।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.08 II
।। अध्याय 18.08 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.8॥
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥
“duḥkham ity eva yat karma,
kāya- kleśa- bhayāt tyajet..।
sa kṛtvā rājasaḿ tyāgaḿ,
naiva tyāga- phalaḿ labhet”..।।
भावार्थ:
जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता॥८॥
Meaning:
Whatever action is given up because it is quite sorrowful, from fear of bodily distress, he performs that giving up which is raajasic and does not even obtain the reward of giving up.
Explanation:
Attachment is rajō guṇa; ignorance is tamō guṇa; here the person says Arjun while offering Sanyaasa does not have ignorance problem, the problem is bodily attachment. Therefore, he does not want to take any pains. This person knows the significance of sātvika karma; he has taken complete scriptures knowledge, and he also tells everyone sātvika karmas are important, still they are required to purify the mind. He knows well all the scriptures and he can give lectures also. But the problem is he would not like to do. Like many people who knows the significance of doing physical exercise. Not because of ignorance, they know, and they do not do. The reason of not doing is to avoid pain, comfort level, the fear to fail and avoid the duty othherwise i.e. attachment to the body, and the bodily comfort.
Earlier, we came across some people who claim to be performing spiritual renunciation of action, or the giving up of action, when in reality they are lazy, idle or careless in performing their obligatory duties. Now Shri Krishna describes another misinterpretation of tyaaga or giving up. He says that those who give up their duties simply because they will cause sorrow or distress to their body are practising tyaaga that is raajasic.
Many times, we may shirk from performing our job at work, or perform a job half-heartedly, because we think it will cause us pain or sorrow. We may have to give some bad news to a client. We may have to fire an underperforming employee. We may procrastinate starting a project because we may have to put in some extra hours. Such behaviour could come into our family lives as well. We may hesitate in helping out a relative because we may have to expend some of our money and energy.
Novice spiritualists often do not understand this truth. Wishing to avoid pain and taking an escapist attitude, they make spiritual aspiration a pretext for relinquishing their obligatory duties. However, life is never meant to be without burdens. Advanced sādhaks are not those who are undisturbed because they do nothing, on the contrary, they retain their peace despite upholding a huge burden placed upon their shoulders. Shree Krishna declares in this verse that giving up duties because they are troublesome is renunciation in the mode of passion.
Why do we fear pain or sorrow? We tend to forget many of the teachings of the second chapter. We are not the body; our true nature is the eternal essence. But we have a strong sense of attachment to the body and the mind. We are advised to patiently develop titkshaa, the quality of forbearance, towards pain and sorrow while discharging our duties. Instead, we fall back into our old ways of thinking and run away from our duties. Shri Krishna says that people who abandon their duties out of fear of pain and sorrow will not get the fruit of giving up actions, which is purity and peace of mind.
From the beginning, the Bhagavad Gita is a call for action. Arjun finds his duty unpleasant and bothersome and, as a result, wishes to run away from the battlefield. Shree Krishna calls this ignorance and weakness. He encourages Arjun to continue doing his duty, even though it may be unpleasant, while simultaneously bringing about an internal transformation within him. For this purpose, he enlightens Arjun with spiritual knowledge and helps him develop the eyes of wisdom. Having heard the Bhagavad Gita, Arjun does not change his profession but changes the consciousness he brings to bear upon his activities. Previously, the motive behind his work was to secure the kingdom of Hastinapur for his comfort and glory. Later, he continues to do his work, but as an act of devotion to God.
