।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.09 II
।। अध्याय 18.09 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.9॥
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको॥
“kāryam ity eva yat karma,
niyataḿ kriyate ‘rjuna..।
sańgaḿ tyaktvā phalaḿ caiva,
sa tyāgaḥ sāttviko mataḥ”..।।
भावार्थ:
हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है॥९॥
Meaning:
Whatever action is done, should be performed only as an obligatory duty. In this manner, giving up attachment and also the reward, that giving up is saattvic, in my opinion.
Explanation:
Shri Krishna explains the correct way, the saattvic method, of performing actions. Let us look at this step by step. The first step is to only perform actions that are within the realm of our state in life, our aashrama, and our career, our varna. Actions that are prohibited or actions that are purely out of selfishness should not be performed. These actions are termed as niyatam karma in the shloka. A high degree of awareness is required to first ensure that we are not stepping into any prohibited actions.
The second step is to give up attachment to the reward, the phala, the fruit, of the action. Attachment to the reward need not be something tangible and physical. It could be subtle things like praise and adoration received from others on successful completion of the action. It could be a subtle thought such as “I have helped that person, so nice of me to do so”. The goal is to slowly wean the mind away from its natural tendency to expect rewards for every action. We can do so my substituting our personal motive with a motive for selfless service.
Whereas a saattvic person is one, who knows that he is not yet prepared. Therefore, it is for him to decide where he stands and this sattvic person knows what he wants is mōkṣa means liberalisation, mōkṣa requires jñānam means knowledge, jñānam requires citta śuddhi means internal purity chitta śuddhi requires sātvika karmāṇi means work with pure and unattached mind.
This clarity he has got. He does not suffer from the problem of ignorance. He has knowledge. Even if he has got knowledge, if he is attached to the body problem, he will know that I know, but I would not do. But this saattvic person does not have the problem of bodily attachment; he knows physical karmas involve physical strain. He would not call it a strain because he sees it as a necessity. And he sees the positive benefit coming out of that strenuous action and therefore this strain will not appear as strain; like the people who stand in Tirupati queue for 14 hours; 16 hours, 24 hours, it may be a strain, but they value the darśanam, this strain will not appear strain.
The third step is to give up attachment to the action itself. We saw the types of attachment to action in the previous shloka, including attachment to the completion of action and attachment to one particular way of performing the action. The key is to realize that at every moment, we are giving it the best of our ability and attention. The rest is upto Ishvara, since there are several other factors at play in the outcome of an action. But in no circumstance should our energy level go down. We have to combine energy in our work with indifference to the reward of the work.
Renunciation is definitely necessary for spiritual attainment. But the problem is that people’s understanding of renunciation is very shallow and they consider it to be only the external abandonment of works. Such renunciation leads to hypocrisy in which, while externally donning the robes of a renunciant, one internally contemplates upon the objects of the senses.
when he performs his duty still having some achievement in name of success, how we recognise his contribution as Satvik. He is real renouncing of fruit of his work means any expectation or attachment. whatever, comes out of his work, he enjoys without any grievances. Therefore, the real meaning of Sanyansa and tyaag is to perform your duty, accept its result and do not have any expectation or attachment and all in benefit of Society, even run a business like Ratan Tata is Sanyansa or operate school, office or your profession.
