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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  17.27 II

।। अध्याय      17.27 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 17.27

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते॥

“yajñe tapasi dāne ca,

sthitiḥ sad iti cocyate..।

karma caiva tad- arthīyaḿ,

sad ity evābhidhīyate”..।।

भावार्थ: 

जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी “सत्‌” ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से “सत्‌” ही कहा जाता है। (२७)

Meaning:

Steadfastness in sacrifice, austerity and charity is called Sat, and also, action relation to these is called Sat.

Explanation:

In the concluding shlokas of this chapter, Shri Krishna described the purifying chant Om Tat Sat. Any sattvic action will be freed of defects, attachment to the action and its reward will be weakened, all notions of duality will be muted when we use this purifying chant. Now we may say that in this day and age, we may not have the time to follow the guidelines given in this chapter to make our actions and our intake sattvic. Following the guidelines in the scriptures is beyond our scope anyway.

As usual, Shri Krishna makes things easy for us. He says our stithi, our steadfastness is towards Ishvara, is the most important thing to pay attention to. If we take care of our steadfastness and chant Om Tat Sat with that steadfastness, every action that we perform will become sattvic and a means towards liberation. What does sthithi or steadfastness mean? It is that which our mind is occupied the most. If we keep a notebook next to our bed and write down the first thought that comes to mind when we wake up, we will know what our stithi is within a few days.

Many people say that a sport such as cricket or tennis is their life. Others say that it is their career, others say it is their family, others say it is their family and so on. It is the first thought that they wake up with in the morning. When our first thought, and also, the constant background thought throughout the day is that of Ishvara, all our actions will automatically become sattvic. We will not have to take any additional precaution or follow any other guideline. For instance, if we are in constant thought of Ishvara, we will never think of donating anything with a view to get something back in return. Action follows thought, and with the constant thought of Ishvara, actions take care of themselves.

Thus, you can use Om, or Tat or Sat, by which all your activities will be transmuted to sātvika, spiritual karma. And that is why in our tradition at the end of all rituals, that Om Tat Sat is there. That is why they jokingly say about the cricket match, when the result is gone, as Om Tat Sat. Even we say jokingly, which means what, even the defeat becomes a spiritual activity, for vairāgya prāpthi. The only thing must keep in mind the activity shall not be prohibited by veda.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व श्लोक में सत के तीन गुणों सत्यता, साधुता और कर्म की प्रशस्तता अर्थात अच्छे उद्देश्य से धार्मिक आदि कार्य करना के तीन गुणों को पढ़ा। उसी में दो अन्य गुणों में यज्ञ, दान और तप में निष्ठा एवम परमात्मा की प्राप्ति के  उद्देश्य से किए हुए कर्म को भी सत कहा है।

तत्सत् से प्रारम्भ किये गये प्रकरण का तात्पर्य यह है कि यदि साधक के यज्ञ, दान और तप ये कर्म पूर्णतया शास्त्रविधि से सम्पादित नहीं भी हों, तब भी परमात्मा के स्मरण तथा परम श्रद्धा के साथ यथाशक्ति उनका आचरण करने पर वे उसे श्रेष्ठ फल प्रदान कर सकते हैं। इसका सिद्धांत यह है कि मनुष्य जगत् में अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर शुभाशुभ कर्म करता है। इन कर्मों के फलस्वरूप उसके अन्तकरण में वासनाएं होती जाती हैं, जो उसे कर्मों में प्रवृत्त कर के उस के बन्धनों को दृढ़ करती जाती हैं। इन कर्म बन्धनों से मुक्ति पाने का उपाय कर्म ही है, परन्तु वे कर्म केवल कर्तव्य कर्म ही हों और उनका आचरण ईश्वरार्पण बुद्धि से किया जाना चाहिए। ईश्वर के स्मरण से अहंकार नहीं रह जाता और इस प्रकार वासनाओं की निवृत्ति हो जाती है। इसीलिए इस श्लोक में कहा गया है कि परमात्मा के लिए किया गया कर्म सत् कहलाता है, क्योंकि वह मोक्ष का साधन है।यज्ञदानादि कर्म परम श्रद्धा के साथ युक्त होने पर ही पूर्ण होते हैं।

जो यज्ञकर्म में, तप में , दान में स्थिति है, वह भी सत् है ऐसा विद्वानों द्वारा कहा जाता है तथा उन यज्ञादि के लिये जो कर्म है, उस ईश्वर के लिये जो कर्म है, वह भी सत् है यही कहा जाता है। इस प्रकार किये हुए यज्ञ और तप आदि कर्म, यदि असात्त्विक और विगुण हों तो भी श्रद्धापूर्वक परमात्मा के तीनों नामोंके प्रयोग से सगुण और सात्त्विक बना लिये जाते हैं।

