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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  17.23 II Additional II

।। अध्याय      17.23 II विशेष II

।। गीता अध्ययन में श्लोक के अर्थ न देते हुए, अल्प विश्राम ले कर “ॐ तत सत” के अत्यंत  महत्वपूर्ण वाक्य पर चिंतन  करते है। ।।

परब्रह के स्वरूप के मनुष्य को जो कुछ भी ज्ञान हुआ, वह समस्त ज्ञान ॐ तत सत इन तीन शब्दो मे निर्देशित किया गया। ॐ परब्रह का सूचक है जिस का समय समय पर उपनिषदों में भिन्न भिन्न रूप में व्याख्या की गई है। जब वर्णाक्षर ॐ जगत का प्रारम्भ था तो समस्त क्रियाओ का प्रारम्भ भी वही से होता है। अतः तत शब्द का अर्थ सामान्य कर्म से परे का कर्म अर्थात निष्काम बुद्धि से फलाशा छोड़ कर किया हुआ सात्विक कर्म, किन्तु हर कर्म कामना रहित नही हो सकता, इसलिए सत का अर्थ वह कर्म है जो यद्यपि फलाशा सहित हो तो भी शास्त्रानुसार किया गया हो और शुद्ध हो – यही उक्त संकल्प का अर्थ है।

इस के अतिरिक्त ॐ तत् सत् में ॐ का अर्थ है रक्षण कर्ता, पालन कर्ता, हर चीज का रक्षक, विशेष रूप से भक्त का। तत् शब्द का अर्थ है वह भगवान जो ज्ञान के सभी साधनों से परे है; वह भगवान जो सर्व प्रमाण अगोचर है; जो समझ से परे है; जो विषय से परे है, जो छहों प्रमाणों के लिए उपलब्ध नहीं है। सरल भाषा में, अप्रमेय:, यही तत् शब्द का अर्थ है। सत् शब्द का अर्थ है शाश्वत सिद्धांत, जो स्वयं अस्तित्व के रूप में हमेशा मौजूद रहता है। शाब्दिक रूप से सत् शब्द का अर्थ है अस्तित्व और विस्तार से इसका अर्थ है शाश्वत सिद्धांत, क्योंकि अस्तित्व हमेशा मौजूद रहता है। इसलिए ओम तत् सत् का अर्थ है, ब्रह्मांड का शाश्वत अज्ञेय रक्षक।

ऐसा माना गया है सृष्टि की रचना से पूर्व ब्रह्मा जी व्याकुल हो गए और रचना कैसे और किस प्रकार करे। तब परब्रह्म ने उन्हें ॐ तत्सत का मंत्र दिया जिस से वे सृष्टि की रचना कर सके।

सृष्टि की रचना ब्रह्मा अर्थात प्राप्ति ने की थी जिस ने ब्राह्मण यानि समस्त प्रजा, वेद यानि ज्ञान और यज्ञ यानि कर्म की रचना की। परमात्मा से समस्त कर्ता, कर्म और कर्म विधि की उत्पति का वाचक शब्द “ॐ तत सत” है।

अतः ॐ तत सत हमे निष्काम बुद्धि से शास्त्रानुसार सात्विक कर्म के साथ सकाम शास्त्रानुसार सत कार्य भी परब्रह के सामान्य और सर्वमान्य संकल्प में जोड़ने का निर्देश है।

ओम् तत् सत्- इन तीन शब्दों में असीम शक्ति छिपी है। ये शब्द हिन्दू धर्म के सार को अभिव्यक्त करते हैं। इसमें पहला शब्द है ओम्। उच्चारण की दृष्टि से इसकी ध्वनि मूल ध्वनि कही जाती है। यह ध्वनि सार्वकालिक है। कहा जाता है कि सभी वेद गायत्री मंत्र में समाहित हो जाते हैं और गायत्री स्वयं ओम् में। संभवत: यही कारण है कि सभी वैदिक श्लोक ओम् से ही शुरू होते हैं। हर उत्पत्ति के मूल में ‘ओम् तत् सत्’ है। 