।। हिंदी समीक्षा ।।
वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये जो जो कर्म शास्त्र में आवश्यक कर्तव्य बतलाए गए है, वह समस्त नित्य, नैमित्तिक एवम काम्य स्वरूप नियत कर्म मनुष्य को अवश्य ही आसक्ति एवम कामना रहित कर्तव्य धर्म के पालन हेतु करने ही चाहिए। ऐसा न करना परमात्मा के सृष्टि चक्र के नियम का पालन न करना एवम उन के बनाये नियमो का उल्लंघन ही माना जाता है।
त्याग का सही एवम सात्विक अर्थ किसी भी निहित कर्म को परमात्मा की आज्ञा मानते हुए उस के प्रति फल की आशा या आसक्ति या कामना का त्याग है, अतः यदि हम फल की आशा में कर्म का ही त्याग करते है तो यह राजस या तामस होगा। इस से कर्तव्य धर्म का पालन भी नही होगा। मैं कर्ता हूं, इस बात का अभिमान और कर्म के फल की आशा यह दो कर्म के बंधन के तत्व है, जो मनुष्य में होते है। इस को त्यागने के लिए कोई कर्म का त्याग कर कर दे, तो यह कुछ ऐसा है कि गौ का मुख अपवित्र है, इस लिए गौ का त्याग करना, या माता और पुत्री नारी स्वरूप है, उन के प्रति श्रद्धा और वात्सलय से पूर्ण निर्मल मन रखने की बजाय उन को काम वासना की दृष्टि से देखना पाप है। इसलिए कर्म त्यागने योग्य नहीं होते, त्याग वास्तव में कर्म के प्रति अपनी तामसी और राजसी बुद्धि का त्याग करना है।
जबकि सात्विक व्यक्ति वह होता है, जो जानता है कि वह अभी तैयार नहीं है। इसलिए यह उसे तय करना है कि वह कहाँ खड़ा है और यह सात्विक व्यक्ति जानता है कि उसे क्या चाहिए, मोक्ष यानी उदारीकरण, मोक्ष के लिए ज्ञानम यानी ज्ञान की आवश्यकता होती है, ज्ञानम के लिए चित्त शुद्धि यानी आंतरिक शुद्धता की आवश्यकता होती है, चित्त शुद्धि के लिए सात्विक कर्माणि यानी शुद्ध और अनासक्त मन से काम करना आवश्यक है।
यह स्पष्टता उसे प्राप्त है। वह अज्ञान की समस्या से ग्रस्त नहीं है। उसके पास ज्ञान है। भले ही उसे ज्ञान हो, अगर वह शरीर की समस्या से जुड़ा हुआ है, तो वह जानता है कि मैं जानता हूँ, लेकिन मैं नहीं करूँगा। लेकिन इस सात्विक व्यक्ति को शारीरिक आसक्ति की समस्या नहीं है; वह जानता है कि शारीरिक कर्म में शारीरिक तनाव शामिल है। वह इसे तनाव नहीं कहेगा क्योंकि वह इसे एक आवश्यकता के रूप में देखता है। और वह उस कठिन कार्य से सकारात्मक लाभ को देखता है और इसलिए यह तनाव तनाव के रूप में नहीं लगेगा; जैसे तिरुपति में 14 घंटे, 16 घंटे, 24 घंटे कतार में खड़े रहने वाले लोग, यह एक तनाव हो सकता है, लेकिन वे दर्शन को महत्व देते हैं, यह तनाव तनाव नहीं लगेगा।
नियत कर्म में सांख्य योगियों ने काम्य कर्म को पृथक रखा है, किन्तु कर्मयोग की प्रेरणा देने वाली गीता निषिद्ध कर्म को छोड़ कर सभी कर्मो को करने की आज्ञा देती है। इसलिये स्वधर्म के अनुसार प्राप्त होने वाले किसी भी कर्म को बिना किसी प्रकार की शंका, संदेह, मोह, लोभ एवम कामना के कर्तव्य धर्म समझ कर करना चाहिए। यदि सात्विक त्याग भी है।
अब प्रश्न यही है कि जब आसक्ति और अहम दोनो ही नही है तो कर्म ही क्यों किया जाए। इसे तत्व ज्ञानी ही समझ सकता है कि वह अर्थात जीवात्मा प्रकृति से जुड़ा एक नित्य, अकर्ता और पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप है, क्रियाशील प्रकृति है, वह मात्र निमित्त मात्र है, जिस कर्म को वह अपना समझकर कर रहा है, वह प्रकृति कर रही है क्योंकि समय, स्थान, व्यक्ति और कार्य का निर्धारण वह नही कर सकता। वह मात्र साक्षी या दृष्टा है, प्रकृति ने उसे सृष्टि चक्र को चलाए मान रखने के लिए चुना है, जो कार्य होना है, वह पहले से तय है और उस के आप के संसार में रहने या न रहने से प्रकृति का कार्य नही रुकता। इसलिए प्रकृति के निमित हो कर सृष्टि यज्ञ चक्र में उसे (जीव को ) लोक संग्रह के लिए कर्म करता है। भगवान ने अर्जुन से भी विश्वरूप दर्शन दे कर कहा था कि जिन्हे तुम मारने की बात कह रहे हो, वह मेरे द्वारा पहले ही मार दिए गए है, तुम काल चक्र में निमित मात्र हो, तुम चाहो या न चाहो। युद्ध करो या न करो, इन की मृत्यु निश्चित है। मनुष्य को कर्म का अधिकार कर्म फल से मुक्त होने, अपने संचित, प्रारब्ध और सामायिक कर्मो से मुक्ति के लिए है, कर्म बंधन में फस कर कार्य करने के लिए नही।
