।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 17.28 II
।। अध्याय 17.28 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 17.28॥
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥
“aśraddhayā hutaḿ dattaḿ,
tapas taptaḿ kṛtaḿ ca yat..।
asad ity ucyate pārtha,
na ca tat pretya no iha”..।।
भावार्थ:
हे पृथापुत्र अर्जुन! बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी “असत्” कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है। (२८)
Meaning:
Whatever is sacrificed, donated or done, and whatever penance is performed, without faith, it is called asat, O Paartha. It is neither here nor after death.
Explanation:
In the previous shloka, Shri Krishna asserted that any action performed with the steadfastness in Ishvara, with constant memory and faith in Ishvara, automatically becomes a saattvic action. Furthermore, with the application of the purifier Om Tat Sat, it becomes a means towards liberation. Here, such kind of action is compared with an action that is performed without any faith or steadfastness whatsoever. Action performed without any faith is called as asat, which literally means nonreality or devoid of reality.
Anything done without the transcendental objective — whether it be sacrifice, charity or penance — is useless. Therefore, in this verse it is declared that such activities are abominable. Everything should be done for the Supreme in Krishna consciousness. Without such faith, and without the proper guidance, there can never be any fruit. In all the Vedic scriptures, faith in the Supreme is advised. In the pursuit of all Vedic instructions, the ultimate goal is the understanding of Krishna. No one can obtain success without following this principle. Therefore, the best course is to work from the very beginning in Krishna consciousness under the guidance of a bona fide spiritual master. That is the way to make everything successful.
In our daily life, we can immediately tell the difference between one who puts their heart and soul into their actions, and one who is just going through the motions. We ourselves have instances where we love an action so much that we put everything in it, we get lost in it, and some other actions where we are acting like mechanical machines, like robots. Shri Krishna says that any action, any sacrifice, penance or charity performed without faith, without our soul in it, becomes a worthless action. Forget liberation, it will not even yield a result here, on this earth.
Shree Krishna now emphasizes the futility of Vedic activities done without it. He says that those who act without faith in the scriptures do not get good fruits in this life because their actions are not perfectly executed. And since they do not fulfil the conditions of the Vedic scriptures, they do not receive good fruits in the next life either. Thus, one’s faith should not be based upon one’s own impressions of the mind and intellect. Instead, it should be based upon the infallible authority of the Vedic scriptures and the Guru.
With this shloka, Shri Krishna concludes the seventeenth chapter on the three types of faith. He says that there are three types of devotees based on the texture of their faith, and are categorized as saattvic, raajasic and taamasic. In order to make ourselves fit for liberation, we should cultivate saatvic faith and eliminate the other two types of faith. This will happen only by consuming saattvic food and performing saattvic sacrifices, charity and penance. To ensure that our saatvic actions are free of errors and defects, we should use the purifier Om Tat Sat while performing the actions.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अध्याय के अंतिम श्लोक में ॐ तत सत के अतिरिक्त श्रद्धा, निष्ठा एवम विश्वास हीन उन कर्मो के यज्ञ, दान और तप के लिये बताया गया है, जो आसुरी प्रवृति से प्रवृत्त है। यह समस्त कर्म उस परमब्रह्म से नही जुड़ सकते जो नित्य, शाश्वत एवम मोक्ष का अंतिम लक्ष्य है क्योंकि इन मे सात्विकता का अभाव है, यह जीव के नाशवान शरीर से जुड़े है, मन के विकारों से उत्पन्न है, इसलिये बिना परब्रह के प्रति सात्विक श्रद्धा, विश्वास एवम निष्ठा का प्रत्येक कर्म असत है।