, तत् और सत् – ऐसा तीन प्रकार का नाम ‘ ब्रह्मण: निर्देश: स्मृत:’ – ब्रह्म का निर्देश करता है, स्मृति दिलाता है, संकेत करता है और ब्रह्म का परिचायक है। उसी से ‘पुरा’ – पूर्व में (आरंभ में) ब्राह्मण, वेद और यज्ञादि रचे गये हैं। अर्थात् ब्राह्मण, यज्ञ और वेद ओम् से पैदा होते हैं। ये योगजन्य हैं। ओम् के सतत चिंतन से ही इनकी उत्पत्ति है, और कोई तरीका नहीं है।

इसका एक अर्थ यह भी है कि भगवान ही जीवनी शक्ति के वाहक हैं और जीवनी शक्ति पूरी सृष्टि में विद्यमान है। ‘ओम्’ सर्वशक्तिमान का द्योतक है। ‘तत्’ का शाब्दिक अर्थ है वह। ‘सत्’ का अभिप्राय शाश्वत से है। यह परम सत्य का प्रतीक है। सभ्यता के आरंभ से ही तीनों शब्दों का प्रयोग सर्वोच्च या सर्वशक्तिमान के लिए किया जाता रहा है। इन तीनों शब्दों का प्रयोग वेद मंत्रों का उच्चारण करते समय किया जाता था। परमात्मा को जब कुछ अर्पित किया जाता था, तब भी इनका उच्चारण किया जाता था। ऋषियों-मुनियों ने ‘ओम्’ शब्द को आध्यात्मिक अर्थों में देखा है। प्रत्येक धार्मिक कर्मकांड से पहले वे ओम् का उच्चारण इस रूप में करते रहे हैं मानो यह शब्द अंधेरे में प्रकाश की किरण हो।

इसलिये ब्रह्म का कथन करनेवाले पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप – क्रियाएँ निरंतर ‘ओम्’ इस नाम का उच्चारण करके ही की जाती हैं, जिससे उस ब्रह्म का स्मरण हो जाय।

अब तत् शब्द का प्रयोग बताते हैं- तत् अर्थात् वह (परमात्मा) ही सर्वत्र है, इस भाव से फल को न चाहकर शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट नाना प्रकार की यज्ञ, तप और दान की क्रियाएँ परम कल्याण की इच्छा करनेवाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं। तत् शब्द परमात्मा के प्रति समर्पणसूचक है। अर्थात् जप तो ओम् का करें तथा यज्ञ, दान और तप की क्रियाएँ उस पर निर्भर होकर करें।

 ‘तत्’ शब्द का आशय उस ब्रह्म से है, जो दीप्त है। वह, जो तीनों लोकों से परे है और जिसका अस्तित्व ब्रह्मांड की उत्पत्ति से भी पहले से है। तत् उसी के एक रूप को प्रतिबिंबित करता है। यज्ञ, दान और तप से जैसे ही किसी फल की प्राप्ति होती है, ऋषि-मुनि तत् का उच्चारण करते हैं, ताकि फल ब्रह्म को प्राप्त हो सके। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि तत् शब्द किसी भी चीज को अपना नहीं मानने की भावना को दर्शाता है। जो कुछ ओम् से शुरू होता है, तत् के साथ समाप्त हो जाता है। अतः तत् निष्काम भाव से किए कर्म का परिचायक है। इसलिए योगी, तत्वविद अपने कर्म तत् के उच्चारण के साथ करते है।

अब सत् के प्रयोग का स्थल बताते हैं- और सत्; – योगेश्वर ने बताया कि सत् क्या है, गीता के आरंभ में ही अर्जुन ने प्रश्न खड़ा किया कि कुलधर्म ही शाश्वत है, सत्य है, तो श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन ! तुझे यह अज्ञान कहाँ से उत्पन्न हुआ? सत् वस्तु का तीनों कालोँ में कभी अभाव नहीं होता, उसे मिटाया नहीं जा सकता और असत् वस्तु का तीनों कालोँ में अस्तित्व नहीं है, उसे रोका नहीं जा सकता। वस्तुतः वह कौन- सी वस्तु है, जिसका तीनों कालोँ में अभाव नहीं है और वह असत् वस्तु है क्या, जिसका अस्तित्व नहीं है, तो बताया- यह आत्मा ही सत्य है और भूतादिकोँ के समस्त शरीर नाशवान् हैं। आत्मा सनातन है, अव्यक्त है, शाश्वत और अमृतस्वरूप है- यही परमसत्य है।

