।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.04 II
।। अध्याय 18.04 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.4॥
निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः॥
“niścayaḿ śṛṇu me tatra,
tyāge bharata- sattama..।
tyāgo hi puruṣa-vyāghra,
tri- vidhaḥ samprakīrtitaḥ”..।।
भावार्थ:
हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है॥४॥
Meaning:
Hear from me the truth on this issue of giving up, O foremost among Bharataas. For giving up, O foremost among men, has been declared to be of three types.
Explanation:
After listing differing viewpoints on the topic of renunciation of Sanyans and Tyaga in karma yoga, Shri Krishna proceeds to provide the correct understanding to Arjuna. Before we delve into Shri Krishna’s answer, let us go through the viewpoints and analyze their merits. The most extreme viewpoint from the previous shloka advocated the complete abandonment of all actions. We have already seen in earlier chapters that it is impossible for the human body to remain without performing actions for its survival. Therefore, this viewpoint is impractical and has to be rejected.
Arjuna gets two wonderful titles from Shri Krishna, bhratasattama and purushavyaagraha. Purushavyaagraha meaning “tiger amongst men” because renunciation is for the brave hearted. Saint Kabir said: teer tupak se jo ladai, so to shoor na hoy। maaya taji bhakti kare, soor kahaavai soy ..।।
He who fights with arrows and guns is not a brave man. He who abandons Maya and does Bhakti is called a brave man. He who fights only with bow and sword is not called a brave man. A true brave man is he who abandons Maya and does Bhakti.
A less extreme viewpoint advocated the abandonment of all selfish actions. Even this is impractical since it is impossible for someone to suddenly quit performing only selfish actions and continue with the rest. So we can reject this viewpoint as well. Two other viewpoints remain. One is performing actions that are obligations towards our fellow human beings, towards Ishvara and towards ourselves. The other is to remove our attachment towards the rewards of all actions.
Shri Krishna begins providing his definition by first praising Arjuna for asking the clarifying question, since it gives an opportunity to summarize the teaching of karma yoga for all future students of the Gita. He explained earlier the viewpoints of various wise and learned people. Renunciation is important because it is the basis for higher life. It is only by giving up the lower desires that we can cultivate the higher aspirations. Having mentioned the two primary opposing views in the previous verse, Shree Krishna now reveals his opinion, which is the final verdict on the subject.
The first verdict that Krishna wants to give is an implied verdict. The most important verdict is implied in this verse. There is no difference at all between sanyāsa and tyāga. According to Krishna, sanyāsa and tyāga are synonymous; and therefore, Krishna disagrees from the previous group of people, because the previous group differentiated these two. Renunciation of karma is sanyāsa; renunciation of karma phala is tyāga; such a shade of difference they made. According to Krishna there is no shade of difference. Sanyāsa is equal to tyāga; tyāga is equal to sanyāsa; both mean renunciations. He says, ‘Hey Arjun!’ renunciation is threefold and here tyāga you should equate to sanyāsa also, because according to Krishna tyāga and sanyāsa are synonymous. Tyāgaḥ trivida, which means sanyāsaḥ trivida; three- fold. It created curicity in mind of Arjun, to know threefold renunciation of Tyaga as well as Sanyansa. And before defining these three types of renunciation, Krishna wants to make a general important remark. Based on that only he is going to build his opinion on renunciation. Therefore, Arjuna, before understanding renunciation, you should know one basic principle. What is the basic principle? That he gives in the next verses.
।। हिंदी समीक्षा ।।
विभिन्न विचारकों एवम मनीषियों के मत सन्यास के विषय मे बताने से यह बात स्पष्ट होती है कि कर्म को दोषपूर्ण एवम त्याज्य माना गया है क्योंकि कर्म कामना के बंधन में जकड़ता है। नित्य, नैमित्तिक एवम काम्य कर्मो में नित्य एवम नैमित्तिक कार्य तो जीव के आवश्यक जीवन निर्वाह के कार्य है। सन्यासी इन्हें परमात्मा के कार्य ही मानता हुआ करता है।
वे अर्जुन को भरतसत्तम और पुरुषव्याघ्र कहते हैं, जिसका अर्थ है “मनुष्यों में बाघ” क्योंकि त्याग वीरों के लिए है। संत कबीर ने कहा:
तीर तुपक से जो लड़ै, सो तो शूर न होय ।
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ।।
वह मानव वीर नहीं कहलाता जो केवल धनुष और तलवार से लड़ाई लड़ते हैं । सच्चा वीर तो वह है जो माया को त्याग कर भक्ति करता है ।