इस श्लोक में, निषेध की भाषा में निश्चयात्मक रूप से भगवान् कहते हैं कि श्रद्धारहित कोई भी कर्म न इस लोक में और न मरण के पश्चात् ही लाभदायक होता है। कर्मों का फल कर्ता की श्रद्धा, उत्साह और निश्चय पर ही निर्भर करता है। मनुष्य की श्रद्धा ही उसके कर्मों को आभा प्रदान करती है। अत कर्म का फल बहुत अधिक मात्रा में कर्ता की श्रद्धा पर निर्भर करता है।यहाँ निश्चयात्मक रूप से कहा गया है कि श्रद्धारहित यज्ञ, दान, तप और अन्य कर्म असत् होते हैं। असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए ऐसे असत् कर्मों से कोई वास्तविक श्रेष्ठ फल प्राप्त नहीं किया जा सकता। भगवान् के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि सब कर्मों में श्रद्धा की प्रमुखता है और उसके बिना कर्म निष्फल होते हैं।श्रद्धा का यह नियम न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही सत्य है, अपितु लौकिक फलों की प्राप्ति में भी उतना ही सत्य प्रमाणित होता है। कर्ता को स्वयं अपने में, कर्म में तथा प्राप्य लक्ष्य में श्रद्धा आवश्यक होती है, केवल तभी वह अपनी सम्पूर्ण क्षमता के साथ प्रयत्न कर सकता है अन्यथा नहीं।अत भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि अश्रद्धा से किये गये यज्ञ, दान और तप असत् होते हैं।
श्रीकृष्ण अब बिना श्रद्धा के साथ किए जाने वाले वैदिक कर्मकाण्डों की निरर्थकता पर प्रकाश डालते हैं। वे कहते हैं कि वे जो धर्मग्रंथों पर विश्वास किए बिना कम करते हैं वे इस जन्म में सुखद फल प्राप्त नहीं करते क्योंकि उनके कार्य सुचारु रूप से निष्पादित नहीं होते, क्योंकि वे वैदिक ग्रंथों के विधि-निषेधों का पालन नहीं करते इसलिए उन्हें अगले जन्म में भी शुभ फल प्राप्त नहीं होते। अतः किसी की श्रद्धा उसके मन और बुद्धि की धारणाओं पर आधारित नहीं होनी चाहिए। अपितु यह वैदिक ग्रंथों और गुरु के अमोघ प्रमाण पर आधारित होनी चाहिए।
यदि यहाँ यह कहा जाय कि अश्रद्धापूर्वक जो कुछ भी किया जाता है, उस का इस लोक में और परलोक में कुछ भी फल नहीं होता, तो जितने पापकर्म किये जाते हैं, वे सभी अश्रद्धासे ही किये जाते हैं, तब तो उन का भी कोई फल नहीं होना चाहिये और मनुष्य भोग भोगने तथा संग्रह करने की इच्छा को लेकर अन्याय, अत्याचार, झूठ, कपट, धोखेबाजी आदि जितने भी पापकर्म करता है, उन कर्मों का फल दण्ड भी नहीं चाहता पर वास्तव में ऐसी बात है नहीं। कारण कि कर्मों का यह नियम है कि रागी पुरुष रागपूर्वक जो कुछ भी कर्म करता है, उस का फल कर्ता के न चाहने पर भी कर्ता को मिलता ही है। इसलिये आसुरी सम्पदावालों को बन्धन और आसुरी योनियों तथा नरकों की प्राप्ति होती है।छोटे से छोटा और साधारण से साधारण कर्म भी यदि उस परमात्मा के उद्देश्य से ही निष्कामभावपूर्वक किया जाय, तो वह कर्म सत् हो जाता है अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला हो जाता है परन्तु ब़ड़े से बड़ा यज्ञादि कर्म भी यदि अश्रद्धापूर्वक और शास्त्रीय विधि विधान से सकामभावपूर्वक किया जाय, तो वह कर्म भी फल देकर नष्ट हो जाता है परमात्मा की प्राप्ति करानेवाला नहीं होता तथा वे यज्ञादि कर्म यदि अश्रद्धापूर्वक किये जायँ, तो वे सब असत् हो जाते हैं अर्थात् सत् फल देनेवाले नहीं होते।
यहाँ प्रमुख बात समझने की है कि निषिद्ध कर्म को कुछ नही कहा है क्योंकि जो पहले से वर्जित है वो सत नही हो सकते। तात्पर्य यही है कि ब्रह्मस्वरुप के बोधक इस सर्वमान्य संकल्प में ही निष्काम बुद्धि से, अथवा केवल कर्तव्य समझ कर , किये हुए सात्विक कर्म का और शास्त्रानुसार सद्बुद्धि से किये हुए प्रशस्त कर्म या सत्कर्म का समावेश है। अन्य सभी कर्म वृथा है। इस से यही सिद्ध करने का प्रयास है कि कर्तव्य धर्म का पालन जिस का ब्रह्मनिर्देश में ही समावेश होता है और जो ब्रह्मदेव के साथ ही उत्पन्न हुआ है, उसे त्याग देना कदाचित भी उचित नही। कर्म जीव को करना अनिवार्य है, इसलिये ॐ तत सत कर्म का दिशा निर्देशक है जिस में असत कर्मो का ही त्याग उचित है। यही कारण है युद्ध भूमि में जब अर्जुन को परिस्थितियो में खड़ा कर ही दिया तो उस के कर्तव्य धर्म युद्ध ही करना है।
परमात्मा ने जीव को कर्म के अधिकार के साथ इस मृत्युलोक में मनुष्य के रूप में भेजा है। मनुष्य अपने कर्म के बंधन और उस के फलों को भोगने बार बार जन्म – मृत्यु को प्राप्त कर के कष्ट भोगता है। ज्ञान, श्रद्धा, प्रेम, विश्वास में ॐ तत् सत् जैसे गुढ़तम किंतु सरल उपाय के बाद भी यदि कोई अश्रद्धा और अज्ञान में निम्नतम श्रेणी से कर्म करता है, तो उस की प्रवृति आसुरी होगी। सात्विक और निष्काम भाव में श्रद्धा, प्रेम और विश्वास में कोई त्रुटि रह भी जाए, तो ॐ तत् सत् के द्वारा उस का निराकरण है किंतु जिस की मति विपरीत हो, उस के लिए कोई उपाय नहीं है।
ॐ तत सत का कर्म के अतिरिक्त कोई स्वरूप नही क्योंकि प्रणव अक्षर ॐ का वर्णन तो हम पहले भी पढ़ चुके है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 17. 28।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)