अर्जुन को युद्ध भूमि में जिन के युद्ध हो रहा है, उस व्यक्ति विशेष के सत होने का भ्रम था। अक्सर सत में हम नाशवान शरीर को सत्य समझ लेते है, जबकि नाशवान शरीर सत्य नहीं है, वह आज है, कल नही रहेगी। सत्य कर्तव्य धर्म का पालन है, वह कर्म है जो हमे निष्काम सात्विक भाव से तत स्वरूप करना चाहिये या फिर शास्त्रानुसार सकाम होते हुए करना चाहिये और परब्रह को समर्पित कर देना चाहिये।

‘ सत्’ का उच्चारण सभी अवास्तविक चीजों का नाश करता है और काल से परे सिर्फ एक सर्वोच्च शक्ति को स्थापित करता है। इस धारणा के अनुसार संसार में दिखने वाली सभी चीजें अवास्तविक और शक्तिहीन हैं। सही शक्ति की पहचान ही आत्म ज्ञान है।

जब कोई ध्यान करता है, तब भी वह ओम् का जाप करता है। ओम् के उच्चारण में कंपन की उत्पत्ति होती है। तत् ध्यान की मुद्रा में प्रकाश की तरह है। यह ईश्वर के प्रति चेतना का प्रतीक है। सत् आशीर्वाद की तरह है, जिसकी अनुभूति ध्यान की गहरी मुद्रा में होती है। सत् सृष्टा है। तत् सृष्टि है और जिसकी सृष्टि हो रही है, वही ओम् है। पूरे ब्रह्मांड की उत्पत्ति ओम् से हुई है। ब्रह्मांड को ओम् का ही सहारा है और यह ब्रह्मांड फिर ओम् में ही मिल जाएगा। ओम उस सच्चाई की अभिव्यक्ति है, जिसका न कोई आकार है, न कोई रूप है और जो माया से परे है। ओम् तत् सत्- बीज मंत्र है। ओम् तत् सत् ब्रह्म का ही त्रिस्तरीय नाम है। प्राचीनकाल में व्यक्ति, वेद और सेवा की उत्पत्ति ब्रह्म से और ब्रह्म के द्वारा ही की गई थी। इसीलिए जहां अर्पण के लिए या परोपकार के लिए जाने वाले कार्य की शुरुआत ओम् से ही करने का विधान है, वहीं मोक्ष प्राप्ति के लिए किए जाने वाले विभिन्न अनुष्ठान तत् के उच्चारण के साथ शुरू किए जाते हैं। ऐसा करते समय मन में यही भाव होता है कि ब्रह्म ही सब कुछ है। भगवान की आराधना करने वाले के मन में किसी प्रकार के फल का भाव भी नहीं होता। महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण संशय में पड़े धनुर्धर अर्जुन से कहते हैं- अर्जुन, त्याग, परोपकार और संयम में विश्वास ही सत् है। सर्वशक्तिमान को ध्यान में रख नि:स्वार्थ भाव से की गई हर सेवा सत् है। अगर तुम जो कर रहे हो, उसे विश्वास के साथ नहीं करते, वही असत्य है। चाहे तुमने त्याग या परोपकार ही क्यों न किया हो।

यहाँ कहते हैं, ‘सत्’ ऐसे परमात्मा का यह नाम ‘सद्भावे’ – सत्य के प्रति भाव में और साधुभाव में प्रयोग किया जाता है और हे पार्थ ! जब नियत कर्म सांगोपांग भली प्रकार होने लगे, तब सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है। सत् का अर्थ यह नहीं है कि यह वस्तुएँ हमारी हैं। जब शरीर ही हमारा नहीं है, तो इसके उपभोग में आनेवाली वस्तुएँ हमारी कब हैं। यह सत् नहीं है। सत् का प्रयोग केवल एक दिशा में किया जाता है- सद्भाव में। आत्मा ही परमसत्य है- इस सत्य के प्रति भाव हो, उसे साधने के लिये साधुभाव हो और उसकी प्राप्ति करानेवाला कर्म प्रशस्त ढंग से होने लगे, वहीं सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी पर योगेश्वर अग्रेतर कहते हैं-

