।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 17.15 II
।। अध्याय 17.15 II
श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 17.15॥
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥
“anudvega- karaḿ vākyaḿ,
satyaḿ priya- hitaḿ ca yat..।
svādhyāyābhyasanaḿ caiva,
vāń- mayaḿ tapa ucyate”..।।
भावार्थ:
किसी को भी कष्ट न पहुँचाने वाले शब्द वोलना, सत्य वोलना, प्रिय लगने वाले हितकारी शब्द वोलना और वेद-शास्त्रों का उच्चारण द्वारा अध्यन करना, वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। (१५)
Meaning:
Those words that do not perturb others, that are true, pleasant and beneficial, and also the practice of recitation of scriptures, that is called the penance of speech.
Explanation:
Having described the penance of the body, Shri Krishna now describes penance of speech or vaangmaya tapa. He mentions four conditions of speech: that it should be true, it should be pleasant to hear, it should benefit the other person, and it should not cause any disturbance in the other person’s mind. Whenever we speak statements that fulfill all these four conditions, we are practicing penance of the mind. Putting it differently, we are not wasting or dissipating the energy of our speech when we speak like this.
Austerity of speech is speaking words that are truthful, unoffending, pleasing, and beneficial for the listener. The practice of the recitation of Vedic mantras is also included in the austerities of speech. The progenitor, Manu, wrote:
satyaṁ brūyāt priyaṁ brūyān na brūyāt satyam apriyam
priyaṁ cha nānṛitaṁ brūyād eṣha dharmaḥ sanātanaḥ
(Manu Smṛiti 4.138)[v4]
“Speak the truth in such a way that it is pleasing to others. Do not speak the truth in a manner injurious to others. Never speak untruth, though it may be pleasant. This is the eternal path of morality and dharma.”
Generally, when we talk of superiority of human beings, we enumerate or mention only the intelligence or buddhi as the main faculty, which differentiates, distinguishes the human being from all others, say animals do not have great intelligence. Therefore when we talk about the intelligence faculty only, but we should remember, as important is the intelligence faculty is the importance of the organ of speech, which makes the human vastly different from all animals, and especially the speaking organ, the animals can produce maximum certain sounds, but human species can have highly developed language; highly developed grammar and to understand the superiority of vāk indriyam.
where human has been provided organ to speak, we must understand the qualities of powerful speech. First most requirment is to speak with words which are spoken properly and intelligently because the words can give even immortality and peace of mind. The second lesson I have to think and assimilate is that I have to be a responsible speaker, which means I have no right to allow loose words to go out. The words which are spoken without assimilation may harm the others. The third lesson I have to understand and assimilative is if I have to produce quality words, if I have to produce quality words out of my mouth; the quantity must be limited. Without quantity control, quality control is impossible. I will talk to only those people, who are interested in listening to me.
Whenever you are in conversation, you study the body language of the person, we can see his rejection, restlessness, etc. he will look this side, that side, see the watch, and will be thinking that if only this man leaves me alone, etc. And fourth lesson is what are the parameters to check the quality of the words, I check the quality, norms in industry they talk about TQM, Total Quality Management.
Initially, we may think that satisfying even two or three of these conditions is impractical. However, speaking tactfully is a skill needed in our daily lives. For instance, what is true may not always be the most pleasant thing to convey. In the office, we have to deliver all kinds of messages to people without them losing face. Even in the home, while talking to spouse, just conveying information factually does not always work best. Therefore, putting thought into choosing our words carefully has practical as well as spiritual benefits.
Now, many of us have an urge to say something when we are by ourselves. Here, Shri Krishna suggests that we recite scriptures daily, like chanting the second chapter of the Gita, for instance. Doing so satisfies our urge of speaking, and also forces the mind to contemplate the Gita teaching rather than stray here and there. In fact, it becomes a form of meditation as well. Once we memorize the shlokas, we can contemplate upon them whenever we want, without having to rely on a book.
