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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.07 II

।। अध्याय      18.07 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.7

नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।

मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥

“niyatasya tu sannyāsaḥ,

karmaṇo nopapadyate..।

mohāt tasya parityāgas,

tāmasaḥ parikīrtitaḥ”..।।

भावार्थ: 

(निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परन्तु नियत कर्म का (इसी अध्याय के श्लोक 48 की टिप्पणी में इस का अर्थ देखना चाहिए।) स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए मोह के कारण उस का त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है॥७॥

Meaning:

Indeed, the giving up of an obligatory action is not appropriate. Giving it up out of delusion is declared to be taamasic.

Explanation:

Shri Krishna moved the discussion on karma yoga ahead by categorizing the three types of tyaaga, which means giving up or renunciation. He leaves the differentiate between sanyas and Tayaaga. He says, there is three types of sanyāsa Krishna is talking about or sātvika, rājasa, tāmasa sanyāsa; and all these three are from the standpoint of a person who is not yet ready. Krishna is keeping in mind an unprepared person and giving this teaching.

According to him, renouncing prohibited actions and unrighteous actions is proper; renouncing desire for the rewards of actions is also proper; but renouncing prescribed duties is never proper. Prescribed duties help purify the mind and elevate it from tamo guṇa to rajo guṇa to sattva guṇa. Abandoning them is an erroneous display of foolishness. Shree Krishna states that giving up prescribed duties in the name of renunciation is said to be in the mode of ignorance.

He says never renounce these three basic spiritual disciplines. Under no circumstances, you should renounce or you should never renounce these three; yajña, dānam and tapaḥ. Those three together Krishna calls in niyata karma; Niyatam means compulsory; Just as nowadays they say physical exercise is compulsory, for every human being, for maintaining physical health.

He says that when we give up an obligatory action, when we do not perform an obligatory action out of delusion, out of incorrect or error prone knowledge, such renunciation is known as taamasic tyaaga or taamasic renunciation. There are some people who leave them out of delusion, out of ignorance; ignorance of their value; and ignorance is caused by which guṇa. tamō guṇa, and therefore such a renunciation, which is caused by ignorance, i.e. called tāmasa sanyāsaḥ. He says that such behaviour is inappropriate and is not in line with the teachings of karma yoga. Not doing one’s duty is forbidden in karma yoga.

Where do one’s obligatory duties come from? They come from one’s stage in life or aashrama, and one’s profession or varna. A householder is obliged to attend to the needs of his spouse, his parents and his children. If he does not attend to his sick parents, or does not help with his child’s homework, it is termed as taamasic behaviour. A businessman should strive to generate healthy profits from his business and donate a portion of his wealth to charity. Not doing so is also considered taamasic.

Moha or delusion can create all kinds of negative tendencies in us, as we have seen in prior chapters. It can cause heedlessness and carelessness where we do not pay proper attention to the task at hand. It can cause laziness and idleness where our body becomes inert and dull, where we do not want to get up from bed. It is hard to get oneself out of a state of moha. Unless someone who is not taamasic intervenes, we will remain in a state of tamas for a long time.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने अपने दर्शन देते हुए कहा था जिन्हें तुम मारने से डर रहे हो उन्हें नियति ने पहले ही मार दिया है, तुम मात्र निमित्त हो, इसलिये नियति एवम अपने चतुर्थाश्रम मे तुम अपने कर्तव्य का पालन करो और यश भोगों। अतः जीव के कर्म उस के प्रारब्ध और संचित कर्मों के हिसाब से प्रकृति तय करती है। वह उस कर्म को करने के लिए निमित्त मात्र है।

चतुर्थाश्रम के अनुसार हम अपने कर्म का जो भी निर्धारण कर लेते है, वह हमारी योग्यता, क्षमता एवम कार्यकुशलता की परिचायक है। अपने ही निर्धारित क्षेत्र में श्रेष्ठता को प्राप्त करना ही हमारा कर्तव्य धर्म है, इस को मोह में  त्याग करना तामस त्याग है।