यज्ञ, तप और दान को करने में जो स्थिति मिलती है, वह भी सत् है- ऐसा कहा जाता है। ‘तदर्थीयम्’ – उस परमात्मा की प्राप्ति के लिये किया हुआ कर्म ही सत् है, ऐसा कहा जाता है। अर्थात् उस परमात्मा की प्राप्तिवाला कर्म ही सत् है। यज्ञ, दान, तप तो इस कर्म के पूरक हैं। अंत में निर्णय देते हुए कहते हैं कि इन सबके लिये श्रद्धा आवश्यक है।

हे पार्थ ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह सब असत् है- ऐसा कहा जाता है। वह न तो इस लोक में और न परलोक में ही लाभदायक है। अतः समर्पण के साथ श्रद्धा नितांत आवश्यक है।

सत और असत को ले कर कभी कभी गड़बड़ी भी हो जाती है, सत जो दृश्यवान है, आंखों से न दिखाई दे, तो भी विद्यमान है। इसलिए ब्रह्म को सत बोला गया है, किंतु अव्यक्त स्वरूप होने के कारण असत शब्द का भी प्रयोग ब्रह्म के लिए किया गया है। गीता में “ॐ तत् सत्” द्वारा ॐ को गूढ़ अक्षर रूपी वैदिक मंत्र, तत् को दृश्य दृष्टि से परे अनिर्वाच्य तत्व और सत को दृश्य दृष्टि का तत्व बता कर ब्रह्म का स्वरूप इन तीनों शब्दो के साथ किया गया है।

इस मंत्र की सहायता से ब्रह्माजी ने एक बहुत ही सुंदर अद्भुत व्यवस्थित लयबद्ध, गौरवशाली, विशाल नियम-पालक ब्रह्मांड का निर्माण किया है। इस अद्भुत रचना में भी ब्रह्माजी की तीन उत्पाद या तीन रचनाएँ हैं ब्राह्मणः, यज्ञः और वेद। यह तीनों को महत्वपूर्ण क्यों कहते हैं? इसका कारण यह है कि यज्ञ शब्द का अर्थ है वह बुद्धिमानीपूर्ण जीवनशैली जिसके द्वारा या जिसकी सहायता से मानवता सभी श्रेष्ठ ज्ञान और शक्ति का रचनात्मक उपयोग करेगी। आप जानते हैं कि अब हमारे पास पर्याप्त हथियार हैं जो पृथ्वी को कई बार नष्ट कर सकते हैं।  हमारे पास, हमारा मतलब मानवता से है, भारतीयों से नहीं, हमारे पास, मानवता के पास पर्याप्त हथियार हैं,; इसका क्या मतलब है? मानवता का श्रेष्ठ ज्ञान और मानवता की श्रेष्ठ शक्ति रचनात्मक या विनाशकारी बन सकती है। यहाँ यज्ञ शब्द का अर्थ पंच महा यज्ञ है, जो एक रचनात्मक, स्वस्थ और बुद्धिमान जीवन जीने का तरीका है। इसलिए केवल यज्ञ ही सृष्टि को बनाए रख सकता है और इसलिए यज्ञ बहुत महत्वपूर्ण है। वेद महत्वपूर्ण है क्योंकि वेद से ही हम जीवन जीने का यज्ञ तरीका सीखते हैं।  यज्ञ: जीवन जीने का तरीका, सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने का तरीका, हम वेदों से सीखते हैं, और इसलिए, वेद ज्ञान को समझने के लिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं। और इसलिए वेद अकेले ही यज्ञ को बढ़ावा देता है; यज्ञ अकेले ही सृष्टि को बनाए रख सकता है। इसलिए यज्ञ महत्वपूर्ण है; और वेद महत्वपूर्ण है। फिर हम क्यों कहते हैं कि ब्राह्मण महत्वपूर्ण है। यहाँ ब्राह्मण: शब्द का अर्थ है कोई भी मनुष्य, चाहे वह किसी भी जाति का हो; हम यहाँ ब्राह्मण जाति की बात नहीं कर रहे हैं, कोई भी मनुष्य जो वैदिक शिक्षा को संरक्षित और बढ़ावा देता है।  कोई भी मनुष्य, चाहे वह जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र हो, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, कोई भी पेशा हो, कोई भी मनुष्य जो वैदिक शिक्षा का संरक्षण और संवर्धन करता है। वह संरक्षण और संवर्धन कैसे करता है? अपनी शिक्षा से और अपने जीवन से। उपदेश और आचरण से जो कोई वेद का संरक्षण करता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं। ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति ब्रह्मा शब्द से हुई है और ब्रह्मा का अर्थ है वेद। ब्रह्मा, वेदं, जानाति इति ब्राह्मण। जो सीखता है, जो जीता है और जो वैदिक ज्ञान को बाँटता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं।  इस प्रकार ब्राह्मण वेदों को बनाए रखता है; वेद यज्ञ जीवन पद्धति को बनाए रखता है, और यज्ञ सृष्टि को बनाए रखता है; इसलिए अंततः सृष्टि के पालन के लिए तीन कारकों की आवश्यकता होती है।

