।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.10 II
।। अध्याय 18.10 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.10॥
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥
“na dveṣṭy akuśalaḿ karma,
kuśale nānuṣajjate..।
tyāgī sattva- samāviṣṭo,
medhāvī chinna- saḿśayaḥ”..।।
भावार्थ:
जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है॥१०॥
Meaning:
He does not dislike inauspicious action, nor does he get attached to auspicious action, he who gives up is pervaded by sattva, is wise, and free of doubts.
Explanation:
So far, three types of renunciation or giving up were described. Shri Krishna now describes the nature of the person who conducts renunciation in the proper manner, the saattvic tyaagi. Such a person is pervaded by sattva. This means that his intellect is able to discriminate between what is real and what is not, in other words, what is the eternal essence and what is the illusory world. This person is described as medhaavee, one who is wise due to the knowledge of the eternal essence, the self.
Giving up yajna, tapasya and daan or giving up attachment towards it, these were the thoughts of wise and knowledgeable people about renunciation and sacrifice. But Lord Shri Krishna told how to do any act of renunciation and sacrifice rather than giving it up. So, when the act is done out of selfishness, greed and ego, then it is Tamasi, if it is given up or made to be done out of laziness or pain or pain, then it is Rajasi and if it is done without any expectation or attachment and considering it as a duty and whatever result is received, it is also accepted happily, then it is Satvik. But there are three components in any act, the doer, the act and the recipient. Materialism says that the act which fulfills the selfishness is right, and in this, if any act benefits everyone, that act done for the welfare of others is also right if it is in our interest. Spirituality also accepts altruistic acts. But Lord Shri Krishna also emphasizes on the mental state of the doer of the deed and the recipient of the deed to understand whether the duty is right or wrong and is in self-interest or in altruism. That is, unless all three are Satvik and in the interest of all, it will not be Satvik. Therefore, it does not matter whether the work is interesting or not, whether the work is big or small, respected or disrespected, or easy or difficult. Whatever work nature makes us do without any expectations with a Satvik mindset, completing it with full efficiency, devotion and ability without any desire and attachment is the real sacrifice.
What makes this person different than the other so-called renouncers? It is his indifferent attitude towards action. Though he knows that every action has the potential to generate further sorrow and further desires, he does not hate that action but in fact, continues to do his duty. Conversely, though he knows that doing his duty will eventually make him fit for liberation, or if there is some action that he loves to perform, he does not develop a sense of attachment for it.
Eventually, a slow transformation takes place in such a person. Performing karma yoga, which is the same as performing saattvika tyaaga, leads a person to slowly recognize his true nature as the unchanging, unmoving eternal essence. He begins to realize that he is not performing any action at all, it is Prakriti that is doing all the work. When he comes to realize this, he becomes chinnasamshayaha, free of all doubts about who he really is, about his true nature.
People who are situated in sāttvic renunciation are not miserable in disagreeable circumstances; nor do they get attached to situations that are agreeable to them. They simply do their duty under all conditions, without feeling elated when the going is good or feeling dejected when life becomes tough. They are not like a dry leaf that is tossed hither and tither by every passing breeze. Instead, they are like the reeds in the sea, gently negotiating every rising and falling wave. While retaining their equanimity and without succumbing to anger, greed, envy, or attachment, they watch the waves of events rising and falling around them. Bal Gangadhar Tilak was a scholar of the Bhagavad Gita and a famous karm yogi. Before Mahatma Gandhi came on the scene, he was at the forefront of the freedom struggle of India. He was asked what position he would choose if India became independent—Prime Minister or Foreign Minister? He replied, “My ambition was to write a book on Differential Calculus. I will fulfill it.” Once, the police arrested him for creating unrest. He asked his friend to find out the provisions under which he was arrested, and to inform him in prison. When the friend reached him after an hour, he was fast asleep in the jail. Another time, he was working in his office, and his clerk brought him the news that his elder son was seriously ill. Instead of getting emotionally wrought, he asked the clerk to get a doctor, and he continued working. Half an hour later, his friend came and conveyed the same news. He said, “I have called for the doctor to see him. What else can I do?” These instances reveal how he retained his composure despite being in the midst of tumultuous situations. He was able to continue performing his actions because of the internal emotional composure; had he been emotionally distressed he would have been unable to sleep in the jail cell or concentrate on his work at the office.
