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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.11 II Additional II

।। अध्याय      18.11 II विशेष II

।। कर्म- भाग्य – कर्म फल की अत्यंत सुंदर व्याख्या, जो अनेक अनुत्तरित प्रश्नों का हल सरल भाषा मे रामसुख दास बताई है।। विशेष – गीता 18.11 ।।

(यह कर्म की सरल एवम सम्पूर्ण व्याख्या काफी बड़ी है, किन्तु महत्वपूर्ण भी, इस को पढ़ने से आगे के श्लोक भी सही समझ मे आएंगे। आप से अनुरोध के पढ़ कर कोई शंका रह जाये तो अवश्य लिखे)

पुरुष और प्रकृति – ये दो हैं। इन में से पुरुष में कभी परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति कभी परिवर्तन रहित नहीं होती। जब यह पुरुष प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब प्रकृति की क्रिया पुरुष का कर्म बन जाता है क्योंकि प्रकृति के साथ सम्बन्ध मानने से तादात्म्य हो जाता है। तादात्म्य होने से जो प्राकृत वस्तुएँ प्राप्त हैं, उन में ममता होती है और उस ममता के कारण अप्राप्त वस्तुओं की कामना होती है। इस प्रकार जब तक कामना, ममता और तादात्म्य रहता है, तब तक जो कुछ परिवर्तनरूप क्रिया होती है, उस का नाम कर्म है। पुरुष अकर्ता एवम साक्षी है, प्रकृति क्रियाशील। पुरुष को भ्रम है कि वह कर्ता है, जब कि समस्त क्रियाएं प्रकृति के पुरुष के चारो ओर किये नृत्य के परिणाम है।

तादात्म्य के टूटने पर वही कर्म पुरुष के लिये अकर्म हो जाता है अर्थात् वह कर्म क्रियामात्र रह जाता है, उस में फलजनकता नहीं रहती – यह कर्म में अकर्म है। अकर्म अवस्था में अर्थात् स्वरूप का अनुभव होने पर उस महापुरुष के शरीर से जो क्रिया होती रहती है, वह अकर्म में कर्म है। तात्पर्य यह हुआ कि अपने निर्लिप्त स्वरूप का अनुभव न होने पर भी वास्तव में सब क्रियाएँ प्रकृति और उस के कार्य शरीर में होती हैं परन्तु प्रकृति या शरीर से अपनी पृथक्ता का अनुभव न होने से वे क्रियाएँ कर्म बन जाती हैं।

कर्म तीन तरह के होते हैं – क्रियमाण, सञ्चित और प्रारब्ध। अभी वर्तमान में जो कर्म किये जाते हैं, वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं। वर्तमान से पहले इस जन्म में किये हुए अथवा पहले के अनेक मनुष्य जन्मों में किये हुए जो कर्म संगृहीत हैं, वे सञ्चित कर्म कहलाते हैं। सञ्चित में से जो कर्म फल देने के लिये प्रस्तुत (उन्मुख) हो गये हैं अर्थात् जन्म, आयु और अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में परिणत होने के लिये सामने आ गये हैं, वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं।

क्रियमाण कर्म दो तरह के होते हैं -शुभ और अशुभ। जो कर्म शास्त्रानुसार विधिविधान से किये जाते हैं, वे शुभ कर्म कहलाते हैं और काम, क्रोध, लोभ, आसक्ति आदि को लेकर जो शास्त्रनिषिद्ध कर्म किये जाते हैं, वे अशुभ कर्म कहलाते हैं।शुभ अथवा अशुभ प्रत्येक क्रियमाण कर्म का एक तो फल अंश बनता है और एक संस्कार अंश। ये दोनों भिन्नभिन्न हैं।

फल अंश-  संस्कार अंश – दृष्ट अदृष्ट तात्कालिक कालान्तिरक लौकिक पारलौकिक शुद्ध अशुद्ध क्रियमाण कर्म के फल अंश के दो भेद हैं – दृष्ट और अदृष्ट। इन में से दृष्ट के भी दो भेद होते हैं – तात्कालिक और कालान्तिरक। जैसे, भोजन करते हुए जो रस आता है, सुख होता है, प्रसन्नता होती है और तृप्ति होती है – यह दृष्ट का तात्कालिक फल है और भोजन के परिणाम में आयु, बल, आरोग्य आदि का बढ़ना – यह दृष्ट का कालान्तिरक फल है।

इसी प्रकार अदृष्ट के दो भी भेद होते हैं — लौकिक और पारलौकिक। जीते जी ही फल मिल जाय – इस भाव से यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, मन्त्रजप आदि शुभकर्मों को विधिविधान से किया जाय और उस का कोई प्रबल प्रतिबन्ध न हो तो यहाँ ही पुत्र, धन, यश, प्रतिष्ठा आदि अनुकूल की प्राप्ति होना और रोग, निर्धनता आदि प्रतिकूल की निवृत्ति होना – यह अदृष्ट का लौकिक फल है और मरने के बाद स्वर्ग आदि की प्राप्ति हो जाय – इस भाव से यथार्थ विधिविधान और श्रद्धा विश्वासपूर्वक जो यज्ञ, दान, तप, आदि शुभ कर्म किये जायँ तो मरने के बाद स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होना – यह अदृष्ट का पारलौकिक फल है।

पाप पुण्य के इस लौकिक और पारलौकिक फल के विषय में एक बात और समझने की है कि जिन पापकर्मों का फल यहीं कैद, जुर्माना, अपमान, निन्दा आदि के रूप में भोग लिया है, उन पापों का फल मरने के बाद भोगना नहीं पड़ेगा। परन्तु व्यक्ति के पाप कितनी मात्रा के थे और उन का भोग कितनी मात्रा में हुआ अर्थात् उन पाप कर्मों का फल उस ने पूरा भोगा या अधूरा भोगा – इस का पूरा पता मनुष्य को नहीं लगता क्योंकि मनुष्य के पास इस का कोई मापतौल नहीं है। परन्तु भगवान् को इस का पूरा पता है अतः उन के कानून के अनुसार उन पापों का फल यहाँ जितने अंश में कम भोगा गया है, उतना इस जन्म में या मरने के बाद भोगना ही पड़ेगा। इसलिये मनुष्य को ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिये कि मेरा पाप तो कम था, पर दण्ड अधिक भोगना पड़ा अथवा मैंने पाप तो किया नहीं, पर दण्ड मुझे मिल गया कारण कि यह सर्वज्ञ, सर्वसुहृद्, सर्वसमर्थ भगवान् का विधान है कि पाप से अधिक दण्ड कोई नहीं भोगता और जो दण्ड मिलता है, वह किसी न किसी पाप का ही फल होता है।

