।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 17.22 II Additional II
।। अध्याय 17.22 II विशेष II
।। दान, कर्म के त्रय गुण और दैवीय और आसुरी सम्पदा में राम सुख दास जी।। विशेष गीता 17.22 ।।
अन्न, जल, वस्त्र और औषध इन चारों के दान में पात्र कुपात्र आदि का विशेष विचार नहीं करना चाहिये। इन में केवल दूसरे की आवश्यकता को ही देखना चाहिये। इसमें भी देश, काल, और पात्र मिल जाय, तो उत्तम बात और न मिले, तो कोई बात नहीं। हमें तो जो भूखा है, उसे अन्न देना है जो प्यासा है, उसे जल देना है जो वस्त्रहीन है, उसे वस्त्र देना है और जो रोगी है, उसे औषध देनी है। इसी प्रकार कोई किसी को अनुचितरूप से भयभीत कर रहा है, दुःख दे रहा है, तो उससे उसको छुड़ाना और उसे अभयदान देना हमारा कर्तव्य है। कुपात्र को अन्नजल इतना नहीं देना चाहिये कि जिस से वह पुनः हिंसा आदि पापों में प्रवृत्त हो जाय जैसे कोई हिंसक मनुष्य अन्नजल के बिना मर रहा है, तो उस को उतना ही अन्नजल दे कि जिस से उसके प्राण रह जायँ, वह जी जाय। इस प्रकार उपर्युक्त चारों के दानमें पात्रता नहीं देखनी है, प्रत्युत आवश्यकता देखनी है।
ग्यारहवें से बाईसवें श्लोक तक के इस प्रकरण में जो सात्त्विक यज्ञ, तप और दान आये हैं, वे सब के सब,दैवी सम्पत्ति हैं और जो राजस तथा तामस यज्ञ, तप और दान आये हैं, वे सब के सब आसुरी सम्पत्ति हैं।
आसुरी सम्पत्ति में आये हुए राजस यज्ञ, तप और दान के फल के दो विभाग हैं – दृष्ट और अदृष्ट। इन में भी दृष्ट के दो फल हैं – तात्कालिक और कालान्तरिक। जैसे – राजस भोजन के बाद तृप्ति का होना तात्कालिक फल है और रोग आदि का होना कालान्तरिक फल है। ऐसे ही अदृष्ट के भी दो फल हैं – लौकिक और पारलौकिक। जैसे – दम्भपूर्वक दम्भार्थमपि चैव यत् (17। 12), सत्कार मान पूजा के लिये सत्कारमानपूजार्थम् (17। 18) और प्रत्युपकार के लिये प्रत्युपकारार्थम् (17। 21) किये गये राजस यज्ञ, तप और दान का फल लौकिक है और वह इसी लोक मे, इसी जन्म में, इसी शरीर के रहते रहते ही मिलने की सम्भावना वाला होता है।
स्वर्ग को ही परम प्राप्य वस्तु मान कर उस की प्राप्तिके लिये किये गये यज्ञ आदि का फल पारलौकिक होता है। परन्तु राजस यज्ञ अभिसन्धाय तु फलम् (17। 12) और दान फलमुद्दिश्य वा पुनः (17। 21) का फल लौकिक तथा पारलौकिक – दोनों ही हो सकता है। इस में भी स्वर्ग प्राप्ति के लिये यज्ञ आदि करने वाले और केवल दम्भ, सत्कार, मान, पूजा, प्रत्युपकार आदि के लिये यज्ञ? तप और दान करने वाले दोनों प्रकार के राजस पुरुष जन्ममरण को प्राप्त होते हैं। परन्तु तामस यज्ञ और तप करनेवाले (17। 13, 19) तामस पुरुष तो अधोगति में जाते हैं, अधो गच्छन्ति तामसाः (14। 18), पतन्ति नरकेऽशुचौ (16। 16), आसुरीष्वेव योनिषु (16। 19) ततो यान्त्यधमां गतिम् (16। 20)।
जो मनुष्य यज्ञ कर के स्वर्ग में जाते हैं, उन को स्वर्ग में भी दुःख, जलन, ईर्ष्या आदि होते हैं । जैसे – शतक्रतु इन्द्र को भी असुरों के अत्याचारों से दुःख होता है, कोई तपस्या करे तो उस के हृदय में जलन होती है, वह भयभीत होता है। इसे पूर्वजन्म के पापों का फल भी नहीं कह सकते क्योंकि उनके स्वर्गप्राप्ति के प्रतिबन्धकरूप पाप नष्ट हो जाते हैं – पूतपापाः (9। 20) और वे यज्ञ के पुण्यों से स्वर्गलोक को जाते है। फिर उन को दुःख, जलन, भय आदि का होना किन पापों का फल है इस का उत्तर यह है कि यह सब यज्ञ में की हुई पशु हिंसा के पाप का ही फल है।
दूसरी बात, यज्ञ आदि सकामकर्म करने से अनेक तरह के दोष आते हैं। गीता में आया है — सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः (18। 48) अर्थात् धुएँ से अग्नि की तरह सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं। जब सभी कर्मों के आरम्भ मात्र में भी दोष रहता है, तब सकाम कर्मों में तो (सकामभाव होने से) दोषों की सम्भावना ज्यादा ही होती है और उन में अनेक तरह के दोष बनते ही हैं। इसलिये शास्त्रों में यज्ञ करने के बाद प्रायश्चित्त करने का विधान है। प्रायश्चित्त विधान से यह सिद्ध होता है कि यज्ञ में दोष (पाप) अवश्य होते हैं। अगर दोष न होते, तो प्रायश्चित्त किस बात का परन्तु वास्तव में प्रायश्चित्त करने पर भी सब दोष दूर नहीं होते, उन का कुछ अंश रह जाता है जैसे – मैल लगे वस्त्र को साबुन से धोने पर भी उस के तन्तुओं के भीतर थोड़ी मैल रह जाती है। इसी कारण इन्द्रादिक देवताओं को भी प्रतिकूल परिस्थितिजन्य दुःख भोगना पड़ता है।
वास्तव में दोषों की पूर्ण निवृत्ति तो निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य कर्म कर के उन कर्मों को भगवान् के अर्पण कर देने से ही होती है। इसलिये निष्कामभावसहित किये गये कर्म ही श्रेष्ठ हैं। सब से बड़ी शुद्धि (दोषनिवृत्ति) होती है – मैं तो केवल भगवान् का ही हूँ, इस प्रकार अहंतापरिवर्तनपूर्वक भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य बनाने से, इस से जितनी शुद्धि होती है, उतनी कर्मों से नहीं होती । भगवान ने कहा है –
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।। (मानस 5। 44। 1)
तीसरी बात गीता में अर्जुन ने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप का आचरण क्यों करता है तो उत्तर में भगवान ने कहा — काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः (3। 37)। तात्पर्य है कि रजोगुण से उत्पन्न कामना ही पाप कराती है। इसलिये कामना को लेकर किये जानेवाले राजस यज्ञ की क्रियाओं में पाप हो सकते हैं।
राजस तथा तामस यज्ञ आदि करनेवाले आसुरी सम्पत्ति वाले हैं और सात्त्विक यज्ञ आदि करने वाले दैवीसम्पत्तिवाले हैं परन्तु दैवीसम्पत्ति के गुणों में भी यदि राग हो जाता है, तो रजोगुण का धर्म होने से वह राग भी बन्धनकारक हो जाता है (गीता 14। 6)।
।। हरि ॐ तत् सत् ।। विशेष गीता – 17.22।।
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