।। हिन्दी समीक्षा ।।
कर्म जीव का अनिवार्य जीवन कर्म है। सृष्टि की रचना में प्रकृति अनासक्त भाव से अपने कर्म को करती रहती है। सूर्य, चंद्रमा, धरती, झरना, आकाश सभी अपने अपने कर्म से अनासक्त भाव से बंधे सृष्टि यज्ञ चक्र का उद्देश्य पूर्ण करते हुए, कर्म करते रहते है। फिर मनुष्य रूपी जीव में कर्म जब अनिवार्य है तो कर्तृत्त्व भाव का पैदा होना या उस के फल की आशा रखना या लोभ-मोह और कामना के साथ कर्म करना सृष्टि यज्ञ चक्र का भाग नही हो सकता। सारा कर्म प्रकृति ही करती है, नियति ही तय करती है कि कब, कहाँ, कैसे और क्यों कोई भी कार्य होगा। जीव नियति का चुना हुआ पात्र है।
यज्ञ, तप और दान को त्यागना या इस के प्रति आसक्ति को त्यागना यह बुद्धिमान और शास्त्र के ज्ञाता लोगों के विचार सन्यास और त्याग को ले कर थे। किंतु भगवान श्री कृष्ण ने सन्यास और त्याग के किसी कर्म को त्यागने की अपेक्षा आवश्यकता उस को किस भाव से करना चाहिए, बताया। अतः जब कर्म स्वार्थ, लोभ और अहम में हो तो वह तामसी, यदि आलस्य या क्लेश या दुखदायी समझ कर त्याग दिया जाए या करा जाए तो राजसी और बिना किसी अपेक्षा या आसक्ति के कर्तव्य समझ कर किया जाए और जो भी फल प्राप्त हो, उस को भी सहर्ष स्वीकार किया जाए तो वह सात्विक है। किंतु किसी भी कर्म में तीन घटक है, करने वाला, कर्म और पानेवाला। आतिभौतिकवाद कहता है जिस कर्म से स्वार्थ सिद्ध हो वही सही है, और इसी में यदि किसी कर्म से सभी का भला हो वह परार्थ किया हुआ कर्म भी यदि हमारे हित में है तो वह भी सही है। परार्थ कर्म को अध्यात्म भी स्वीकार करता है। किंतु भगवान श्री कृष्ण भी कर्म की अपेक्षा कर्तव्य कर्म सही है या गलत और स्वार्थ में है या परार्थ में, इसे समझने की लिए कर्म के कर्ता कर्म और कर्म के प्राप्त करने वाले की मानसिक स्थिति पर बल देते है। अर्थात जब तक तीनों ही सात्विक और सर्वहित में न हो, वह सात्विक नहीं होगा। अतः कर्म में रुचि या अरुचि होना, या कर्म छोटा या बड़ा होना, सम्मानित या असम्मानित होना या फिर सरल या कठिन होना कोई मायने नहीं रखता। सात्विक मानसिकता के साथ बिना अपेक्षा के जो भी कर्म करने के लिए हमें प्रकृति निमित्त बनाती है, उसे अपनी पूर्ण दक्षता, निष्ठा और क्षमता के साथ बिना किसी कामना और आसक्ति के साथ पूरा करना ही, वास्तविक त्याग है।
अर्जुन युद्ध भूमि में एक योद्धा की भांति खड़ा है किंतु वह युद्ध युधिष्ठिर की ओर से लड़ रहा है। एक क्षत्रिय योद्धा का कर्तव्य है कि वह सेना नायक की आज्ञा से युद्ध करे। युद्ध के सही या गलत होने के निर्णय लेने या युद्ध नहीं करने का अधिकार योद्धा को नहीं है। अतः युद्ध करना क्षत्रिय योद्धा का क्षत्रिय धर्म है, उस का निस्वार्थ, निष्काम और निर्लिप्त हो कर करना ही त्याग है। अर्जुन को एक क्षत्रिय योद्धा हो कर जो मोह होना और युद्ध से विमुख होने की बात करना, एक क्षत्रिय योद्धा के लिए अनुचित है। यह विचार उसे युद्ध के निर्णय के पहले करना चाहिए था। हम भी अनेक बार कार्य करते हुए मध्य में पहुंच कर उस पर सही और गलत का निर्णय करने लगते है। कहते है घोड़े की सवारी में घोड़े को कुदाने के बाद, मध्य में घुड़सवार घोड़े की लगाम खीच लेता है जिस से घोड़ा अपनी कुदान में असफल हो जाता है। देश धर्म, छात्र धर्म, सेवक धर्म, आदि कोई भी धर्म हो, यह व्यक्ति को धारण करने से पूर्व तय करना चाहिए। एक बार तय होने के बाद, कर्म में रुचि – अरुचि, उचित या अनुचित या फिर नैतिक ये अनैतिक का निर्णय उस कर्म के विषय में नहीं ले कर अपने लक्ष्य को पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए। हो सकता है यदि महाभारत में युद्ध प्रक्रिया शुरू होने से पूर्व अर्जुन यही प्रश्न करता तो समय, स्थान और स्थिति के अनुसार उस का कर्तव्य कर्म कुछ और भी हो सकता था। अतः कर्तव्य धर्म या कर्म का निर्णय मनुष्यत्व को सामने रख कर केवल आतिभौतिकवाद अर्थात सीमित सुख की अपेक्षा अध्यात्म अर्थात चीर सुख और शांति जिस से आत्मा भी शांति महसूस करे, ध्यान पर रखकर होता है।
