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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  17.19 II

।। अध्याय      17.19 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 17.19

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥

“mūḍha- grāheṇātmano yat,

pīḍayā kriyate tapaḥ..।

parasyotsādanārthaḿ vā,

tat tāmasam udāhṛtam”..।।

भावार्थ: 

जो तप मूर्खतावश अपने सुख के लिये दूसरों को कष्ट पहुँचाने की इच्छा से अथवा दूसरों के विनाश की कामना से प्रयत्न-पूर्वक किया जाता है, उसे तामसी (तमोगुणी) तप कहा जाता है। (१९)

Meaning:

That which is performed out of a foolish notion, causing pain to oneself, or for ruining others, that penance is called taamasic.

Explanation:

The story of a any captured terrorist is all too familiar. At some point in their life, they start holding on to an idea or a notion which ends up becoming their mission in life. They then spend a long time, sometime years, learning all kinds of tactics and techniques that are usually reserved for the military. Eventually, they carry out their mission, in which a great deal of harm is caused to others, and to themselves as well. Either they get captured or they harm themselves in the process.

Shri Krishna describes taamasic penance in this shloka. He says that penance based on a foolish notion, a misconception or an infatuation comes out of the minds of taamasic individuals. The end goal of such penance is to cause great harm to others or to oneself. We can always refer to the Puraanas for the fate of individuals who conduct severe penance just to bring about the downfall of someone else. So called “black magic” is also conducted for harming someone.

Mūḍha grāheṇāt refers to people with confused notions or ideas, who in the name of austerity, heedlessly torture themselves or even injure others without any respect for the teachings of the scriptures or the limits of the body. Such austerities accomplish nothing positive. They are performed in bodily consciousness and only serve to propagate the grossness of the personality. Tapas which is practiced with false notion; false resolve, unhealthy resolve, inferior resolve for revenge, etc. you will find in puranas, many people practice tapas to get power for the sake of revenge. In fact, the whole Mahābhāratha is a series of tit for tat.

We may look at this and dismiss it, since it sounds so extreme and not applicable to our daily lives. But many of us sometimes perform actions with a malicious intent. Politics sometimes becomes a venue for one party to perform actions simply for bringing the other party down, and not for the welfare of the country. Similarly, many people run businesses based on a personal vendetta. For instance, a person fired from a business may join a competitor just to get back. Any action performed for bringing someone else down usually backfires.

।। हिंदी समीक्षा ।।

इस श्लोक का अर्थ स्वत स्पष्ट है। एक तपस्वी साधक को तप के वास्तविक स्वरूप, उसके प्रयोजन तथा विधि का सम्यक् ज्ञान होना चाहिए। इस ज्ञान के अभाव में साधक अपने व्यक्तित्व के सुगठन तथा आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता।

वेदोपदिष्ट तप का विपरीत अर्थ समझने पर मनुष्य उस के द्वारा केवल स्वयं को ही पीड़ित कर सकता है। ऐसे आत्मपीड़न से शुद्ध आत्मा का सौन्दर्य अभिव्यक्त नहीं हो सकता वह तो हमारे पूर्णस्वरूप का केवल उपाहासास्पद व्यंगचित्र ही चित्रित कर सकता है। मूढ़ तामस तप का फल कुरूप व्यक्तित्व, विकृत भावनाएं और हीन आदर्श ही हो सकता है।

तामस तप में मूढ़तापूर्वक आग्रह होने से अपने आप को पीड़ा देकर तप किया जाता है। तामस मनुष्यों में मूढ़ता की प्रधानता रहती है अतः जिस में शरीर को, मन को कष्ट हो, उसी को वे तप मानते हैं। वे दूसरोंको दुःख देनेके लिये तप करते हैं। उनका भाव रहता है कि शक्ति प्राप्त करने के लिये तप (संयम आदि) करने में मुझे भले ही कष्ट सहना पड़े, पर दूसरों को नष्टभ्रष्ट तो करना ही है। तामस मनुष्य दूसरों को दुःख देनेके लिये उन तीन (कायिक, वाचिक और मानसिक) तपोंके आंशिक भागके सिवाय मनमाने ढंगसे उपवास करना, शीतघाम को सहना आदि तप भी कर सकता है।