क्रियमाण कर्म के संस्कारअंश के भी दो भेद हैं – शुद्ध एवं पवित्र संस्कार और अशुद्ध एवं अपवित्र संस्कार। शास्त्रविहित कर्म करने से जो संस्कार पड़ते हैं, वे शुद्ध एवं पवित्र होते हैं और शास्त्र, नीति, लोकमर्यादा के विरुद्ध कर्म करने से जो संस्कार पड़ते हैं, वे अशुद्ध एवं अपवित्र होते हैं।इन दोनों शुद्ध और अशुद्ध संस्कारों को लेकर स्वभाव (प्रकृति, आदत) बनता है। उन संस्कारों में से अशुद्ध अंश का सर्वथा नाश करने पर स्वभाव शुद्ध, निर्मल, पवित्र हो जाता है परन्तु जिन पूर्वकृत कर्मों से स्वभाव बना है, उन कर्मों की भिन्नता के कारण जीवन्मुक्त पुरुषों के स्वभावों में भी भिन्नता रहती है। इन विभिन्न स्वभावों के कारण ही उन के द्वारा विभिन्न कर्म होते हैं, पर वे कर्म दोषी नहीं होते, प्रत्युत सर्वथा शुद्ध होते हैं और उन कर्मों से दुनिया का कल्याण होता है।

संस्कार अंश से जो स्वभाव बनता है, वह एक दृष्टि से महान् प्रबल होता है – उसे मिटाया नहीं जा सकता।

इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों का जो स्वभाव है, उस में कर्म करने की मुख्यता रहती है। इसलिये भगवान् ने अर्जुन से कहा है कि जिस कर्म को तू मोहवश नहीं करना चाहता, उस को भी अपने स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश हो कर करेगा।

अब इस में विचार करने की एक बात है कि एक ओर तो स्वभाव की महान् प्रबलता है कि उस को कोई छोड़ ही नहीं सकता और दूसरी ओर मनुष्य जन्म के उद्योग की महान् प्रबलता है कि मनुष्य सब कुछ करने में स्वतन्त्र है। अतः इन दोनों में किस की विजय होगी और किस की पराजय होगी इस में विजय पराजय की बात नहीं है। अपनी अपनी जगह दोनों ही प्रबल हैं। परन्तु यहाँ स्वभाव न छोड़ने की जो बात है, वह जाति विशेष के स्वभाव की बात है। तात्पर्य है कि जीव जिस वर्णमें जन्मा है, जैसा रजवीर्य था, उस के अनुसार बना हुआ जो स्वभाव है, उस को कोई बदल नहीं सकता अतः वह स्वभाव दोषी नहीं है, निर्दोष है। जैसे, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों का जो स्वभाव है, वह स्वभाव नहीं बदल सकता और उस को बदलने की आवश्कयकता भी नहीं है तथा उस को बदलने के लिये शास्त्र भी नहीं कहता। परन्तु उस स्वभाव में जो अशुद्ध अंश (रागद्वेष) है, उस को मिटाने की सामर्थ्य भगवान् ने मनुष्य को दी है। अतः जिन दोषों से मनुष्य का स्वभाव अशुद्ध बना है, उन दोषों को मिटा कर मनुष्य स्वतन्त्रतापूर्वक अपने स्वभाव को शुद्ध बना सकता है। मनुष्य चाहे तो कर्मयोग की दृष्टि से अपने प्रयत्न से रागद्वेष को मिटा कर स्वभाव शुद्ध बना ले।  चाहे भक्तियोग की दृष्टि से सर्वथा भगवान् के शरण हो कर अपना स्वभाव शुद्ध बना ले। इस प्रकार प्रकृति(स्वभाव) की प्रबलता भी सिद्ध हो गयी और मनुष्य की स्वतन्त्रता भी सिद्ध हो गयी। तात्पर्य यह हुआ कि शुद्ध स्वभाव को रखने में प्रकृति की प्रबलता है और अशुद्ध स्वभाव को मिटाने में मनुष्य की स्वतन्त्रता है।

जब मनुष्य अहंकार का आश्रय छोड़ कर सर्वथा भगवान् के शरण हो जाता है, तब उस का स्वभाव शुद्ध हो जाता है।   स्वभाव शुद्ध होने से फिर वह स्वभावज कर्म करते हुए भी दोषी और पापी नहीं बनता। सर्वथा भगवान् के शरण होने के बाद भक्त का प्रकृति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। फिर भक्त के जीवन में भगवान् का स्वभाव काम करता है। भगवान् समस्त प्राणियोंके सुहृद् हैं -तो  भक्त भी समस्त प्राणियों का सुहृद् हो जाता है।

इसी तरह कर्मयोग की दृष्टि से जब मनुष्य रागद्वेष को मिटा देता है, तब उस के स्वभाव की शुद्ध हो जाती है, जिस से अपने स्वार्थ का भाव मिट कर केवल दुनिया के हित का भाव स्वतः हो जाता है।

अनेक मनुष्य जन्मों में किये हुए जो कर्म (फलअंश और संस्कारअंश) अन्तःकरण में संगृहीत रहते हैं, वे सञ्चित कर्म कहलाते हैं। उन में फलअंश से तो प्रारब्ध बनता है और संस्कारअंश से स्फुरणा होती रहती है। उन स्फुरणाओं में भी वर्तमान में किये गये जो नये क्रियमाण कर्म सञ्चितमें भरती हुए हैं, प्रायः उन की ही स्फुरणा होती है। कभी कभी सञ्चित में भरती हुए पुराने कर्मों की स्फुरणा भी हो जाती है जैसे किसी बर्तन में पहले प्याज डाल दें और उस के ऊपर क्रमशः गेहूँ, चना, ज्वार, बाजरा, डाल दें तो निकालते समय जो सब से पीछे डाला था, वही (बाजरा) सब से पहले निकलेगा, पर बीच में कभी कभी प्याज का भी भभका आ जायेगा। परन्तु यह दृष्टान्त पूरा नहीं घटता क्योंकि प्याज, गेहूँ आदि सावयव,पदार्थ हैं और सञ्चित कर्म निरवयव हैं। यह दृष्टान्त केवल इतने ही अंश में बताने के लिये दिया है। कि नये क्रियमाण कर्मोंकी स्फुरणा ज्यादा होती है और कभी कभी पुराने कर्मों की भी स्फुरणा होती है।