शहर में दंगा हो जाए, और आप को मारने आप के पड़ोसी या रिश्तेदार ही आ जाए, तो आप उन्हें उस समय नैतिकता या कानून का पाठ नहीं पढ़ा सकते, उस समय आप का कर्तव्य अपना और अपने परिवार की रक्षा हेतु लड़ने का ही होगा।
विशुद्ध और प्रसन्न अन्तःकरण ही आध्यात्मिक विषय की आलोचना में समर्थ होता है। अतः इस प्रकार नित्यकर्मों के अनुष्ठान से जिस का अन्तःकरण विशुद्ध हो गया है एवं जो आत्मज्ञान के अभिमुख है, उस की उस आत्मज्ञान में जिस प्रकार क्रम से स्थिति होती है, उसे समझना आवश्यक है।
अतः भगवान श्री कृष्ण कहते है, अकुशल काम्यकर्मों से ( वह ) द्वेष नहीं करता अर्थात् काम्यकर्म पुनर्जन्म देनेवाले होने के कारण संसार के कारण हैं, इनसे मुझे क्या प्रयोजन है, इस प्रकार उससे द्वेष नहीं करता। कुशल शुभनित्यकर्मों में आसक्त नहीं होता। अर्थात् अन्तःकरण की शुद्धि, ज्ञान की उत्पत्ति और उस में स्थिति के हेतु होने से नित्यकर्म मोक्ष के कारण हैं, इस प्रकार उन में आसक्त नहीं होता, यानी उनमें भी अपना कोई प्रयोजन न देखकर प्रीति नहीं करता। वही इस संसार मे शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान एवम सात्विक त्यागी है।
सृष्टि के काल चक्र में जीव को कर्म प्रारब्ध के अनुसार प्रकृति द्वारा प्रदान करती है, इसलिए जो भी कर्म मिले, वह उस का निमित्त है, कर्ता और कार्य दोनो वह भी नही है, उस कर्म को क्षमता के साथ करना उस का करना कर्तव्य है, इस प्रकार कर्म के प्रति कर्ता और आसक्ति का भाव न रखने से पूर्वजन्मो के कर्मो के फल नष्ट होने लगते है और इस जन्म में कर्म के फलों का बंधन भी नही होता, यही मुक्ति की कदम बढ़ाने के समान है।
व्यवहार में मनुष्य को भ्रम है कि वह जो कुछ करता है, उस का निर्णय या चयन खुद करता है। कर्म को करने और उस को चयन के लिए प्रेरणा की, स्थान, संयोग से और साधन की आवश्यकता होती है। मनुष्य इन सब में एक हिस्सा है। इसे हम आगे विस्तृत रूप में पढ़ेंगे। अतः कर्म जब अपने आधीन न हो, जो भी कर्म उपलब्ध हो, उस से निरासक्त भाव से पूर्ण दक्षता के साथ करना ही सात्विक त्याग है। कर्म से आसक्ति होने से ही निराशा, अभिमान, सुख – दुख आदि अनुभव होता है। कहा गया है कि होनी को हम नही टाल सकते, किंतु होनी के समय अपने विवेक और संयम से अच्छे तरीके से व्यवहार कर सकते है।
जो देह-इन्द्रिय-मन-बुद्धि आदि से असंग होकर अपने निर्विशेष आत्मस्वरूप में स्थित हो गया है, और अपने अपने कर्मो में प्रवृत्त हुई देह, इन्द्रिय, मन व बुद्धि के व्यवहार में जिस का ” मै कर्ता -भोक्ता हूँ” यह अभिमान समूल नष्ट हो गया है तथा वह जानता है कि जन्ममरण, क्षुधातृषा और शोक मोह ये सब शरीर के ही धर्म हैं, ऐसा तत्ववेत्ता ज्ञानी ही वस्तुतः सर्वत्यागी है और वह सब कुछ करता हुआ भी कुछ नही करता।
