।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.12 II
।। अध्याय 18.12 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.12॥
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ॥
“aniṣṭam iṣṭaḿ miśraḿ ca,
tri-vidhaḿ karmaṇaḥ phalam..।
bhavaty atyāgināḿ pretya,
na tu sannyāsināḿ kvacit”..।।
भावार्थ:
कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता (कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन)॥१२॥
Meaning:
The three-fold fruit of action, undesirable, desirable and mixed, goes after death to the atyaagees, but never to the sanyaasis.
Explanation:
Why does a person compromise with values and follows adharma? Only because in the future, by following only dhārmic worship, he does not want unfavourable situations and therefore he compromises with the values. A karmi will have stress and strain; he will be worried about his future security and this very fear and worry will make him compromise with values and therefore all his karmas will produce threefold results. 1) aniṣṭam; means pāpa phalam unfavourable or anti result, because he compromises, and he justifies the comprise as a necessary evil in Kaliyuga and we are very intelligent in justifying any akramam. 2) iṣṭam means puṇya phalam favourable result and 3) miśram means mixed of favourable and unfavourable. So, these are the three types of results which are responsible for three types of reincarnation. aniṣṭam, the pāpa phalam will give inferior birth; iṣṭam; puṇya phalam will give superior birth and miśram will give human birth.
Thus, Shri Krishna elaborates on the theory of karma in this chapter. Every action has a reaction, and this reaction is also known as the phala result or fruit of the action. When we cross the road to catch a bus, we could get one of three results. We could catch the bus, we could miss the bus, or we could get into a packed bus with no room for seating. The result could be desirable, undesirable or mixed. This is a law of the universe, no different than the law of gravity. The fruit always comes to the performer of the action, with the same certainty as the bill collector comes to collect a debt, per the words of Sant Jnyaneshwar.
Any fruit that is found in nature contains seeds. These seeds can create trees that can generate many more fruits. Similary, every fruit that results from an action has the potential to create innumerable desires that result in even more actions. This infinite chain of action, reaction, fruit, desire and action is nothing but bondage or samsaara. One who is an atyaagi, one who has not given up attachment to fruits of action, is bound in this chain. By practicing karmayoga, by giving up attachment to the fruit of action, we can break this chain.
Now, let us proceed to the next phase of karma yoga. As long as we hold the notion that we are performing all actions, we cannot proceed further in the journey of a seeker. Performance of action is falsely superimposed on the eternal essence, which is beyond all action, beyond all change. The second chapter made it very clear that there can be no change in the aatmaa, the eternal essence. Unless we fully internalize the notion that our “I”, our self does not perform action, we will remain entrenched in samsaara. Shri Krishna says that only a sanyaasi, only one who sees that Prakriti really performs actions, can destroy current, past and future fruits of action. Karma yōgi will get purity of mind, mental purity will bring him to a guru at the appropriate time, and guru, means the one who gives knowledge, the Guru who gives opportunity for śravaṇam, śravaṇam will give mōkṣa. Therefore, karma yōginam, paramparaya mōkṣam bhavathi. karma yōga will not give liberation directly; through purity, guru, śravaṇam, jñānam, mōkṣa. This topic is elaborated in the following shlokas.