इसी तरह जब नींद आती है तो उस में भी स्फुरणा होती है। नींद में जाग्रत् अवस्था के दब जाने के कारण सञ्चित की वह स्फुरणा स्वप्नरूप से दीखने लग जाती है, उसी को स्वप्नावस्था कहते हैं । स्वप्नावस्था में बुद्धि की सावधानी न रहने के कारण क्रम, व्यतिक्रम और अनुक्रम ये नहीं रहते। जैसे, शहर तो दिल्ली का दीखता है और बाजार बम्बई का तथा उस बाजार में दूकानें कलकत्ता की दीखती हैं, कोई जीवित आदमी दीख जाता है अथवा किसी मरे हुए आदमीसे मिलना हो जाता है, बातचीत हो जाती है आदिआदि।

जाग्रत् अवस्था में हरेक मनुष्य के मन में अनेक तरह की स्फुरणाएँ होती रहती हैं। जब जाग्रत् अवस्था में शरीर, इन्द्रियाँ और मन पर से बुद्धि का अधिकार हट जाता है, तब मनुष्य जैसा मन में आता है, वैसा बोलने लगता है। इस तरह उचित अनुचित का विचार करने की शक्ति काम न करने से वह सीधासरल पागल कहलाता है। परन्तु जिस के शरीर, इन्द्रियाँ और मन पर बुद्धिका अधिकार रहता है, वह जो उचित समझता है, वही बोलता है और जो अनुचित समझता है, वह नहीं बोलता। बुद्धि सावधान रहनेसे वह सावचेत रहता है, इसलिये वह चतुर पागल है इस प्रकार मनुष्य जब तक परमात्मप्राप्ति नहीं कर लेता, तब तक वह अपने को स्फुरणाओं से बचा नहीं सकता। परमात्मप्राप्ति होने पर बुरी स्फुरणाएँ सर्वथा मिट जाती हैं। इसलिये जीवन्मुक्त महापुरुष के मन में अपवित्र पुरे विचार कभी आते ही नहीं। अगर उसके कहलाने वाले शरीर में प्रारब्धवश (व्याधि आदि किसी कारणवश) कभी बेहोशी, उन्माद आदि हो जाता है तो उस में भी वह न तो शास्त्रनिषिद्ध बोलता है और न शास्त्रनिषिद्ध कुछ करता ही है क्योंकि अन्तःकरण शुद्ध हो जाने से शास्त्रनिषिद्ध बोलना या करना उस के स्वभाव में नहीं रहता।

प्रारब्ध कर्म – प्रारब्ध कर्म अनुकूल परिस्थिति, मिश्रित (अनुकूल-प्रतिकूल) परिस्थिति, प्रतिकूल परिस्थिति । स्वेच्छापूर्वक क्रिया (प्रवृत्ति) अनिच्छापूर्वक क्रिया, परेच्छापूर्वक क्रिया, स्वेच्छापूर्वक क्रिया- अनिच्छापूर्वक क्रिया परेच्छापूर्वक क्रिया स्वेच्छापूर्वक क्रिया अनिच्छापूर्वक क्रिया परेच्छापूर्वक क्रिया, सञ्चित में से जो कर्म फल देनेके लिये सम्मुख होते हैं, उन कर्मोंको प्रारब्ध कर्म कहते हैं 

प्रारब्ध कर्मों का फल तो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें सामने आता है परन्तु उन प्रारब्ध कर्मोंको भोगनेके लिये प्राणियोंकी प्रवृत्ति तीन प्रकारसे होती है —

(1) स्वेच्छापूर्वक

 (2) अनिच्छा(दैवेच्छा)पूर्वक और

(3) परेच्छापूर्वक।

(1) किसी व्यापारीने माल खरीदा तो उसमें मुनाफा हो गया। ऐसे ही किसी दूसरे व्यापारीने माल खरीदा तो उसमें घाटा लग गया। इन दोनों में मुनाफा होना और घाटा लगना तो उन के शुभ अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं परन्तु माल खरीदने में उनकी प्रवृत्ति स्वेच्छापूर्वक हुई है।

(2) कोई सज्जन कहीं जा रहा था तो आगे आनेवाली नदी में बाढ़ के प्रवाह के कारण एक धन का टोकरा बह कर आया और उस सज्जन ने उसे निकाल लिया। ऐसे ही कोई सज्जन कहीं जा रहा था तो उस पर वृक्ष की एक टहनी गिर पड़ी और उस को चोट लग गयी। इन दोनों में धन का मिलना और चोट लगना तो उनके शुभअशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं परन्तु धन का टोकरा मिलना और वृक्ष की टहनी गिरना – यह प्रवृत्ति अनिच्छा(दैवेच्छा) पूर्वक हुई है।

(3) किसी धनी व्यक्ति ने किसी बच्चे को गोद ले लिया अर्थात् उस को पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया, जिस से उस का सब धन उस बच्चे को मिल गया। ऐसे ही चोरों ने किसी का सब धन लूट लिया। इन दोनों में बच्चे को धन मिलना और चोरी में धन का चला जाना तो उन के शुभअशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं परन्तु गोद में जाना और चोरी होना – यह प्रवृत्ति परेच्छापूर्वक हुई है। यहाँ एक बात और समझ लेनी चाहिये कि कर्मोंबल का फल कर्म नहीं होता, प्रत्युत परिस्थिति होती है अर्थात् प्रारब्ध कर्मों का फल परिस्थितिरूप से सामने आता है। अगर नये (क्रियमाण) कर्म को प्रारब्ध का फल मान लिया जाय तो फिर ऐसा करो, ऐसा मत करो  यह शास्त्रों का, गुरुजनों का विधिनिषेध निरर्थक हो जायगा।

दूसरी बात, पहले जैसे कर्म किये थे, उन्हीं के अनुसार जन्म होगा और उन्हीं के अनुसार कर्म होंगे तो वे कर्म फिर आगे नये कर्म पैदा कर देंगे, जिस से यह कर्मपरम्परा चलती ही रहेगी अर्थात् इसका कभी अन्त ही नहीं जायेगा।

प्रारब्ध कर्म से मिलनेवाले फल के दो भेद हैं – प्राप्त फल और अप्राप्त फल। अभी प्राणियों के सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आ रही है, वह प्राप्त फल है और इसी जन्म में जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य में आनेवाली है वह अप्राप्त फल है।

