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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.22 II

।। अध्याय      18.22 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.22

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्‌।

अतत्त्वार्थवदल्पंच तत्तामसमुदाहृतम्॥

“yat tu kṛtsna-vad ekasmin,

kārye saktam ahaitukam..।

atattvārtha- vad alpaḿ ca,

tat tāmasam udāhṛtam”..।।

भावार्थ: 

परन्तु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्त्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है- वह तामस कहा गया है ॥२२॥

Meaning:

But that by which one clings to a single object as if it were everything, without logic, unconcerned with truth and trivial, that is called taamasic.

Explanation:

When the intellect is dulled under the effect of tamo guṇa, it clings to a fragmental concept as if it were the complete truth. People with such views often become fanatic about what they perceive to be the Absolute Truth. Their understanding is usually not even rational, nor grounded in the scriptures or in reality, and yet they zealously desire to impose their beliefs on others. The history of humankind has repeatedly seen religious zealots who imagine themselves as self-appointed champions of God and defenders of faith. They fanatically proselytize and find a few followers with the same kind of intellect, creating the phenomenon of the blind leading the blind. However, in the name of serving God and religion, they create disruption in society and obstruct its harmonious growth.

A teenager will not eat food unless her parents agree to let her go to a late-night party. A businessman is so keen on protecting his profits that he will stoop to physically harming his competitors. A politician is so keen on lining his pockets that he will sell state secrets to the enemy. A hospital will order unnecessary and even potentially harmful tests on its patients in order to increase its bottom line. We read such stories every day in the newspapers. Unfortunately, they are all too common these days.

There is a common theme in all these stories. A person is holding onto something trivial and giving it so much importance that they will stop at nothing to get it. The logic used to justify such actions is perverted. Such people have an extremely narrow vision and are not at all concerned with any the bigger picture. Shri Krishna says that a worldview, a knowledge that displays such characteristics is considered taamasic. He hesitates to even use the word knowledge here, using a pronoun instead.

Let us compare the types of knowledge we have seen so far. A saattvic knowledge reports that there is one eternal essence, one aatmaa, oneself in all. Raajasic knowledge reports that there is a different self in each body. Taamasic knowledge reports that the body itself is the aatmaa. Furthermore, anything is justified for ensuring the integrity of the body, including causing physical harm to others. Such people will never accept any other viewpoint and hold on to their perverted viewpoint ceaselessly.

।। हिंदी समीक्षा ।।

ज्ञान के सात्विक-राजसी भेद के बाद तामसी ज्ञान को दो विभिन्न मतों से किन्तु एक ही अर्थ में हम समझने का प्रयत्न करते है।

जो ज्ञान एकमात्र शरीर में ही संपूर्णता के सदृश्य आसक्त है, युक्ति रहित अर्थात जिस के पीछे कोई क्रिया नहीं, तत्व के अर्थस्वरूप परमात्मा की जानकारी से अलग करनेवाला एवम तुच्छ है, उसे तामस ज्ञान कहा गया है।

जब बुद्धि तमोगुण के प्रभाव से कुंठित हो जाती है तब यह विखंडित अवधारणा में इस प्रकार से निष्ठ हो जाती है जैसे कि वही पूर्ण सत्य है। ऐसी विचारधारा के साथ लोग प्रायः कट्टरवादी बन जाते हैं और जिसे वे समझते हैं उसे सत्य मानने लगते हैं। उनका ज्ञान सामान्य रूप से न तो तर्कसंगत और न ही शास्त्रों तथा सत्य पर आधारित होता है किन्तु फिर भी वे ईर्ष्यापूर्वक अपने विचारों को दूसरों पर थोपना चाहते हैं। मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसे धार्मिक उन्मादियों को देखा गया है जो स्वयं को भगवान का स्वयंभू, अनुयायी और उनके विधान का रक्षक बनने का ढोंग करते रहे हैं। वे कट्टरतापूर्वक धर्म परिवर्तन के लिए फुसलाते हैं और अपने समान बुद्धि वाले अनुयायी ढूंढ लेते हैं। इस प्रकार से वे ‘एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग दिखाने’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हैं। तथापि भगवान और धर्म की सेवा के नाम पर वे समाज में विघटन उत्पन्न करते हैं और भाई चारे की भावना के विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं।

प्रत्येक बद्ध जीव तमोगुण में ही उत्पन्न होता है। जो प्राणी प्रमाणों से या शास्त्रीय आदेशो के माध्यम से ज्ञान अर्जित नहीं करता, उस का ज्ञान उस के शारीरिक सुखों तक ही सीमित हो जाता है। उसे धर्म, सत्य, आत्मा, परमात्मा अथवा ईश्वर में मात्र शारीरिक आवश्यकताओं की तुष्टि ही नजर आती है। ऐसे ज्ञान जिस में खाने, पीने, सोने, रक्षा करने या लोभ, स्वार्थ, काम और आसक्ति के अतिरिक्त कोई भी परब्रह नही होता वो तामसी ज्ञान है।