जब वह अपने कर्तव्य का पालन करता है और सफलता के नाम पर कुछ उपलब्धि रखता है, तो हम उसके योगदान को सात्विक कैसे मान सकते हैं। वह वास्तव में अपने कर्म के फल का त्याग करता है, अर्थात किसी भी प्रकार की अपेक्षा या आसक्ति का त्याग करता है। जो भी उसके कर्म से प्राप्त होता है, वह बिना किसी शिकायत के उसका आनंद लेता है। इसलिए संन्यास और त्याग का वास्तविक अर्थ है अपने कर्तव्य का पालन करना, उसके परिणाम को स्वीकार करना और किसी भी प्रकार की अपेक्षा या आसक्ति न रखना और सब कुछ समाज के हित में करना, चाहे रतन टाटा की तरह व्यवसाय चलाना हो या स्कूल, कार्यालय या अपना पेशा चलाना हो, संन्यास है।
कर्मसंन्यास की और फलासक्ति के त्याग की, त्याग मात्र में तो समानता है ही। उन में कर्मों के त्याग को राजस और तामस त्याग बतलाकर उस की निन्दा करके, इस कथन से कर्मफल और आसक्ति के त्याग को सात्त्विक त्याग बतलाकर उस की स्तुति की जाती है। जो अधिकारी, आसक्ति और फलवासना छोड़कर नित्यकर्म करता है, उस का फलासक्ति आदि दोषों से दूषित न किया हुआ अन्तःकरण, नित्यकर्मों के अनुष्ठानद्वारा संस्कृत होकर विशुद्ध हो जाता है।
भगवान् के उपदेशानुसार, अपने मन में स्थित स्वार्थ, कामना, आसक्ति आदि का त्याग ही यथार्थ त्याग है जिसके द्वारा हमें अपने परमानन्द स्वरूप की प्राप्ति होती है। यह त्याग कुछ ऐसा ही है, जैसे हम अन्न को ग्रहण कर क्षुधा का त्याग करते हैं अहंकार और स्वार्थ का त्याग करके कर्तव्यों के पालन से मनुष्य अपनी वासनाओं का क्षय करता है और आन्तरिक शुद्धि को प्राप्त करता है। इस प्रकार, त्याग तो मनुष्य को और अधिक शक्तिशाली और कार्यकुशल बना देता है।
कर्म और फल में आसक्ति तथा कामना का त्याग कर के कर्तव्यमात्र समझ कर कर्म करने से वह त्याग सात्त्विक हो जाता है। राजस त्याग में काया क्लेश के भय से और तामस त्याग में मोहपूर्वक कर्मों का स्वरुप से त्याग किया जाता है परन्तु सात्त्विक त्याग में कर्मों का स्वरूप से त्याग नहीं किया जाता, प्रत्युत कर्मों को सावधानी एवं तत्परता से, विधिपूर्वक, निष्कामभाव से किया जाता है। सात्त्विक त्याग से कर्म और कर्मफलरूप शरीर संसार से सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। राजस और तामस त्याग में कर्मों का स्वरूप से त्याग करने से केवल बाहर से कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद दीखता है परन्तु वास्तव में (भीतर से) सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता। इस का कारण यह है कि शरीर के कष्ट के भय से कर्मों का त्याग करने से कर्म तो छूट जाते हैं, पर अपने सुख और आराम के साथ सम्बन्ध जुड़ा ही रहता है। ऐसे ही मोहपूर्वक कर्मों का त्याग करने से कर्म तो छूट जाते हैं, पर मोह के साथ सम्बन्ध जुड़ा रहता है। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मों का स्वरूप से त्याग करने पर बन्धन होता है और कर्मों को तत्परता से विधिपूर्वक करने पर मुक्ति (सम्बन्धविच्छेद) होती है।
आध्यात्मिक प्राप्ति के लिए त्याग अवश्य आवश्यक है। लेकिन समस्या यह है कि त्याग के बारे में लोगों की समझ बहुत उथली है और वे इसे केवल कर्मों का बाह्य परित्याग मानते हैं। ऐसा त्याग पाखंड की ओर ले जाता है, जिसमें व्यक्ति बाहरी रूप से त्यागी का वेश धारण करके भीतर से इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करता है।
अहंकार कर्तृत्त्व भाव जन्म लेता है, सत्वगुण होने से वस्तु का यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है, जिस से प्रवृति और निवृति, कार्य और अकार्य, भय और अभय एवम बंधन और मोक्ष इन सब को बुद्धि जानने लगती है और इसी से कर्तव्य धर्म के पालन करने वाला पुरुष संसार से बंधन से मुक्त होता है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.09।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)