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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  17.25 II

।। अध्याय      17.25 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 17.25

तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।

दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥

“tad ity anabhisandhāya,

phalaḿ yajña- tapaḥ- kriyāḥ..।

dāna- kriyāś ca vividhāḥ,

kriyante mokṣa- kāńkṣibhiḥ”..।।

भावार्थ: 

इस प्रकार मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यों द्वारा बिना किसी फल की इच्छा से अनेकों प्रकार से यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाऎं “तत्‌” शब्द के उच्चारण द्वारा की जाती हैं। (२५)

Meaning:

With (chanting of) Tat, without aiming for reward, are the various acts of sacrifice, penance and charity performed by the seekers of liberation.

Explanation:

Karmayoga suggests that we should perform our duties in order to exhaust all of our vaasanaas, our latent desires, so that our mind becomes pure and fit for spiritual advancement. The primary obstacle in karmayoga is attachment at two levels. We are attached to the personal reward of an action. We are also attached to the act itself. For instance, a musician may become attached to the royalties promised to him in his recording contract. He may also become attached to the unique style of music that he has developed.

The fruits of all actions belong to God, and hence, any yajña (sacrifice), tapaḥ (austerity), and dānam (charity), must be consecrated by offering it for the pleasure of the Supreme Lord. Now, Shree Krishna glorifies the sound vibration “Tat,” which refers to Brahman. Chanting Tat along with austerity, sacrifice, and charity symbolizes that they are not to be performed for material rewards, but for the eternal welfare of the soul through God-realization.

So, like ‘Hello’ Brahmāji initiated tradition say, “Om Tat Sat”. Since this tradition was initiated by the founder of the very universe itself, and therefore all the Vēdic followers, especially the spiritual seekers, satatam used to say either om or tat or sat or all together “om tat sat”.

Vedic followers look upon the internal growth as primary, the material benefit as required and incidental; they are called satvik people, they are spiritual seekers; not that they neglect money, but for them, money is subservient to inner purity and spiritual growth. They can never think of money at the cost of spiritual growth, because it is a bad bargain according to them. That is why they are called mokṣakāṅkṣibhiḥ; they are so mature; therefore, they consider dharma mōkṣa as superior to arta kama. Therefore, phalam anabhisandhāya; without being obsessed with material results. Here phalam means arta kama, anabhisandhāya, without being obsessed with, if at all they have an obsession, that is with their inner growth, rather than external paraphernalia. Therefore, they used word “tat” after performing every work, means dedicate all the work including result out the work to lord Vishnu or parambraham.

Shri Krishna says that chanting the word “Tat” when performing any saattvic action has the effect of removing these two kinds of attachment. Tat means “that” in sanskrit. It is a pointer to the eternal essence in its transcendent aspect, also known as Ishvara. Using the word Tat, we can dedicate our actions and results to any deity that we like. The act is performed by Ishvara, therefore the reward goes to Ishvara. I am only the instrument of Ishvara. This is the attitude developed when Tat is chanted with faith.

How does this work? Imagine that you are going overseas for closing a business deal. If you go with attitude that you am doing this deal for yourself, then you have to take on the associated stress that comes with the deal. But if you go with attitude that you are closing the deal for your boss or your company, your stress will significantly reduce. You are just carrying out instructions given by your boss. If the deal works out, great, otherwise there will always be another opportunity.

।। हिंदी समीक्षा ।।

ईशोपनिषद् में उपलब्ध एक मंत्र का अंतिम वाक्यांश निम्नलिखित है :

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥

इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर के विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव = देवत्व) प्राप्त कर लेता है।

अद्वैत- वेदांत में अज्ञान को आत्मा के प्रकाश का बाधक माना गया है। यह अज्ञान जान- बूझकर नहीं उत्पन्न होता, अपितु बुद्धि का स्वाभाविक रूप है। दिक्‌, काल और कारण की सीमा में संचरण करने वाली बुद्धि अज्ञानजनित है, अत बुद्धि के द्वारा उत्पन्न ज्ञान वस्तुत अज्ञान ही है। इस दृष्टि से अज्ञान न केवल वैयक्तिक सत्ता है अपितु यह एक व्यक्ति निरपेक्ष शक्ति है, जो नामरूपात्मक जगत्‌ तथा सुखदुखादि प्रपंच को उत्पन्न करती है। बुद्धि से परे होकर तत्साक्षात्कार करने पर इस अज्ञान का विनाश संभव है।