।। हिंदी समीक्षा ।।
आसक्ति रजो गुण है; अज्ञान तमो गुण है; यहाँ इस व्यक्ति को जिसे हम अर्जुन भी कह सकते है, को अज्ञान की समस्या नहीं है, समस्या शारीरिक आसक्ति है। इसलिए वह कोई कष्ट नहीं उठाना चाहता। यह व्यक्ति सात्विक कर्म का महत्व जानता है; उसने भगवद गीता सुनी है या यूँ कहें कि उसने पूरा पुस्तक या शास्त्रों का ज्ञान लिया है और वह सभी को बताता भी है कि सात्विक कर्म महत्वपूर्ण हैं, फिर भी उसे अपने मन को शुद्ध करने के लिए ज्ञान अभी भी उस की आवश्यकता है। वह अच्छी तरह जानता है और वह व्याख्यान भी दे सकता है। लेकिन समस्या यह है कि वह करना नहीं चाहता। कई लोगों की तरह जो व्यायाम का महत्व जानते हैं। अज्ञानता के कारण नहीं, वे जानते हैं और वे व्यायाम नहीं करते। न करने का कारण दर्द से बचना, आराम का स्तर, असफल होने का डर और कर्तव्य से बचना है, यानी शरीर से आसक्ति, और शारीरिक आराम।
समस्त कर्म दुःखरूप हैं, ऐसा मान कर जो कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों को छोड़ बैठता है, वह,( ऐसा ) राजस त्याग कर के, त्याग का फल अर्थात् ज्ञानपूर्वक किये हुए सर्वकर्मसंन्यास का मोक्ष रूप फल, नहीं पाता।
नवदीक्षित प्रायः इस सत्य को समझ नहीं पाते। दुःखो से छुटकारा पाने की इच्छा और पलायनवादी प्रवृत्ति आध्यात्मिक साधकों के लिए उन के उत्तरदायित्व को त्याग करने का बहाना है। यद्यपि जीवन निर्वाह का अर्थ कभी कष्ट रहित रहना नहीं होता। उन्नत साधक वे नहीं होते, जो इसलिए अक्षुब्ध रहते हैं कि वे कुछ नहीं करते बल्कि इस के विपरीत यदि उन्हें कोई बड़ा कार्य भार सौंपा जाता है तब वे उस को बिना विचलित हुए शांतिपूर्वक सुचारु रूप से संपन्न करते हैं। श्रीकृष्ण इस श्लोक में घोषित करते हैं कि अपने नियत कर्त्तव्यों को इस कारण से त्याग देना कि इन का पालन करना कष्टदायक होगा रजोगुणी त्याग कहा जाता है।
त्याग के राजसी स्वरूप का वर्णन कुछ इस प्रकार है, कि यदि आप को सरदर्द है और चंदन के घिस कर लगाने से वह दूर हो सकता है किंतु चंदन घिसने का कष्ट उठाने तो आप तैयार नही, तो यह राजसी त्याग है। इस से किसी भी कर्म का फल भी नही मिलता एवम न ही त्याग से कोई कार्य या लाभ होता है।
यज्ञ, दान आदि शास्त्रीय नियत कर्मों को करने में केवल दुःख ही भोगना पड़ता है और उन में है ही क्या क्योंकि उन कर्मों को करने के लिये अनेक नियमों में बँधना पड़ता है और खर्चा भी करना पड़ता है – इस प्रकार राजस पुरुष को उन कर्मों में केवल दुःख ही दुःख दिखता है। दुःख दिखने का कारण यह है कि उन का परलोक पर, शास्त्रों पर, शास्त्र विहित कर्मों पर और उन कर्मों के परिणाम पर श्रद्धाविश्वास नहीं होता। राजस मनुष्य को शास्त्र मर्यादा और लोक मर्यादा के अनुसार चलने से शरीर में क्लेश अर्थात् परिश्रम का अनुभव होता है । राजस मनुष्य को अपने वर्ण, आश्रम आदि के धर्म का पालन करने में और मातापिता, गुरु, मालिक आदि की आज्ञा का पालन करने में पराधीनता और दुःख का अनुभव होता है तथा उन की आज्ञा भङ्ग कर के जैसी मरजी आये, वैसा करने में स्वाधीनता और सुख का अनुभव होता है। राजस मनुष्यों के विचार यह होते हैं कि गृहस्थ में आराम नहीं मिलता, स्त्रीपुत्र आदि हमारे अनुकूल नहीं हैं अथवा सब कुटुम्बी मर गये या स्वार्थी हैं, घर में काम करने के लिये कोई रहा नहीं, खुद को तकलीफ उठानी पड़ती है, इसलिये साधु बन जायँ तो आराम से रहेंगे, रोटी, कपड़ा आदि सब चीजें मुफ्त में मिल जायँगी, परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। अथवा कोई ऐसी सरकारी नौकरी मिल जाय, जिस से काम कम करना पड़े और रुपये आराम से मिलते रहें, हम काम न करें तो भी उस नौकरी से हमें कोई छुड़ा न सके, हम नौकरी छोड़ देंगे तो हमें पेंशन मिलती रहेगी, इत्यादि। ऐसे विचारों के कारण उन्हें घर का काम धन्धा करना अच्छा नहीं लगता और वे उस का त्याग कर देते हैं।