गीता भी कर्म प्रधान है, इसलिये वह सात्विक कर्मो के अतिरिक्त राजसी कर्मो को भी मुक्ति के लिये अनुचित नही मानती यदि वह समस्त कार्य अर्थात यज्ञ, तप एवम दान धर्म एवम शास्त्र के अनुकूल हो एवम सत्वगुण से प्रेरित हो। इस के साथ कुछ कामना भी जुड़ जाए तो भी मोक्ष का मार्ग प्रशस्त ही रहता है। इसलिये ॐ तत के बाद सत शब्द को जोड़ कर यह बताया गया है कि श्रद्धा के साथ समस्त कार्य जो ब्रह्मसन्ध द्वारा, जीव द्वारा निष्काम या सत्वगुण युक्त राजसी कार्य उस परब्रह के ही कर्म है, इसलिये जब भी किसी कर्म को करे तो ॐ तत सत द्वारा ब्रह्म कर कृत्य को समझ कर करे।

विवेकानंद की सात्विक श्रद्धा थी, तो रामकृष्ण देव में अहोभाव बना रहा और जब राजसी श्रद्धा हो जाती तो कभी हिल जाती ऐसे छ: बार नरेंद्र की श्रद्धा हिली थी। तो आत्मज्ञानी गुरु मिल जाना कठिन है, आत्मज्ञानी गुरु मिल जाए तो उसमें श्रद्धा टिकना सतत कठिन है, क्योंकि श्रद्धा रजस और तमस गुण से प्रभावित हो जाती है तो हिलती जाती है या विरोध कर लेती है। इसीलिए जीवन में सत्वगुण बढ़ना चाहिए। आहार की शुद्धि से, चिंतन की शुद्धि से सत्वगुण की रक्षा की जाती है। अशुद्ध आहार, अशुद्ध विचारोंवाले व्यक्तियों का संग छोडो और जीवन की तरफ लापरवाही रखने से श्रद्धा का घटना, बढना, टूटना, फूटना होता रहता है। इसीलिए साधक साध्य तक पहुँचने में उसे वर्षों  गुजर जाते है। कभी-कभी तो पूरा जन्म गुजर जाता है फिर भी साक्षात्कार नही कर पाते है।  रजोगुण, तमोगुण से बचकर जब सत्वगुण बढ़ता है तो तत्वज्ञानी गुरुओं के ज्ञान में आदमी प्रविष्ट होता है। तत्वज्ञान का अभ्यास करने की आवश्यकता नही रहती, अभ्यास तो भजन करने का है और अभ्यास तो श्रद्धा को सात्विक बनाने का है, भजन का अभ्यास बढने से, सत्वगुण बढ़ने से विचार अपने आप उत्पन्न होता है।

व्यवहार में ईश्वर के प्रति श्रद्धा, प्रेम और विश्वास रखना और सात्विक भाव से परमात्मा को प्राप्त करने के लिए व्रत, उपवास, भजन कीर्तन करना, असहाय और जरूरतमंद लोगों की सहायता करना, समाज की भलाई के धर्मशाला, अस्पताल, स्कूल, गौशाला या अन्य संस्था खुलवाना या उन में दान करना, सात्विक भाव से परमात्मा को स्मरण करना आदि समस्त कार्य करना एवम स्वयं को अन्य के प्रति ईमानदारी, सत्य, विन्रम और सहयोग भाव से रहना,  सत की श्रेणी आता है, इस के लिए शास्त्रों का ज्ञान न भी हो, यह व्यक्ति विशेष को उच्च स्तर पर ले जाता है, जिस से उस की मुक्ति का मार्ग खुल सके। जन जन के इस से अधिक सरल और सुगम मार्ग और कोई भी नही हो सकता।