क्रियमाण कर्मों का जो फलअंश सञ्चित में जमा रहता है, वही प्रारब्ध बन कर अनुकूल, प्रतिकूल और मिश्रित परिस्थितिके रूपमें मनुष्य के सामने आता है। अतः जबतक सञ्चित कर्म रहते हैं, तब तक प्रारब्ध बनता ही रहता है और प्रारब्ध परिस्थिति के रूप में परिणत होता ही रहता है। यह परिस्थिति मनुष्य को सुखी दुःखी होने के लिये बाध्य नहीं करती। सुखी दुःखी होने में तो परिवर्तनशील परिस्थिति के साथ सम्बन्ध जो़ड़ना ही मुख्य कारण है। परिस्थितिके साथ सम्बन्ध जोड़ने अथवा न जोड़नेमें यह मनुष्य सर्वथा स्वाधीन है, पराधीन नहीं है। जो परिवर्तनशील परिस्थितिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, वह अविवेकी पुरुष तो सुखी दुःखी होता ही रहता है। परन्तु जो परिस्थितिके साथ सम्बन्ध नहीं मानता, वह विवेकी पुरुष कभी सुखी दुःखी नहीं होता अतः उस की स्थिति स्वतः साम्यावस्था में होती है, जो कि उस का स्वरूप है। कर्मों में मनुष्य के प्रारब्ध की प्रधानता है या पुरुषार्थ की अथवा प्रारब्ध बलवान् है या पुरुषार्थ — इस विषय में बहुत सी शङ्काएँ हुआ करती हैं। उन के समाधान के लिये पहले यह समझ लेना जरूरी है कि प्रारब्ध और पुरुषार्थ क्या है

मनुष्य में चार तरह की चाह हुआ करती है – एक धन की, दूसरी धर्म की, तीसरी भोग की और चौथी मुक्ति की। प्रचलित भाषामें इन्हीं चारों को अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के नाम से कहा जाता है , (1) अर्थ -धन को अर्थ कहते हैं। वह धन दो तरहका होता है -स्थावर और जङ्गम। सोना, चाँदी,रुपये, जमीन, जायदाद मकान आदि स्थावर हैं और गाय, भैंस, घोड़ा, ऊँट, भेड़, बकरी आदि जङ्गम हैं।

(2) धर्म – सकाम अथवा निष्कामभाव से जो यज्ञ, तप, दान, व्रत, तीर्थ आदि किये जाते हैं, उसको धर्म, कहते हैं।

(3) काम – सांसारिक सुखभोग को काम कहते हैं। वह सुखभोग आठ तरहका होता है – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मान, बड़ाई और आराम।

(क) शब्द – शब्द दो तरहका होता है – वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। व्याकरण, कोश, साहित्य, उपन्यास, गल्प, कहानी आदि वर्णात्मक शब्द हैं। खाल, तार और फूँक के तीन बाजे और ताल का आधा बाजा – ये साढ़े तीन प्रकारके बाजे ध्वन्यात्मक शब्दको प्रकट करनेवाले हैं । इन वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक शब्दोंको सुननेसे जो सुख मिलता है, वह शब्द का सुख है।

(ख) स्पर्श – स्त्री, पुत्र, मित्र आदि के साथ मिलने से तथा ठण्डा, गरम, कोमल आदि से अर्थात् उन का त्वचा के साथ संयोग होने से जो सुख होता है, वह स्पर्शका सुख है।

(ग) रूप – नेत्रों से खेल, तमाशा, सिनेमा, बाजीगरी, वन, पहाड़, सरोवर, मकान आदि की सुन्दरता को देखकर जो सुख होता है, वह रूपका सुख है।

(घ) रस – मधुर (मीठा), अम्ल (खट्टा), लवण (नमकीन), कटु (कड़वा), तिक्त (तीखा) और कषाय (कसैला) – इन छः रसों को चखने से जो सुख होता है, वह रस का सुख है।

(ङ) गन्ध – नाक से अतर, तेल, फुलेल, लवेण्डर, पुष्प आदि सुगन्धवाले और लहसुन, प्याज आदि दुर्गन्धवाले पदार्थोंको सूघँने से जो सुख होता है, वह गन्ध का सुख है।

(च) मान – शरीर का आदरसत्कार होने से जो सुख होता है, वह मान का सुख है।

(छ) बड़ाई – नाम की प्रशंसा, वाह वाह होने से जो सुख होता है, वह बड़ाई का सुख है।

(ज) आराम – शरीर से परिश्रम न करने से अर्थात् निकम्मे पड़े रहने से जो सुख होता है, वह आराम का सुख है।

(4) मोक्ष – आत्मसाक्षात्कार, तत्त्वज्ञान, कल्याण, उद्धार, मुक्ति, भगवद्दर्शन, भगवत्प्रेम आदि का नाम मोक्ष है।

इन चारों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष में देखा जाये तो अर्थ और धर्म – दोनों ही परस्पर एक दूसरे की वृद्धि करने वाले हैं अर्थात् अर्थ से धर्म की और धर्म से अर्थ की वृद्धि होती है। परन्तु धर्म का पालन कामना पूर्ति के लिये किया जाय तो वह धर्म भी कामनापूर्ति कर के नष्ट हो जाता है और अर्थ को कामना पूर्ति में लगाया जाय तो वह अर्थ भी कामना पूर्ति कर के नष्ट हो जाता है। तात्पर्य है कि कामना धर्म और अर्थ – दोनोंको खा जाती है। इसीलिये गीता में भगवान् ने कामना को महाशन (बहुत खानेवाला) बताते हुए उस के त्याग की बात विशेषता से कही है। यदि धर्म का अनुष्ठान कामना का त्याग कर के किया जाय तो वह अन्तःकरण शुद्ध करके मुक्त कर देता है। ऐसे ही धनको कामना का त्याग कर के दूसरों के उपकार में, हित मे,  सुख में खर्च किया जाय तो वह भी अन्तःकरण शुद्ध करके मुक्त कर देता है।

अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष — इन चारोंमें अर्थ (धन) और काम (भोग) की प्राप्ति में प्रारब्ध की मुख्यता और पुरुषार्थ की गौणता है तथा धर्म और मोक्ष में पुरुषार्थ की मुख्यता और प्रारब्ध की गौणता है। प्रारब्ध और पुरुषार्थ – दोनों का क्षेत्र अलगअलग है और दोनों ही अपनेअपने क्षेत्रमें प्रधान हैं।

इसलिये कहा जाता है  स्त्री, पुत्र, परिवार, भोजन और धन में तो सन्तोष करना चाहिये और स्वाध्याय, पाठपूजा, नामजप, कीर्तन और दान करने में कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये। तात्पर्य यह हुआ कि प्रारब्धके फल – धन और भोग में तो सन्तोष करना चाहिये क्योंकि वे प्रारब्धके अनुसार जितने मिलनेवाले हैं, उतने ही मिलेंगे, उस से अधिक नहीं। परन्तु धर्म का अनुष्ठान और अपना कल्याण करने में कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये क्योंकि यह नया पुरुषार्थ है और इसी पुरुषार्थ के लिये मनुष्य शरीर मिला है।

