम श्लोक में अनसूयु कह कर संबोधित भी किया है, जब तक वह गुण मनुष्य में नही होंगे, ज्ञान राजसी या तामसी ही होगा, सात्विक नही। इसलिए अपने गुण धर्म, वर्ण के अनुसार प्रत्येक सात्विक विचार धारा के जीव का कर्तव्य है कि वह राजसी वृति के लोगो को साथ ले कर तामसी शक्तियों के विरुद्ध अपने कर्तव्य धर्म का पालन करे, संघर्ष करे, फिर चाहे उसे अपने ही समाज, परिवार और धर्म के तामसी वृति के लोगो का ही विरोध भी क्यों न करना पड़े।
सनातन सत्य में हिंदू धर्म की विचार धारा भी सात्विक ज्ञान की ही है, जरूरत उस को ग्रहण करने वाले पात्र की है, वह उसे किस गुण के साथ रखता है। गीता पढ़ कर भी यदि ज्ञान का उदय न हो, उस का व्यवसायिक करण हो तो, गलती ज्ञान की नही, उस को ग्रहण करनेवाले की बुद्धि की है, इसी कारण गीता सुन कर भी धृतराष्ट्र में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
।। हरि ॐ तत् सत।। गीता विशेष – 18.22 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)