निषेध और अधम कर्मों का त्याग उचित है और कर्मफलों की इच्छा का त्याग भी उचित है। निर्दिष्ट कर्त्तव्यों का त्याग कभी उचित नहीं कहा जा सकता। निर्दिष्ट कर्त्तव्यों के पालन से मन को शुद्ध करने में सहायता मिलती है और यह हमें तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्व गुण  में उन्नत करते हैं। इन का परित्याग त्रुटिपूर्ण और मूर्खतापूर्ण कृत्य है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि त्याग के नाम पर निर्धारित कर्तव्यों का परित्याग करने वाले मनुष्य को तमोगुणी कहा जाता है।

इस प्रकार कृष्ण तीन प्रकार के संन्यास की बात कर रहे हैं – सात्विक, राजस, तामस संन्यास; और ये तीनों ही संन्यास उस व्यक्ति के दृष्टिकोण से हैं जो अभी तैयार नहीं है। कृष्ण एक अप्रस्तुत व्यक्ति को ध्यान में रखकर यह शिक्षा दे रहे हैं। इन तीन मूल आध्यात्मिक अनुशासनों का कभी त्याग न करें। किसी भी परिस्थिति में, आपको इन तीनों का त्याग नहीं करना चाहिए या आपको कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए; यज्ञ, दानम और तप:।इन तीनों को कृष्ण ने नियत कर्म कहा है; नियतम का अर्थ है अनिवार्य; जैसे आजकल कहा जाता है कि शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य के लिए शारीरिक व्यायाम अनिवार्य है।कृष्ण कहते हैं कि कुछ लोग इनका अभ्यास नहीं करते क्योंकि उन्हें इनका महत्व नहीं पता। बस बहुत से अनपढ़ लोग हैं जो व्यायाम के महत्व को नहीं समझते। इसीलिए जागरूकता पैदा करनी है; सिखाना है; अगर आप अपनी मांसपेशियों को नहीं हिलाते तो क्या होगा; उन्हें आपको सिखाना होगा। आलस्य या मोह में नियत कर्म नहीं करना, अपना ही मानसिक और शारीरिक नुकसान  करना है।

भगवान श्री कृष्ण बार बार नियत कर्म पर बल देते हुए कहते है, सांसारिक मोह माया, कामना, आसक्ति, क्रोध, लोभ में अपने नियत कर्म की न करना या उसका त्याग करना, तामस त्याग है। जब हम पढ़ाई करते है तो कोई विषय यदि किसी लोभ या मोह में  पढ़ना छोड़ दे, तो उसे तामस त्याग मानेंगे। इसी प्रकार किसी बड़े वकील के सामने जिरह करने से या गलत बात का विरोध किसी मोह, कामना या लोभ के कारण त्यागते है तो वह तामस त्याग है। इस त्याग से हम अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकते।

ऐसे नियत कर्मों को मूढ़ता से अर्थात् बिना विवेक विचार के छोड़ देना तामस त्याग कहा जाता है। सत्सङ्ग, सभा, समिति या ऑफिस या दुकान आदि में जाना आवश्यक था, पर आलस्य में पड़े रहे, आराम करने लग गये अथवा सो गये घर में मातापिता या अन्य कोई भी सदस्य बीमार हैं, उनके लिये वैद्य को बुलाने या औषधि लाने के लिये जा रहे थे, रास्ते में कहीं पर लोग ताश चौपड़ आदि खेल रहे थे, उन को देख कर खुद भी खेल में लग गये और वैद्य को बुलाना या ओषधि लाना भूल गये कोर्ट में मुकदमा चल रहा है, उस में हाजिर होने के समय हँसी दिल्लगी, खेल तमाशा आदि में लग गये और समय बीत गया शरीर के लिये शौचस्नान आदि जो आवश्यक कर्तव्य हैं, उनको आलस्य और प्रमाद के कारण छोड़ दिया – यह सब तामस त्याग के उदाहरण हैं।