कर्म के दो भेद हैं – शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप)। शुभ कर्म का फल अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होना है और अशुभ कर्म का फल प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होना है। कर्म बाहर से किये जाते हैं, इसलिये उन कर्मों का फल भी बाहरकी परिस्थिति के रूप में ही प्राप्त होता है। परन्तु उन परिस्थितियों से जो सुखदुःख होते हैं, वे भीतर होते हैं। इसलिये उन परिस्थितियों में सुखी तथा दुःखी होना शुभाशुभ कर्मों का अर्थात् प्रारब्ध का फल नहीं है, प्रत्युत अपनी मूर्खता का फल है। अगर वह मूर्खता चली जाय, भगवान् पर अथवा प्रारब्ध पर विश्वास हो जाय तो प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति आने पर भी चित्त में प्रसन्नता होगी, हर्ष होगा। कारण कि प्रतिकूल परिस्थिति में पाप कटते हैं, आगे पाप न करने में सावधानी आती है और पापों के नष्ट होने से अन्तःकरण की शुद्ध होती है। साधक को अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति का सदुपयोग करना चाहिये, दुरुपयोग नहीं। अनुकूल परिस्थिति आ जाय तो अनुकूल सामग्री को दूसरों के हित के लिये सेवाबुद्धि से खर्च करना अनुकूल परिस्थिति का सदुपयोग है और उस का सुखबुद्धि से भोग करना दुरुपयोग है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सुख की इच्छा का त्याग करना और मेरे पूर्वकृत पापों का नाश करने के लिये, भविष्य में पाप न करने की सावधानी रखने के लिये और मेरी उन्नति करने के लिये ही प्रभु कृपा से ऐसी परिस्थिति आयी है – ऐसा समझ कर परम प्रसन्न रहना प्रतिकूल परिस्थिति का सदुपयोग है और उस से दुःखी होना दुरुपयोग है।

मनुष्य शरीर सुखदुःख भोगने के लिये नहीं है। सुख भोगनेके स्थान स्वर्गादिक हैं और दुःख भोगने के स्थान नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ हैं। इसलिये वे भोग योनियाँ हैं और मनुष्य कर्मयोनि है। परन्तु यह कर्मयोनि उनके लिये है जो मनुष्य शरीर में सावधान नहीं होते, केवल जन्म मरण के सामान्य प्रवाह में ही पड़े हुए हैं। वास्तव में मनुष्य शरीर सुखदुःख से ऊँचा उठने के लिये अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति के लिये ही मिला है। इसलिये इस को कर्मयोनि न कह कर साधनयोनि ही कहना चाहिये। प्रारब्ध कर्मों के फलस्वरूप जो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आती है, उन दोनों में अनुकूल परिस्थिति का स्वरूप से त्याग करने में तो मनुष्य स्वतन्त्र है, पर प्रतिकूल परिस्थिति का स्वरूप से त्याग करने में मनुष्य परतन्त्र है अर्थात् उसका स्वरूप से त्याग नहीं किया जा सकता। कारण यह है कि अनुकूल परिस्थिति दूसरों का हित करने, उन्हें सुख देने के फलस्वरूप बनी है और प्रतिकूल परिस्थिति दूसरों को दुःख देने के फलस्वरूप बनी है।  शुभ कर्मों (पुण्यों) और अशुभ कर्मों (पापों)का अलगअलग संग्रह होता है। स्वभाविक रूप से ये दोनों एक दूसरे से कटते नहीं अर्थात् पापों से पुण्य नहीं कटते और पुण्यों से पाप नहीं कटते। हाँ अगर मनुष्य पाप काटने के उद्देश्य से (प्रायश्चित्त रूप से) शुभकर्म करता है, तो उसके पाप कट सकते हैं।

संसार में एक आदमी पुण्यात्मा है, सदाचारी है और दुःख पा रहा है तथा एक आदमी पापात्मा है, दुराचारी है और सुख भोग रहा है – इस बातको लेकर अच्छेअच्छे पुरुषों के भीतर भी यह शङ्का हो जाया करती है कि इस में ईश्वर का न्याय कहाँ है । इसका समाधान यह है कि अभी पुण्यात्मा जो दुःख पा रहा है, यह पूर्व के किसी जन्म में किये हुए पाप का फल है, अभी किये हुए पुण्य का नहीं। ऐसे ही अभी पापात्मा जो सुख भोग रहा है, यह भी पूर्वके किसी जन्ममें किये हुए पुण्यका फल है, अभी किये हुए पापका नहीं। इस में एक तात्त्विक बात और है। कर्मों के फल रूप में जो अनुकूल परिस्थिति आती है, उससे सुख ही होता है और प्रतिकूल परिस्थिति आती है, उससे दुःख ही होता है – ऐसी बात है नहीं। जैसे, अनुकूल परिस्थिति आनेपर मन में अभिमान होता है, छोटों से घृणा होती है, अपने से अधिक सम्पत्तिवालों को देख कर उन से ईर्ष्या होती है, असहिष्णुता होती है, अन्तःकरण में जलन होती है और मन में ऐसे दुर्भाव आते हैं कि उन की सम्पत्ति कैसे नष्ट हो तथा वक्तपर उनको नीचा दिखानेकी चेष्टा भी होती है। इस तरह सुखसामग्री और धनसम्पत्ति पासमें रहनेपर भी वह सुखी नहीं हो सकता। परन्तु बाहरी सामग्रीको देखकर अन्य लोगोंको यह,भ्रम होता है कि वह बड़ा सुखी है। ऐसे ही किसी विरक्त और त्यागी मनुष्यको देखकर भोग सामग्री वाले मनुष्य को उस पर दया आती है कि बेचारे के पास धनसम्पत्ति आदि सामग्री नहीं है, बेचारा बड़ा दुःखी है परन्तु वास्तव में विरक्त के मन में बड़ी शान्ति और बड़ी प्रसन्नता रहती है। वह शान्ति और प्रसन्नता धनके कारण किसी धनी में नहीं रह सकती। इसलिये धन का होनामात्र सुख नहीं है और धनका अभावमात्र दुःख नहीं है। सुख नाम हृदयकी शान्ति और प्रसन्नताका है और दुःख नाम हृदयकी जलन और सन्तापका है।पुण्य और पापका फल भोगनेमें एक नियम नहीं है। पुण्य तो निष्कामभावसे भगवान्के अर्पण करने से समाप्त हो सकता है परन्तु पाप भगवान् के अर्पण करने से समाप्त नहीं होता। पाप का फल तो भोगना ही पड़ता है क्योंकि भगवान् की आज्ञाके विरुद्ध किये हुए कर्म भगवान् के अर्पण कैसे हो सकते हैं और अर्पण करनेवाला भी भगवान् के विरुद्ध कर्मों को भगवान् के अर्पण कैसे कर सकता है प्रत्युत भगवान् की आज्ञाके अनुसार किये हुए कर्म ही भगवान् के अर्पण होते हैं।