।। हिंदी समीक्षा ।।
निष्काम एवम आसक्ति रहित हो कर्म करना त्याग है ही, किन्तु यह मोक्ष प्राप्ति का साधन भी है। इसलिये सकाम पुरुष को कर्म बंधन का चक्र जन्म जन्मांतर तक मिलता है।
कर्म का फल तीन तरह का होता है – इष्ट, अनिष्ट और मिश्र। जिस परिस्थिति को मनुष्य चाहता है, वह इष्ट कर्मफल है। जिस परिस्थिति को मनुष्य नहीं चाहता, वह अनिष्ट कर्मफल है और जिस में कुछ भाग इष्ट का तथा कुछ भाग अनिष्ट का है, वह मिश्र कर्मफल है।
कर्म जीवन का अनिवार्य तत्व है। किंतु कर्म में कोई व्यक्ति मूल्यों से समझौता कर के अधर्म का पालन क्यों करता है? सिर्फ इसलिए कि भविष्य में वह अपने जीवन में सिर्फ धार्मिक आचरण कर के प्रतिकूल परिस्थितियाँ नहीं चाहता, इसलिए मूल्यों से समझौता करता है। एक कर्मी के पास तनाव और दबाव होगा, वह अपने भविष्य की सुरक्षा को लेकर चिंतित होगा और यही डर और चिंता उसे सात्विक मूल्यों से समझौता करवाएगी और इसलिए उस के सभी कर्म तीन प्रकार के परिणाम देंगे। १) अनिष्टम; इस का मतलब है पाप फल, प्रतिकूल या विरुद्ध परिणाम, क्योंकि वह समझौता करता है और वह कलियुग में समझौते को एक आवश्यक बुराई के रूप में उचित ठहराता है और हम किसी भी अकर्म को उचित ठहराने में बहुत बुद्धिमान हैं। २) इष्टम का मतलब है पुण्य फल अनुकूल परिणाम और ३) मिश्रम का मतलब है अनुकूल और प्रतिकूल का मिश्रण। तो ये तीन प्रकार के परिणाम हैं जो तीन प्रकार के पुनर्जन्म के लिए जिम्मेदार हैं। अनिष्टम, पाप फल निम्न जन्म देगा; इष्टम्; पुण्य फलम् श्रेष्ठ जन्म देगा और मिश्रम् मानव जन्म देगा।
वास्तव में देखा जाय तो संसार में प्रायः मिश्रित ही फल होता है जैसे – धन होने से अनुकूल (इष्ट) और प्रतिकूल (अनिष्ट) – दोनों ही परिस्थितियाँ आती हैं धन से निर्वाह होता है – यह अनुकूलता है और टैक्स लगता है, धन नष्ट हो जाता है, छिन जाता है – यह प्रतिकूलता है। तात्पर्य है कि इष्ट में भी आंशिक अनिष्ट और अनिष्ट में भी आंशिक इष्ट रहता ही है। कारण कि सम्पूर्ण संसार त्रिगुणात्मक है, यह जन्म भी दुःखालय और सुखरहित । अतः चाहे इष्ट (अनुकूल) परिस्थिति हो, चाहे अनिष्ट (प्रतिकूल) परिस्थिति हो, वह सर्वथा अनुकूल या प्रतिकूल होती ही नहीं। यहाँ इष्ट और अनिष्ट कहने का मतलब यह है कि इष्ट में अनुकूलता की और अनिष्ट में प्रतिकूलता की प्रधानता होती है। वास्तव में कर्मों का फल मिश्रित ही होता है क्योंकि कोई भी कर्म सर्वथा निर्दोष नहीं होता।
धर्मशास्त्रों में स्वर्ग की प्राप्ति के लिए, भौतिक एवम परालौकिक सुख व्रत, उपवास एवम यज्ञ आदि का वर्णन भी है। अर्जुन भी शास्त्रों का ज्ञाता था, इसलिए युद्ध करने अपयश एवम नरक की प्राप्ति की बाते प्रथम अध्याय में कर रहा था। यह सब ज्ञान, उन अल्पज्ञानियो का है जिन्हे जन्म – मरण से मुक्ति नही चाहिए। भगवान भी स्पष्ट करते है कि कोई भी कर्म फल के बिना नहीं होगा, किंतु कामना और आसक्ति में किए कर्म का फल इष्ट या अनिष्ट या मिश्रित होगा, वही दुख और बंधन का कारक भी होगा। यदि निष्काम कर्म करे, तो कर्म का फल भी क्षीण हो कर समाप्त होगा। अन्यथा हमारे पुनः जन्म का कारक बन जाएगा।