लोग सामान्य रीति से स्वरूप से कर्मों को छोड़ देने को ही त्याग मानते हैं क्योंकि उन्हें प्रत्यक्ष में वही त्याग दीखता है। कौन व्यक्ति कौन सा काम किस भाव से कर रहा है, इस का उन्हें पता नहीं लगता। परन्तु भगवान् भीतर की कामना ममता आसक्ति के त्याग को ही त्याग मानते हैं क्योंकि ये ही जन्म मरण के कारण हैं।

नियत अर्थात् कर्तव्य कर्मों का त्याग अत्यन्त निम्नस्तर का तामस त्याग माना गया है। नित्य, नैमित्तक एवम काम्य कर्मों के सम्मिलित रूप को ही नियत कर्म कहते हैं। कुछ काम्य कर्म को नियत कर्म में नही मानते, जो सही नही है। जब तक मनुष्य अपने समाज के एक सदस्य के रूप में जीवन यापन करता है, तब तक उसे वह समाज, सुरक्षा तथा उन्नति का लाभ भी प्रदान करता है। अत हिन्दू नीति के अनुसार, मनुष्य को अपने कर्तव्यों को त्यागने का कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई व्यक्ति अज्ञानवश अपने नैतिक कर्तव्यों का त्याग करता है तब भी वह क्षम्य नहीं है। जैसे, संविधान के और भौतिक जगत् के प्राकृतिक नियमों के पालन के संबंध में नियम का अज्ञान क्षम्य नहीं माना जाता, वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यही नियम लागू होता है। मोह से अज्ञानपूर्वक  उन नित्यकर्मों का परित्याग तामस कहा गया है । नियत अवश्य कर्तव्य को कहते हैं। अतः यह मोह निमित्तक त्याग तामस कहा गया है। मोह ही तम है, यह प्रसिद्ध है। अज्ञान और अविवेक के कारण यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य पालन के द्वारा समाज सेवा नहीं करता है, तो उसका यह त्याग मूढ़ अर्थात् तामसिक त्याग है। इस के अतिरिक्त शास्त्र विहित कर्म करने की आज्ञा देता है, किंतु समस्त विहित कर्म को मनुष्य नही कर सकता, इसलिए विहित कर्मों में जो कर्म उस के धर्म, वर्ण, आश्रम और परिस्थितियों से जन्म लेते है, उन्हे अज्ञान में मोह, आलस्य या स्वार्थ में त्याग करना तामसी वृति है। युद्ध स्वयं में कोई अच्छी बात। नही है किंतु सभी प्रयास के बाद भी यदि यह व्यक्ति के सामने आ ही जाए तो उस समय अपने को मोह ग्रस्त हो कर त्याग करना अर्जुन के वर्ण क्षत्रिय होने के कारण तामसी त्याग होगा।

अतः आत्म ज्ञान रहित कर्माधिकारी मुमुक्षु के लिये, विहित नित्यकर्मों का संन्यास यानी परित्याग करना नहीं बन सकता क्योंकि अज्ञानी के लिये नित्यकर्म शुद्धि के हेतु माने गये हैं। अतः मोह- ममता से, अज्ञान से, आलस्य से, अज्ञानपूर्वक ( किया हुआ ) उन नित्यकर्मों का परित्याग ( तामस कहा गया है )। नियत अवश्य कर्तव्य को कहते हैं, फिर उस का त्याग किया जाना अत्यन्त विरुद्ध है, अतः यह मोह निमित्तक त्याग तामस कहा गया है। मोह ही तम है, यह प्रसिद्ध है।

सन्यास और त्याग में अपने मत को व्यक्त करते हुए, कर्तव्य कर्म के त्याग को प्रकृति के त्रय गुणों से परिभाषित करते हुए, आगे भगवान श्री कृष्ण आगे अन्य गुण राजस के विषय में भी क्या कहते है, आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.07।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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