।। हिंदी समीक्षा ।।
मनुष्य के पास स्वयं को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है वाणी। इस वाणी के द्वारा वक्ता की बौद्धिक पात्रता, मानसिक शिष्टता एवं शारीरिक संयम प्रकट होते हैं। यदि वक्ता अपने व्यक्तित्व के इन सभी स्तरों पर सुगठित न हो, तो उसकी वाणी में कोई शक्ति, कोई चमत्कृति नहीं होती। वाणी एक कर्मेन्द्रिय है, जिसके सतत क्रियाशील रहने से मनुष्य की शक्ति का सर्वाधिक व्यय होता है। अत वाणी के संयम के द्वारा बहुत बड़ी मात्रा में शक्ति का संचय किया जा सकता है, जिसका सदुपयोग हम अपनी साधना में कर सकते हैं। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि हम आत्मनाशक और परोत्तेजक मौन को धारण करें। वाक्शक्ति का उपयोग व्यक्तित्व के सुगठन के लिए करना चाहिए। इस शक्ति का सदुपयोग करने की एक कला है जो वक्ता के तथा अन्य लोगों के लिए भी हितकारी है। वाणी की इस हितकारी कला का वर्णन इस श्लोक में किया गया है। पूर्व श्लोक में इंगित किये गये विचार को यहाँ और अधिक स्पष्ट किया गया है कि तप कोई आत्मपीड़ा का साधन न होकर आत्मविकास एवं आत्मसाक्षात्कार की कल्याणकारी योजना है।
कहा जाता है शिकागो में धर्मसभा में संबोधित करते हुए स्वामी विवेकानंद जी जिस भाइयों और बहनों शब्द का प्रयोग किया था, उसे उसी सम्मेलन में उन के पूर्व भी चार लोगों ने किया था। किंतु वाणी का जो ओज, आत्मीयता और संयम विवेकानंद की वाणी में था वह किसी और में न था।
आम तौर पर जब हम मनुष्य की श्रेष्ठता की बात करते हैं, तो हम केवल बुद्धि को ही मुख्य क्षमता के रूप में गिनाते हैं, जो मनुष्य को अन्य सभी से अलग करती है, कहते हैं कि जानवरों में बहुत अधिक बुद्धि नहीं होती। इसलिए जब हम केवल बुद्धि की बात करते हैं, तो हमें याद रखना चाहिए कि बुद्धि जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही महत्वपूर्ण वाणी की भी है, जो मनुष्य को सभी जानवरों से बहुत अलग बनाती है, और विशेष रूप से बोलने की शक्ति, जानवर अधिकतम कुछ ध्वनियाँ ही निकाल सकते हैं, लेकिन मानव प्रजाति में अत्यधिक विकसित भाषा, अत्यधिक विकसित व्याकरण और वाक इन्द्रिय की श्रेष्ठता को समझना संभव है।
जहाँ मनुष्य को बोलने के लिए अंग प्रदान किया गया है, वहीं हमें शक्तिशाली वाणी के गुणों को समझना चाहिए। सबसे पहली आवश्यकता है उचित और बुद्धिमानी से बोले गए शब्दों से बोलना क्योंकि शब्द अमरता और मन की शांति भी दे सकते हैं। दूसरा सबक जो मुझे सोचना और आत्मसात करना है वह यह है कि मुझे एक जिम्मेदार वक्ता बनना है, जिसका अर्थ है कि मुझे ढीले शब्दों को बाहर जाने की अनुमति नहीं है। जो शब्द बिना आत्मसात किए बोले जाते हैं वे दूसरों को नुकसान पहुँचा सकते हैं। तीसरा सबक जो मुझे समझना और आत्मसात करना है वह यह है कि अगर मुझे गुणवत्तापूर्ण शब्द बनाने हैं, अगर मुझे अपने मुँह से गुणवत्तापूर्ण शब्द निकालने हैं; तो मात्रा सीमित होनी चाहिए। मात्रा नियंत्रण के बिना, गुणवत्ता नियंत्रण असंभव है। मैं केवल उन्हीं लोगों से बात करूँगा, जो मेरी बात सुनने में रुचि रखते हैं। जब भी आप बातचीत कर रहे होते हैं, आप व्यक्ति की बॉडी लैंग्वेज का अध्ययन करते हैं, हम उसकी अस्वीकृति, बेचैनी आदि देख सकते हैं, वह इस तरफ देखेगा, उस तरफ देखेगा, घड़ी देखेगा, और सोच रहा होगा कि काश यह आदमी मुझे अकेला छोड़ दे, आदि। और चौथा सबक यह है कि शब्दों की गुणवत्ता की जांच करने के पैरामीटर क्या हैं, मैं गुणवत्ता की जांच करता हूं, उद्योग में मानदंड वे टीक्यूएम, कुल गुणवत्ता प्रबंधन के बारे में बात करते हैं।