आधुनिक विज्ञान में अतिभौतिकवाद को अधिक महत्व दिया गया है, इसलिए प्रकृति का अन्वेषण करो, नई नई वस्तु और घटनाओं का सूक्ष्म निरीक्षण कर के उन के होने का कारण समझो। फिर नए नए अविष्कार मानव जाति सहित सम्पूर्ण प्रकृति के हित में करो। इसी मूल मंत्र में हम जो कुछ भी करे, वह कामना, स्वार्थ और लोभ से ऊपर रहे, इसलिए ॐ तत् सत् के भाव और उच्चारण के साथ हो। जैसा लिया, वैसा ही अर्पित कर दिया। इस प्रकार आप ओम, या तत् या सत् का उपयोग कर सकते हैं, जिससे आपकी सभी गतिविधियाँ सात्विक, आध्यात्मिक कर्म में बदल जाएँगी। और यही कारण है कि हमारी परंपरा में सभी अनुष्ठानों के अंत में ओम तत् सत् होता है। यही कारण है कि जब क्रिकेट मैच का परिणाम निकल जाता है, तो लोग मज़ाक में कहते हैं; ओम तत् सत्। हम भी मज़ाक में कहते हैं, जिसका मतलब है कि हार भी वैराग्य प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक गतिविधि बन जाती है। अतः जीवन में बाल काल की शिक्षा से ले कर, व्यापार, व्यवसाय, गृहस्थी, समाज, देश और धर्म सभी में अपना योगदान के लिए एक ही भाव होना चाहिए, ॐ तत् सत् । बस एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि कार्य वेद द्वारा निषिद्ध नहीं होनी चाहिए। अतिभौतिकवाद में जो विज्ञान को ज्ञान से श्रेष्ठ समझते है, वे भी यदि ॐ तत् सत् को समझ लेते है तो अतिदैविक और अध्यात्म स्वयंमेव ही पूर्ण होने लगता है। इसी कारण विश्व के सभी बड़े वैज्ञानिक की आस्था भी परब्रह्म से जुड़ी होती है, क्योंकि वह जानता है, जो कुछ वह कर पा रहा है, उस की प्रेरणा उसे उसी परमात्मा की कृपा से प्राप्त हो रही है।

प्रशंसनीय कर्मों के अलावा कर्मों के दो तरह के स्वरूप होते हैं — लौकिक (स्वरूप से ही संसार सम्बन्धी) और पारमार्थिक (स्वरूप से ही भगवत्सम्बन्धी),(1) वर्ण और आश्रम के अनुसार जीविका के लिये यज्ञ, अध्यापन, व्यापार, व्यवसाय खेती आदि व्यावहारिक कर्तव्य कर्म और खानापीना, उठनाबैठना, चलनाफिरना, सोना जगना  आदि दैनिक शारीरिक कर्म ,ये सभी लौकिक हैं।

(2) जप ध्यान, पाठ पूजा, कथा कीर्तन, श्रवणमनन, चिन्तन ध्यान आदि जो कुछ किया जाय, यह सब,पारमार्थिक है। इन दोनों प्रकार के कर्मों को अपने सुखआराम आदि का उद्देश्य न रख कर निष्कामभाव एवं श्रद्धा विश्वास से केवल भगवान के लिये अर्थात् भगवत्प्रीत्यर्थ किये जायँ तो वे सब के सब तदर्थीय कर्म हो जाते हैं। भगवदर्थ होने के कारण उन का फल सत् हो जाता है अर्थात् सत्स्वरूप परमात्मा के साथ सम्बन्ध होने से वे सभी दैवीसम्पत्ति हो जाते हैं, जो कि मुक्ति देनेवाली है। जैसे अग्नि में ठीकरी रख दी जाय तो अग्नि उस को अग्निरूप बना देती है। यह सब अग्नि की ही विशेषता है कि ठीकरी भी अग्निरूप हो जाती है ऐसे ही उस परमात्मा के लिये जो भी कर्म किया जाय, वह सब सत् अर्थात् परमात्मस्वरूप हो जाता है अर्थात् उस कर्म से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। उस कर्म में जो भी विशेषता आयी है, वह परमात्मा के सम्बन्ध से ही आयी है। वास्तव में तो कर्म में कुछ भी विशेषता नहीं है।

कर्म प्रधानता के लिये परमात्मा को समर्पित सभी मंगल कार्य सत है। गीता का कथन है कि श्रद्धा एवम निष्ठा में देवीसम्पद हो, किसी भी प्राणी के अहित में न हो तो समस्त कार्य यदि परमात्मा की समर्पित करते हुए, कर्तव्य धर्म का पालन करते हुए, किये जायें तो सत है, फिर चाहे उस मे सत्वगुण युक्त कामना भी क्यों न हो। जो नित्य है, शाश्वत है, सतत है उस परमात्मा को समर्पित समस्त सांसारिक कृत्य भी सत है। जैसे समुद्र में समा जाने के बाद नदियों का भेद मिट जाता है, वैसे ही ॐ तत सत कह कर समस्त कर्मो को परमात्मा अर्थात ब्रह्म को अर्पण करने से पूर्ण – अपूर्ण किए कर्मो का भेद भी मिट जाता है। इसलिए जिन्हे शास्त्र का ज्ञान न भी हो, ॐ तत् सत् के द्वारा सात्विक भाव से किए कार्य भी उन्हे मुक्ति के मार्ग पर ले जाता है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 17.27 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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