कर्म कोई भी हो, उस का फल अवश्य उत्पन्न होता है, इसलिए बंधन कारक होने से कुछ लोगो की मान्यता है कि कर्म का त्याग ही सन्यास है, अन्य मत में हम ने जाना कि संसार के संचालन के लिए यज्ञ, दान और तप का किया जाना आवश्यक है, कर्म जीवन की अनिवार्य क्रिया है, कोई भी बिना कर्म किए नही रह सकता तो बंधन कारक तत्व कर्म के फल की आशा का त्याग ही हो सकता है।
त्याग महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उच्च जीवन का आधार है। निम्नतर इच्छाओं का त्याग करके ही हम उच्चतर आकांक्षाओं का विकास कर सकते हैं। पिछले श्लोक में दो मुख्य विरोधी विचारों का उल्लेख करने के बाद, श्रीकृष्ण अब अपना मत प्रकट करते हैं, जो इस विषय पर अंतिम निर्णय है।
कर्म के दो विभाग हुए, जिन्हें हम काम्य एवम निष्काम भी कह सकते है। इसलिये जो भी त्यागने योग्य कर्म है वो काम्य ही है। जिस के बंधन के कारण उस के प्रति आसक्ति या कामना ही है। यह आसक्ति या कामना भी प्रकृति के त्रियामी गुणों के अनुसार होती है। इसलिये त्याज्य कर्म नही, इन के फल की आशा का होना चाहिए। अतः कर्मयोग में भी काम्य कर्म का सन्यास लेना ही पड़ता है एवम उस के पश्चात जीवन निष्क्रिय न जीते हुए, निष्काम भाव से करते रहना चाहिए। अर्जुन को पूर्व श्लोक में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि एक मात्र कर्मयोग में ही सन्यास एवम त्याग दोनों तत्व बने रहते है। कर्मयोगी सन्यासी बन कर हर काम्य कर्म को छोड़ देता है और जो कर्म लोकसंग्रह के लिये करता है उस को निष्काम हो करता है, जिस से कर्ताभाव का त्याग करता है। किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति जीव को बंधन में रखना चाहती है, इसलिए निष्काम कर्म करते हुए रहना भी तप है।
चतुर्थ आश्रम लिये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इस से ही सिद्ध होता है कि कर्मयोगी यद्यपि सन्यासियों का गेरुआ भेष धारण कर कर्मो का त्याग नही करता, तथापि वह सन्यास के सच्चे तत्व का पालन करता है, इसलिये निष्काम कर्मयोग का किसी भी स्मृति ग्रन्थ में विरोध नही किया है।
पहला निर्णय जो कृष्ण देना चाहते हैं, वह निहित निर्णय है। सबसे महत्वपूर्ण निर्णय इस श्लोक में निहित है। संन्यास और त्याग में कोई अंतर नहीं है। कृष्ण के अनुसार संन्यास और त्याग समानार्थी हैं; और इसलिए कृष्ण पिछले लोगों के समूह से असहमत हैं, क्योंकि पिछले समूह ने दोनों में अंतर किया था। कर्म का त्याग संन्यास है; कर्म फल का त्याग त्याग है; उन्होंने इतना अंतर किया। कृष्ण के अनुसार कोई अंतर नहीं है। संन्यास त्याग के बराबर है; त्याग संन्यास के बराबर है; दोनों का अर्थ त्याग है। वे कहते हैं, ‘हे अर्जुन!’ त्याग तीन गुना है और यहाँ त्याग को संन्यास के बराबर समझना चाहिए, क्योंकि कृष्ण के अनुसार त्याग और संन्यास समानार्थी हैं। त्यागः त्रिविध, अर्थात संन्यासः त्रिविध; तीन प्रकार। इससे अर्जुन के मन में त्याग और संन्यास के तीन प्रकार जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। और इन तीन प्रकार के त्याग को परिभाषित करने से पहले, कृष्ण एक सामान्य महत्वपूर्ण टिप्पणी करना चाहते हैं। उसी के आधार पर वे त्याग के बारे में अपना मत बनाने जा रहे हैं।
उपरोक्त वर्णन के पश्चात भगवान अब अपना वचन कहते हुए अर्जुन से कहते है कि त्याग संन्यास सम्बन्धी विकल्पों के विषय में, तू मेरा निश्चय सुन, अर्थात् मेरे वचनों से कहा हुआ तत्त्व भली प्रकार समझ। त्याग और संन्यास शब्द का जो वाच्यार्थ है वह एक ही है, इस अभिप्राय से केवल त्याग के नाम से ही,( प्रश्नका ) उत्तर देते हैं। इस से यह आभास होता है कि भगवान श्री कृष्ण सन्यास को त्याग के अर्थ के साथ अधिक स्पष्ट रूप से कहना चाहते है।
त्याग विषयक निश्चय सिंद्धान्त को पहले भी वैदिक कर्मो में फल विषयक अर्थात फल की इच्छा से किये हुए कर्म, कर्म विषयक अर्थात इस कर्म के फल का मैं ही अधिकारी हूँ तो यह कर्म भी मेरा है एवम कृतर्त्त्व विषयक अर्थात इन सब का मैं ही कर्ता हूँ, इन सब आसक्ति को बिना कर्म किये त्याग करना।
सामान्य मनुष्य के लिए किसी प्रकार का भी त्याग करना सरल कार्य़ नहीं होता संचय और समृद्धि मानो मन के प्राण ही हैं। इसलिए, स्वाभाविक है कि अर्जुन के श्रेष्ठ गुणों को जागृत करने के लिए भगवान् उसे भरतसत्तम और पुरुषव्याघ्र कहकर सम्बोधित करते हैं। अध्ययन की दृष्टि से त्याग का तीन भागों में वर्गीकरण किया गया है। सम्पूर्ण गीता में यह त्रिविध वर्गीकरण पाया जाता है और वे तीन वर्ग हैं सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
वास्तव में भगवान् के मत में सात्त्विक त्याग ही त्याग है परन्तु उस के साथ राजस और तामस त्याग का भी वर्णन करने का तात्पर्य यह है कि उस के बिना भगवान् के अभीष्ट सात्त्विक त्याग की श्रेष्ठता स्पष्ट नहीं होती क्योंकि परीक्षा या तुलना कर के किसी भी वस्तुकी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये दूसरी वस्तुएँ सामने रखनी ही पड़ती हैं। तीन प्रकारका त्याग बतानेका तात्पर्य यह भी है कि साधक सात्त्विक त्याग को ग्रहण करे और राजस तथा तामस त्याग का त्याग करे।इसलिए, अर्जुन, त्याग को समझने से पहले तुम्हें एक मूल सिद्धांत जान लेना चाहिए। मूल सिद्धांत क्या है? वह अगले श्लोकों में बताता है। इसे हम आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.04।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)