मूढग्राहेणात्मनो शब्द ऐसे व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जो भ्रमित मत अथवा विचारों वाले होते हैं जो तप के नाम पर बिना सोचे समझें स्वयं को यातना देते हैं और दूसरों को भी आहत करते हैं। इनके हृदय में धर्मग्रन्थों में दिए गये उपदेशों के प्रति कोई आदर नहीं होता और न ही ये शरीर की सीमाओं के विषय में जानते हैं। इस प्रकार के तपों से कुछ भी सकारात्मक सिद्धि प्राप्त नहीं होती क्योंकि इन्हें शारीरिक चेतना के साथ सम्पन्न किया जाता है तथा इनका उद्देश्य केवल व्यक्तित्व की सम्पूर्णता का प्रचार करना होता है।

देह को अनावश्यक पीड़ा दे कर, ठंडे में, अलाव जला कर, भूखे या उल्टा लटक कर, झूलते हुए या धुवें में तप करना और इस कठिन तप का उद्देश्य किसी लोभ, स्वार्थ की पूर्ति, किसी अन्य की हानि या दंभ हो तो यह तामसी वृति का तप कहलाता है। तप का अर्थ सात्विक, स्वच्छ, मनोहर और आनंद हेतु संयम की प्रक्रिया है।

तप जो गलत धारणा के साथ किया जाता है; मिथ्या संकल्प, अस्वस्थ संकल्प, बदला लेने के लिए घटिया संकल्प, आदि। आप पुराणों में पाएंगे कि बहुत से लोग बदला लेने के लिए शक्ति प्राप्त करने के लिए तप करते हैं। वास्तव में, संपूर्ण महाभारत प्रतिशोध की एक श्रृंखला है। अंबा में पहला तप भीष्म को मारने के लिए किया। द्रुपद ने पांडव और द्रोण के नाश के लिए तप द्वारा पुत्र धृष्टद्युम्न और पुत्री के रूप में द्रोपती को प्राप्त किया था।

पुराणों में वर्णित असुरों द्वारा घोर तप प्रायः तामस तप ही थे जिस में अपनी प्रभुता के वरदान प्राप्त कर के यह लोग जन को कष्ट भी देते है और भगवान के हाथों मृत्यु के भागी भी बनते थे। इस से यह भी समझना चाहिए, तपस्या स्वयंमेव कोई सात्विक या आध्यात्मिक क्रिया नही है, यह एक वैज्ञानिक पद्धति है, जिस से मनुष्य अपनी शारीरिक, बौद्धिक और भौतिक उन्नति कर सकता है, सात्विक इस में मानसी, कायिक और वाचिक श्रद्धा, प्रेम और विश्वास का भाव है।

निर्विवाद रूप से ऐसे तप में शरीर को कष्ट देना आदि शामिल होगा, जिसकी शास्त्र कभी अनुशंसा नहीं करता, क्योंकि शरीर भगवान की ओर से एक पवित्र उपहार है, हमें शरीर को लाड़-प्यार नहीं करना चाहिए, लेकिन हम शरीर को चोट नहीं पहुँचा सकते; लेकिन ये लोग अत्यधिक यातनाएँ देते हैं। मकसद भी नकारात्मक है, यह अन्य लोगों के विनाश के लिए है; व्यापार में प्रतियोगी का विनाश; दुश्मन का विनाश; काला जादू आदि की तरह, ये सभी तामसिक तप के अंतर्गत आते हैं; परस्य का अर्थ है एक शत्रु; जिसे मैं एक दुश्मन के रूप में देखता हूँ, उत्सादनम्, का अर्थ है विनाश; जो भी तप किया जाता है, हमारे पुराणों में, सभी राक्षसों ने तप किया, और भगवान आए, और भगवान ने पूछा, आपकी क्या आवश्यकता है? सबसे पहले वे गैर-मृत्यु अर्थात अमृत्त्व के लिए कहेंगे।  भगवान कहेंगे नहीं और कुछ शक्तियाँ प्रदान करेंगे और सबसे पहला काम जो वे करेंगे वह है स्वर्ग लोक जाना, इंद्र को गिरफ्तार करना और सभी अप्सराओं और देवताओं की स्त्रियों का अपहरण करना। यह अगला कदम है। यह तामसिक तप है। इस प्रकार उस श्लोक के साथ, गुण के आधार पर तीन प्रकार के तप भी समाप्त हो गए हैं।