अतः किसी भी कार्य को ज्ञान रहते हुए भी आलस्य, भय, कष्ट या अन्य किसी भी कारण से न करना, जो की आप के कर्तव्य धर्म के पालन के लिये आवश्यक है, राजसी त्याग कहलाता है। भय, लोभ या आलस्य से अक्सर किसी भी कर्तव्य कर्म से विमुख हो कर व्यक्ति उस कर्म को निर्रथक या अनावश्यक भी कहने लगता है। इस प्रकार का त्याग उस के लक्ष्य की पूर्ति के लिये घातक है।
यहाँ कर्मों में दुःख देख कर उन का त्याग करने को राजस त्याग कहा है अर्थात् कर्मों के त्याग का निषेध किया है, इन दोनों बातों में परस्पर विरोध प्रतीत होता है। इस का समाधान है कि वास्तव में इन दोनों में विरोध नहीं है, प्रत्युत इन दोनों का विषय अलग अलग है। वहाँ भोगों में दुःख और दोष को देखने की बात है और यहाँ नियत कर्तव्यकर्मों में दुःख को देखने की बात है। इसलिये वहाँ भोगों का त्याग करने का विषय है और यहाँ कर्तव्य कर्मों का त्याग करने का विषय है। भोगों का तो त्याग करना चाहिये, पर कर्तव्य कर्मों का त्याग कभी नहीं करना चाहिये। कारण कि जिन भोगों में सुख बुद्धि और गुण बुद्धि हो रही है, उन भोगों में बारबार दुःख और दोष को देखने से भोगों से वैराग्य होगा, जिस से परमात्मतत्त्व की प्राप्त होगी परन्तु नियत कर्तव्य कर्मों में दुःख देख कर उन कर्मों का त्याग करने से सदा पराधीनता और दुःख भोगना पड़ेगा।
मन, इन्द्रिय एवम शरीर मे आराम की प्रवृति रजोगुण की है, नियत कर्म को निष्काम एवम कर्तव्य कर करना सतगुण की प्रवृति है एवम नियत कर्म को अपने चतुर्थाश्रम वर्ण के अनुसार कर्तव्य धर्म के पालन हेतु करने से इंकार करना या न करना तमोगुण की प्रवृति है। कर्तव्य कर्मों का त्याग करने में तो राजस और तामस – ये दो भेद होते हैं, पर परिणाम ( मोह, आलस्य, प्रमाद, अतिनिद्रा आदि) में दोनों एक हो जाते हैं अर्थात् परिणाम में दोनों ही तामस हो जाते हैं, जिस का फल अधोगति होता है। दोनो त्याग करने वाला अक्सर अपने को ज्ञानी मानता है और तर्क से अपने को सही भी सिद्ध करता है।
प्रारम्भ से ही भगवद्गीता में कर्म करने का उपदेश दिया गया है। अर्जुन अपने कर्त्तव्य को अप्रिय और कष्टदायक समझता है जिस के परिणामस्वरूप वह युद्ध से पलायन करना चाहता है। श्रीकृष्ण इसे अज्ञानता और दुर्बलता कहते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन के भीतर आंतरिक परिवर्तन लाने के साथ- साथ उसे प्रोत्साहित करते हैं कि वह अपने कर्तव्यों का पालन करें भले ही वे कष्टदायक ही क्यों न हो। इस प्रयोजन हेतु वे अर्जुन को प्रबुद्ध करते हैं ताकि वह अपने ज्ञान चक्षुओं को विकसित कर सके। भगवद्गीता को सुन कर उसने अपने क्षत्रिय धर्म को परिवर्तित नहीं किया बल्कि उसने अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करने के लिए अपनी चेतना को परिवर्तित किया। इससे पूर्व उसका कर्म करने का उद्देश्य अपनी सुख-सुविधा और यश के लिए हस्तिनापुर का राज सिंहासन प्राप्त करना था। बाद में उसने अपने कर्तव्य का पालन भगवान की भक्ति के रूप में किया। अतः राजसी या तामसी त्याग अज्ञानी के ज्ञान का प्रतिफल है, अर्जुन के मोह के पीछे उस का अधूरा शास्त्र ज्ञान ही था। इसलिए इस के त्यागी को अपने त्याग का अभिमान भी रहता है।