हमारे पर दूसरों का जो कर्जा है, वह हमारे छोड़ने से नहीं छूट सकता। ऐसे ही हम भगवदाज्ञानुसार शुभ कर्मों को तो भगवान् के अर्पण कर के उन के बन्धन से छूट सकते हैं, पर अशुभकर्मों का फल तो हमारे को भोगना ही पड़ेगा। इसलिये शुभ और अशुभकर्मों में एक कायदा, कानून नहीं है। अगर ऐसा नियम बन जाय कि भगवान् के अर्पण करने से ऋण और पापकर्म छूट जायँ तो फिर सभी प्राणी मुक्त हो जायँ परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है। हाँ, इस में एक मार्मिक बात है कि अपने आपको सर्वथा भगवान् के अर्पित कर देने पर अर्थात् सर्वथा भगवान् के शरण हो जानेपर पापपुण्य सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।

दूसरी शङ्का यह होती है कि धन और भोगों की प्राप्ति प्रारब्ध कर्म के अनुसार होती है – ऐसी बात समझ में नहीं आती क्योंकि हम देखते हैं कि इन्कमटैक्स, सेल्सटैक्स आदि की चोरी करते हैं तो धन बच जाता है और टैक्स पूरा देते हैं तो धन चला जाता है तो धन का आना जाना प्रारब्ध के अधीन कहाँ हुआ यह तो चोरी के ही अधीन हुआ।

इस का समाधान इस प्रकार है। वास्तव में धन प्राप्त करना और भोग भोगना – इन दोनों में ही प्रारब्ध की प्रधानता है। परन्तु इन दोनों में भी किसी का धनप्राप्ति का प्रारब्ध होता है, भोग का नहीं और किसी का भोग का प्रारब्ध होता है, धनप्राप्ति का नहीं तथा किसी का धन और भोग दोनोंका ही प्रारब्ध होता है। जिसका धनप्राप्ति का प्रारब्ध तो है, पर भोगका प्रारब्ध नहीं है, उसके पास लाखों रुपये रहनेपर भी बीमारी के कारण वैद्य, डॉक्टर के मना करने पर वह भोगों को भोग नहीं सकता, उस के खाने में रूखासूखा ही मिलता है। जिसका भोगका प्रारब्ध तो है, पर धन का प्रारब्ध नहीं है, उस के पास धन का अभाव होने पर भी उस के सुखआराम में किसी तरह की कमी नहीं रहती । उसको किसी की दया से, मित्रता से, कामधंधा मिल जाने से प्रारब्ध के अनुसार जीवननिर्वाह की सामग्री मिलती रहती है। अगर धन का प्रारब्ध नहीं है तो चोरी करने पर भी धन नहीं मिलेगा, प्रत्युत चोरी किसी प्रकार से प्रकट हो जायगी तो बचा हुआ धन भी चला जायगा तथा दण्ड और मिलेगा। यहाँ दण्ड मिले या न मिले, पर परलोक में तो दण्ड जरूर मिलेगा। उस से वह बच नहीं सकेगा। अगर प्रारब्धवश चोरी करने से धन मिल भी जाय तो भी उस धन का उपभोग नहीं हो सकेगा। वह धन बीमारी में, चोरी में, डाके में, मुकदमे में, ठगाई में चला जायगा। तात्पर्य यह है कि वह धन जितने दिन टिकनेवाला है, उतने ही दिन टिकेगा और फिर नष्ट हो जायगा। इतना ही नहीं, इन्कमटैक्स आदि की चोरी करने के जो संस्कार भीतर पड़े हैं, वे संस्कार जन्मजन्मातर तक उसे चोरी करने के लिये उकसाते रहेंगे और वह उन के कारण दण्ड पाता रहेगा।

अगर धन का प्रारब्ध है तो कोई गोद ले लेगा अथवा मरता हुआ कोई व्यक्ति उसके नामसे वसीयतनामा लिख देगा अथवा मकान बनाते समय नींव खोदते ही जमीनमें गड़ा हुआ धन मिल जायगा, आदिआदि। इस प्रकार प्रारब्धवके अनुसार जो धन मिलनेवाला है, वह किसी न किसी कारण से मिलेगा ही। परन्तु मनुष्य प्रारब्ध पर तो विश्वास करता नहीं, कम से कम अपने पुरुषार्थ पर भी विश्वास नहीं करता कि हम मेहनत से कमाकर खा लेंगे। इसी कारण उस की चोरी आदि दुष्कर्मों में प्रवृत्ति हो जाती है, जिस से हृदय में जलन रहती है, दूसरों से छिपाव करना पड़ता है, पकड़े जानेपर दण्ड पाना पड़ता है, आदिआदि। अगर मनुष्य विश्वास और सन्तोष रखे तो हृदय में महान् शान्ति, आनन्द, प्रसन्नता रहती है तथा आनेवाला धन भी आ जाता है और जितना जीने का प्रारब्ध है, उतनी जीवननिर्वाह की सामग्री भी किसी न किसी तरह मिलती ही रहती है। जैसे व्यापार में घाटा लगना, घर में किसी की मृत्यु होना, बिना कारण अपयश और अपमान होना आदि प्रतिकूल परिस्थितिको कोई भी नहीं चाहता, पर फिर भी वह आती ही है, ऐसे ही अनुकूल परिस्थिति भी आती ही है, उस को कोई रोक नहीं सकता। भागवत में आया है राजन् प्राणियों को जैसे इच्छा के बिना प्रारब्धानुसार दुःख प्राप्त होते हैं, ऐसे ही इन्द्रियजन्य सुख स्वर्ग में और नरक में भी प्राप्त होते हैं। अतः बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह उन सुखों की इच्छा न करे। जैसे धन और भोग का प्रारब्ध अलग अलग होता है अर्थात् किसी का धन का प्रारब्ध होता है और किसी का भोग का प्रारब्ध होता है, ऐसे ही धर्म और मोक्ष का पुरुषार्थ भी अलगअलग होता है अर्थात् कोई धर्म के लिये पुरुषार्थ करता है और कोई मोक्ष के लिये पुरुषार्थ करता है। धर्मके अनुष्ठान में शरीर, धन आदि वस्तुओँ की मुख्यता रहती है और मोक्षवकी प्राप्ति में भाव तथा विचार की मुख्यता रहती है।