महात्मा बुद्ध जब ज्ञान की तलाश में भटक रहे थे तो उन्होंने शारीरिक कष्ट सहने की क्षमता को एक बार तप मान कर शुरू कर दिया था। उसी समय उन्होंने एक लोकगीत सुना जिस का अर्थ था कि वीणा के तार इतने नही कसने चाहिए कि वीणा के तार ही टूट जाये और वीणा बजाने लायक ही न रहे। उन्होंने इस के अर्थ को समझ कर शरीर को कष्ट देने वाले अपने तप को त्याग कर वास्तविक तप को प्रारम्भ किया। ईश्वर से हमे मनुष्य जीवन वरदान स्वरूप निष्काम हो कर लोकसंग्रह हेतु कर्म करने को प्राप्त हुआ है, ईश्वर का स्पष्ट कथन है कि इसको अनर्थ कष्ट देने से कुछ नही होगा एवम न ही किसी के प्रति दुर्भावना रख कर शरीर को तपाने से कुछ होगा। ऐसा व्यक्ति अपना ही नाश पहले करता है।

व्यवहारिक जीवन मे जब हम अपनी शारीरिक एवम मानसिक क्षमता को नदरांदाज कर के उपवास रखते है और शरीर को सुखाते है। हम शास्त्रों का अध्ययन भी नही करते और कही-सुनी बातों के आधार पर मात्र कष्ट सहने को ही तप मानते है, मन मे किसी के प्रति वैर की भावना रखते है तो इन मे कोई भी एक गुण होने से हमारा तप तामसी ही है।

तुलसीदास जी ने रावण के तप के बारे में लिखा है ” किन्ह विविध तप तीनिहू भाई। परम उग्र नहि बरनि सो जाई ।। करि बिनती पद गहि दससीसा बोलेउ वचन सुनहु जगदीसा ।। हम काहू के मरहिं मारे। बानर मनुज जाति दुई बारें ।।

तामसी तप होने से मांगा गया यह वरदान अहंकार और दंभ का प्रतीक हुआ, इस के गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है कि अल्पबुद्धि को नाशवान फल की ही प्राप्ति होती है, अतः जो मनुष्य सात्विक तप नहीं करते हुए, तामसी तप करते है, वे अपना नाश ही करते है।

तप, यज्ञ, जाप और ध्यान साधना एक विज्ञान है, जिसे से आप शक्ति को प्राप्त कर सकते है किंतु तप तभी मोक्ष के मार्ग की ओर ले जाता है, जब वह सात्विक श्रद्धा और विश्वास के साथ किया गया हो। आज भी कोई रुद्राक्ष की माला और गैरूवे वस्त्र पहन कर कितनी भी शास्त्र की बाते कर ले, यदि श्रद्धा और विश्वास में कामना और आसक्ति है वह राजसी या तामसी ही तप होगा। वस्त्र भूषण, आश्रम, यज्ञ याग, मंत्र जाप, मंदिर या तीर्थ दर्शन मुक्ति की ओर तभी ले जायेंगे, जब ये सात्विक श्रद्धा और विश्वास से युक्त होंगे।

श्रद्धा युक्त कर्म की श्रेणी में आगे दान के प्राकृतिक स्वरूप को पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 17.19।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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