ऐसा यह तीन प्रकार का फल, अत्यागियों को अर्थात् परमार्थ संन्यास न करने वाले कर्मनिष्ठ अज्ञानियों को ही, मरने के बाद भी मिलता है। केवल ज्ञाननिष्ठा में स्थित परमहंस परिव्राजक वास्तविक संन्यासियों को, कभी नहीं मिलता। क्योंकि वे केवल सम्यग्ज्ञाननिष्ठ पुरुष संसार के बीजरूप अविद्यादि दोषों का मूलोच्छेद नहीं करते।
सभी कर्मों का फल उनके गुण स्तर पर निर्भर करता है। इस के पूर्व त्रिविध त्याग का वर्णन किया गया था और अब यहाँ उनके त्रिविध फलों का वर्णन किया जा रहा है। मनुष्य की इच्छा का बाह्य जगत् में भी प्रक्षेपण होता है, उसे कर्म कहते हैं। और प्रत्येक कर्म, कर्ता की मनस्थिति तथा उसके उद्देश्य के अनुसार, अपना संस्कार उस कर्ता के अन्तकरण में अंकित करता है। मानवमन का स्वभाव कर्मों को दोहराने का है। भावी विचार भूतकाल के विचार चिन्हों का ही अनुकरण करते हैं। इस प्रकार, कर्म से वासनायें उत्पन्न होती हैं और फिर जगत् की घटनाओं के साथ इन वासनाओं के अनुसार हमारी प्रतिक्रियायें होती हैं। दर्शनशास्त्र में कर्मफल से तात्पर्य केवल लौकिक फल से ही न होकर, हमारे अन्तकरण में अंकित होने वाले कर्मों के संस्कारों से भी है।
काल के सतत् प्रवाह में वर्तमान काल निकट भविष्य को निर्धारित करता है। इसलिए स्पष्ट है कि विभिन्न संरचनाओं वाली हमारी वासनायें ही निकट भविष्य की घटनाओं के प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं को निर्धारित करेंगी। यदि इसी सिद्धांत को हम अपने वर्तमान देह के मरण के क्षण तक आगे बढ़ायें, तो यह तथ्य स्पष्ट हो जायेगा कि मरणोपरान्त का हमारा देह तथा जन्म देश आदि का निर्धारण उस समय की हमारी वासनाओं के अनुरूप ही होगा। यही सनातन धर्म में प्रतिपादित पुनर्जन्म का सिद्धांत है। शुभ कर्मों के फल उच्चलोक का सुख है और अशुभ कर्मों का फल अशुभ अर्थात् निम्नस्तर का दुखपूर्ण पशु जीवन है। शुभाशुभ के मिश्रण के फलस्वरूप मनुष्य देह की प्राप्ति होती है। इस देह में रहते हुए हम अपने बन्धनों को और अधिक दृढ़ भी कर सकते हैं और उन बन्धनों से पूर्ण मुक्ति भी प्राप्त कर सकते हैं। अत लक्ष्य का निर्धारण हमें ही करना है।
निसन्देह, सभी मनुष्यों के हृदय में सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्ति का आह्वान होता रहता है, परन्तु उसी हृदय में निवास कर रहे अवगुणरूपी पशु भी भौंकते, चीखते, पुकारते और गर्जना करते रहते हैं। वे हमें भ्रमित कर अपने लक्ष्य से दूर ले जाते हैं। यदि मनुष्य अपने श्रेष्ठ आदर्श से तादात्म्य करता है तो उसके अवगुण शनै शनै समाप्त हो जाते हैं और यदि वह उपाधियों के साथ तथा विषयों में आसक्त होता है, तो उसके अवगुण निरन्तर प्रवृद्ध ही होते जाते हैं जो उसके दिव्य स्वरूप को आच्छादित करते हैं।
व्यवहार में अनिश्चित भविष्य, असुरक्षा और संसार के सुख भोग की आशा में मनुष्य जो भी कर्म करता है, वह उन से इष्ट फलो की आशा में ही करता है, किंतु उसे फल उस की श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के प्रकृति के तीन गुणों से अनुकूल मिलते है और कुछ पराब्ध और कुछ संचित हो जाते है। यदि वह भविष्य की अनिश्चितता को त्याग का निष्काम और निर्लिप्त हो जाए तो कर्म के फल उस को नही बांधेंगे। संन्यासी भी यही होते है। जो भविष्य की नही सोचते, निर्भय और कामना रहित रहते है।
