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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.13 II

।। अध्याय      18.13 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.13

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।

साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्‌॥

“pañcaitāni mahā- bāho,

kāraṇāni nibodha me..।

sāńkhye kṛtānte proktāni,

siddhaye sarva- karmaṇām”..।।

भावार्थ: 

हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अंत करने के लिए उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गए हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान ॥१३॥

Meaning:

Learn these five factors for the accomplishment of all actions, O mighty armed, which are spoken of in the Saankhya in which actions culminate.

Explanation:

On knowing that work can be performed without attachment to the fruits, a natural question arises: “What constitutes action?” Shree Krishna announces to Arjun that he is going to address this question now, as this knowledge will help develop detachment from the results of actions. He begins describing the true nature of action with this shloka. Typically, we tend to think we are responsible for initiating, executing and completing every action, from the simplest action like drinking a cup of tea, to a complex action like planning the construction of a 100 storey building.

He says that there are other factors are play which are responsible for the accomplishment of all actions, as denoted by the Saankhya or Vedaanta. Simultaneously, he clarifies that the description of the five limbs of action is not a new analysis, but what has previously been described in the Sānkhya philosophy as well. Sānkhya refers to the system of philosophy established by Maharishi Kapil, who was a descension of God and appeared on the earth as the child of Kardam Muni and Devahuti. The Sānkhya philosophy he propounded is based upon a system of analytical rationality. It develops knowledge of the self through an analysis of the elements within the body and in the world. It also ascertains the nature of cause and effect by an analysis of the elements of action. He also conveys to Arjuna that a new topic has started, by calling out his name.

In the fourth chapter, we came across a shloka which stated that all actions in their totality culminate in knowledge. There are two components to this knowledge. The first is that the self, the eternal essence, the aatmaa, is actionless, since there is no possibility of change or modification in something that is changeless. This leads us to the second component of knowledge, which is as follows. If I, the self, am not performing action, something else must be doing so. As long as we are not fully convinced that something else is performing actions, we will hold on to the notion that we are doing so.

A naive person sits in a bus and thinks that he is driving it. You have to convince him that he is not driving it, but it is the bus driver that is driving it. In the same way, Shri Krishna gives us a detailed analysis of action and its components, such that we may come to the right conclusion. We are naive in thinking that the I, the self performs action when the Saankhya, the Vedaanta tells us that we do not. Once we come to this conclusion, we will automatically renounce the doership of action, and consequently, free ourselves from the chain of action and reaction.

।। हिंदी समीक्षा ।।

यह जान लेने पर कि फल की आसक्ति के बिना कर्म का संपादन किया जा सकता है, इससे एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि ‘कर्म कैसे निर्मित होता है?” श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि वे अब इस प्रश्न का उत्तर देने जा रहे हैं क्योंकि यह ज्ञान कर्म फलों से विरक्ति विकसित करने में सहायता करेगा। साथ ही वे स्पष्ट करते हैं कि कर्म के पाँच अंगो का वर्णन कोई नया विश्लेषण नहीं है बल्कि सांख्य दर्शन पद्धति में पहले भी इस प्रकार से इसकी विवेचना की जा चुकी है। सांख्य वह दर्शन पद्धति है जिसे कपिल मुनि द्वारा प्रतिपादित किया गया था जोकि भगवान के अवतार थे तथा पृथ्वी पर कर्दम मुनि और देवहुति के पुत्र के रूप में अवतरित हुए थे। उन्होंने जिस सांख्य दर्शन को प्रतिपादित किया वह विश्लेषणात्मक तर्क शक्ति पर आधारित है। यह शरीर में तथा संसार में पाए जाने वाले तत्त्वों के विश्लेषण द्वारा आत्मा के ज्ञान को विकसित करता है। यह कर्म के तत्त्वों के विश्लेषण द्वारा उसके कारण और प्रभाव की प्रकृति के बारें में भी पता लगाता है।

क्रिया, कारक और फल आदि आत्मा में अविद्या से आरोपित होने के कारण परमार्थदर्शी,( आत्मज्ञानी ) ही सम्पूर्ण कर्मों का अशेषतः त्यागी हो सकता है। कर्म करनेवाले अधिष्ठान ( शरीर ) कर्ता क्रिया आदि कारकों को आत्मभाव से देखनेवाला अज्ञानी सम्पूर्ण कर्मों का अशेषतः त्याग नहीं कर सकता।

यह बात अगले श्लोक से दिखलाते हुए भगवान शास्त्रों के अनुसार बताए मार्ग को बताते हैं – हे महाबाहो! इन आगे कहे जाने वाले पाँच कारणों को अर्थात् कर्म के साधनों को, तू मुझ से जान।

अगले उपदेश में अर्जुन के चित्त को लगाने के लिये और अधिष्ठानादि के ज्ञान की कठिनता दिखाने-के लिये, उन पाँचों कारणों को जानने योग्य बतला कर उन की स्तुति करते हैं। जिस शास्त्र में जाननेयोग्य पदार्थों की संख्या ( गणना ) की जाय उसका नाम सांख्य अर्थात् वेदान्त है।

जिस में सम्पूर्ण कर्मों का अन्त हो जाता है, ऐसे सांख्यसिद्धान्तमें सम्पूर्ण विहित और निषिद्ध कर्मों के होने में पाँच हेतु बताये गये हैं। स्वयं (स्वरूप) उन कर्मों में हेतु नहीं है।