एक करना होता है और एक होना होता है। दोनों विभाग अलग अलग हैं। करने की चीज है – कर्तव्य और होने की चीज है – फल। मनुष्य का कर्म करने में अधिकार है, फल में नहीं — कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। तात्पर्य यह है कि होने की पूर्ति प्रारब्ध के अनुसार अवश्य होती है, उस के लिये यह होना चाहिये और यह नहीं होना चाहिये – ऐसी इच्छा नहीं करनी चाहिये और करने में शास्त्र तथा लोकमर्यादा के अनुसार कर्तव्य कर्म करना चाहिये। करना पुरुषार्थ के अधीन है और होना प्रारब्ध के अधीन है। इसलिये मनुष्य करने में स्वाधीन है और होने में पराधीन है। मनुष्य की उन्नति में खास बात है – करने में सावधान रहे और होने में प्रसन्न रहे।

क्रियमाण, सञ्चित और प्रारब्ध – तीनों कर्मों से मुक्त होने का क्या उपाय है। प्रकृति और पुरुष — ये दो हैं। प्रकृति सदा क्रियाशील है, पर पुरुष में कभी परिवर्तनरूप क्रिया नहीं होती। प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध माननेवाला प्रकृतिस्थ पुरुष ही कर्ताभोक्ता बनता है। जब वह प्रकृतिसे सम्बन्धविच्छेद कर लेता है अर्थात् अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है तब उस पर कोई भी कर्म लागू नहीं होता। प्रारब्ध सम्बन्धी अन्य बातें इस प्रकार हैं –

(1) बोध हो जाने पर भी ज्ञानी का प्रारब्ध रहता है — यह कथन केवल अज्ञानियों को समझाने मात्र के लिये है। कारण कि अनुकूल या प्रतिकूल घटना का घट जाना ही प्रारब्ध है। प्राणी को सुखी या दुःखी करना प्रारब्ध का काम नहीं है, प्रत्युत अज्ञान का काम है। अज्ञान मिटने पर मनुष्य सुखीदुःखी नहीं होता। उसे केवल अनुकूलता प्रतिकूलता का ज्ञान होता है। ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत सुखदुःख रूप विकार होना दोषी है। इसलिये वास्तव में ज्ञानी का प्रारब्ध नहीं होता।

(2) जैसा प्रारब्ध होता है, वैसी बुद्धि बन जाती है। जैसे, एक ही बाजार में एक व्यापारी माल की बिक्री कर देता है और एक व्यापारी माल खरीद लेता है। बाद में जब बाजारभाव तेज हो जाता है, तब बिक्री करने वाले व्यापारी को नुकसान होता है तथा खरीदने वाले व्यापारी को नफा होता है और जब बाजार भाव मन्दा हो जाता है, तब बिक्री करने वाले व्यापारी को नफा होता है तथा खरीदने वाले व्यापारीको नुकसान होता है। अतः खरीदने और बेचने की बुद्धि प्रारब्ध से बनती है अर्थात् नफा या नुकसान का जैसा प्रारब्ध होता है, उसी के अनुसार पहले बुद्धि बन जाती है, जिस से प्रारब्धके अनुसार फल भुगताया जा सके। परन्तु खरीदने और बेचनेकी क्रिया न्याययुक्त की जाय अथवा अन्याययुक्त की जाय – इसमें मनुष्य स्वतन्त्र है क्योंकि यह क्रियमाण (नया कर्म) है, प्रारब्ध नहीं।

(3) एक आदमीके हाथसे गिलास गिरकर टूट गया तो यह उसकी असावधानी है या प्रारब्धकर्म करते समय तो सावधान रहना चाहिये, पर जो (अच्छा या बुरा) हो गया, उसे पूरी तरह से प्रारब्ध — होनहार ही मानना चाहिये। उस समय जो यह कहते हैं कि यदि तू सावधानी रखता तो गिलास न टूटता – इस से यह समझना चाहिये कि अब आगे से मुझे सावधानी रखनी है कि दुबारा ऐसी गलती न हो जाय। वास्तवमें जो हो गया, उसे असावधानी न मानकर होनहार मानना चाहिये। इसलिये करनेमें सावधान और होनेमें प्रसन्न रहे। ,

(4) प्रारब्ध से होनेवाले और कुपथ्य से होने वाले राग में क्या फरक है, कुपथ्यजन्य रोग दवाई से मिट सकता है परन्तु प्रारब्ध जन्य रोग दवाई से नहीं मिटता। महामृत्युञ्जय आदिका जप और यज्ञयागादि अनुष्ठान करनेसे प्रारब्धजन्य रोग भी कट सकता है, अगर अनुष्ठान प्रबल हो तो।रोगके दो प्रकार हैं — आधि (मानसिक रोग) और व्याधि (शारीरिक रोग)। आधि के भी दो भेद हैं – एक तो शोक, चिन्ता आदि और दूसरा पागलपन। चिन्ता, शोक आदि तो अज्ञान से होते हैं और पागलपन प्रारब्ध से होता है। अतः ज्ञान होने पर चिन्ताशोकादि तो मिट जाते हैं, पर प्रारब्ध के अनुसार पागलपन हो सकता है। हाँ, पागलपन होने पर भी ज्ञानी के द्वारा कोई अनुचित, शास्त्रनिषिद्ध क्रिया नहीं होती।