इस का अभिप्राय यह है कि यदि कर्तव्य कर्म दुखदायक और थकाने वाले न हों, तो रजोगुणी पुरुष उन्हें करने में तत्पर रहेगा। परन्तु कर्मशील पुरुष होकर जो अपनी व्यक्तिगत सुखसुविधाओं का त्याग नहीं कर सकता, उसे श्रेष्ठ और साहसी पुरुष कदापि नहीं कहा जा सकता। ऐसे कर्मों का कोई विशेष पुरस्कार नहीं मिलता। भगवान् तो कहते हैं, वह अपने त्याग का कोई फल प्राप्त नहीं करता है। वस्तुत अपने कर्तव्यों का पालन ही महानतम त्याग है और विशेषत तब वह और भी अधिक श्रेष्ठ बन जाता है, जब मनुष्य को अपनी शारीरिक सुख सुविधाओं का भी त्याग करना पड़ता है। स्वयं अर्जुन भी युद्ध करने में संकोच करके अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा था। इस प्रकार, उसका त्याग राजस श्रेणी का ही कहा जा सकता था। वास्तविक त्याग हमें सदैव आत्माभिव्यक्ति के विशालतर क्षेत्र में पहुँचाता है, जहाँ हम श्रेष्ठतर दिव्य आनन्द का अनुभव कर सकते हैं। त्याग के द्वारा ही एक कली खिलकर फूल बन जाती है, और वह फूल अपनी कोमल पंखुड़ियों और मनमोहक सुगन्ध का त्याग कर ही फल के सम्पन्न पद को प्राप्त होता हैं।
त्याग का फल शान्ति है। राजस मनुष्य त्याग करके भी त्याग के फल(शान्ति) को नहीं पाता। कारण कि उसने जो त्याग किया है, वह अपने सुख आराम के लिये ही किया है। ऐसा त्याग तो पशुपक्षी आदि भी करते हैं। अपने सुख आराम के लिये शुभ कर्मों का त्याग करने से राजस मनुष्य को शान्ति तो नहीं मिलती, पर शुभकर्मों के त्याग का फल दण्डरूप से जरूर भोगना पड़ता है।
जो मन के प्रतिकूल हो, उसे दुख कहते है। दुख तीन प्रकार का होता है, 1- आध्यात्मिक 2- आधिदैविक एवम 3- अधिभौतिक। इसी दुख तो ताप भी कहते है। कर्म मोक्ष का साधन रूप है तथा इस के अनुष्ठान में मन, वाणी, शरीर को परिश्रम होता है तथा दुख रूप द्रव्योपार्जन से कार्य सिद्ध होते है। लक्ष्य को प्राप्त करने में अनेक विध्न होते है, जिन्हें मन, शरीर, बुद्धि और कठिन परिश्रम द्वारा कष्ट सहते हुए ही प्राप्त किया जा सकता हैं।
व्यवहार में महाराणा प्रताप ने जंगलों में रह कर, घास की रोटियां खा कर भी अपने कर्तव्य कर्म मातृ भूमि की रक्षा का प्रण नहीं छोड़ा, जब की मानसिंह में अपनी सुविधा के लिए अकबर की दासता स्वीकार कर ली। हिंदुत्व की एकता आवश्यक है, यह जानते हुए भी, यदि कोई विपक्ष के साथ स्वार्थी काम करे तो वह तामसी त्याग है और आगे कष्ट न हो, इसलिए कुछ भी कार्य नहीं करे या उदासीन रहे तो यह राजसी त्याग है।
नियत कर्म का पालन करना, अपने चुने हुए वर्णधर्म के अनुसार उस को पूर्ण निष्ठा, कुशलता एवम क्षमता से करना, जिस में कोई भय, मोह, निंद्रा, आलस्य या प्रमाद आदि न हो तथा मनुष्य को किसी भी कार्य करने के लिये लक्ष्य का निर्धारण करना और उस हेतु कर्तव्यधर्म का पालन करते हुए निष्काम रहना ही सन्यास एवम त्याग है। कामना या आसक्ति की प्राप्ति के लिये किया कार्य कष्टप्रद हो सकता क्योंकि उस मे वांछित फल की प्राप्ति न होने से दुख होगा। किन्तु यदि कामना या आसक्ति त्याग कर लक्ष्य की पूर्ति हेतु काम किया जाए तो लोकसंग्रह में वह मोक्ष के अंतिम लक्ष्य के सहायक होगा और मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त हो कर सांसारिक सुखों का भी आनन्द ले सकेगा। यही उपदेश अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण पूर्व के अध्याय में दे चुके कि जब नियति ने तुन्हें किसी विशेष कार्य के लिये तय किया है तो अपना कर्तव्य धर्म का पालन निष्काम भाव से करो और इस संसार मे सुख का आनन्द लो।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.08।।
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