निबोध मे – इस अध्याय में भगवान् ने जहाँ सांख्य सिद्धान्त का वर्णन आरम्भ किया है, वहाँ निबोध क्रिया का प्रयोग किया है, जब कि दूसरी जगह श्रृणु क्रिया का प्रयोग किया है। तात्पर्य यह है कि सांख्य सिद्धान्त में तो निबोध पद से अच्छी तरह समझने की बात कही है और दूसरी जगह श्रृणु पद से सुनने की बात कही है। अतः सांख्य सिद्धान्त को गहरी रीति से समझना चाहिये। अगर उसे अपने आप (स्वयं) से गहरी रीति से समझा जाय, तो तत्काल तत्त्व का अनुभव हो जाता है।

कृतान्त भी उसी का विशेषण है। कृत कर्म-को कहते हैं , जहाँ उस का अन्त अर्थात् जहाँ कर्मों की समाप्ति हो जाती है वह कृतान्त है – यानी कर्मों का अन्त है।

गीता में यह सिंद्धान्त पहले अनेक बार कहा गया है, कि मनुष्य को न तो अपने कर्म फल की आशा करनी चाहिये और न ऐसी अहंकार, बुद्धि एवम मन मे रखनी चाहिये। मनुष्य के कर्म फल के अनेक कारक है, प्रकृति भी सतत कर्म करती रहती है, यही समझना आवश्यक है कि हम नहीं, नियति परिस्थितियां खड़ी करती है और हम उस मे से भाग नही सकते।

कर्म चाहे शास्त्रविहित हों, चाहे शास्त्रनिषिद्ध हों, चाहे शारीरिक हों, चाहे मानसिक हों, चाहे वाचिक हों, चाहे स्थूल हों और चाहे सूक्ष्म हों – इन सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये पाँच हेतु कहे गये हैं। जब पुरुष का इन कर्मों में कर्तृत्व रहता है, तब कर्मसिद्धि और कर्मसंग्रह दोनों होते हैं और जब पुरुष का इन कर्मों के होने में कर्तृत्व नहीं रहता तब कर्मसिद्धि तो होती है, पर कर्मसंग्रह नहीं होता, प्रत्युत क्रियामात्र होती है। जैसे, संसार मात्र में परिवर्तन होता है अर्थात् नदियाँ बहती हैं, वायु चलती है, वृक्ष बढ़ते हैं, आदि आदि क्रियाएँ होती रहती है, परन्तु इन क्रियाओँ से कर्म संग्रह नहीं होता अर्थात् ये क्रियाएँ पाप पुण्य जनक अथवा बन्धनकारक नहीं होतीं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्तृत्वाभिमान से ही कर्मसिद्धि और कर्मसंग्रह होता है। कर्तृत्वाभिमान मिटने पर क्रियामात्र में अधिष्ठान, करण, चेष्टा और दैव – ये चार हेतु ही होते हैं।

अर्जुन स्वरूप से कर्मों का त्याग करना चाहते थे अतः उन को यह समझाना था कि कर्मों का ग्रहण और त्याग – दोनों ही कल्याण में हेतु नहीं हैं। कल्याण में हेतु तो परिवर्तनशील नाशवान् प्रकृति से अपरिवर्तनशील अविनाशी अपने स्वरूप का सम्बन्धविच्छेद ही है। उस सम्बन्धविच्छेद की दो प्रक्रियाएँ हैं – कर्मयोग और सांख्ययोग। कर्मयोग में तो फल का अर्थात् ममता का त्याग मुख्य है और सांख्ययोग में अहंता का त्याग मुख्य है। परन्तु ममता के त्याग से अहंता का और अहंता के त्याग से ममता का त्याग स्वतः हो जाता है। कारण कि अहंता में भी ममता होती है।  मैं पन के साथ भी मेरापन है। इसलिये ममता (मेरापन) को छोड़ने से अहंता (मैंपन) छूट जाती है । ऐसे ही पहले अहंता होती है, तब ममता होती है अर्थात् पहले मैं होता है, तब मेरापन होता है। परन्तु जहाँ अहंता(मैंपन) का ही त्याग कर दिया जायगा, वहाँ ममता (मेरापन) कैसे रहेगी वह भी छूट ही जायगी।

भगवान् श्रीकृष्ण प्रस्तुत खण्ड में, कर्म के स्थूल रूप तथा प्रेरणा, उद्देश्य आदि सूक्ष्म स्वरूप का भी वर्णन करते हैं। किसी भी लौकिक अथवा आध्यात्मिक कर्म को सम्पादित करने के लिए पाँच कारणों की अपेक्षा होती है। ये मानों कर्म के अंग हैं, जिन के बिना कर्म की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि मनुष्य अपने कर्मों को अनुशासित और सुनियोजित कर आन्तरिक सांस्कृतिक विकास को सम्पादित करना चाहता हो, तो उसे अत्याधिक साहस, प्रयोजन का सातत्य, आत्मविश्वास तथा बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता होती है। कर्मसम्पादन के लिए आवश्यक पाँच कारणों का वर्णन सांख्य दर्शन में किया गया है। यहाँ सांख्य शब्द से तात्पर्य वेदान्त से है कपिल मुनि जी के सांख्य दर्शन से नहीं, क्योंकि उसमें इनका वर्णन नहीं किया गया है।

सोने को शुद्ध होने के लिए उसे तपना पड़ता है, उस में क्षार भी मिलाया जाता है, जिस से जैसे जैसे वह तपता है, उस की अशुद्धियां दूर होती जाती है, इसी प्रकार निष्काम कर्म द्वारा जब कोई कर्मयोगी तपता है तो उस के संचित और प्रारब्ध के कर्म नष्ट होने लगते है, और वह जीव राजस और तामस गुणों से मुक्त हो कर सात्विक होने लगता है। सात्विक होना मुक्ति की पहली सीढ़ी है। सम्राट अशोक में विरक्ति युद्ध के बाद ही पैदा हुई।

सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि में पाँच हेतु कौन से हैं अब यह आगे पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.13।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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