भगवान श्री कृष्ण ने भी वाचिक तप में वाणी के चार भाग किये है। अनुद्वेगकरं वाक्यम्, जो वाक्य वर्तमान में और भविष्य में कभी किसी में भी उद्वेग, विक्षेप और हलचल पैदा करनेवाला न हो, वह वाक्य अनुद्वेगकर कहा जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी धारणा, समझने की शक्ति, सुनाने वाले व्यक्ति के प्रति श्रद्धा और विश्वास और परस्थितियों के अनुसार मानसिक और शारीरिक दशा होती है, जिस में वह किसी भी विचार, प्रवचन या बात को सुन कर अपना ही विचार या धारणा बना लेता है। अनुद्वेगकरं का आशय सत्य और प्रिय वचनों के द्वारा इन सब से परे यथार्थ स्वरूप में रखना। मानसिक स्थिति जब शांत हो और किसी की बात को शब्दो के आधार की बजाए, भावना, आशय और कहने वाले की परिस्थिति और ज्ञान के आधार पर संपूर्ण समझना और उसे वैसा ही प्रकट करना अनुद्वेगपूर्ण हो कर कहना है। अक्सर लोग किसी की पूरी बात नही सुनते और बीच के कुछ शब्दो को पकड़ कर अपनी बात रखते है, तो द्वेगपूर्ण वचन कहलाता है।
सत्यं प्रियहितं च यत्, जैसा पढ़ा, सुना, देखा और निश्चय किया गया हो, उसको वैसा का वैसा ही अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके दूसरों को समझाने के लिये कह देना सत्य है।
सत्यम का अर्थ है सच्चाई, सत्यता को वाणी और विचार या मन के बीच सामंजस्य के रूप में परिभाषित किया जाता है। वाणी और मन का सामंजस्य; विचार और शब्द का सामंजस्य सत्यम कहलाता है, विभाजित व्यक्तित्व से बचना।
वाणी का तप का तात्पर्य उच्चारित किए जाने वाले वे शब्द हैं जो श्रोता के लिए सच्चे, अहानिकर, आनन्ददायक तथा हितकारी होते हैं। वैदिक मंत्रों के अनुवाचन का अभ्यास करना भी वाणी के तप में सम्मिलित है। प्रजापति मनु ने लिखा है, सत्यम् ब्रूयात प्रियं ब्रूयान सत्यम् अप्रियं । प्रियं च नानृतं ब्रूयात एष धर्मः सनातन।। (मनुस्मृति-4.138)
“सत्य को इस प्रकार से कहना चाहिए जिससे दूसरों को प्रसन्नता हो। सत्य को इस प्रकार नहीं बोलना चाहिए जिससे किसी अन्य का अहित हो। कभी भी असत्य नहीं बोलना चाहिए यद्यपि यह आनन्ददायक ही क्यों न हो। यह नैतिकता और धर्म का शाश्वत मार्ग है।”
जो क्रूरता, रूखेपन, तीखेपन, ताने, निन्दाचुगली और अपमानकारक शब्दों से रहित हो और जो प्रेमयुक्त, मीठे, सरल और शान्त वचनों से कहा जाय? वह वाक्य प्रिय कहलाता है।जो हिंसा, डाह, द्वेष, वैर आदि से सर्वथा रहित हो और प्रेम, दया, क्षमा, उदारता, मङ्गल आदि से भरा हो तथा जो वर्तमान में और भविष्य में भी अपना और दूसरे किसी का अनिष्ट करनेवाला न हो, वह वाक्य हित (हितकर) कहलाता है।
अपवाद में विदुर ने महाभारत में ही दुर्योधन को कहा कि अप्रिय और पचा न सकने वाला सत्य बोलने वाला वक्ता और श्रोता दोनों ही दुर्लभ है। अर्थात प्रिय और हित मे यदि अति आ जाये और उसे उस की गलती का अहसास भी न दिला सके तो वो सत्य भी सत्य नही।