त्याग का सामान्य अर्थ जन मानस के लिये छोड़ना ही बताया गया किन्तु त्याग किस का होना चाहिए और क्या नही। युद्ध भूमि के खड़ा अर्जुन मोह, भय आदि से ग्रस्त हो कर विषाद एवम निराशा से घिर गया और युद्ध का त्याग करने को तैयार हो गया। किसी अच्छे कार्य को करते हुए किस कर्मठ व्यक्ति पर जब दुर्भावना से भरे मनुष्य आरोप लगाते है, तो वह भी निराश हो कर पद त्याग की बात करता है। आफिस में काम करते हुए जब समस्याएं घेरती है तो काम छोड़ने के बात होती है। सत्त्वगुणी पुरुष उपर्युक्त समस्त अवगुणों से मुक्त होता है। इसका कारण उसकी विकसित विवेक शक्ति है। ऐसे मेधावी पुरुष को निम्नलिखित तत्त्वों का स्पष्टत ज्ञान होता है (1) अपना कर्मक्षेत्र, (2) वे उपाधियां जिनके द्वारा वह जगत् से सम्पर्क करता है, (3) अपना शुद्ध आनन्द स्वरूप और (4) जगत् से अपना संबंध। यह मेधावी पुरुष संशय रहित (छिन्न संशय) होता है, क्योंकि वस्तु के अपूर्ण ज्ञान से ही संशय उत्पन्न हो सकता है अन्यथा नहीं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ऐसे सात्त्विक त्यागी पुरुष जगत् में विरले ही होते हैं।
सात्विक त्याग में स्थित लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में दुखी नहीं होते और न ही ऐसी परिस्थितियों के प्रति आसक्त होते हैं जो उनके अनुकूल होती हैं। वे सभी परिस्थितियों में केवल अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं और न तो वे सुखद समय में प्रसन्नता व्यक्त करते हैं और न ही कष्टमय जीवन में खिन्नता प्रकट करते हैं। वे उस सूखे पत्ते के समान नहीं होते जो सभी ओर से आने वाली हवा के झोकों से इधर-उधर हिलते रहते हैं बल्कि इसके विपरीत वे समुद्र में स्थित उन सरकंडों के समान होते हैं जो प्रत्येक उठती हुई लहर को समान रूप से सहन करते हैं। अपने समभाव को बनाए रखते हुए क्रोध, लालच, ईर्ष्या और मोह के वश में न होकर वे परिस्थितियों की लहरों को अपने आस-पास उठते और गिरते हुए देखते रहते हैं। बाल गंगाधर तिलक भगवद्गीता के विद्वान और प्रसिद्ध कर्मयोगी थे। महात्मा गांधी के परिदृश्य पर आने से पूर्व वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी थे। जब उनसे पूछा गया कि भारत के स्वतंत्र होने पर वह कौन-सा पद ग्रहण करना चाहेंगे-प्रधानमंत्री या विदेशमंत्री का? उन्होंने उत्तर दिया कि “मेरी महत्वाकांक्षा विभिन्न तर्क पद्धतियों पर पुस्तक लिखने की है। मैं इसे पूरा करूँगा।” एक बार पुलिस ने उन्हें शांति भंग करने के आरोप में बंदी बना लिया। तब उन्होंने अपने मित्र को कहा कि वह यह ज्ञात करें कि उन्हें किस धारा के अंतर्गत बन्दी बनाया गया और कारागार में आकर उन्हें इस संबंध में सूचित करें। जब उनका मित्र लौट कर आया तब वे कारागार के कक्ष में गहन निद्रा ले रहे थे। एक अन्य अवसर पर जब वे अपने कार्यालय में कार्य कर रहे थे तब उनके लिपिक ने उन्हें सूचित किया कि उनका बड़ा पुत्र गंभीर रूप से बीमार है। भावनाओं में बहने के बजाय उन्होंने लिपिक से डाक्टर को बुलाने को कहा। आधे घंटे के पश्चात उनके मित्र ने वहाँ आकर उन्हें वही सूचना दी। तब उन्होंने कहा कि “मैंने उसे देखने के लिए डाक्टर को बुलाने के लिए कह दिया है। इसके अतिरिक्त मैं और क्या कर सकता हूँ?” इन घटनाओं से विदित होता है कि वे अप्रिय परिस्थितियों में भी धैर्यवान बने रहे। वे अपने कार्यों को विचलित हुए बिना कुशलतापूर्वक संपन्न करने में इसलिए सफल रहे क्योंकि वे आंतरिक रूप से शांत चित्त थे। यदि वे भावनात्मक रूप से निराश हो जाते तब वे कारागार में कैसे चैन से सो पाते और अपने काम में ध्यान दे पाते।
कर्मों को करने में राग न हो और छोड़ने में द्वेष न हो, इतनी झंझट क्यों की जाय कर्मों का सर्वथा ही त्याग क्यों न कर दिया जाय , इस शङ्का को दूर करने के लिये आगे का श्लोक पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.10।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)