जो पुरुष स्वयं को अपनी आसक्तियों, स्वार्थी इच्छाओं, अहंकार और उस से उत्पन्न होने वाले विक्षेपों के बन्धनों से मुक्त रहना चाहता है, उसे मुमुक्षु कहते हैं। ऐसे मुमुक्षुओं को यह श्लोक एक उपाय बताता है, जिसके द्वारा समस्त साधक स्वयं को अपनी वासनाओं के बन्धन से मुक्त कर सकते हैं। मुमुक्षुओं को चाहिए कि वे फलासक्ति को त्यागकर और तत् शब्द के द्वारा परमात्मा का स्मरण करके अपने कर्तव्यों का पालन करें।

तो ‘नमस्ते’ की तरह ब्रह्माजी ने “ओम तत् सत्” कहने की परंपरा शुरू की। चूँकि यह परंपरा स्वयं ब्रह्माण्ड के संस्थापक द्वारा शुरू की गई थी, और इसलिए सभी वैदिक अनुयायी, विशेष रूप से आध्यात्मिक साधक, सत्तम या तो ॐ या तत् या सत् या सभी एक साथ “ॐ तत् सत्” कहते थे।

वैदिक अनुयायी आंतरिक विकास को प्राथमिक मानते हैं, भौतिक लाभ को आवश्यक और आकस्मिक मानते हैं; उन्हें सात्विक लोग कहा जाता है, वे आध्यात्मिक साधक हैं; ऐसा नहीं है कि वे धन की उपेक्षा करते हैं, लेकिन उनके लिए, धन आंतरिक शुद्धता और आध्यात्मिक विकास के अधीन है। वे आध्यात्मिक विकास की कीमत पर धन के बारे में कभी नहीं सोच सकते; क्योंकि यह उनके अनुसार एक बुरा सौदा है। इसीलिए उन्हें मोक्षकांक्षीभिः कहा जाता है; वे इतने परिपक्व हैं; इसलिए वे धर्म मोक्ष को आर्त काम से श्रेष्ठ मानते हैं। इसलिए फलं अनाभिसंध्याय; भौतिक परिणामों से ग्रस्त हुए बिना। यहाँ फलं का अर्थ है आर्त काम, अनाभिसंध्याय, बिना किसी ग्रस्त हुए, अगर उन्हें कोई ग्रस्तता है, तो वह है बाहरी साज-सज्जा की बजाय अपने आंतरिक विकास से।  इसलिए, वे हर कार्य करने के बाद “तत्” शब्द का प्रयोग करते थे, जिसका अर्थ है कि कार्य के परिणाम सहित सभी कार्य भगवान विष्णु या परमब्रह्म को समर्पित करें।

तत का शाब्दिक अर्थ है वह, वह जो परे का है। समस्त माया जन्य संसार से परे की जो परब्रह्म नामक वस्तु है, जो सर्वस्व देखनेवाली है तथा जो तत् शब्द से दर्शायी जाती है, वही सब का कारण है और इसी रूप में अंत:करण में उस के स्वरूप का ध्यान कर के, ज्ञानी जन वाणी से भी उस का उच्चारण करते है। वे कहते है कि तत् रूपी जो ब्रह्म है, उसी को हमारी ये समस्त क्रियाएं अपने फलों सहित समर्पित हो और हमारे भोगने के लिए इन में से कुछ भी अवशिष्ट न रहे। वे “न मम” यह मेरा नही है कह कर स्वयं को समस्त कर्मफलो से पृथक कर लेते है। जब जीव अपने प्राकृतिक स्वरूप को नही भूल सकता तो व्रह्म को समर्पित को कर सात्विक भाव से कर्म तो कर सकता है। इसलिए ओमकार से आरंभ किया हुआ और तत्कार में ब्रह्मार्पण किया हुआ जो कर्म इस प्रकार ब्रह्म स्वरूप होता है, वह एकमात्र ऊपर से दृष्टिगत होनेवाला कर्म होता है।

हमारे द्वारा किए जाने वाले कर्मों का फल देना भगवान के हाथ में है तथा इस प्रकार यज्ञ, तप तथा दान परमपिता परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए किए जाने चाहिए। श्रीकृष्ण ‘तत्’ शब्द के ध्वनि कम्पन्न की महिमा बताते हैं जो ब्रह्म से संबंधित है। तप, यज्ञ तथा दान के साथ ‘तत्’ उच्चारित करना यह दर्शाता है कि ये कृत्य भौतिक लाभों के लिए नहीं अपितु भगवद्प्राप्ति के लिए आत्मा के नित्य कल्याण के लिए सम्पन्न किए जाने चाहिए।