जीव और प्रकृति के संयोग में जीव में कर्तृत्त्व भाव आने के कारण प्रकृति की क्रियाओं को वह अपने स्वयं के कर्म मान लेता है। जीव अकर्ता एवम साक्षी है किंतु यह मान लेना ही बंधन है क्योंकि जो क्रिया की जाती है, वह प्रकृति की है, जीव की नहीं। कर्म सन्यास योगी इस तथ्य को समझ लेता है और जैसे ही इस बात का उसे ज्ञान हो जाता है कि जो कुछ भी क्रियाएं हो रही है वह प्रकृति कर रही है और वह दृष्टा मात्र है, तो उस के समस्त कार्य निष्काम एवम आसक्ति रहित होंगे। इसलिये जीव किसी भी कर्म बंधन से मुक्त होगा। यही त्याग या सन्यास है।
संक्षेप में, उच्च और नीच के इस शक्ति परीक्षण में निर्णायक तत्त्व मनुष्य का अपना व्यक्तित्व ही होता है। इस श्लोक में कथित त्रिविध फलों से पूर्ण मुक्ति पाने के लिए साधक को अपने त्रिगुणातीत आत्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना चाहिए। त्याग और संन्यास के सूक्ष्म भेद को यहाँ स्पष्ट किया गया है। त्याग का अर्थ है, त्रिगुणों से प्रभावित मन की वृत्तियों के साथ होने वाले तादात्म्य का प्रयत्नपूर्वक त्याग तथा संन्यास का अर्थ है उस अहंकार का ही त्याग जो शुभअशुभ कर्मों का कर्ता तथा इष्टानिष्टादि फलों का भोक्त बनता है। सम्पूर्ण गीता में मनुष्य के व्यक्तित्व के पुनर्गठन के सिद्धांत एवं साधनाओं का अत्यन्त सुन्दर और विस्तृत विवेचन किया गया है।
उसका सारांश यह है कि (1) सर्वप्रथम अहंकार और स्वार्थ का त्याग कर ईश्वरार्पण की भावना से कर्तव्य पालन करना,
(2) इस प्रकार अन्तकरण की शुद्धि प्राप्ति होने पर वेदान्त प्रमाण के द्वारा आत्मस्वरूप का श्रवण एवं मनन करना और
(3) तत्पश्चात् आत्मा के निदिध्यासन द्वारा आत्मसाक्षात्कार करके उसी सत्स्वरूप में निष्ठा प्राप्त करना। आत्मानुभव में भवसागर सूख जाता है। शुद्ध आत्मा में कुछ बनने की क्रिया नहीं है। मन की वासनाओं से वह सदा असंस्पृष्ट रहता है।
कर्मयोगी को मन की शुद्धता की आवश्यकता होती है, वह सात्विक भाव से कर्म करने से प्राप्त होगी। मानसिक शुद्धता उसे उचित समय पर गुरु के पास ले जाएगी और गुरु का अर्थ है ज्ञान देने वाला, श्रवण का अवसर देने वाला गुरु, श्रवण मोक्ष देगा। इसलिए कर्मयोगिनम्, परम्परा मोक्षम् भवति। कर्मयोग सीधे मुक्ति नहीं देगा; शुद्धता, गुरु, श्रवणम्, ज्ञानम्, मोक्ष के माध्यम से मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसलिए कर्मयोगी को आत्म शुद्धि के लिए निमित्त हो कर निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए।
भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट करते है कि सन्यासी हो या निष्काम कर्मयोगी दोनों का त्याग एक ही है, जो उन्हें कर्म बंधन से मुक्त करता है। इसलिये त्याग कर्म का नहीं, उस के प्रति आसक्ति, कर्तृत्व भाव एवम फलाशा का ही होना चाहिए। अन्यथा कर्म से कोई मुक्त नही है और कर्मरूपी बीज कभी भी, कँही भी पनप कर फल देता ही है।
जिस प्रकार कर्मयोग में कर्मों का अपने साथ सम्बन्ध नहीं रहता, ऐसे ही सांख्य सिद्धान्त में भी कर्मों का अपने साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता – इसका विवेचन आगे पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.12।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)