सत्य शब्द भी निष्ठुर की भांति बोलना गलत ही है। समय, स्थान परिस्थितियां ही तय करती है कि सत्य वक्तव्य धर्म और न्याय के किंतना उचित और अनुचित है। युद्ध जितने के लिये युधिष्ठर द्वारा भी झूठ बोलना, बताता है कि लक्ष्य के लिये व्यक्ति को किसी विशेष परिस्थितियों में बदलाव को स्वीकार करना चाहिये। कभी कभी किसी निर्दोष की रक्षा, देश हित मे शत्रुओं को देश के गुप्त कार्यो एवम अधिवक्ता या व्यापार में सत्य का निरूपण बदल जाता है क्योंकि यहाँ वह बात रखी जाती है जो सब के हित में हो। आज का हित भविष्य के लिये अहितकारी हो तो वह हित नही कह सकते। सत्य के कथन से यदि भूलवश भी किसी का अहित हो, तो उस का कर्म का फल भी भोगना पड़ता है, इसलिए सत्य का अर्थ यही समय और स्थान के अनुसार निष्काम भाव से अपनी वाणी को संयम में रखते हुए, विचारपूर्वक बोलना। युद्ध की आवश्यकता देखते हुए, युद्धिष्ठर ने भी “अश्वथामा मारा गया” का कथन द्रोणाचार्य को हराने के कहा था।
वाणी में ओज बिना स्वाध्याय के नही आता। जब तक स्वयं मनन, चिंतन एवम पठन कर के स्वाध्याय न किया जाए तो उस विषय मे कोई भी अधिकार के साथ अपनी बात नही रख सकता है। अतः स्वाध्याय वाणी के तप की अनिवार्य प्रक्रिया है। स्वाध्याय सत्य-असत्य के भेद को समंझने एवम अन्तःकरण के ज्ञान को विकसित करने के आवश्यक है। बिना स्वाध्याय के सत्य का निरूपण नही किया जा सकता। ज्ञानेश्वरी में कहा गया है, जब तक कोई पूछे नही या उस के आवश्यक न हो, व्यर्थ का प्रलाप करने से अच्छा है, वह समय अध्ययन और मनन से अपने ज्ञान को अधिक प्रभावशाली बनाना है। इसलिए अपने अंतकरण को अध्ययन द्वारा ज्ञान की वेधशाला बना लेना चाहिए, जिस से जब भी बोले, अस्पष्ट या संदेह के साथ न बोले।
सत्य को जानना, समझना और बोलना उसी मनुष्य द्वारा संभव है स्वयं में निष्काम हो, जिस ने चारों दिशा से सत्य का अवलोकन कर के उस पर मनन किया हो, जिस की वाणी शुद्ध एवम जिस का ज्ञान स्वाध्याय से परिपूर्ण हो। अन्यथा अर्धसत्य को ही बहुत बार सत्य मान कर असत्य को प्रस्थापित कर दिया जाता है।
अतः दूसरे को किसी बात का बोध कराने के लिये कहे हुए वाक्य में यदि सत्यता, प्रियता, हितकारिता और अनुद्विग्नता इन सब का अथवा इन में से किसी एक,दो या तीन का अभाव हो तो वह वाणी सम्बन्धी तप नहीं है और यदि वह स्वाध्याय द्वारा तपाया न हो तो भी परिपूर्ण भी नही है। स्वाध्याय अपने धर्मग्रंथों एवम अपने कर्म संबंधित विषयों का अध्ययन है, जो इस के विपरीत है, वो स्वाध्याय नही हो सकता।
व्यवहार में अक्सर लोग सुनी सुनाई बातो को आगे बिना जांचे प्रसारित कर देते है, इस से ज्ञान से ज्यादा अज्ञान का प्रचार भी होता है और व्यक्ति की विश्वनीयता भी कम होती है। जो लोग अध्ययन के बिना बहस भी करते है और अपनी बात रखने के वाणी को उच्च स्वर में बोलने लगते है, समाज में उन की गिनती झगड़ालू या असभ्य व्यक्ति में होती है।
आगे हम मानसी तप को पढ़ते है। जिस से कायिक, वाचिक और मानसी तप को सही समझ कर श्रद्धा के अनुसार प्रकृति के गुणों में तप के भी तीनो गुणों को समझ सके।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 17.15।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)