नित्यनिरन्तर रहने वाले तत्त्व की स्मृति रहनी चाहिये और नाशवान् फल की अभिसंधि (इच्छा) बिलकुल नहीं रहनी चाहिये।नित्यनिरन्तर वियुक्त होनेवाले, प्रतिक्षण अभाव में जानेवाले इस संसार में जो कुछ देखने, सुनने और जानने में आता है, उसी को हम प्रत्यक्ष, सत्य मान लेते हैं और उसी की प्राप्ति में हम अपनी बुद्धिमानी और बल को सफल मानते हैं। इस परिवर्तनशील संसार को प्रत्यक्ष मानने के कारण ही सदासर्वदा सर्वत्र परिपूर्ण रहता हुआ भी वह परमात्मा हमें प्रत्यक्ष नहीं दीखता। इसलिये एक परमात्मप्राप्ति का ही उद्देश्य रख कर उस संसार का अर्थात् अहंता ममता का त्याग कर के, उन्हीं की दी हुई शक्ति से, यज्ञ, तप और दान आदि को उन्हीं का मान कर निष्कामभाव पूर्वक उन्हीं के लिये यज्ञ आदि शुभकर्म करने चाहिये। कहते है नानकजी भी एक बार वस्तु को तोलते समय तेरा पर रुक गए और फिर तेरा तेरा बोलते हुए तोलते गए। यही निष्काम का द्योतक है।

तत् शब्द जगत्कारण ब्रह्म का वाचक है, जहाँ से सम्पूर्ण सृष्टि व्यक्त होती है। इस प्रकार यह शब्द भूतमात्र के आत्मैकत्व का भी सूचक है। अपने कुटुम्ब के कल्याण के स्मरण रहने पर व्यक्तिगत लाभ विस्मरण हो जाता है समाज के लिए कार्य करने में परिवार के लाभ का विस्मरण हो जाता है और राष्ट्र कल्याण की भावना का उदय होने पर अपने समाजमात्र के लाभ की कामना नहीं रह जाती तथा विश्व और मानवता के लिए कर्म करने में राष्ट्रीयता की सीमायें टूट जाती हैं। इसी प्रकार, आत्मैकत्व के भाव में चित्त को समाहित कर के यज्ञदानादि कर्मों के आचरण से, अहंकार के अभाव में, अन्तकरण की पूर्वार्जित वासनाएं नष्ट हो जाती हैं और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होती। यही मुक्ति है।

व्यवहार में संसार में जो बुद्धि, धन, पद, सम्मान, जमीन जायदाद, स्त्री, पुरुष, पुत्र – पुत्री, मित्र आदि जितनी भी वस्तुएं है, उन पर मनुष्य का अधिकार जीवन रहते ही है। यह सब वस्तु परमात्मा की है, शरीर के साथ सभी यही छूट जाता है और कामना, अहम और आसक्ति से जो फल का बंधन होता है, वही पुनर्जन्म का कारण बनता है। इसलिए यह समस्त तत् स्वरूप परमात्मा का मान कर कर्म करने से जो निष्काम भाव उत्पन्न होगा, उस से बंधन नहीं होता। यही संसार में रहने और कर्म करने का सरल तरीका भी है।

प्रकृति के सात्विक भाव से उत्पन्न समस्त कार्य इस मे कर्ता का भाव एवम कामना न हो, वह सब तत शब्द द्वारा परमात्मा का कार्य समझ कर किया हुआ कार्य करना श्रद्धा का दूसरा रूप है। ब्रह्मार्पण किया हुआ कार्य कर्ता में  कर्तृत्व अभिमान उत्पन्न कर देता है कि उस में अपने समस्त कर्म ब्रह्म को अर्पित कर दिए। जैसे लवण को जल में मिलाने से लवण का अस्तित्व तो नष्ट होता दिखाई पड़ता है किंतु वह जल में क्षारीय गुण उत्पन्न कर के विद्यमान रहता है। कर्तृत्व अभिमान से कर्ता और ब्रह्म का विभेद बना रहता है, इसलिए ओंकार के आगे तत् फिर सत जोड़ दिया गया है। आगे हम सत को पढ़ते है, जिस से ॐ तत सत को पूर्ण रूप से समझ सके।

।।हरि ॐ तत सत ।। गीता – 17.25 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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