हम ने पहले भी पढ़ा है कि सूक्ष्म शरीर के 18 तत्व सात्विक होते है किंतु जब यह 5 महाभूतो के स्थूल शरीर में प्रविष्ट करते है तो तामसी हो जाते है। शरीर से जीव और पशु में कोई अंतर नही होता, इसलिए सामान्यत: जीव सब कुछ यही शरीर है, यह आसक्ति कर बैठता है, इसलिए उस का ज्ञान खाने, पीने, सोने, रक्षा करने और मैथुन में सीमित रहता है, उस की बुद्धि भी धन, नाम, पद आदि कमाने में व्यतीत होती है, उस की पढ़ाई – लिखाई का उद्देश्य भी परिवार और स्वयं की शारीरिक क्रिया तक ही है। यहां तक जो कुछ भी आध्यात्मिक ज्ञान भी प्राप्त होता है, वह भी सांसारिक या पारलौकिक सुख की प्राप्ति के होता है। उस परम सत्य से कोई संबंध नहीं। भगवान ने इस प्रकार के ज्ञान को अहैतुकम अर्थात बिना युक्तिवाला निरर्थक ज्ञान कहा है।

द्वितीय अर्थ में तमोगुण के आधिक्य से अभिभूत बुद्धि किसी एक परिच्छिन्न कार्य में इस प्रकार आसक्त होती है मानो वह कार्य ही सम्पूर्ण सत्य हो। वह कभी कारण का विचार ही नहीं करती। तामसिक लोगों का यह ज्ञान अत्यन्त निम्नस्तरीय है। प्राय ऐसे लोग कट्टरवादी तथा अपने धर्म भक्ति, जीवन के दृष्टिकोण और मूल्यों के विषय में अत्यन्त हठवादी होते हैं एवम अपने विचार, धर्म एवम आचरण को दूसरे पर थोपने एवम उस के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते है।  वे जगत् का तथा अन्य घटनाओं के कारण का कभी अन्वेषण नहीं करते हैं। श्री शंकराचार्य कहते हैं कि जो ज्ञान किसी एक कार्य में ही आसक्त है। युक्तिरहित और तत्त्वार्थ से भी रहित है। यथार्थ अर्थ का नाम तत्त्वार्थ है, ऐसा तत्त्वार्थ जिस ज्ञान का ज्ञेय हो, वह ज्ञान तत्त्वार्थयुक्त होता है और जो तत्त्वार्थयुक्त न हो वह अतत्त्वार्थवत् अर्थात् तत्त्वार्थ से रहित होता है एवं जो हेतु रहित होने के कारण ही अल्प है अथवा अल्पविषयक होने से या अल्प फलवाला होने से अल्प है, वह ज्ञान तामस कहा गया है क्योंकि अविवेकी तामसी प्राणियों में ही ऐसा ज्ञान देखा जाता है। इन का ज्ञान निर्युक्तिक होता है अर्थात् किसी प्रामाणिक युक्ति पर आश्रित नहीं होता। ऐसी भ्रमित कट्टरवादी और पूर्वाग्रहों से युक्त बुद्धि के द्वारा अवलोकन करते हुए तामसी लोग जगत् को कभी यथार्थ रूप में नहीं देख पाते। इतना ही नहीं, वरन् वे अपनी कल्पनाओं को जगत् पर थोपकर उसे सर्वथा विपरीत रूप में भी देखते हैं।

कोई भी दर्शन शास्त्र विचारों की स्वतंत्रता का हनन नही करता क्योंकि चिंतन- मनन एवम सभी विचारों का आदर ही मनुष्य की उन्नति का मार्ग है। अपनी सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करना एवम उस के प्रेरित करना जीव के मानसिक विकास एवम सभ्यता का प्रतीक है किंतु अपने विचारों एवम आकांक्षाओं को बलात लादना या उस के खून खराबा करना आसुरी प्रवृति है। ऐसे आसुरी प्रवृति वाले अल्पज्ञानी लोग धर्म-संस्कृति के तामसी ज्ञान  के कारण असुर कहलाते है।

वास्तव में, तमोगुणी लोग जगत् को मात्र अपने भोग का विषय ही मानते हैं। वे विश्व के अधिष्ठान परमात्मा की सर्वथा उपेक्षा करते हैं। मान और दम्भ के कारण उनका ज्ञान संकुचित होता है। सारांशत, द्वैतप्रपंच को देखते हुए उसके अद्वैत स्वरूप को पहचानना सात्त्विक ज्ञान है नामरूपमय सृष्टि के भेदों को ही देखना और उन्हें सत्य मानना राजस ज्ञान है और अपूर्ण को ही पूर्ण मानना तामस ज्ञान है।हमें इसका विस्मरण नहीं होना चाहिए कि पूर्वोक्त तथा आगे भी कथनीय त्रिविध वर्गीकरण का प्रयोजन अन्य लोगों के विश्लेषण के लिए न होकर, आत्मनिरीक्षण के लिए हैं। साधक को समयसमय पर स्वयं का मूल्यांकन करते रहना चाहिए।

बाल गंगाधर तिलक जी लिखा है कि स्वयं एवम अपने बाल बच्चों और स्त्री को अपना संसार समझने वाला तामसी, समाज- गाँव, शहर देश को अपना परिवार समझने वाला राजसी तथा प्राणिमात्र को एकमत्व भाव से एक ही परब्रह का स्वरूप समझने वाला ज्ञान सात्विक है। ज्ञान का एक बार उदय हो जाने मात्र से ज्ञान मन मे अंकित हो जाता है जिस का प्रभाव मनुष्य की देह, स्वभाव, आचरण, चिंतन एवम समस्त क्रियाओ पर पड़ता है, यदि ज्ञान सात्विक है तो हम देवीसम्पदा गुणों की ओर बढ़ते है यदि ज्ञान तामसी है तो हम आसुरी सम्पदा की ओर बढ़ते है। देवीसम्पदा एवम आसुरी सम्पदा का वर्णन विस्तार से तेहरवें अध्याय में बताया जा चुका है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.22 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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