आज के युग में ब्राह्मण शब्द का अर्थ जन्म से ब्राह्मण रह गया है, कुछ अपवाद को छोड़ दे तो अधिकतर जन्म से ब्राह्मण या तो वैश्य हो कर व्यापार करते है जिस में उन का पूजा पाठ भी शामिल है या शुद्र हो कर सेवा कर रहे है। जब समाज को दिशा निर्देश देने वाला स्वयं भटक गया हो, तो उस समाज का पतन भी निश्चित होता है। परन्तु सनातन संस्कृति के लिए कर्म और ज्ञान से ब्राह्मण का दायित्व कुछ लोगो द्वारा अभी भी निभाया जा रहा है जिस से सनातन संस्कृति अभी तक चल रही है।

ज्ञान में अज्ञानता और भावना का ज्यादा समावेश होने से सहानुभूति और दया धर्म के दो चार संदेश देने भर को कर्तव्य धर्म की पूर्ति बना दिया गया है। परन्तु अपवाद हर जगह है।

व्यवहार में मनुष्य जीवन क्या है? हम जन्म और मृत्यु को प्राप्त होते है और इस जगत के व्यवहार को देखते और समझते है, हमे यही सत्य भी लगता है क्योंकि दुख या सुख का अनुभव इस देह से ही मिलता है। किंतु मृत्यु हमे इस सत्य का निरंतर आभास भी कराती है कि यह जीवन या देह सत्य नही है। हम उस अज्ञात ब्रह्म को पुकारना चाहते है जिसे हम नही जानते। उस के अस्तित्व की पहचान हम ॐ अर्थात परमात्मा कह कर करते है। उस से निमित प्रकृति क्रियाशील है, यह कर्म की गति कार्य – कारण के सिद्धांत पर कार्य करती है जिस के फल स्वरूप प्रत्येक कार्य का फल अवश्य होता है। राग और द्वेष से फल बंधनकारी होता है अन्यथा फल निष्काम होने से बिना बंधन का। अतः निष्काम कर्म को तत् और सकाम कर्म को सत कहा गया है। सत अर्थात जो प्रत्यक्ष तो है किंतु नित्य नही। मनुष्य की समस्त क्रियाएं इसी ॐ तत् सत् में सीमित होती है। इसलिए प्रत्येक कार्य और यज्ञ, जप, पाठ की समाप्ति में इस को कह कर समापन किया जाता है, जो अपना कुछ भी नहीं, समस्त करने वाला एक मात्र वही है और जो कुछ भी है, उसी को अर्पण है। इस को समझने के लिए जीव का ब्रह्मविद होना भी आवश्यक है।

इसे हम गीता में श्लोक के अर्थों के साथ भी पढ़ कर समझेंगे।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता विशेष 17.23।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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