(5) आकस्मिक मृत्यु और अकाल मृत्युमें क्या फरक है कोई व्यक्ति साँप काटनेसे मर जाय, अचानक ऊपरसे गिरकर मर जाय, पानीमें डूबकर मर जाय, हार्टफेल होनेसे मर जाय, किसी दुर्घटना आदिसे मर जाय, तो यह उस की आकस्मिक मृत्यु है। स्वाभाविक मृत्यु की तरह आकस्मिक मृत्यु भी प्रारब्ध के अनुसार (आयु पूरी होनेपर) होती है। कोई व्यक्ति जानकर आत्महत्या कर ले अर्थात् फाँसी लगाकर, कुएँ में कूद कर, गाड़ी के नीचे आकर, छत से कूदकर, जहर खाकर, शरीर में आग लगाकर मर जाय, तो यह उसकी अकाल मृत्यु है। यह मृत्यु आयु के रहते हुए ही होती है। आत्महत्या करने वाले को मनुष्य की हत्या का पाप लगता है। अतः यह नया पापकर्म है प्रारब्ध नहीं। मनुष्य शरीर परमात्म प्राप्ति के लिये ही मिला है अतः उस को आत्महत्या कर के नष्ट करना बड़ा भारी पाप है। कई बार आत्महत्या करने की चेष्टा करने पर भी मनुष्य बच जाता है, मरता नहीं। इसका कारण यह है कि उस का दूसरे मनुष्य के प्रारब्ध के साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ रहता है अतः उसके प्रारब्धके कारण वह बच जाता है। जैसे, भविष्य में किसी का पुत्र होनेवाला है और वह आत्महत्या करनेका प्रयास करे तो उस (आगे होनेवाले) लड़केका प्रारब्ध उस को मरने नहीं देगा। अगर उस व्यक्ति के द्वारा भविष्य में कोई विशेष अच्छा काम होनेवाला हो, लोगों का उपकार होनेवाला हो अथवा इसी जन्म में,इसी शरीर में प्रारब्ध का कोई उत्कट भोग (सुखदुःख) आनेवाला हो, तो आत्महत्याका प्रयास करनेपर भी वह मरेगा नहीं।

(6) एक आदमी ने दूसरे आदमी को मार दिया तो यह उसने पिछले जन्म के वैरका बदला लिया और मरनेवाले ने पुराने कर्मों का फल पाया, फिर मारने वाले का क्या दोष मारने वाले का दोष है। दण्ड देना शासक का काम है, सर्वसाधारण का नहीं। एक आदमी को दस बजे फाँसी मिलनी है। एक दूसरे आदमी ने उस (फाँसी की सजा पानेवाले) आदमी को जल्लादों के हाथों से छुड़ा लिया और ठीक दस बजे उसे कत्ल कर दिया ऐसी हालत में उस कत्ल करनेवाले आदमी को भी फाँसी होगी कि यह आज्ञा तो राज्य ने जल्लादों को दी थी, पर तुम्हें किसने आज्ञा दी थी मारनेवाले को यह याद नहीं है कि मैं पूर्वजन्म का बदला ले रहा हूँ, फिर भी मारता है तो यह उसका दोष है। दूसरे को मारने का अधिकार किसी को भी नहीं है। मरना कोई भी नहीं चाहता। दूसरे को मारना अपने विवेक का अनादर है। मनुष्यमात्र को विवेक शक्ति प्राप्त है और उस विवेक के अनुसार अच्छे या बुरे कार्य करनेमें वह स्वतन्त्र है। अतः विवेक का अनादर कर के दूसरे को मारना अथवा मारने की नीयत रखना दोष है। यदि पूर्वजन्म का बदला एक दूसरे ऐसे ही चुकाते रहें तो यह श्रृङ्खला कभी खत्म नहीं होगी और मनुष्य कभी मुक्त नहीं हो सकेगा। पिछले जन्म का बदला अन्य (साँप आदि) योनियों में लिया जा सकता है। मनुष्य योनि बदला लेने के लिये नहीं है। हाँ, यह हो सकता है कि पिछले जन्म का हत्यारा व्यक्ति हमें स्वाभाविक ही अच्छा नहीं लगेगा, बुरा लगेगा। परन्तु बुरे लगनेवाले व्यक्ति से द्वेष करना या उसे कष्ट देना दोष है क्योंकि यह नया कर्म है।जैसा प्रारब्ध है, उसी के अनुसार उस की बुद्धि बन गयी, फिर दोष किस बात का

बुद्धि में जो द्वेष है, उस के वश में हो गया – यह दोष है। उसे चाहिये कि वह उस के वश में न होकर विवेक का आदर करे। गीता भी कहती है कि बुद्धि में जो रागद्वेष रहते हैं, उनके वश में न हो।

(7) प्रारब्ध और भगवत्कृपा में क्या अन्तर है, इस जीव को जो कुछ मिलता है, वह प्रारब्ध के अनुसार मिलता है, पर प्रारब्ध विधान के विधाता स्वयं भगवान् हैं। कारण कि कर्म जड होने से स्वतन्त्र फल नहीं दे सकते, वे तो भगवान् के विधान से ही फल देते है। जैसे, एक आदमी किसी के खेत में दिनभर काम करता है तो उस को शाम के समय काम के अनुसार पैसे मिलते हैं, पर मिलते हैं खेत के मालिक से। पैसे तो काम करने से ही मिलते हैं, बिना काम किये पैसे मिलते हैं क्या ?पैसे तो काम करने से ही मिलते हैं, बिना काम किये पैसे पैसा देगा कौन। यदि कोई जंगल में जाकर दिनभर मेहनत करे तो क्या उस को पैसे मिल जायँगे नहीं मिल सकते। उस में यह देखा जायगा कि किस के कहने से काम किया और किस की जिम्मेवारी रही।

अगर कोई नौकर काम को बड़ी तत्परता, चतुरता और उत्साहसे करता है, पर करता है केवल मालिक की प्रसन्नता के लिये तो मालिक उस को मजदूरी से अधिक पैसे भी दे देता है और तत्परता आदि गुणोंको देखकर उस को अपने खेत का हिस्सेदार भी बना देता है। ऐसे ही भगवान् मनुष्य को उस के कर्मों के अनुसार फल देते हैं। अगर कोई मनुष्य भगवान्की आज्ञाके अनुसार, उन्हीं की प्रसन्नताके लिये सब कार्य करता है, उसे भगवान् दूसरों की अपेक्षा अधिक ही देते हैं परन्तु जो भगवान् के सर्वथा समर्पित होकर सब कार्य करता है, उस भक्त के भगवान् भी भक्त बन जाते हैं। संसार में कोई भी नौकर को अपना मालिक नहीं बनाता परन्तु भगवान् शरणागत भक्त को अपना मालिक बना लेते हैं। ऐसी उदारता केवल प्रभु में ही है। ऐसे प्रभुके चरणोंकी शरण न होकर जो मनुष्य प्राकृत — उत्पत्ति विनाशशील पदार्थों के पराधीन रहते हैं, उनकी बुद्धि सर्वथा ही भ्रष्ट हो चुकी है। वे इस बात को समझ ही नहीं सकते कि हमारे सामने प्रत्यक्ष उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ हमें कहाँतक सहारा दे सकते हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष – गीता – 18.11 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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